बुधवार, 21 नवंबर 2018

मध्यप्रदेश विधान सभा चुनाव - २०१३ एवं तत्सम्बन्धी समसामयिक समीक्षा



चुनाव आयोग ने  ५ अक्टूबर २०१३  को   पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों  की  घोषणा कर दी है.तदनुसार  मध्यप्रदेश  विधान सभा की कुल -२३० सीटों के लिए  मतदान  बाबत  अधिसूचना भी जारी कर दी गई है। मध्यप्रदेश में मतदान  का केवल  एक ही चरण होगा याने एक ही तारीख -२५ नवम्बर  को मतदान  सम्पन्न हो जाएगा। चुनावों के अवसर पर विभिन्न दलों और नेताओं के बीच जो जुबानी जंग जारी है उसमें  नया कुछ नहीं है ,नीतियाँ -कार्यक्रम [policy and programme] सिरे से नदारद हैं। केवल चुनाव आयोग की ताकत का एहसास जरुर सभी पक्षों को हो रहा है। यह पहली बार अनुभूत हो रहा है कि टी एन शेषण   का भूत अभी भी चुनाव आचार  संहिता के रूप में अमर्यादित लोगों का पीछा कर रहा है। हो सकता है की चुनाव आयोग के काम -काज में भी कोई खामी हो ,किन्तु उसकी सदिच्छा याने बेहतरीन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनाव सम्पन्न कराने की मंसा  पर शायद ही किसी को शंका हो ! राजनैतिक दलों द्वारा एक  दूसरे  के खिलाफ आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन सम्बन्धी आरोप -प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं , मध्यप्रदेश के इंदौर एयरपोर्ट पर  ही  करोड़ों की नकदी और दीगर स्थानों पर  लाखों रुपयों की तत्संबंधी आपत्तिजनक  सामग्री पकड़ी ही गई है ,इसके अलावा कौन -कहाँ कितना खर्च कर  रहा है या संवैधानिक  सीमाओं का उलंघन कर रहा है ये सब चुनाव आयोग की लाग बुक में इन्द्राज हो  रहा है। ताकि वक्त पर काम आ सके।  इंदौर के   महू विधान सभा क्षेत्र  में चुनरी यात्रा जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान जब  मध्यप्रदेश के नामवर भाजपा  नेता  और उद्दोग मंत्री कैलाश  विजयवर्गीय ने ढोल बजाने वालों को 'नेग' के रूपये बाँटे  तो कांग्रेसियों ने खूब हल्ला मचाया।
                                  बाद में जब एक पत्रकार ने विजयवर्गीय जी से  पूंछा की दतिया के रतनगढ़  माता मंदिर हादसों में मरने वालों के लिए आपकी मध्यप्रदेश  सरकार क्या कर रही है?  तो उन्होंने चुनाव आचार संहिता  को जिम्मेदार बता दिया। उन्होंने  हादसे में मारे गए और घायल हुए श्रद्धालुओं की मदद में  सरकार और प्रशासन द्वारा  हुई देरी पर  चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता को उसकी खास  वजह बताया।   आक्रोश व्यक्त करते हुए उन्होंने  कहा-  "मैं ऐंसी  आचार संहिता को ठोकर मारता हूँ "  यह वाक्य चुनाव आयोग को भी नागवार  गुजरा और स्वयम कैलाश भाई को भी इस पर  बाद में आत्मग्लानी हुई।  शिकायत के उपरान्त  जब चुनाव आयोग का नोटिश मिला तो  कैलाश जी ने  एक चतुर राजनीतिग्य की तरह  बिना समय गँवाए बेहिचक क्षमा मांग ली. इस दौरान चुनाव आयोग की कसावट के और भी कई  मामले बहु - चर्चित हो रहे हैं।
                        चूँकि मध्यप्रदेश में भाजपा १० साल से काबिज है । एंटी इनकम्बेंसी फेक्टर होना स्वाभाविक है।  आर एस एस का आनुशंगी किसान संगठन  ही  शिवराज सरकार से बेहद खपा है। लगातार कई आन्दोलनो के वावजूद और समझौता वार्ताओं के वावजूद शिवराज किसानो को साधने में असमर्थ  रहे हैं  । प्रदेश के कर्मचारी  भी उनसे खुश नहीं हैं ,मजदूरों का तो ये हाल हैं कि   जब इंदौर स्थित हुकुमचंद कपड़ा मिल के मजदूर १० साल से भाजपा सरकार द्वारा ठगे जा रहे हैं।  