आदरणीय रश्मीजी अपने छोटे बेटे रिषभ उर्फ़ सन्नी के साथ इंदौर आईं और उन्होंने मेरा ब्लॉग देखा .
रविवार, 25 दिसंबर 2011
सोमवार, 19 दिसंबर 2011
जनकवि रामनाथसिंग 'अदम गौँडवी' को क्रांतिकारी श्रद्धांजलि....
यह एक क्रमिक एवं स्वाभाविक युति है कि जिन कवियों की मातृभाषा हिंदी या कोई अन्य आंचलिक भाषा होती है,और यदि वे जनवाद या क्रांति जैसे विचारों से प्रेरित है तो वे प्रगतिशीलता के तत्वों को उर्दू शब्दों के सहारे ही थामने में सफल हुए हैं.इस विधा में गैर उर्दू भाषियों में जब भी कविता या शायरी की चर्चा होगी गजानन माधव मुक्तिबोध और दुष्यंत के बाद 'अदम गौंडवी'उर्फ़ रामनाथसिंह सदैव याद किये जाते रहेंगे.
राम नाथसिंह ने शायरी लिखने के शुरुआती दौर में ही न केवल अपना नाम बदल डाला बल्कि परम्परागत उत्तर आधुनिक कविता को शायरी का नया लिबास भी पहनाया.दुष्यंत ने जिस हिन्दी शायरी में आम आदमी का दर्द उकेरा था ,अदम गौंडवी ने जनता की आवाज बनाकर उसे अमरत्व प्रदान किया है.उनकी कई गजलों में व्यवस्था कि लानत-मलानत की गई है. जन- गीतों के तो मानो वे सरताज थे.पूंजीवादी,साम्प्रदायिक और निहित स्वार्थियों की जकड़न में कसमसाती आवाम को 'अदम 'के शेर संबल प्रदान करते है-
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडिये!
अपनी कुर्सी के लिए ज़ज्वात को मत छेडिये!!
हैं कहाँ हिटलर हलाकू जार या चंगेज खाँ!
मिट गए सब कौम की औकात को मत छेडिये!!
छेडिये इक जंग मिल जुलकर गरीबी के खिलाफ!
दोस्त !मेरे मजहबी नगमात को मत छेडिये!!
एक और वानगी पेश है-
काजू भुने प्लेट में,व्हस्की गिलास में,
उतरा है रामराज ,विधायक निवास में!
पक्के समाजवादी है,तस्कर हों या डकैत,
इतना असर है खादी के लिबास में!
आजादी का जश्न वो मनाएं किस तरह,
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में!
......................................
........एक ही चारा है वगावत ....
यह बात कह रहा हूँ में होशो-हवाश में!
२२ अक्तूबर १९४७ को जन्में अदम गौंडवी के दुखद निधन से भारतीय उपमहादीप के प्रगतिशील साहित्य जगत में भले ही शोक का तमस छा गया हो किन्तु उनकी सृजनशीलता के धूमकेतु निरंतर उन सभी श्रेष्ठतम मानवों का पथ प्रशस्त करते रहेंगे ,जो मानवीय मूल्यों की हिफाज़त करते हुए , शोषण के अन्धकार को समूल नष्ट करते हुए मानव मात्र को शान्ति-मैत्री-बंधुत्व और समता से परिपूर्ण देखने की तमन्ना रखते हैं....
जनकवि रामनाथसिंह अर्थात 'अदम गौंडवी'ने आजीवन दलित,शोषित,पिछड़ों और गरीबों के संघर्षों में न केवल परोक्ष सहयोग किया बल्कि अपनी सशक्त लेखनी से इन वंचित वर्गों को उपकृत भी किया है.वे दुष्यंत पुरस्कार से सम्मानित किये जा चुके थे.भले ही उन्होंने मात्र दो काव्य संग्रह 'धरती की सतह पर'और 'समय से मुठभेड़'सृजित किये हों किन्तु 'संछिप्त्ता सौन्दर्य की जननी है' अतः अदम गौंडवी का सृजन,उनका व्यक्तित्व और संघर्षों में अवदान अप्रतिम है,पर्याप्त है,जीवन है...
श्रीराम तिवारी
राम नाथसिंह ने शायरी लिखने के शुरुआती दौर में ही न केवल अपना नाम बदल डाला बल्कि परम्परागत उत्तर आधुनिक कविता को शायरी का नया लिबास भी पहनाया.दुष्यंत ने जिस हिन्दी शायरी में आम आदमी का दर्द उकेरा था ,अदम गौंडवी ने जनता की आवाज बनाकर उसे अमरत्व प्रदान किया है.उनकी कई गजलों में व्यवस्था कि लानत-मलानत की गई है. जन- गीतों के तो मानो वे सरताज थे.पूंजीवादी,साम्प्रदायिक और निहित स्वार्थियों की जकड़न में कसमसाती आवाम को 'अदम 'के शेर संबल प्रदान करते है-
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडिये!
अपनी कुर्सी के लिए ज़ज्वात को मत छेडिये!!
हैं कहाँ हिटलर हलाकू जार या चंगेज खाँ!
मिट गए सब कौम की औकात को मत छेडिये!!
छेडिये इक जंग मिल जुलकर गरीबी के खिलाफ!
दोस्त !मेरे मजहबी नगमात को मत छेडिये!!
एक और वानगी पेश है-
काजू भुने प्लेट में,व्हस्की गिलास में,
उतरा है रामराज ,विधायक निवास में!
पक्के समाजवादी है,तस्कर हों या डकैत,
इतना असर है खादी के लिबास में!
आजादी का जश्न वो मनाएं किस तरह,
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में!
......................................
........एक ही चारा है वगावत ....
यह बात कह रहा हूँ में होशो-हवाश में!
२२ अक्तूबर १९४७ को जन्में अदम गौंडवी के दुखद निधन से भारतीय उपमहादीप के प्रगतिशील साहित्य जगत में भले ही शोक का तमस छा गया हो किन्तु उनकी सृजनशीलता के धूमकेतु निरंतर उन सभी श्रेष्ठतम मानवों का पथ प्रशस्त करते रहेंगे ,जो मानवीय मूल्यों की हिफाज़त करते हुए , शोषण के अन्धकार को समूल नष्ट करते हुए मानव मात्र को शान्ति-मैत्री-बंधुत्व और समता से परिपूर्ण देखने की तमन्ना रखते हैं....
जनकवि रामनाथसिंह अर्थात 'अदम गौंडवी'ने आजीवन दलित,शोषित,पिछड़ों और गरीबों के संघर्षों में न केवल परोक्ष सहयोग किया बल्कि अपनी सशक्त लेखनी से इन वंचित वर्गों को उपकृत भी किया है.वे दुष्यंत पुरस्कार से सम्मानित किये जा चुके थे.भले ही उन्होंने मात्र दो काव्य संग्रह 'धरती की सतह पर'और 'समय से मुठभेड़'सृजित किये हों किन्तु 'संछिप्त्ता सौन्दर्य की जननी है' अतः अदम गौंडवी का सृजन,उनका व्यक्तित्व और संघर्षों में अवदान अप्रतिम है,पर्याप्त है,जीवन है...
श्रीराम तिवारी
शनिवार, 10 दिसंबर 2011
'द सीक्रेट'में भारतीयों के लिए कुछ भी 'रहस्य'नहीं.
प्रख्यात लेखिका 'रोन्दा वार्न'ने अपनी पुस्तक ' द सीक्रेट' में बहुत उपयोगी और मानवोचित सिद्धांतों की नए सिरे से मीमांसा की है.उच्च शक्ति की विचार तरंगों,उद्दाम आकांक्षाओं,पृकृति प्रदत्त अवदानों की सहज प्राप्ति इत्यादि विषयक वैज्ञानिक विश्लेषणों के साथ इस पुस्तक में वह सब कुछ है जो एक खुशहाल और जिंदादिल व्यक्ति,समाज और राष्ट्र के लिए अनुकरणीय है.'रोन्दा वार्न' ने इस पुस्तक के समानांतर एक लघु फिल्म भी इसी विषय को लेकर बनाई है.डा जान ग्रे ,डा जान डेमार्तिनी ,डा जेम्स रे इत्यादी दर्जनों उद्भट विद्वान् दार्शनिकों ,मनोवैज्ञानिकों ,लेखकों और समाजशास्त्रियों को इस पुस्तक में उल्लेखित किया गया है.
