कारण नंबर एक -
सड़क किनारे दो मजदूर पौधा रोपण कर रहे थे। एक मजदूर गढ्ढे खोदे जा रहा था और दूसरा मजदूर बिना पौधा लगाए ही गढ्ढों को वापिस भरता जा रहा था। कौतूहलवश किसी राहगीर ने पूँछा - भाई यह क्या कर रहे हो ? मजदूरों का जबाब मिला - पौधा रोपण कर रहे हैं। राहगीर ने फिर पूंछा -किन्तु पौधे तो कहीं भी नजर नहीं आ रहे ? पहला मजदूर बोला -नगरनिगम ने सड़क किनारे पौधा रोपण की योजना चलाई है। ओवरसियर साहब ने इस साईट पर तीन मजदूरों को काम पर भेजा है । पौधा रोपण की जिम्मेदारी जिस मजदूर को दी गयी है , उसे आज बड़े साहब [चीफ इंजीनियर] की मेडम ने बंगले पर साफ़-सफाई के लिए बुलाया लिया है। मेरा काम सिर्फ गड्ढा खोदना ही है ,सो मैं खोदे जा रहा हूँ। मेरे इस दूसरे साथी का काम गड्ढे भरना है अतः बिना पौधा रोपे ही ये गड्ढे भरे जा रहा है। हम तीनों को जो अलग-अलग काम दिया गया है, यदि हम उसमें कुछ फेर-बदल करते हैं तो 'साहब लोग' हमें सस्सपेंड कर देंगे।
कारण नंबर दो -
विगत शताब्दी के छठवें -सातवे दशक में भारत की तत्तकालीन इंदिरागांधी सरकार ने 'गरीबी हटाओं' के नारे लगवाये। निजी क्षेत्र के बैंकों और बीमा का राष्ट्रीयकरण किया। राजाओं के प्रीवी पर्श समाप्त किये। सरकारी और पब्लिक सेक्टर को खूब पाला पोषा। वैसे तो आजादी के फ़ौरन बाद से ही जमींदारों-पूँजीपतियों और काले-अंग्रेजों की औलादें नौकरशाही में घुस चुकीं थीं । किन्तु भारतीय संविधान लागू होने के बाद जातीय आधार पर आरक्षण वालों को सरकारी क्षेत्र में धड़ाधड़ नौकरियां दीं गयीं । हालाँकि नेता पुत्र ,मंत्री पुत्र और अफसर पुत्र तो परम्परा से ही इस भारतीय अफसरी क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाये हुए थे किन्तु तबतक अंग्रेजों के 'अनुशासन' की कुछ चमक उनमें शेष थी। वेशक हर दौर में कुछ मेरिट वाले भी अपनी वांछित नौकरी पाने में सफल होते रहे हैं। किन्तु ज्यों-ज्यों आजादी की उम्र बढ़ती गयी त्यों-त्यों भारतीय अफसर शाही भृष्टतर और मक्कार होती चली गयी। पहले तो अफसरों ने राजनीति को भृष्ट किया बाद में राजनीति ने पूरे सिस्टम को ही महा भृष्ट बना डाला।
कारण तीन - भारत में जिन दिनों सोवियत संघ के सहयोग से भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना की जा रही थी ,उन दिनों बहुत से सोविएत वैज्ञानिक और इंजीनियर दुर्ग,भिलाई ,जबलपुर बोकारो और भोपाल में अपनी सेवाएं देने आया करते थे। एक बार वे पिपरिया से पचमढ़ी जा रहे थे। रास्ते में एक जगह उन्होंने देखा कि सड़क किनारे टेलीफोन के खम्बे पर एक अधनंगा आदिवासी चढ़ा हुआ है। उस खम्बे के चारों ओर चार-पांच हष्ट-पुष्ट 'सभ्रांत' लोग घेरा बनाकर उस आदिवासी की ओर देख रहे थे। खम्बे से कुछ दूर एक साइकिल ,एक लेम्ब्रेटा ,एक बुलेट ,एक जीप और एक पुरानी मडस्रीज कार खड़ी थी।