तो बाकी प्रदेश के अन्य क्षेत्रों के मजदूरों की हालात क्या होगी ? प्रदेश का खजाना खाली हो चूका है ,जन-कल्याण के मदों का फंड पार्टी चुनाव में फूंक दिए जाने की खबरें हैं। एन चुनाव के वक्त भी आर बी आई की गारंटी पर ५०० करोड़ रुपयों का  कर्ज लेना पड़  रहा है। केंद्र ने जो फंड विभिन्न मदों में दिए थे वे  भृष्टाचार की भेंट चढ़ गए। सडक -बिजली -पानी -खाद-बीज और क़ानून -व्यवस्था इत्यादि किसी क्षेत्र में शिवराज सरकार  की कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं रही। केवल ढपोरशंखी प्रचार  - प्रसार  के दम पर राजनीती की जा रही है। मुख्यमंत्री सहायता कोष और आपदा प्रबंधन कोष  खाली हो चुके हैं। इन विपरीत परिस्थतियों में  भी   शिवराज  तोमर और अरविन्द मेनन   के चेहरे पर शिकन नहीं है।  इसके अलावा भी   भाजपा के कतिपय अन्य  अंदरूनी कारणों से भी पार्टी में घमासान मच हुआ है फिर भी किसी को भी  हैट्रिक बनाने  में  कोई  संसय नहीं  है।  इसके वावजूद भी कांग्रेस  हारती है तो यह उसके राजनैतिक परा भव और दिवालोयापन  के अलावा क्या हो सकता है ?
                                  कांग्रेस चूँकि १० साल  से सत्ताच्युत है इसलिए उसके नव-घोषित सिपहसालार ज्योति सिंधिया  , कमलनाथ और कांति  भूरिया पर  सत्ता प्राप्ति के लिए भारी दवाव है।  यदि इस बार भी मध्यप्रदेश में कांग्रेसी  हारे तो उनकी मुश्किलें और ज्यादा बढ़ती चली  जायेंगी। तब २०१९ में भी राहुल गाँधी को  पी एम् इन वेटिंग   से ही संतोष करना पडेगा।  इसीलिये कांग्रेस की  सत्ता प्राप्ति की कोशिशें  जोरों पर है। जैसा की यह  यह  सर्वविदित है कि  मध्यप्रदेश में कांग्रेस को भाजपा नहीं हराती !कांग्रेस ही कांग्रेस को हरवाती  है।दिग्गी विरोधी कांग्रेसी यदि दिग्विजयसिंह को निपटाने में जुटे  रहते  हैं तो दिग्गी समर्थक भी  चुप नहीं बैठते। किन्तु इस दफा कांग्रेस  को सत्ता के सपने आ रहे हैं इसलिए  बहरहाल अभी तो उनका आपसी युद्ध विराम चल रहा है। दिग्विजय सिंह , कांतिलाल  भूरिया और अर्जुन पुत्र   अजयसिंह और सुरेश पचौरी  को उचित सम्मान तो दूर  चुनाव सम्बन्धी टिकिट वितरण व्यवस्था से ही  दूर रखा गया है। प्रदेश से  दिल्ली में प्रतिनिधित्व करने वाले कांग्रेसी सांसद भी बेहद आहत  और उपेक्षित महसूस कर रहे हैं।  फिर भी ये लोग  अपमान का घूँट  पीकर कांग्रेस और राहुल गाँधी की सेवा में लगे हैं।  ऐंसा लगता है कि  राहुल गाँधी को जचाया गया है कि मध्यप्रदेश में  विगत दो चुनाव  कांग्रेस को दिग्विजय सिंह  के कारण हारने पड़े हैं । यह अर्ध सत्य हो सकता है ! निरपेक्ष सत्य नहीं !!  वास्तव में  राहुल गाँधी  को मध्यप्रदेश में  'संघ परिवार' की ताकत के बारे में  कुछ नहीं  मालूम। यदि मालूम होता तो वे दिग्विजय् सिंह  को कतई  दरकिनार नहीं करते। अपने पैरों पर अपने ही हाथों से कुल्हाडी नहीं मारते। कांग्रेस में दिग्गी राजा ,अजयसिंह और  सत्यबृत  चतुर्वेदी  ही हैं जो संघ से मुकाबला कर रहे हैं. ये कमलनाथ  , सिंधिया,भूरिया ,यादव और पचौरी   तो संघियों  और बाबाओं के घुटने टेकू हैं  जब दिग्विजयसिंह ही  संघ से लड़ते हुए पस्त हो रहे हैं  तो ये नाथ और सिंधिया  क्या खाक  मुकबला कर पाएंगे।