पुस्तक में लेखिका ने अप्राप्त की प्राप्ति,इच्छा शक्ति की असीम प्रबलता,प्रकृति-पदार्थ और मनोभावों के आपस में अवगुंठित ताने -वाने को सप्रमाण और जीवंत रेखांकित किया है.चेतन-अचेतन,व्यक्ति-समूह,ब्रम्हांड-पिंड और उर्जा-पदार्थ के आपसी रिश्तों में मानवीय जीवन को आनंदमय ,निरापद और सफलतम बनाने के जो सूत्र इस पुस्तक में उपलब्ध हैं वे सभी कभी न कभी कहीं-न-कहीं यत्र-तत्र-सर्वत्र इस धरती पर या तो आजमाए जा चुके हैं या आजमाए जा रहे है.
न केवल इस पुस्तक की लेखिका अपितु इस पुस्तक में उल्लेखित अन्यान्न विद्वत जनों में अधिकांश या तो बाइबिल प्रेरित है याआधुनिक पाश्चात्य दर्शन से प्रभावित है. भारतीय प्राच्य वांग्मय से वे नितांत अनभिग्य से लगते है.
.मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं की इस पुस्तक का सार गीता के किसी एक श्लोक के चतुर्थांश के बराबर भी नहीं है.यह पुस्तक निसंदेह किसी निराश इंसान को "सकल पदार्थ हैं जग माहीं!कर्महीन नर पावत नाहीं!!से आगे नहीं ले जा सकती ;किन्तु गीता तो व्यक्तिगत लौकिक या पारलौकिक उपलब्धियों से भी आगे न केवल जीवन संग्राम में अपितु मानसिक संवेदनाओं के हाहाकार में भी जीवन को उजास प्रदान करने में समर्थ है.,
प्रस्तुत पुस्तक में 'कृतज्ञता'का महत्व कुछ इस तरह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय परम्पराओं और लोकाचार को यदि लिपिबद्ध कर उसे किसी खास पुस्तक की शक्ल में प्रकाशित किया जाए तो अमेरिकी बौद्धिक संपदा के रहनुमा उसे रातों रात अपने नाम से पेटेंट कराने से नहीं चूकेंगे!
"कृतज्ञता का अभ्यास मेरे लिए बहुत ज़बरदस्त सावित हुआ है.हर सुबह में जल्दी उठकर सबसे पहले जब फर्श पर पैर रखता हूँ तो 'धन्यवाद'[धरती को ]कहता हूँ/................................उन चीजों को याद करता हूँ ,जिनके लिए में कृतज्ञ हूँ......................में इसे ब्रह्मांड की ओर भेज रहा हूँ.........कृतज्ञता की भावनाएं महसूस कर रहा हूँ....."
डा जेम्स रे ' को इसी पुस्तक के पृष्ठ ७५ [हिंदी अनुवाद] पर उक्त कोटेशन के साथ उद्धृत किया गया है.
भारत में ५ हज़ार वर्ष पूर्व रचित आर्ष ग्रुन्थों और गुरुकुल परम्पराओं में सहस्रों उदहारण मौजूद हैं.जहां गुरु शिष्य ,के उदाहरण में आरुणि-विरोचन,रघु-वशिष्ठ,चन्द्रगुप्त-चाणक्य,शिवाजी-समर्थ रामदास और गाँधी-गोखले के उदाहरन मौजूद हैं. माता-पिता के प्रति राम और श्रवणकुमार के बलिदान जग जाहिर हैं.
सुन जननी सोई सूत बडभागी !जो पितु -मात चरण अनुरागी!!
तनय मातु-पितु तोषनिहारा! दुर्लभ जननिं सकल संसार!!
इस तरह के असंख्य उदहारण भारतीय वांग्मय में उपलब्ध हैं,किन्तु बिडम्बना यह है कि जहां प्रस्तुत पुस्तक द सीक्रेट'सीधे -सीधे सरल लफ्जों में बिना किसी विराट महाकाव्यात्मक आख्यान के ही मानवीय ज्ञानामृत का रसास्वादन करती है ;वहीं भारतीय और प्राच्य ज्ञान रूपी मणि-माणिक्यों को कुछ इस तरह पेश करने की परम्परा सी रही है कि जब तक एक ट्रक भूसा नहीं छानोगे तब तक सुई नहीं मिलेगी. इतना ही नहीं आगम -निगम ,पुराणों में तो जिस तरह की अलिफ़ लेलाई किस्म की कथात्मकता में ज्ञानामृत छिपाया गया हैउसके नकारात्मक पहलु न केवल दीर्घसूत्रता में आये हैं अपितु समाज के श्रमिक,सर्वहारा और कामगार नर-नारियों को उससे महरूम रखने के क्षेपक भी घुसेड़े गए हैं.भाषाई जटिलता और आम जनता की निरक्षरता से न केवल भारतीय उप्म्हद्वीप अपितु दुनिया के तथकथित सभ्य और शुशिक्षित समाजों तक वो ज्ञान नहीं पहुँच पाया जो 'रोन्दा वार्न 'के लिए रहस्य है और जिसको उन्होंने कुछ इस अंदाज़ में पेश किया है कि उन्हें दुनिया में किसी खास नए रहस्य का पता चला है सो उन्होंने 'द सीक्रेट ' में दुनिया के सामने ओपन किया है?
श्रीराम तिवारी
पुस्तक में लेखिका ने अप्राप्त की प्राप्ति,इच्छा शक्ति की असीम प्रबलता,प्रकृति-पदार्थ और मनोभावों के आपस में अवगुंठित ताने -वाने को सप्रमाण और जीवंत रेखांकित किया है.चेतन-अचेतन,व्यक्ति-समूह,ब्रम्हांड-पिंड और उर्जा-पदार्थ के आपसी रिश्तों में मानवीय जीवन को आनंदमय ,निरापद और सफलतम बनाने के जो सूत्र इस पुस्तक में उपलब्ध हैं वे सभी कभी न कभी कहीं-न-कहीं यत्र-तत्र-सर्वत्र इस धरती पर या तो आजमाए जा चुके हैं या आजमाए जा रहे है.
न केवल इस पुस्तक की लेखिका अपितु इस पुस्तक में उल्लेखित अन्यान्न विद्वत जनों में अधिकांश या तो बाइबिल प्रेरित है याआधुनिक पाश्चात्य दर्शन से प्रभावित है. भारतीय प्राच्य वांग्मय से वे नितांत अनभिग्य से लगते है.
.मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं की इस पुस्तक का सार गीता के किसी एक श्लोक के चतुर्थांश के बराबर भी नहीं है.यह पुस्तक निसंदेह किसी निराश इंसान को "सकल पदार्थ हैं जग माहीं!कर्महीन नर पावत नाहीं!!से आगे नहीं ले जा सकती ;किन्तु गीता तो व्यक्तिगत लौकिक या पारलौकिक उपलब्धियों से भी आगे न केवल जीवन संग्राम में अपितु मानसिक संवेदनाओं के हाहाकार में भी जीवन को उजास प्रदान करने में समर्थ है.,
प्रस्तुत पुस्तक में 'कृतज्ञता'का महत्व कुछ इस तरह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय परम्पराओं और लोकाचार को यदि लिपिबद्ध कर उसे किसी खास पुस्तक की शक्ल में प्रकाशित किया जाए तो अमेरिकी बौद्धिक संपदा के रहनुमा उसे रातों रात अपने नाम से पेटेंट कराने से नहीं चूकेंगे!