सोवियत संघ से आये उन इंजीनियर्स में से एक ने टूटी-फूटी अंग्रेजी-मिश्रित हिन्दी में इन लोगों से पूंछा -यहाँ क्या हो रहा है कॉमरेड ! खम्बे के पास खड़े लोगों को कुछ समझ नहीं पड़ा। किन्तु एक सज्जन कुछ -कुछ अंग्रेजी जानते थे उन्होंने उनकी बात समझ ली। और उत्तर दिया कि 'हम लोग टेलीफोन डिपोरमेंट से आये हैं चूँकि टेलीफोन लाइन खराब ही सो हम लोग फॉल्ट निकाल रहे हैं "सोवियत डेलीगेट्स ने पूंछा - वो जो खम्बे पर चढ़ा है वो कौन है ? जबाब मिला - ठेका मजदूर है ! फिर पूंछा गया -ये मैली कुचेली खाकी वर्दी वाला जो बार-बार तार खींच रहा है और औजार वगेरह दे रहा है वो कौन है ? जबाब मिला लाइनमेन ! फिर पूंछा गया की वो साइकिल पकड़कर खड़ा है वो कौन है ? जबाब मिला -मेकेनिक ! [तब टेलीकॉम डिपार्टमेंट में टीटीए या जीटीओ नहीं बल्कि मेकेनिक और सुपरवाइज़र ही हुआ करते थे ]फिर पूंछा गया कि वो जो लेम्ब्रेटा पर अपना पिछवाड़ा टीकेए हुए यहीं वो कौन हैं ? जबाब मिला फोन इंस्पेक्टर ! फिर भी उत्सुकता नहीं मिटे तो पूँछ लिया कि वो जो काली मोटर साईकिल के पास खड़े हैं वो कौन हैं ? जबाब मिला ईएसटी ! इससे पहले कि सोवियत डेलीगेट आगे कुछ पूंछता वहाँ जीप के पास खड़े सज्जन ने खुद ही अपना परिचय दे दिया - सब डिविशनल इंजीनियर ! साथ ही कार की ओर इशारा करते हुए कहा कि वो हमारे बड़े साहब हैं -डिविजनल इंजीनियर !
सोवियत संघ से आये हुए इंजीनियरों को इस घटना ने इतना उद्द्वेलित किया कि वे टेलीफोन फाल्ट निकाल रहे भारतीय दल पर तंज कैसे बिना नहीं रह सके। उनका रूसी मिश्रित अंग्रेजी न्होंने इसका जिक्र
उस जमाने में खम्बे पर चढ़ने वाले मजदूर को ३ रुपया रोज मिलता था।
सड़क किनारे दो मजदूर पौधा रोपण कर रहे थे। एक मजदूर गढ्ढे खोदे जा रहा था और दूसरा मजदूर बिना पौधा लगाए ही गढ्ढों को वापिस भरता जा रहा था। कौतूहलवश किसी राहगीर ने पूँछा - भाई यह क्या कर रहे हो ? मजदूरों का जबाब मिला - पौधा रोपण कर रहे हैं। राहगीर ने फिर पूंछा -किन्तु पौधे तो कहीं भी नजर नहीं आ रहे ? पहला मजदूर बोला -नगरनिगम ने सड़क किनारे पौधा रोपण की योजना चलाई है। ओवरसियर साहब ने इस साईट पर तीन मजदूरों को काम पर भेजा है । पौधा रोपण की जिम्मेदारी जिस मजदूर को दी गयी है , उसे आज बड़े साहब [चीफ इंजीनियर] की मेडम ने बंगले पर साफ़-सफाई के लिए बुलाया लिया है। मेरा काम सिर्फ गड्ढा खोदना ही है ,सो मैं खोदे जा रहा हूँ। मेरे इस दूसरे साथी का काम गड्ढे भरना है अतः बिना पौधा रोपे ही ये गड्ढे भरे जा रहा है। हम तीनों को जो अलग-अलग काम दिया गया है, यदि हम उसमें कुछ फेर-बदल करते हैं तो 'साहब लोग' हमें सस्सपेंड कर देंगे।
कारण नंबर दो -
विगत शताब्दी के छठवें -सातवे दशक में भारत की तत्तकालीन इंदिरागांधी सरकार ने 'गरीबी हटाओं' के नारे लगवाये। निजी क्षेत्र के बैंकों और बीमा का राष्ट्रीयकरण किया। राजाओं के प्रीवी पर्श समाप्त किये। सरकारी और पब्लिक सेक्टर को खूब पाला पोषा। वैसे तो आजादी के फ़ौरन बाद से ही जमींदारों-पूँजीपतियों और काले-अंग्रेजों की औलादें नौकरशाही में घुस चुकीं थीं । किन्तु भारतीय संविधान लागू होने के बाद जातीय आधार पर आरक्षण वालों को सरकारी क्षेत्र में धड़ाधड़ नौकरियां