                                               हकीकत  ये है कि मध्यप्रदेश में शिवराज की 'मामागिरी '  या संघ परिवार की 'दादागिरी'  से   भाजपा की जीत नहीं हुआ करती  बल्कि अतीत के संघर्षों में अनेकों कुर्वानियाँ देकर जनता ने ही  कांग्रेस को सत्ता से बाहर  किया है ।  यह बात जुदा है कि  किसी बेहतर  धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक  विकल्प के  अभाव  में भाजपा के हाथ ये  सत्ता की बटेर लग गई।  इसमें  पुरातन जनसंघ और 'संघ' का भी योगदान  रहा है।   स्वर्गीय राजमाता  विजय राजे सिंधिया ,कुशा  भाऊ ठाकरे ,अटल बिहारी  बाजपेई ,कैलाश सारंग ,कैलाश जोशी  सुन्दरलाल पटवा  और उमा भारती जैसे विराट नेतत्व  का विशेष  योगदान  है। आडवाणी  की रथ यात्राओं   और 'मंदिर-मस्जिद' विवाद  का भी विशेष योगदान है।  अब शिवराज  'जन -आशीर्वाद यात्रा' निकालें या घर बैठें  रहें -जीत भाजपा की ही  होनी है।  क्योंकि  आर एस एस   ने  प्रदेश के अधिकांस बूथ एडवांस में ही  केप्चर कर लिए हैं। कांग्रेस के पास  मुख्य मंत्री बनने  के लिए -दिग्विजयसिंह  , कमलनाथ ,कान्ति  भूरिया , ज्योति सिंधिया , अजयसिंह ,सुरेश पचौरी ,मानक अग्रवाल ,रामेश्वर नीखरा  असलम शेरखान   , गुफराने आजम  बाला बच्चन तथा अरुण यादव  जैसे  लगभग एक  दर्जन बेहतरीन नेता हैं और ये शिवराज सिंह चौहान  या नरेन्द्रसिंह तोमर से तो बेहतर ही हैं,जनता का बहुमत भी  कांग्रेस के साथ है  किन्तु  वह वोट की शक्ल में नहीं बदल सकता। क्योंकि  कांग्रेस के पास 'संघ' जैसा बेसिक केडर  नहीं है।  अधिकांस  बूथों पर बिठाने के लिए कार्यकर्ता या एजेंट ही नहीं हैं ।  क्यों नहीं  हैं ये  भी रोचक ब्यथा-कथा  है। कांग्रेस ने  मध्यप्रदेश पर लगभग ५० साल शासन किया है , प्रादेशिक  नेताओं ने अपने घर भरे , ऐयाशी की और दिल्ली आला कमान की चापलूसी की। पार्टी और कार्यकर्ताओं को कंगाल कर दिया। कांग्रेस के कार्यकर्त्ता आजादी के  दौरान भी ठगे गए और देश आजाद हुआ तो अपनों ने भी धोखा ही दिया  अधिकांस  तो बृद्ध हो गए या इस दुनिया में ही नहीं हैं  ,नया कोई अब भूखें रहकर  या जेब से खर्च कर  पुराने कांग्रेसियों  की तरह  पोलिंग बूथ पर संघियों के हाथों पिटने  को तैयार नहीं है।
                                            उधर  भाजपा  कार्यकर्ताओं को संघ कार्यकर्ताओं के बहाने विशेषाधिकार  प्राप्त है.वे अपनी बात 'संघ'  के  माध्यम से  'नागपुर' या 'दिल्ली'  पहुँचाने में सक्षम हैं। संघ के कार्यकर्ता वेशक  कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की तरह 'अनाथ' नहीं हैं। इसीलिये भाजपा  को  - मध्यप्रदेश में २०१३ के   विधान सभा चुनाव में  'मामा' शिवराज या 'पी एम् इन वेटिंग ' नरेन्द्र मोदी के कारण नहीं बल्कि 'संघी 'कार्यकर्ताओं को पार्टी से मिले सम्मान के कारण - अधिकांस पोलिंग बूथ पर जीत हासिल होगी। इन्ही कार्यकर्ताओं की वजह से 'संघ' चाहे तो किसी "लकड़ी" के खम्बे को भी मुख्य् मंत्री घोषित कर दे  तो भी  सरकार भाजपा की ही बनेगी।  शिवराज के  कुराज और मोदी की फेंकिग न्यूज से चुनाव नहीं जीते जा सकते।  भले ही वे श्रेय  लेते रहें।  ज्योति सिंधिया और कमलनाथ या राहुल गाँधी कितना भी जोर लगा दें किन्तु वे कांग्रेस की सरकार मध्यप्रदेश में नहीं बना पाएंगे।  शिवराज सरकार की असफलता के कारण कांग्रेस की सीटें  बढेंगी इसमें कोई संदेह नहीं। कांग्रेस को आगामी  लोक सभा चुनाव  में मध्यप्रदेश से बेहतर  रिस्पांस भी  मिल सकता है किन्तु अभी तो मध्यप्रदेश में उसे विपक्ष की भूमिका से  ही संतोष करना होगा। उसे चुनाव जीतना है तो अपने ग्रास रूट लेविल के कार्यकर्ताओं का सम्मान  करना होगा ,  उनके हितों की हिफाजत करने का हुनर 'राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ ' से सीखना होगा।  ये काम राहुल गाँधी नहीं कर सकते। क्योंकि जिनसे सीखना है उन दिग्गी राजा को हासिये पर बिठा रखा है। कांग्रेस में ' आर एस एस' को  दिग्विजय सिंह से ज्यादा कौन  जानता है ?