"कृतज्ञता का अभ्यास मेरे लिए बहुत ज़बरदस्त सावित हुआ है.हर सुबह में जल्दी उठकर सबसे पहले जब फर्श पर पैर रखता हूँ तो 'धन्यवाद'[धरती को ]कहता हूँ/................................उन चीजों को याद करता हूँ ,जिनके लिए में कृतज्ञ हूँ......................में इसे ब्रह्मांड की ओर भेज रहा हूँ.........कृतज्ञता की भावनाएं महसूस कर रहा हूँ....."
डा जेम्स रे ' को इसी पुस्तक के पृष्ठ ७५ [हिंदी अनुवाद] पर उक्त कोटेशन के साथ उद्धृत किया गया है.
भारत में ५ हज़ार वर्ष पूर्व रचित आर्ष ग्रुन्थों और गुरुकुल परम्पराओं में सहस्रों उदहारण मौजूद हैं.जहां गुरु शिष्य ,के उदाहरण में आरुणि-विरोचन,रघु-वशिष्ठ,चन्द्रगुप्त-चाणक्य,शिवाजी-समर्थ रामदास और गाँधी-गोखले के उदाहरन मौजूद हैं. माता-पिता के प्रति राम और श्रवणकुमार के बलिदान जग जाहिर हैं.
सुन जननी सोई सूत बडभागी !जो पितु -मात चरण अनुरागी!!
तनय मातु-पितु तोषनिहारा! दुर्लभ जननिं सकल संसार!!
इस तरह के असंख्य उदहारण भारतीय वांग्मय में उपलब्ध हैं,किन्तु बिडम्बना यह है कि जहां प्रस्तुत पुस्तक द सीक्रेट'सीधे -सीधे सरल लफ्जों में बिना किसी विराट महाकाव्यात्मक आख्यान के ही मानवीय ज्ञानामृत का रसास्वादन करती है ;वहीं भारतीय और प्राच्य ज्ञान रूपी मणि-माणिक्यों को कुछ इस तरह पेश करने की परम्परा सी रही है कि जब तक एक ट्रक भूसा नहीं छानोगे तब तक सुई नहीं मिलेगी. इतना ही नहीं आगम -निगम ,पुराणों में तो जिस तरह की अलिफ़ लेलाई किस्म की कथात्मकता में ज्ञानामृत छिपाया गया हैउसके नकारात्मक पहलु न केवल दीर्घसूत्रता में आये हैं अपितु समाज के श्रमिक,सर्वहारा और कामगार नर-नारियों को उससे महरूम रखने के क्षेपक भी घुसेड़े गए हैं.भाषाई जटिलता और आम जनता की निरक्षरता से न केवल भारतीय उप्म्हद्वीप अपितु दुनिया के तथकथित सभ्य और शुशिक्षित समाजों तक वो ज्ञान नहीं पहुँच पाया जो 'रोन्दा वार्न 'के लिए रहस्य है और जिसको उन्होंने कुछ इस अंदाज़ में पेश किया है कि उन्हें दुनिया में किसी खास नए रहस्य का पता चला है सो उन्होंने 'द सीक्रेट ' में दुनिया के सामने ओपन किया है?
श्रीराम तिवारी
रविवार, 4 दिसंबर 2011
जनसंख्या नियंत्रण के बिना भारत ओर चीन का उद्धार नहीं....
अपने दुसरे कार्यकाल के अंतिम दिनों में तत्कालीन अमेरिकन प्रेसिडेंट मिस्टर जार्ज बुश [जूनियर]ने फ़रमाया था"भारत और चीन के लोग चूँकि अब ज्यादा खाने लगे हैं [अर्थात पहले तो भुखमरे ही थे?]इसलिए अमेरिका और शेष विकसित देशों पर आर्थिक मंदी की मार पडी है"अभी कुछ दिनों पहले वर्तमान प्रेसिडेंट ओबामा ने फ़रमाया "अमेरिकी युवाओं को शंघाई और बंगलुरु से टक्कर लेने का माद्दा रखना होगा"वास्तव में इन वक्तव्यों के पीछे की मंसा भले ही कुंठित हो किन्तु सचाई यही है किभारत और चीन में एक नव -धनाड्य वर्ग तो जरुर समृद्ध हुआ है ,भले ही गरीव और अमीर के बीच की खाई बेतहासा बड़ी हो.चूँकि भारत और चीन की जनसंख्या वाकई दुनिया की एक तिहाई के करीब पहुँचने वाली है जबकि जमीनी हिस्सा १/२० भी नहीं है.इस सूरते हाल में विराट श्रम शक्ति के काल्पनिक आधार और गैर जिम्मेदार वित्त नियोजन को अर्थ व्यवस्था का उन्नायक कैसे कहा जा सकता है ?
नव उदारवाद के रास्ते पर कुलांचे भरते हुए भारतीय अर्थ-व्यवस्था ने आर्थिक वृद्धि दर की जो कल्पना की थी
वह आज अपने अंतिम अंजाम से मीलों दूर पहले भारतीय पूंजीवादी राजनीतिज्ञों को आगाह कर रही है कि मात्र व्याज दरों में कमी वेशी करने ,विदेशी निवेश बढाने,जन-कल्याणकारी मदों से सरकारी इमदाद में कमी करने और वित्तीय पूंजीगत लाभों को राष्ट्र विकाश का माडल भर मान लेने से अर्थ व्यवस्था को सुरखाव के पंख नहीं लगने वाले हैं.जनसँख्या को नियंत्रित किये बिना क्या होगा? खेती के लिए और उद्द्योगों के लिए जमीने क्या आसमान से आयेंगीं?पीने का पानी और उसी अनुपात में शुद्ध आक्सीजन के लिए शुद्ध वायुमंडल भी होना चाहिए कि नहीं?केवल व्यापारिक ताने-बाने से ये सब हासिल नहीं होगा.
खुदरा व्यापार के मल्टी ब्रांड में १००%और एकल जिंसों में ५१%ऍफ़ डी आई को आर्थिक सुधारों की संजीविनी निरुपित करते हुए ,एम् एन सी और उनके वैश्विक नियामक नियंताओं ने वर्तमान नव उदारवादी भारतीय देशी शासक वर्ग को भीवेहद उहापोह की स्थिति में ला खड़ा कर दिया है.ऊपर से भले ही यह दिखाने की कोशिश की जाती रही है कि भारतीय और चीनी अर्थ व्यवस्थाएंवैश्विक आर्थिक संकट की काली डरावनी -विनाशकारी घटाओं से कमोवेश सुरक्षित हैं ;किन्तु जानकारों की आशंकाओं को यत्र-तत्र-सर्वत्र साकार देखा जाने लगा है.यदि चीन और भारत को एक बाज़ार समझकर विकसित देश, अपने आर्थिक संकट से निजात पाने के लिए, अपने अति शेष उत्पादों को इन विकाशशील राष्ट्रों में खपा कर ;अपना उद्धार करना चाहते हैं तो इसमें किसी को तब तक कोई आपत्ति नहीं जब तक उसके हितों पर आंच नहीं आती.अब यदि भारत और चीन की जनता को लगता है कि उनके हितों को खतरा है तो वे ऍफ़ डी आई समेत उन तमाम पश्चिमी पूंजीवादी हथकंडों का विरोध क्यों नहीं करेंगे?विकीलीक्स के ताजे खुलासों में भारत और चीन पर अमेरिकी नीति निर्माताओं के तत विषयक उद्देश्य स्पष्ट होने लगे हैं.