दीं गयीं । हालाँकि नेता पुत्र ,मंत्री पुत्र और अफसर पुत्र तो परम्परा से ही इस भारतीय अफसरी क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाये हुए थे किन्तु तबतक अंग्रेजों के 'अनुशासन' की कुछ चमक उनमें शेष थी। वेशक हर दौर में कुछ मेरिट वाले भी अपनी वांछित नौकरी पाने में सफल होते रहे हैं। किन्तु ज्यों-ज्यों आजादी की उम्र बढ़ती गयी त्यों-त्यों भारतीय अफसर शाही भृष्टतर और मक्कार होती चली गयी। पहले तो अफसरों ने राजनीति को भृष्ट किया बाद में राजनीति ने पूरे सिस्टम को ही महा भृष्ट बना डाला।
कारण तीन - भारत में जिन दिनों सोवियत संघ के सहयोग से भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना की जा रही थी ,उन दिनों बहुत से सोविएत वैज्ञानिक और इंजीनियर दुर्ग,भिलाई ,जबलपुर बोकारो और भोपाल में अपनी सेवाएं देने आया करते थे। एक बार वे पिपरिया से पचमढ़ी जा रहे थे। रास्ते में एक जगह उन्होंने देखा कि सड़क किनारे टेलीफोन के खम्बे पर एक अधनंगा आदिवासी चढ़ा हुआ है। उस खम्बे के चारों ओर चार-पांच हष्ट-पुष्ट 'सभ्रांत' लोग घेरा बनाकर उस आदिवासी की ओर देख रहे थे। खम्बे से कुछ दूर एक साइकिल ,एक लेम्ब्रेटा ,एक बुलेट ,एक जीप और एक पुरानी मडस्रीज कार खड़ी थी।
सोवियत संघ से आये उन इंजीनियर्स में से एक ने टूटी-फूटी अंग्रेजी-मिश्रित हिन्दी में इन लोगों से पूंछा -यहाँ क्या हो रहा है कॉमरेड ! खम्बे के पास खड़े लोगों को कुछ समझ नहीं पड़ा। किन्तु एक सज्जन कुछ -कुछ अंग्रेजी जानते थे उन्होंने उनकी बात समझ ली। और उत्तर दिया कि 'हम लोग टेलीफोन डिपोरमेंट से आये हैं चूँकि टेलीफोन लाइन खराब ही सो हम लोग फॉल्ट निकाल रहे हैं "सोवियत डेलीगेट्स ने पूंछा - वो जो खम्बे पर चढ़ा है वो कौन है ? जबाब मिला - ठेका मजदूर है ! फिर पूंछा गया -ये मैली कुचेली खाकी वर्दी वाला जो बार-बार तार खींच रहा है और औजार वगेरह दे रहा है वो कौन है ? जबाब मिला लाइनमेन ! फिर पूंछा गया की वो साइकिल पकड़कर खड़ा है वो कौन है ? जबाब मिला -मेकेनिक ! [तब टेलीकॉम डिपार्टमेंट में टीटीए या जीटीओ नहीं बल्कि मेकेनिक और सुपरवाइज़र ही हुआ करते थे ]फिर पूंछा गया कि वो जो लेम्ब्रेटा पर अपना पिछवाड़ा टीकेए हुए यहीं वो कौन हैं ? जबाब मिला फोन इंस्पेक्टर ! फिर भी उत्सुकता नहीं मिटे तो पूँछ लिया कि वो जो काली मोटर साईकिल के पास खड़े हैं वो कौन हैं ? जबाब मिला ईएसटी ! इससे पहले कि सोवियत डेलीगेट आगे कुछ पूंछता वहाँ जीप के पास खड़े सज्जन ने खुद ही अपना परिचय दे दिया - सब डिविशनल इंजीनियर ! साथ ही कार की ओर इशारा करते हुए कहा कि वो हमारे बड़े साहब हैं -डिविजनल इंजीनियर !
सोवियत संघ से आये हुए इंजीनियरों को इस घटना ने इतना उद्द्वेलित किया कि वे टेलीफोन फाल्ट निकाल रहे भारतीय दल पर तंज कैसे बिना नहीं रह सके। उनका रूसी मिश्रित अंग्रेजी न्होंने इसका जिक्र
उस जमाने में खम्बे पर चढ़ने वाले मजदूर को ३ रुपया रोज मिलता था।
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