                              विभिन्न सर्वे में भाजपा को कांग्रेस से कुछ ही सीटों  की बढ़त बताई गई है। किन्तु ये सर्वे जिन वर्गों-कतारों से लिए जाते हैं वे तो  माध्यम वर्गीय कट्टरपंथी  बहुसंख्यक कतारों  या शिक्षित वर्ग के ही हैं जो 'नमो ' प्रेरित  या संघ  प्रायोजित हैं । कांग्रेस का जनाधार  इससे भी   बढ़ा  है , अशिक्षित ,किसान , मजद्दूर  , अल्पसंख्यक ये  कांग्रेस का परम्परागत जनाधार है किन्तु कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और साधनों के अभाव  में वोट बेंक में परिणित नहीं हो पायेगा । अभी तक तो  यही असलियत है मध्यप्रदेश  में  कांग्रेस  की ।  फिर भी शिवराज चौकन्ने हैं तो कोई तो खास बात है !  
                         तीसरे मोर्चे ने भी हर बार की तरह  इस बार भी निहायत अनमनेपन से इन चुनावों में अपनी   संभावित  उपस्थिति दर्ज कराने  की तैयारी शुरू कर  दी  है। हालाँकि  इस तीसरे मोर्चे और वाम मोर्चे की ताकत देश के अन्य प्रान्तों  के सापेक्ष  मध्यप्रदेश में कुछ कम है। किन्तु प्रदेश  का  चुनावी इतिहास बताता है की कांग्रेस या  भाजपा भले ही यहाँ एक-दुसरे के विकल्प बन बैठे हैं  लेकिन  इन दोनों ही पार्टियों का वोट %सत्ता में आने के समय भी ३५% से ज्यादा कभी नहीं रहा।  भारतीय लोकतंत्र की यह अजब बिडम्बना ही है कि  अल्पमत वाला दल तो शासन करे और  बिखरा हुआ  बहुमत विपक्ष के रूप में   ही बैठा रहे । इस २५   नवम्वर -२०१३  के   मतदान में भी यही  इतिहास दुहराया जाने वाला है।  तीसरे मोर्चे से वेफिक्र कांग्रेस और भाजपा इस चुनावी द्वंद में फायनल तो २५ नवमबर को खेलेंगे  ही किन्तु उससे पहले के सेमी फायनल में वे अपने-अपने दलों के भीतर ही  एक- दूसरे  को मात देने,टांग खींचने  और राजनैतिक केरियर  खत्म करने  के काम में जुटे हैं। इन हालत में जबकि  सत्तारूढ़ भाजपा को  भीतरघात के साथ  एंटी इनकम्बेंसी फेक्टर का भी  भय है ,  तो दूसरी ओर  शिवराज को सी  बी आई ,इनकम टेक्स  तथा केन्द्रीय एजेंसियों के मध्यप्रदेश में  छापों का  भय जरुर सता रहा  होगा ! सिंधिया और राहुल  के कारण युवाओं में कांग्रेस के प्रति रुझान बढ़ा है ,मोदी के कारण अल्पसंख्यक वोट  भी थोक के भाव कांग्रेस के खाते में जा सकते हैं ,आदिवासियों और दलित वर्ग ने भी अभी तक कांग्रेस को छोड़ा नहीं है  इन हालात में चुनाव परिणाम का ऊँट  किस करवट  बैठेगा कुछ कहा नहीं जा सकता !