चीन की अर्थव्यवस्था विशुद्ध साम्यवादी व्यवस्था के दौर में नितांत सफल,निरापद और निष्कंटक हुआ करती थी;किन्तु सोवियत पराभव से आक्रांत होकर देंग शियाओ पिंगके अनुयाइयों ने जिस तरह से अर्ध पूंजीवादी अर्ध साम्यवादी खिचडी पकाई उससे निसंदेह चीन को आधारभूत संरचनाओंमें आशातीत सफलता और तीव्र औद्यौगीकरन की मृग मरीचिका का दिग्दर्शन भले ही हुआ हो किन्तु अब उसके लिए आगे कुआँ और पीछे खाई है चीन की अर्थव्यवस्था का संकट प्रारंभ हो चला है.विगत तीन सालों में लगातार आर्थिक रफ़्तार घटने और विनिर्माण क्षेत्र सिकुड़ने के संकेत मिलने लगे हैं.यही वजह है कि चीन को मजबूरन अपनी मौद्रिक नीति को नरम करने की आवश्यकता आन पडी है'.चाइना फेड्रेसन आफ लाजिस्टिक्स एंड perchesing के अनुसार नवम्बर में पी एम् आई घटकर ४९ पर आ गिरा है जबकि अक्तूबर में ५०.४ था.उसके निर्यात में अप्रत्याशित गिरावट और अन्दुरुनी प्राकृतिक झंझावातों ने राजकोषीय घाटे को वैश्विक देनदारियों के समकक्ष ला खड़ा कर दिया है.मजदूर,कर्मचारी ,किसान और वेरोजगार युवाओं में वर्तमान चीनी शासकों के प्रति अवज्ञा का भाव पैदा हो चला है .हड़ताल,प्रदर्शन और सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी गतिविधियाँ अब चीन में आम हो चली है .चीन का मीडिया सिर्फ वही बतलाता है जो वर्तमान शासकों और पूंजीवादी संसार को लुभाता हो.चीन की कोम्मुनिस्ट पार्टी अब मार्क्स,लेनिन और माओ के जनवादी सिद्धांतों-वास्तविक साम्यवादी व्यवस्था से पदच्युत होकर केवल पेंशन भोगियों और सत्ता के दलालों की एकांगी दिग्भ्रमित नाम मात्र की साम्यवादी होकर रह गई है.यही वजह है कि जनसंख्या नियंत्रण ,कृषि उत्पादन में आनुपातिक वृद्धि और समतामूलक समाज व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों से भटकती हुई चीन की वर्तमान हु जिन्ताओ सरकार वैश्विक बाजारीकरण की राह पर चलते हुए हाराकिरी की ओर अग्रसर है.जनसँख्या नियंत्रण के कठोर और वैज्ञानिक उपायों के बिना चीन का भविष्य तो खतरे में है ही किन्तु भारत को प्रकारांतर से इससे बेजा खतरा हो सकता है.
भारत में कृषि उत्पादन,जनसँख्या बृद्धि तथा सार्वजनिक वितरण व्यवस्था इत्यादि महत्वपूर्ण विषयों को वर्तमान यु पी ऐ सरकार के अजेंडे में कोई खास महत्व नहीं है.उत्तम गुणवत्ता के बीज,उर्वरक,सिचाई,बिजली,की किल्लत का आलम यह है कि हजारों क़र्ज़ ग्रस्त सीमान्त किसानों ने विगत ५-६ सालों में आत्म हत्या कर ली .महंगाई,भृष्टाचार और आधुनिकीकरण पर तो फिर भीजनता और मीडिया कि निरंतर सक्रियिता बनी हुई है किन्तु जनसँख्या नियंत्रण,पर्यावरण,प्रदूषण,अनुत्पादक श्रम नियोजन तथा सार्वजनिक वितरण व्यवस्था पर न तो जन मानसगंभीर है और न ही राज्यसत्ता के हितग्राहियों को उतनी उत्कंठा या व्यग्रता है जितनी की सांसदों के भत्ते बढवा लेने,विदेशी निवेशकों को लाल कालीन बिछाने या कारपोरट लाबी के सरोकारों को उनके हितों के परिप्रेक्ष्य में परिपूर्ण करने की व्यग्रता रहती है.राजनीतिक भृष्टाचार और अफसरों की लूटखोरी ने देश को अन्दर ही अन्दर खोखला कर डाला है. यही वजह है कि विगत जून २०११ में भारत का विदेशी ऋण ३१६.९ अरब डालर तक जा पहुंचा जो मार्च २०११ में ३०६.५ डालर था.विदेशी वाण्जिक उधारियों को विनियमित करने ,अनिवासी भारतीयों के द्वारा जमा राशियों पर इंटरेस्ट रेट को युक्ति संगत बनाए जाने की चर्चा भी पक्ष -विपक्ष नहीं करता.इन सभी मशक्कतों का परिणाम यह कि' ऊँट के मुंह में जीरा'.वाली कहावत ही चरितार्थ हो सकती है.
भारतीय मीडिया का एक खास हिस्सा हैजो बाबाओं,समाज सेवकों ,धर्म गुरुओं और गैर राजनैतिक आवरण में छिपकर विशुद्ध राजनीती करने में निरंतर जुटे निहित स्वोर्थियों को राजनीती का समस्थानिक सिद्ध करने में व्यस्त है. देशी-विदेशी इजारेदारों की गिरफ्त वाला मीडिया भी अपने नव उदारवादी अजेंडे पर काम करते हुए कभी १-२-३,एटमी करार,कभी रिटेल में ऍफ़ डी आई और कभी राष्ट्र्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथो में सौंपने का वातावरण तैयार करता रहता है.यह पूंजीवादी दुमछल्ला वैश्विक नव उदारवादीआर्थिक उद्घोष इतने यकीन से करता है कि इसका असर न केवल भारत और चीन बल्कि तीसरी दुनिया के अन्य देश भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते.राष्ट्रीय मुख्य धारा के मीडिया को स्वनियंत्रण सीखना होगा और जन संख्या नियंत्रण,साम्प्रदायिक पाखंड और एन जी ओ रुपी परजीवी अमर्वेलों पर प्रतिघाती कदम उठाना चाहिए.
विगत दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ ने च्र्तावनी दी है कि दुनिया एक और आर्थिक मंदी की चपेट में आ सकती है.वर्ष २०१२ में दुनिया की आर्थिक विकाश दर धीमी होती चली जायेगी और भारत तथा चीन जैसे तथाकथित उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे.चीन और भारत के बारे में मिस्टर ओबामा का काल्पनिक भयादोहन भी अब असरकारक नहीं होगा.संयुक राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार यूरोप ,अमेरिका और तथाकथित एशियन चीतों की जान सांसत में होगी.नयी नौकरियों का आभाव ,बढ़ता क़र्ज़ संकट और वित्तीय क्षेत्रों में आ रही दुश्वारियों के बरक्स नवउदारवादी अर्थव्यवस्थाओं की नाकामी सारी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेगी.भारत और चीन भी इस भयावह सुनामी से अछूते नहीं रह पायेंगे. जनसँख्या नियंत्रण के बिना 'किसी का गुजारा नहीं.आवश्यकताओं की आपूर्ति ,जिंसों का उत्पादन और जनसँख्या में वैज्ञानिक आनुपातिक सामंजस्य होना चाहिए.केवल राजनीतिज्ञों या व्यवस्थाओं पर काबिज शक्तियों को कोसने से काम नहीं चलने वाला.भावी पीढीयाँ नारकीय यंत्रणा भोगने को अभिशप्त होंगी ;यदि वर्तमान पीढी ने अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वहन ठीक से नहीं किया,अर्थात जनसंख्या नियंत्रण के ठोस और वैज्ञानिक उपायों का क्रियान्वन.
