अहंकार केवल तमाम दुखकष्टों का ही नहीं, सुखों का भी उत्पत्ति स्थान है जो विचारों के रुप में रहते हैं।
अहंकार सभी विचारों का मूल है।
हम कौन हैं?हम कहते हैं-आत्मा।यह हमारा अनुमान ही है(किसीको अनुभव हुआ हो तो अलग बात है)।
हम अहंकार हैं यह सबका अनुभव है और इसके लिये कोई अनुमान नहीं लगाना पडता।हम सब अहंकार का जीवन जी ही रहे हैं।
अब यह जानना बहुत महत्व रखता है कि अहंकार के रुप में हम विचारों का आदिकारण हैं या विचार हमारा आदिकारण है?
ऐसे तो आत्मा ही ,सत्य ही आदिकारण है सबका पर पहले हम अहंकार को तो समझ लें।इसका पता लगालें कि अहंकार सभी विचारों का स्रोत है।
ऐसे अहंकार भी विचार ही है पर यह इस तरह कार्य करता है कर्ता के रुप में जिससे यह विचार मालूम नहीं पडता।तो जैसा मालूम पडता है वैसा ही जानें।
क्या अहंकार की,कर्ताभोक्ता भाव की अनुपस्थिति में विचार आ सकते हैं?
जब तक "मैं" नहीं तब तक कुछ नहीं हो सकता।"मैं" हूं तो सब है।और यहां समझना है "मैं"(अहंकार)सभी विचारों का स्रोत हूँ।जब तक "मैं" हूं,विचार आयेंगे ही।मेरे मिटने,न रहने पर फिर विचारों का कोई काम नहीं।
तो "मैं" कैसे मिटूं?
कोई जल्दी नहीं।इस तरह मिटना चाहने से कुछ नहीं होता।पहले मैं जानलूं कि मैं हूँ तो विचार हैं,मैं नहीं तो विचार नहीं।
विचार दो तरह से चलते हैं।एक वे जो हम करते हैं मैं के रुप में,दूसरे वे जो उठते रहते हैं।वे दिनभर आते रहते हैं।
हम मैं की तरह प्रतिक्रिया करते रहते हैं।रागद्वेष, पसंदनापसंद करते हैं।उनमें खो ही जाते हैं उन्हें सच मानकर।
वे सच नहीं हैं।वे सब संस्कारों में से आते हैं।जैसे संस्कार वैसे विचार।फिर हम जो प्रतिक्रिया करते हैं कर्ताभाव से वह भी उन्हीं संस्कारों के अनुरूप होती है।
हमें कुछ नहीं करना है।हमें सिर्फ जानना है कि हम इन विचारों का स्रोत हैं।
इससे बहुत फर्क पडता है।अगर विचार स्रोत हैं तो हम उनमें डूबेंगे,मूर्छित होंगे,रागद्वेष पूर्ण प्रतिक्रिया करेंगे ही करेंगे।
अब इसका उल्टा हुआ।अब हम उठते विचारों का स्रोत हैं।हम सजगता पूर्वक,होश में रहकर उन विचारों को जानते रह सकते हैं।हम अपने मूल से जुड सकते हैं जिसे आत्मा(सेल्फ)कहा जाता है।हम स्वस्थ हो सकते हैं।स्वस्थ व्यक्ति में विचार नहीं उठते,न वह विचार करता है।
जो विचार उठते हैं उन विचारों में डूबकर विचार करना बहुत दूर ले जाता है।
अधिकांश लोगों की यही दशा है।
जो स्वस्थ होते हैं,उठते विचारों के जनक की तरह होते हैं वे उठते विचारों में डूबते नहीं अतः स्पष्ट समझने की क्षमता होती है उनमें।
हर आदमी में हो सकती है वह अहंकार की तरह तो जीए मगर सभी विचारों के मूलस्रोत की तरह जीए।
इसे साक्षी भी कह सकते हैं किंतु उसकी प्रक्रिया कुछ भिन्न है।हम फिलहाल इस तथ्य पर कार्य कर रहे हैं कि अहंकार सभी विचारों का मूल है।
इसमें खास यही जानना है कि विचार,संस्कारों में से उठते रहते हैं,अहंकार की तरह हम उनमें खोयेंगे तो कर्ताभोक्ता बनकर भटकेंगे।तब हम उठते विचारों के अनुरूप विचारकर्ता या भोक्ता बनेंगे।
यह ध्यान रहा कि भले अहंकार की तरह पर हम सभी उठते विचारों का स्रोत हैं,हम हैं इसलिए वे हैं तो हम विचारों पर निर्भर न होंगे अपितु विचार हम पर निर्भर होंगे।अब हम अस्तित्व रुप या आत्मरुप होंगे।
सीधे तो नहीं क्योंकि आत्मा या सत्य सबका आदिकारण है, हम अहंकार की तरह आत्मनिर्भर, स्वनिर्भर हो जाएं तब भी बडी बात है।
सिर्फ यह ध्यान रहे कि मैं बाहर-भीतर सब जगह से आते विचारों का स्रोत हूँ-अभीयहां जहां हूँ।वर्ना विचारों द्वारा तबवहां ले जाये जाने और तबवहां ही रखे जाने की पूरी संभावना होती है।
संसार और सत्य के बीच अहंकार कडी है।
है यह विचार का ही रुप मगर मनरुप होने से बडा भ्रामक है।यह परम सहायक बन सकता है।बस हम अहंकार के रुप में रहना स्वीकार करें और यह ध्यान रखें कि "मैं" सभी विचारों का मूलस्रोत हूं।सारे विचार वापस लौटकर हममें समाने लगेंगे,हम उन विचारों का पीछा न करेंगे जैसी कि हमारी आदत है।
उनमें डूबना और यथार्थ से बहुत दूर निकल जाना।
यह भी कहा जा सकता है अहंकार,आत्मा का यंत्र है,जीव,ईश्वर के हाथ यंत्र समान है,ईश्वर यंत्री है ,चलानेवाला।'ईश्वर:सर्वभूतहृद्देशैर्जुन तिष्ठति।भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारुढानि माया।'
तो यंत्र बन जाएं।यह भक्ति है,समर्पण है।
या फिर अहंकार की तरह,मैं की तरह अपने भीतर से उठनेवाले हर एक विचार का आदिकारण बन जाएं।
आप उनमें डूबेंगे नहीं, डूबना संभव भी नहीं होगा।आप अकर्ता होंगे।स्वस्थता,स्थिरता घटेगी।डूबता तो कर्ताभाव से सोचनेवाला ही है।वह सदा अस्थिर,अस्वस्थ बना रहता है।
अहंकार को वैसे ही सर्वश्रेष्ठ होना पसंद है तो वह इस तरह सर्वश्रेष्ठ क्यों नहीं हो जाता कि मैं सभी विचारों का उद्गम हूँ, मूलस्रोत हूँ, मैं हूँ तो सब है,मैं नहीं तो कुछ नहीं?
"The ego is the source of thoughts."
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