                           वैसे  तो अधिकांस राजनैतिक दलों ,राजनैतिक मोर्चों और अलायन्स में आपसी मतभेद और वैचारिक मतभिन्नता होना कोई विचित्र बात नहीं है। यह तो प्रजातांत्रिक प्रणाली का शाश्वत स्वभाव है। इसका होना उतना नकारात्मक  या आपत्तिजनक नहीं जितना वैचारिक  रूप से कंगाल होकर किसी भी एक व्यक्ति या विचारधारा का अंध  समर्थक बन जाना।  किन्तु जब कोई राजनैतिक  पार्टी ,नेता या विचारधारा ये दावा करे कि  वो निहायत अनोखा ,निर्बाध ,निरापद कालजयी  और 'पार्टी बिथ  डिफ़रेंस' है तो दुनिया  की  घातक  नज़रों का सामना भी उसे ही करना होगा। मध्यप्रदेश भाजपा पर उसके  राष्ट्रीय  नेतत्व की आपसी फूट  का सर्वाधिक नकारात्मक असर परिलक्षित हुआ है.आसन्न विधान सभा चुनाव में जब ये आलम हैं तो आगामी लोक सभा चुनाव में क्या हालत होगी ? मध्यप्रदेश के भाजपा नेता  भी  अभी तक दिग्विजयसिंह की प्रशाशनिक चूकों का भय दोहन ही करते आ रहे हैं।  वे अब ज्योतिरादित्य  सिंधिया को भी सामन्तवाद या महाराजा वाद से जोड़ने में  जुट गए हैं। ऐंसा करते वक्त वे अपनी पार्टी भाजपा की संस्थापक सदस्या स्वर्गीय विजयाराजे सिंधिया को भूल जाते हैं। वे भूल जाते हैं की राजस्थान में उनकी नैया खेवनहार इसी राजसी खानदान में उत्पन्न भरतपुर की भूतपूर्व महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया हैं। अपनी आसन्न विजय के मद में वे अपने दामन पर लगे दागों को छिपाने के  लिए एक सनातन सूत्र का इस्तेमाल करते हैं कि "ऐंसा तो कांग्रेस   भी कर रही है या करती आई  है ".  लेकिन वे यह भूल जाते हैं की वे "पार्टी  बिथ  डिफ़रेंस " हैं.
                                        भाजपा और संघ परिवार  के  नेतत्व  में तो इतना  भी  माद्दा नहीं है कि  कांग्रेस और उसके हमसफर  शरद पंवार या स्वर्गीय चन्द्रशेखर की तरह सीना ठोककर  कहे कि  'इस राजनैतिक  हम्माम में हम  सभी नंगे  हैं ' या  प्रकाश करात  और ए  बी वर्धन  की तरह  कहेंगे कि  पूँजीवादी -अर्ध सामन्ती व्यवस्था तो तमाम बुराइयों की जड़ है ही ,  जो  इस व्यवस्था  का प्रतिनिधित्व करेंगे वे दूध के धुले होंगे यह कैसे संभव है ?  या अन्ना हजारे ,केजरीवाल भी  भक्तिकालीन संतों[वर्तमान पाखण्डी  संतों या स्वामियों की  तरह नहीं की धन सम्पदा और   यौन शोषण में बदनाम हैं ] की तरह उपदेश देंगे कि   'दुनिया में अच्छाई -बुराई सबमें समान रूप से विद्द्य्मान है , हमें औरों की अच्छाई से मतलब रखना चाहिए और बुराइयों से संघर्ष करने का सामर्थ पैदा करना चाहिए।  याने -सार-सार को गहि रहे ,,,, थोथा देय  उड़ाय,,,,!  संघ परिवार और भाजपा को अपने जिस चाल-चरित्र-चेहरे पर नाज हुआ करता था वो कम से कम इन विधान सभा चुनावों में और  प्रमुखतः  मध्यप्रदेश में तो वेहद बदरंग और डरावना हो चूका है। इस संकट से भाजपा नेतत्व वाकिफ है इसलिए संघ के निर्देशन में  तय हुआ है कि  हर हालत में इन विधान सभा चुनावों में जीत हासिल की जाए   ताकि  मोदी के नेतत्व में  आगामी लोक सभा चुनाव में  सम्मानजनक स्कोर खड़ा कर केंद्र की सत्ता हासिल करने   का मार्ग प्र्शश्त  हो।                                   