अभी तक आम धारणा रही है कि भारत और चीन में चूँकि श्रम सस्ता और कच्चा माल इफरात में मौजूद है भारत और चीन दोनों हीपड़ोसी देशों के विकसित देशों से व्यापार और वित्तीय रिश्ते गहरे हैं और विश्व अर्थ व्यवस्था को सहारा देने की क्षमता रखते हैं ,सहारा दिया भी है किन्तु वर्ष २०१२ में भारत की विकाश दर लुढ़कती हुई ७-७ से नीचे जाती दिख रही है .डालर के मुकाबले रुपया और युयान दोनों ही अब पस्त होते दिख रहे हैं ९% से ऊपर की आर्थिक विकाश दर और आशातीत आर्थिक अवलंबन में भारत और चीन अब विश्व के संकट ग्रस्त पूंजीवादी देशों को कुछ खास नहीं दे सकेंगे.भारत और चीन को अपने घरेलू रक्षात्मक संसाधनों में कटौती करते हुए दुनिया के अस्त्र उत्पादकों से पीछा छुड़ा लेना चाहिए.भारत चीन को अपने यहाँ ज्यादा नौकरियां पैदा करनी होंगी,सड़क-बिजली -बंदरगाह जैसे अधोसंरचना क्षेत्र में निवेश बढ़ाना होगा.न केवल उर्जा खपत नियंत्रण के उपाय करने होंगे बल्कि टिकाऊ उर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करनी होगी.भारत के लिए स्थिति चीन से भी दुष्कर है .आंतरिक वाह्य खतरों को केवल आतंकवादी या अलगाववादी ही नहीं बल्कि भारतीय अस्मिता को जमींदोज किये जाने के खतरे भी विद्यमान हैं . आर्थिक मंदी दुनिया को फिर से दस्तक देने लगी है ,भारत और चीन भी उससे से अछूते नहीं रह पायेंगे.दोनों सनातन पड़ोसियों को अपने सीमा विवादों को ठन्डे वसते में रख देना चाहिए.खास तोर से चीन के वुद्धिजीवियों,साहित्यकारों,छात्रों,युवाओं ,मजदूरों और किसानो की यह एतिहासिक जिम्मेदारी है की वे अपने शासक वर्गों पर दवाव बनाएं ताकि वे भारत के खिलाफ पाकिस्तान रुपी बिगडेल निजाम का इस्तेमाल न करे.जहां तक भारतीय विदेश नीति का सवाल है ,वह पूरी तरह पारदर्शी ,विश्व बंधुत्व आधारित,अहिंसा,स्वतंत्रता और समानता के नीति निर्देशक सिद्धांतों पर अवलंबित है.आज़ाद भारत में विगत ६५ सालों में भारत की विदेश नीति को पूरे राष्ट्र ने उसे ही तस्दीक किया जिसे पंडित नेहरु के नेत्रत्व में उदीयमान भारत ने अपने शैशव काल में अनुप्रमाणित किया था. अब जो कुछ भी बदलना है या सकारात्मक कदम उठाना है वो चीन को ही करना है.भारत तो अपने हिस्से के तमाम जिम्मेदारियां पहले ही पूर्ण कर चूका है.अब यदि पाकिस्तान के कंधे पर बन्दूक रखकर चीन अपने सनातन पड़ोसी और पंचशील प्रणेता भारत को शत्रु मानकर चलता है तो उसमें चीन का ही नुक्सान ज्यादा है..
श्रीराम तिवारी
नव उदारवाद के रास्ते पर कुलांचे भरते हुए भारतीय अर्थ-व्यवस्था ने आर्थिक वृद्धि दर की जो कल्पना की थी
वह आज अपने अंतिम अंजाम से मीलों दूर पहले भारतीय पूंजीवादी राजनीतिज्ञों को आगाह कर रही है कि मात्र व्याज दरों में कमी वेशी करने ,विदेशी निवेश बढाने,जन-कल्याणकारी मदों से सरकारी इमदाद में कमी करने और वित्तीय पूंजीगत लाभों को राष्ट्र विकाश का माडल भर मान लेने से अर्थ व्यवस्था को सुरखाव के पंख नहीं लगने वाले हैं.जनसँख्या को नियंत्रित किये बिना क्या होगा? खेती के लिए और उद्द्योगों के लिए जमीने क्या आसमान से आयेंगीं?पीने का पानी और उसी अनुपात में शुद्ध आक्सीजन के लिए शुद्ध वायुमंडल भी होना चाहिए कि नहीं?केवल व्यापारिक ताने-बाने से ये सब हासिल नहीं होगा.
खुदरा व्यापार के मल्टी ब्रांड में १००%और एकल जिंसों में ५१%ऍफ़ डी आई को आर्थिक सुधारों की संजीविनी निरुपित करते हुए ,एम् एन सी और उनके वैश्विक नियामक नियंताओं ने वर्तमान नव उदारवादी भारतीय देशी शासक वर्ग को भीवेहद उहापोह की स्थिति में ला खड़ा कर दिया है.ऊपर से भले ही यह दिखाने की कोशिश की जाती रही है कि भारतीय और चीनी अर्थ व्यवस्थाएंवैश्विक आर्थिक संकट की काली डरावनी -विनाशकारी घटाओं से कमोवेश सुरक्षित हैं ;किन्तु जानकारों की आशंकाओं को यत्र-तत्र-सर्वत्र साकार देखा जाने लगा है.यदि चीन और भारत को एक बाज़ार समझकर विकसित देश, अपने आर्थिक संकट से निजात पाने के लिए, अपने अति शेष उत्पादों को इन विकाशशील राष्ट्रों में खपा कर ;अपना उद्धार करना चाहते हैं तो इसमें किसी को तब तक कोई आपत्ति नहीं जब तक उसके हितों पर आंच नहीं आती.अब यदि भारत और चीन की जनता को लगता है कि उनके हितों को खतरा है तो वे ऍफ़ डी आई समेत उन तमाम पश्चिमी पूंजीवादी हथकंडों का विरोध क्यों नहीं करेंगे?विकीलीक्स के ताजे खुलासों में भारत और चीन पर अमेरिकी नीति निर्माताओं के तत विषयक उद्देश्य स्पष्ट होने लगे हैं.
चीन की अर्थव्यवस्था विशुद्ध साम्यवादी व्यवस्था के दौर में नितांत सफल,निरापद और निष्कंटक हुआ करती थी;किन्तु सोवियत पराभव से आक्रांत होकर देंग शियाओ पिंगके अनुयाइयों ने जिस तरह से अर्ध पूंजीवादी अर्ध साम्यवादी खिचडी पकाई उससे निसंदेह चीन को आधारभूत संरचनाओंमें आशातीत सफलता और तीव्र औद्यौगीकरन की मृग मरीचिका का दिग्दर्शन भले ही हुआ हो किन्तु अब उसके लिए आगे कुआँ और पीछे खाई है चीन की अर्थव्यवस्था का संकट प्रारंभ हो चला है.विगत तीन सालों में लगातार आर्थिक रफ़्तार घटने और विनिर्माण क्षेत्र सिकुड़ने के संकेत मिलने लगे हैं.यही वजह है कि चीन को मजबूरन अपनी मौद्रिक नीति को नरम करने की आवश्यकता आन पडी है'.चाइना फेड्रेसन आफ लाजिस्टिक्स एंड perchesing के अनुसार नवम्बर में पी एम् आई घटकर ४९ पर आ गिरा है जबकि अक्तूबर में ५०.४ था.उसके निर्यात में अप्रत्याशित गिरावट और अन्दुरुनी प्राकृतिक झंझावातों ने राजकोषीय घाटे को वैश्विक देनदारियों के समकक्ष ला खड़ा कर दिया है.मजदूर,कर्मचारी ,किसान और वेरोजगार युवाओं में वर्तमान चीनी शासकों के प्रति अवज्ञा का भाव पैदा हो चला है .हड़ताल,प्रदर्शन और सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी गतिविधियाँ अब चीन में आम हो चली है .चीन का मीडिया सिर्फ वही बतलाता है जो वर्तमान शासकों और पूंजीवादी संसार को लुभाता हो.चीन की कोम्मुनिस्ट पार्टी अब मार्क्स,लेनिन और माओ के जनवादी सिद्धांतों-वास्तविक साम्यवादी व्यवस्था से पदच्युत होकर केवल पेंशन भोगियों और सत्ता के दलालों की एकांगी दिग्भ्रमित नाम मात्र की साम्यवादी होकर रह गई है.यही वजह है कि जनसंख्या नियंत्रण ,कृषि उत्पादन में आनुपातिक वृद्धि और समतामूलक समाज व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों से भटकती हुई चीन की वर्तमान हु जिन्ताओ सरकार वैश्विक बाजारीकरण की राह पर चलते हुए हाराकिरी की ओर अग्रसर है.जनसँख्या नियंत्रण के कठोर और वैज्ञानिक उपायों के बिना चीन का भविष्य तो खतरे में है ही किन्तु भारत को प्रकारांतर से इससे बेजा खतरा हो सकता है.
भारत में कृषि उत्पादन,जनसँख्या बृद्धि तथा सार्वजनिक वितरण व्यवस्था इत्यादि महत्वपूर्ण विषयों को वर्तमान यु पी ऐ सरकार के अजेंडे में कोई खास महत्व नहीं है.उत्तम गुणवत्ता के बीज,उर्वरक,सिचाई,बिजली,की किल्लत का आलम यह है कि हजारों क़र्ज़ ग्रस्त सीमान्त किसानों ने विगत ५-६ सालों में आत्म हत्या कर ली .महंगाई,भृष्टाचार और आधुनिकीकरण पर तो फिर भीजनता और मीडिया कि निरंतर सक्रियिता बनी हुई है किन्तु जनसँख्या नियंत्रण,पर्यावरण,प्रदूषण,अनुत्पादक श्रम नियोजन तथा सार्वजनिक वितरण व्यवस्था पर न तो जन मानसगंभीर है और न ही राज्यसत्ता के हितग्राहियों को उतनी उत्कंठा या व्यग्रता है जितनी की सांसदों के भत्ते बढवा लेने,विदेशी निवेशकों को लाल कालीन बिछाने या कारपोरट लाबी के सरोकारों को उनके हितों के परिप्रेक्ष्य में परिपूर्ण करने की व्यग्रता रहती है.राजनीतिक भृष्टाचार और अफसरों की लूटखोरी ने देश को अन्दर ही अन्दर खोखला कर डाला है. यही वजह है कि विगत जून २०११ में भारत का विदेशी ऋण ३१६.९ अरब डालर तक जा पहुंचा जो मार्च २०११ में ३०६.५ डालर था.विदेशी वाण्जिक उधारियों को विनियमित करने ,अनिवासी भारतीयों के द्वारा जमा राशियों पर इंटरेस्ट रेट को युक्ति संगत बनाए जाने की चर्चा भी पक्ष -विपक्ष नहीं करता.इन सभी मशक्कतों का परिणाम यह कि' ऊँट के मुंह में जीरा'.वाली कहावत ही चरितार्थ हो सकती है.
भारतीय मीडिया का एक खास हिस्सा हैजो बाबाओं,समाज सेवकों ,धर्म गुरुओं और गैर राजनैतिक आवरण में छिपकर विशुद्ध राजनीती करने में निरंतर जुटे निहित स्वोर्थियों को राजनीती का समस्थानिक सिद्ध करने में व्यस्त है. देशी-विदेशी इजारेदारों की गिरफ्त वाला मीडिया भी अपने नव उदारवादी अजेंडे पर काम करते हुए कभी १-२-३,एटमी करार,कभी रिटेल में ऍफ़ डी आई और कभी राष्ट्र्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथो में सौंपने का वातावरण तैयार करता रहता है.यह पूंजीवादी दुमछल्ला वैश्विक नव उदारवादीआर्थिक उद्घोष इतने यकीन से करता है कि इसका असर न केवल भारत और चीन बल्कि तीसरी दुनिया के अन्य देश भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते.राष्ट्रीय मुख्य धारा के मीडिया को स्वनियंत्रण सीखना होगा और जन संख्या नियंत्रण,साम्प्रदायिक पाखंड और एन जी ओ रुपी परजीवी अमर्वेलों पर प्रतिघाती कदम उठाना चाहिए.
विगत दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ ने च्र्तावनी दी है कि दुनिया एक और आर्थिक मंदी की चपेट में आ सकती है.वर्ष २०१२ में दुनिया की आर्थिक विकाश दर धीमी होती चली जायेगी और भारत तथा चीन जैसे तथाकथित उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे.चीन और भारत के बारे में मिस्टर ओबामा का काल्पनिक भयादोहन भी अब असरकारक नहीं होगा.संयुक राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार यूरोप ,अमेरिका और तथाकथित एशियन चीतों की जान सांसत में होगी.नयी नौकरियों का आभाव ,बढ़ता क़र्ज़ संकट और वित्तीय क्षेत्रों में आ रही दुश्वारियों के बरक्स नवउदारवादी अर्थव्यवस्थाओं की नाकामी सारी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेगी.भारत और चीन भी इस भयावह सुनामी से अछूते नहीं रह पायेंगे. जनसँख्या नियंत्रण के बिना 'किसी का गुजारा नहीं.आवश्यकताओं की आपूर्ति ,जिंसों का उत्पादन और जनसँख्या में वैज्ञानिक आनुपातिक सामंजस्य होना चाहिए.केवल राजनीतिज्ञों या व्यवस्थाओं पर काबिज शक्तियों को कोसने से काम नहीं चलने वाला.भावी पीढीयाँ नारकीय यंत्रणा भोगने को अभिशप्त होंगी ;यदि वर्तमान पीढी ने अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वहन ठीक से नहीं किया,अर्थात जनसंख्या नियंत्रण के ठोस और वैज्ञानिक उपायों का क्रियान्वन.
अभी तक आम धारणा रही है कि भारत और चीन में चूँकि श्रम सस्ता और कच्चा माल इफरात में मौजूद है भारत और चीन दोनों हीपड़ोसी देशों के विकसित देशों से व्यापार और वित्तीय रिश्ते गहरे हैं और विश्व अर्थ व्यवस्था को सहारा देने की क्षमता रखते हैं ,सहारा दिया भी है किन्तु वर्ष २०१२ में भारत की विकाश दर लुढ़कती हुई ७-७ से नीचे जाती दिख रही है .डालर के मुकाबले रुपया और युयान दोनों ही अब पस्त होते दिख रहे हैं ९% से ऊपर की आर्थिक विकाश दर और आशातीत आर्थिक अवलंबन में भारत और चीन अब विश्व के संकट ग्रस्त पूंजीवादी देशों को कुछ खास नहीं दे सकेंगे.भारत और चीन को अपने घरेलू रक्षात्मक संसाधनों में कटौती करते हुए दुनिया के अस्त्र उत्पादकों से पीछा छुड़ा लेना चाहिए.भारत चीन को अपने यहाँ ज्यादा नौकरियां पैदा करनी होंगी,सड़क-बिजली -बंदरगाह जैसे अधोसंरचना क्षेत्र में निवेश बढ़ाना होगा.न केवल उर्जा खपत नियंत्रण के उपाय करने होंगे बल्कि टिकाऊ उर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करनी होगी.भारत के लिए स्थिति चीन से भी दुष्कर है .आंतरिक वाह्य खतरों को केवल आतंकवादी या अलगाववादी ही नहीं बल्कि भारतीय अस्मिता को जमींदोज किये जाने के खतरे भी विद्यमान हैं . आर्थिक मंदी दुनिया को फिर से दस्तक देने लगी है ,भारत और चीन भी उससे से अछूते नहीं रह पायेंगे.दोनों सनातन पड़ोसियों को अपने सीमा विवादों को ठन्डे वसते में रख देना चाहिए.खास तोर से चीन के वुद्धिजीवियों,साहित्यकारों,छात्रों,युवाओं ,मजदूरों और किसानो की यह एतिहासिक जिम्मेदारी है की वे अपने शासक वर्गों पर दवाव बनाएं ताकि वे भारत के खिलाफ पाकिस्तान रुपी बिगडेल निजाम का इस्तेमाल न करे.जहां तक भारतीय विदेश नीति का सवाल है ,वह पूरी तरह पारदर्शी ,विश्व बंधुत्व आधारित,अहिंसा,स्वतंत्रता और समानता के नीति निर्देशक सिद्धांतों पर अवलंबित है.आज़ाद भारत में विगत ६५ सालों में भारत की विदेश नीति को पूरे राष्ट्र ने उसे ही तस्दीक किया जिसे पंडित नेहरु के नेत्रत्व में उदीयमान भारत ने अपने शैशव काल में अनुप्रमाणित किया था. अब जो कुछ भी बदलना है या सकारात्मक कदम उठाना है वो चीन को ही करना है.भारत तो अपने हिस्से के तमाम जिम्मेदारियां पहले ही पूर्ण कर चूका है.अब यदि पाकिस्तान के कंधे पर बन्दूक रखकर चीन अपने सनातन पड़ोसी और पंचशील प्रणेता भारत को शत्रु मानकर चलता है तो उसमें चीन का ही नुक्सान ज्यादा है..