लेकिन यह इतना आसान नहीं है. देश में जो  राजनैतिक दल -अपनी चाल -अपना चेहरा और चरित्र का बखान कभी नहीं करते वे -  छोटे-छोटे समूहों में विभक्त होने के वावजूद भाजपा और कांग्रेस से अलहदा होते हुए भी  यूपीए और एनडीए की सत्ता के असली सूत्रधार हुआ करते हैं। जो केंद्र  की सरकार बनाते समय बहुत कीमती हो जाया करते हैं।  ये विभिन्न राजनैतिक समूह  सनातन तक सत्ता से  बाहर  रहने  के लिए अभिशप्त नहीं हैं।  मध्यप्रदेश में भले ही इनकी ताकत  बिखरी हुई होने से  अलिखित रूप में केवल भाजपा वनाम कांग्रेस का दो पार्टी सिद्धांत  काम कर रहा है किन्तु जब लोक सभा चुनाव होंगे और त्रिशंकु संसद बनेगी तब  तो भाजपा और कांग्रेस को इन मामूली  सी संख्या वाले-तथाकथित तीसरे मोर्चे वालों और वाम मोर्चे वालों की ही  शिद्दत से जरुरत महसूस होगी। वेशक ! ऐंसे  ही  राजनैतिक दल और नेता  जो 'दूध में धुले 'होने का दावा नहीं करते काफी टिकाऊ  और जिताऊ किस्म के हुआ करते हैं। भले ही उनकी संसदीय या विधान सभाई ताकत सीमित ही रहा करती  हो। कमसे कम   वाम मोर्चे में टिकटों और सत्ता के लिए इस तरह की मारा - मारी तो   नहीं होती। एक बार पार्टी का फैसला हुआ कि  सभी को मानना ही है चाहे फिर वे ज्योति वसु ही क्यों न हों जो बहुत  नेक ,बहुत बड़े नेता  हुआ करते थे किन्तु पार्टी ने  प्रधान मंत्री बनने  का आदेश नहीं दिया तो नहीं बने। सोमनाथ दा  लोक सभा अध्यक्ष होते हुए एटमी करार पर  जब पार्टी लाइन से विचलित हुए तो माकपा ने उन्हें  भी बाहर का रास्ता दिखाने में ज़रा भी देर नहीं की। इन दिनों भाजपा और कांग्रेस में अनुशाश्हीनता चरम पर है किन्तु भाजपा में केवल मोदी और कांग्रेस में  केवल राहुल ही हैं जो असहाय नहीं  हैं शेष सभी नेता  अपने -अपने इन सुपीम कमांडर्स के अनुचर मात्र रह गए हैं। यह  प्रवृत्ति  इन दोनों ही दलों के अधिनायक वाद  की ओर अग्रसर होने की निशानी है।  यह विचारधारओं  का नहीं व्यक्तियों के विमर्श का दौर है जो भारतीय लोकतंत्र की गरिमा और बहुलतावाद के अनुरूप कदापि नहीं है.
                                                      भारतीय जनता पार्टी को गुमान था कि   वह  'पार्टी बिथ  डिफ़रेंस 'हैं और कांग्रेस महानालायक लोगों का कोंद्वाड़ा  है. किन्तु इन दिनों जो उठा- पटक ,खींच-तान और कुकरहाव भाजपा में राष्ट्रीय स्तर  पर और विभिन्न प्रान्तों में  मचा हुआ है  वो  कांग्रेस के अंदरूनी घमासान से भी कई गुना  आत्महंता और लज्जास्पद  है। चूँकि कांग्रेस ने कभी दावा नहीं किया कि   'उसकी  कमीज सबसे ज्यादा सफ़ेद है '  या उसके  डी एन ऐ  का समबन्ध  राजा हरिश्चन्द्र,शिवि ,दधीच  तथा साक्षात् मर्यादा पुरषोत्तम भगवान् राम  के वंशजों से है। इसलिए कांग्रेस में टिकटों ,पदों और नेतत्व की होड़  आपस की खींचतान को  उसके मूल  चरित्र याने 'सत्तालोलुपता' से जोड़कर ही देखा जाना चाहिए।   इसी   कारण  से  वर्तमान दौर की राजनीती में दिग्विजय जैसे दिग्गज भी कांग्रेस की बिसात के हासिये पर हैं। उन्हें बड़ी ही अपमान जनक स्थति में कांग्रेस के उन नेताओं का अनुचर बना दिया गया है जो सिद्धांत या विचारधारा  का ककहरा भी नहीं जानते।  इतने घोर अपमान और क्रत्घनता को सहन करते हुए भी दिग्गी  राजा यदि कांग्रेस को मजबूत करने में लगे हैं और भाजपा पर आक्रमण करने में लगे हैं तो यह उनकी सैधांतिक प्रतिबद्दता है जिसकी तारीफ़ की जाने चाहिए।