श्रीराम तिवारी
रविवार, 27 नवंबर 2011
चल अन्ना घर अपने रेन भई यह देश...
चाहे तथाकथित अन्ना हजारे टीम हो ,बाबा रामदेव की नाटक मण्डली हो या उनके कन्धों पर चढ़कर राजनीति की उद्दाम आकांक्षा के तथाकथित गैर राजनैतिक असंवैधानिक सत्ता केंद्र हों ,इन को गंभीरता से देश की जनता ने कभी नहीं लिया.एक सौ बीस करोड़ जनता में से भूले -भटके दस-बीस हजार भावुक भारतीयों और सत्ता विरोध का बाजारी उत्पाद बेचकर अपनी आजीविका चलाने वाले दक्षिण पंथी मीडिया और अधुनातन तकनीकी प्रौद्दोगिकी के संचालकों ने भले ही बहती गंगा में हाथ धो लिए हों किन्तु आम भारतीय जन-मानस ने अपनी राष्ट्रीय चेतना के नीति निर्देशक सिद्धांतों पर कोई समझोता नहीं किया.
अन्ना हजारे की बौद्धिक चेतना-राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-वैदेशिक और जन -क्रांति विषयक समझ बूझ पर मुझे कभी कोई शक नहीं रहा.अपने ब्लॉग -इन्कलाब जिंदाबाद पर, प्रवक्ता.कॉम पर ,हस्तक्षेप.कॉम पर मेने जितने लेख प्रस्तुत किये वे इन तथ्यों की स्व्यम्सिद्ध पुष्टि करते हैं.मुझे प्रारंभिक दौर में पूरा यकीन हो गया था कि राष्ट्रीय चेतना और मूलगामी बदलाव समेत भृष्टाचार इत्यादि बिन्दुओं पर अन्ना और रामदेव अपरिपक्व ही हैं.सोच समझ और मौलिक जनवादी चेतना या क्रन्तिकारी दर्शन कि अज्ञानता के वावजूद मेने कई मर्तवा अन्ना और रामदेव समेत अन्य सत्ता विरोधी आवाजों को मुखरित होने में सहयोग किया.क्यों?
जो लोग यह सोच रखते हैं कि सबकी बेहतरी में ही मेरा भी बेहतरी है,देश और दुनिया की भलाई में ही मेरी भी भलाई है ,सबकी बर्बादी में ही मेरी भी बर्बादी है और देश कि बर्बादी में मेरी बर्बादी असंदिग्ध है और यदि देश को भृष्टाचार रुपी कठफुरवा अन्दर से खोखला कर रहा है तब में भी तो अन्दर से खोखला ही होता जा रहा हूँ!इत्यादी ...इत्यादि...स्वाभाविक है कि में भी इस कतार में खड़े होकर अपने हिस्से की आहुति के लिए तैयार रहूँगा.मैं जनता हूँ,मैं आम आदमी हूँ,मुझे जमाने भर के राजनैतिक -सामाजिक-आर्थिक और वैज्ञानिक परिवर्तनों और उनके परिणामस्वरूप पृकृति प्रदुत्त अवदानो का कोई ज्ञान भले न हो किन्तु ' हित अनहित पशु पक्षिंह जाना 'तदनुसार यह भी स्वभाविक है की चाहे कोई राजनैतिक पार्टी हो ,व्यक्ति हो ,गैर राजनैतिक {?}बाबा या गांधीवादी समाज सुधारक होयदि वह इस तरह के सैधांतिक सुधारों की अपेक्षा प्रकट करता है तो उसके स्वर में स्वर मिलाकर अपने सामूहिक हितों की रक्षा करना मेराभी कर्तव्य है.भले ही वैचारिक और दार्शनिक स्तर पर अन्ना और रामदेव जैसे व्यक्तियों का सरोकार शून्य है किन्तु वे बिजुका ही सही ,कागभागोड़े ही सही देश की जनता के एक हिस्से -खास तौर से उत्तर भारत के मध्यम वर्ग को उद्देलित करने का काम तो कर ही रहे थे.भले ही चेनई ,त्रिवेंदृम या हैदरावाद में इनकी पूंछ परख न हो किन्तु दिल्ली के राम लीला मैदान से लेकर हरिद्वार और रालेगन सिद्धि तक तो बोलबाला था ,इसमें किसी को कोई शक नहीं.ये विजूके कुछ हद कारगर हो रहे थे कि "बस एक ही थप्पड़"ने किये कराये पर पानी फेर दिया.
बाबा रामदेव तो तभी खाली कारतूस सावित हो चुके थे जब दिल्ली पुलिस के डर से सन्यासी पीत वस्त्र त्याग कर महिला वस्त्रों में छिप -छिपाकर जान बचाने की जुगत में जग हँसाई के पात्र बन गए थे.किन्तु अन्ना रुपी बिजुका फिर भी कारगर लग रहा था.दिल्ली में उनके अनशन के ५ वें रोज तो भारत के भड़काऊ-डरावु-उडाऊ-खाऊ मीडिया ने कभी थ्येन आन मन चौक कभी तहरीर चौक तो कभी क्रेमलिन स्कुँयर की उपमा से अन्ना एंड कम्पनी के उपक्रम को महिमा मंडित किया ही था.किन्तु जिस तरह शेर की खाल ओडने से सियार सिंह नहीं जाता या मात्र काला होने से कौआ कोयल नहीं हो जाता उसी तरह गाँधी टोपी लगाने और नैतिकता की हांक लगाने या सत्याग्रह का स्वांग रचाने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता .चलो मान भी लेते हैं की आप सच्चे गांधीवादी ही हैं तो?इससे क्या फर्क पड़ता है स्वयम गाँधी जी ने और उनके वाद उनके महानतम पत्तशिष्यों
-जे.पी.नेहरु,कृपलानी,विनोवा,मोरारजी,इंदिराजी,राजाजी,सीतारामैयाजी जी,से लेकर देश के तमाम वामपंथी और दक्षिणपंथी गांधीवादियों ने आजादी के ६४ साल में उस तथाकथित 'गांधीवाद'से क्या हासिल किया है?
पूरा देश एकमत से मानता है कि व्यवस्था परिवर्तन के बिना भृष्टाचार से देश और देश की जनता की मुक्ति संभव नहीं!गांधीवाद तो यथास्थ्तिवाद का पर्याय है.शरद पवार भी पुराने गांधीवादी हैं किसी ने यदि उन्हें एक थप्पड़ जड़ दिया तो दूसरा गाल उस हमलावर के सामने करने में चूक क्यों?शरद पंवार की पार्टी राकपा भी तो गांधीवादी ही है ,फिरइस क्षेत्रीय पार्टी के वफादारों {गांधीवादियों?}के मार्फ़त पूरे महाराष्ट्र में हिंसा का तांडव क्यों?क्या अन्ना ,क्या शरद पंवार सब एक ही बांस भिरे के झंडा वरदार हैं.तभी तो शरद पवार को लगे थप्पड़ पर अन्ना ने जो आप्त बचन उच्चरित किये'बस एक ही थप्पड़' वे खुद अन्ना के दोनों गालों पर और न केवल अन्ना एंड कम्पनी बल्कि पूरी की पूरी तथाकथित गांधीवादी बिरादरी के गालोँ पर दोगलेपन की कालिमा का कलंक बनकर ;सत्याग्रह'अनशन और अहिंसा के सिद्धांतों की छाती पर अठ्ठास कर रहे हैं.