                                       किन्तु जिन्हें देव तुल्य जन -आराधना की लालसा है ऐंसे  भाजपाइयों और संघियों   को इस तरह टिकटों के लिए,पदों के लिए ,सत्ता सुख  के लिए , अपनी ही पार्टी के लोगों की गोपनीय चरित्रावली- मीडिया में उजागर करने ,प्रतिश्पर्धी  पार्टी याने कांग्रेस  के कार्यालय तक  पहुंचाने में  अब देशभक्ति का एहसास होने लगा है ।  भाजपा  सरकार के   हितग्राहियों के  अंदरूनी काले कारनामें  - केंद्र सरकार ,आयकर विभाग ,एन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट तथा सी बी आई  के पास बिना भाजपा के ही विभीषणों या जयचंदों  के पहुँच पाना असम्भव है। मध्यप्रदेश भाजपा में ब्लाक स्तर  से लेकर प्रदेश स्तर  तक इन मीरजाफरों,जयचंदों की  भरमार है।  जो  राजनीती   के दलाल पहले कांग्रेस के साथ थे वे अब  विगत  १० साल से भाजपा और संघ परिवार की  थाली में जीम रहे हैं. न केवल जीम रहे हैं अपितु शान से उसमें छेद  भी कर रहे हैं।आधुनिक भाजपाइयों का यह रूप 'राष्ट्रवादी ''  भाजपा के चाल-चेहरे और चरित्र से मेल नहीं खाता।
                                    ऐंसा नहीं है की सभी भाजपाई फील गुड में हैं , कुछ भाजपाईयों  को  आशंका है की मध्यप्रदेश में शायद  पुनः कांग्रेस की  ही सरकार बनने  जा रही है. इसीलिये  भाजपा सरकार से 'बेजा स्वार्थ' साधने वालों ने अभी से कांग्रेस में  जमावट    शुरू कर दी है। इनमें वे नेता और कार्यकर्ता भी हैं जो उमा के सहयोगी या शुभचिंतक रहे हैं। इनमे वे लोग भी हैं जो शिवराज के शाशन में उपेक्षित रहे हैं ।   इनमें  - नेता ,कार्यकर्ता और मतदाता कुछ भी हो सकते हैं।  वैसे  मध्यप्रदेश की  राजनैतिक प्याली में सत्ता संघर्ष का तूफ़ान  तभी  से आना  शुरू हो चूका था जब  २००२-२००३  के दरम्यान हुबली [कर्णाटक हाई  कोर्ट] न्यायालय के निर्देश पर  तत्कालीन  मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती को  जबरन हटाकर बाबूलाल गौर  को मुख्या मंत्री बनाया गया  था। सुश्री उमा भारती ने  टूटी-फूटी भाजपा और लंगडाते -लुलाते तत्कालीन दींन -हीन पस्त भाजपा नेताओं -कार्यकर्ताओं में प्राण फूंककर सत्ता वासना का संचार किया था।  उन्होंने दिग्विजय सिंह को 'मिस्टर बंटाढार'प्रचारित कर मध्यप्रदेश से कांग्रेस और दिग्गी राजा का लंबा वनवास सुनिश्चित कर दिया था। अब यदि शिवराज और उनके संगी साथी पकी पकाई खीर  खाते रहें  ,उमा को  और उनके समर्थकों को दुत्कारते रहें  तो यह सच्चरित्रता और हिंदुत्व वादी आदर्श तो कतई  नहीं है।  उमा भारती ने ही २००३ में   दिग्विजयसिंह  के  नेतत्व में चल रही तत्कालीन   मध्यप्रदेश की   कांग्रेस को बुरी तरह  सत्ता से उखाड़ फेंका था। नैतिकता और आदर्श के लिए उमा की बलि ले ली गई और  जब बाबूलाल गौर को सत्ता मिली तो उन्हें भी  सत्ता का   मद चढने लगा। तब  भाजपाई इंतजाम-अलियों - प्रमोद महाजन , अनंतकुमार,पटवा  और कैलाश  विजयवर्गीय ने संघ परिवार और  अटल - आडवाणी  को साधकर शिवराज की ताजपोशी  करवाई थी।
                                 शिवराज सिंह चौहान को २००८  के विधान  सभा चुनाव में उमा से ज्यादा सफलता नहीं  मिली  कांग्रेस की ताकत ही  बढ़ी और  ५४ सीट से ७१ हो गईं। कांग्रेस शायद जीत भी जाती यदि दिग्विजय सिंह का नकारात्मक इतिहास और सुरेश पचौरी की जड़ता -  उनका और कांग्रेस का  पीछा नहीं करते ।  अब  नवम्बर   २०१३ के विधान सभा चुनावों में शिवराज का नेतत्व  असल कसौटी पर है । टिकिट वितरण ,चुनाव संचालन , उम्मीदवार चयन और प्रचार -प्रसार के लिए असीम अधिकारप्राप्त  और अकूत संपदा के स्वामी अब केवल मध्यप्रदेश में शिवराज ही  हैं।  लेकिन मध्यप्रदेश के अधिकांस  भाजपा कार्यकर्ता मोदी की केंद्र में ताजपोशी  के लिए जितने  उत्साहित हैं उतने  मध्यप्रदेश में शिवराज  को मध्यप्रदेश का तीसरी बार मुख्य मंत्री बनाने  के लिए  सक्रीय या  उत्साहित  नहीं हैं। यदि खुदा न खास्ता कांग्रेस  का सिंधिया कार्ड काम  कर  गया , उमा की उपेक्षा और राहुल की सक्रियता से लोधी बहुल बुंदेलखंड शिवराज से नाराज  होता चला गया  , मोदी भय से अल्पसंख्यक  वोटों का  ध्रुवीकरण  तेज हुआ और वसपा -मायावती का दलित कार्ड मध्यभारत में  नहीं चल पाया  और कांग्रेस की ओर मुड़  गया तो  मध्यप्रदेश में कांग्रेस  बराबर की टक्कर भी दे सकती है।  उलट  फेर का  चमत्कार भी हो सकता है।  गैर भाजपा और गैर कांग्रेस के धर्म निरपेक्ष मतों  का ध्रुवीकरण कांग्रेस की ओर हो सकता है।  त्रिशंकु विधान सभा भी बन सकती है।ऐंसी  स्थति में स्वाभाविक है कि  इस बार  शिवराज  का राजनैतिक अस्तित्व भी दाव  पर लगा हुआ है।
                                                   नरेन्द्र मोदी से जुड़े मध्य प्रदेश के नेता इस स्थति में  अपने   राजनैतिक समीकरण संशोधित कर सकते हैं। कुछ तो  इन विधान सभा चुनावों से परे आगामी लोक सभा चुनावों के सन्दर्भ में राजनैतिक क़दमों को साध रहे हैं। पूर्व उमा समर्थक और प्रदेश के वर्तमान कद्दावर  नेता कैलाश विजयवर्गीय  को घेरने में कांग्रेस और शिवराज दोनों ही लगे हुए हैं। जबकि  कैलाश   विजयवर्गीय  का  सही  मूल्यांकन  कर उन्हें बड़ी जिम्मेदारी देकर संघ और  भाजपा   न केवल मध्यप्रदेश विधान सभा वरन आगामी लोक सभा चुनाव भी आसानी से जीतकर केंद्र में नरेन्द्र मोदी  के नेतत्व में एनडीए सरकार बनवा  सकती है। जबसे नरेन्द्र मोदी बनाम आडवाणी द्वन्द का सूत्रपात हुआ है और इस द्वन्द की वजह से सुरेश सोनी को जाना पडा तबसे कैलाश विजयवर्गीय को  घेरने वाले लोग उत्साहित हैं। भैयाजी जोशी के आगमन से कैलाश जी के प्रति अरविन्द मेनन ,  नरेन्द्र तोमर ,सुमित्रा महाजन और शिवराज का गुट कैलाश जी के कदम रोकने में व्यस्त है।२००८ में उन्हें  महू की सीट पर विधान सभा  चुनाव लड़ने को बाध्य करना  भाजपा में उनके   'शुभचिंतकों ' का फैसला  था। ओस दफा -२०१३ के विधान सभा चुनाव में भी भाजपा के कद्दावर नेता कैलाश जी के प्रति जरा ज्यादा ही 'मेहरवान'हैं।   किन्तु  कैलाश  विजयवर्गीय के सितारे बुलंद हैं ,वे  जमीनी नेता हैं औ- र  कठिनाई में भी विचलित नहीं होते।  यदि वे इस बार   विधान सभा चुनाव नहीं लड़ते तो  ज्यादा ताकतवर होकर उभरेंगे। तब सुमित्रा महाजन ,शिवराज और तोमर को कैलाश जी की जरुरत अवश्य महसूस होगी।
                        श्रीराम तिवारी 

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