अन्ना हजारे की सोच ,समझ और प्र्ग्याशक्ति के सन्दर्भ में देश के प्रबुद्ध वर्ग ने भी गच्चा खाया हैयह तो होना ही था.अलबतता .जो उन्हें बिजुका मानकर भृष्टाचार रुपी हिंसक जंतुओं से भारत रूपी खेत की रक्षा के लिए उपयुक्त मानकर चल रहे थे उनकी सदाशयता को जरुर धक्का लगा होगा.एक मजबूत लोकपाल बिल बने ,देश में आनैतिक लूट खसोट बंद हो,समानता,बंधुत्व,शांति,और समृद्धि में सभी को बराबर अबसर मिले और इस महान उदेश्य के लिए जो कदम उठाये जा रहे हैं वे किसी विक्षिप्त युवा के एक थप्पड़ से धुल धूसरित न हों इसके लिए जरुरी है कि अन्ना को अपने संगी साथियों समेत संयमित होना होगा.कभी शराबियों को पेड़ से बाँधने और कोड़े मारने के तालिवानी वयां ,कभी किसी पार्टी या उसके नेता को चुनाव में हराने का बयान ,कभी कहना कि 'बस एक थप्पड़'ये किसी उच्च विचारधारा के प्रमाण नहीं.धीरोदात्त उज्जवल धवल चरित्र के स्वामी ,मनसा बाचा -कर्मणा और सामूहिक नेत्र्त्वाकारी व्यक्तित्व के धनि व्यक्ति ही जनता जनार्दन का विश्वाश हासिल कर सकते हैं चापलूसों दुवारा लिखी पटकथाओं के संवाद बोलकर लोक प्रसिद्धि भले ही मिल जाये किन्तु धैर्य और बुद्धि चातुर्य की परीक्षा तो संघर्षों के दरम्यान बार-बार हुआ करती है तब मौन वृत से काम नहीं चलेगा और अनर्गल बाचालता तो नितांत वर्जनीय है.अच्छे -खासे जन आन्दोलन को पंचर करने में लगी अन्ना टीम अपनी असफलता का ठीकरा सरकार या राजनीतिज्ञों पर ढोलने लग जाए ये भी संभव है.शरद पवार को थप्पड़ मारे जाने पर अन्ना की प्रतिक्रिया ने खुद अन्ना टीम को 'विश्वाश के संकट'में धकेल दिया है .खुदा खेर करे!!!
श्रीराम तिवारी
अन्ना हजारे की बौद्धिक चेतना-राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-वैदेशिक और जन -क्रांति विषयक समझ बूझ पर मुझे कभी कोई शक नहीं रहा.अपने ब्लॉग -इन्कलाब जिंदाबाद पर, प्रवक्ता.कॉम पर ,हस्तक्षेप.कॉम पर मेने जितने लेख प्रस्तुत किये वे इन तथ्यों की स्व्यम्सिद्ध पुष्टि करते हैं.मुझे प्रारंभिक दौर में पूरा यकीन हो गया था कि राष्ट्रीय चेतना और मूलगामी बदलाव समेत भृष्टाचार इत्यादि बिन्दुओं पर अन्ना और रामदेव अपरिपक्व ही हैं.सोच समझ और मौलिक जनवादी चेतना या क्रन्तिकारी दर्शन कि अज्ञानता के वावजूद मेने कई मर्तवा अन्ना और रामदेव समेत अन्य सत्ता विरोधी आवाजों को मुखरित होने में सहयोग किया.क्यों?
जो लोग यह सोच रखते हैं कि सबकी बेहतरी में ही मेरा भी बेहतरी है,देश और दुनिया की भलाई में ही मेरी भी भलाई है ,सबकी बर्बादी में ही मेरी भी बर्बादी है और देश कि बर्बादी में मेरी बर्बादी असंदिग्ध है और यदि देश को भृष्टाचार रुपी कठफुरवा अन्दर से खोखला कर रहा है तब में भी तो अन्दर से खोखला ही होता जा रहा हूँ!इत्यादी ...इत्यादि...स्वाभाविक है कि में भी इस कतार में खड़े होकर अपने हिस्से की आहुति के लिए तैयार रहूँगा.मैं जनता हूँ,मैं आम आदमी हूँ,मुझे जमाने भर के राजनैतिक -सामाजिक-आर्थिक और वैज्ञानिक परिवर्तनों और उनके परिणामस्वरूप पृकृति प्रदुत्त अवदानो का कोई ज्ञान भले न हो किन्तु ' हित अनहित पशु पक्षिंह जाना 'तदनुसार यह भी स्वभाविक है की चाहे कोई राजनैतिक पार्टी हो ,व्यक्ति हो ,गैर राजनैतिक {?}बाबा या गांधीवादी समाज सुधारक होयदि वह इस तरह के सैधांतिक सुधारों की अपेक्षा प्रकट करता है तो उसके स्वर में स्वर मिलाकर अपने सामूहिक हितों की रक्षा करना मेराभी कर्तव्य है.भले ही वैचारिक और दार्शनिक स्तर पर अन्ना और रामदेव जैसे व्यक्तियों का सरोकार शून्य है किन्तु वे बिजुका ही सही ,कागभागोड़े ही सही देश की जनता के एक हिस्से -खास तौर से उत्तर भारत के मध्यम वर्ग को उद्देलित करने का काम तो कर ही रहे थे.भले ही चेनई ,त्रिवेंदृम या हैदरावाद में इनकी पूंछ परख न हो किन्तु दिल्ली के राम लीला मैदान से लेकर हरिद्वार और रालेगन सिद्धि तक तो बोलबाला था ,इसमें किसी को कोई शक नहीं.ये विजूके कुछ हद कारगर हो रहे थे कि "बस एक ही थप्पड़"ने किये कराये पर पानी फेर दिया.
बाबा रामदेव तो तभी खाली कारतूस सावित हो चुके थे जब दिल्ली पुलिस के डर से सन्यासी पीत वस्त्र त्याग कर महिला वस्त्रों में छिप -छिपाकर जान बचाने की जुगत में जग हँसाई के पात्र बन गए थे.किन्तु अन्ना रुपी बिजुका फिर भी कारगर लग रहा था.दिल्ली में उनके अनशन के ५ वें रोज तो भारत के भड़काऊ-डरावु-उडाऊ-खाऊ मीडिया ने कभी थ्येन आन मन चौक कभी तहरीर चौक तो कभी क्रेमलिन स्कुँयर की उपमा से अन्ना एंड कम्पनी के उपक्रम को महिमा मंडित किया ही था.किन्तु जिस तरह शेर की खाल ओडने से सियार सिंह नहीं जाता या मात्र काला होने से कौआ कोयल नहीं हो जाता उसी तरह गाँधी टोपी लगाने और नैतिकता की हांक लगाने या सत्याग्रह का स्वांग रचाने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता .चलो मान भी लेते हैं की आप सच्चे गांधीवादी ही हैं तो?इससे क्या फर्क पड़ता है स्वयम गाँधी जी ने और उनके वाद उनके महानतम पत्तशिष्यों
-जे.पी.नेहरु,कृपलानी,विनोवा,मोरारजी,इंदिराजी,राजाजी,सीतारामैयाजी जी,से लेकर देश के तमाम वामपंथी और दक्षिणपंथी गांधीवादियों ने आजादी के ६४ साल में उस तथाकथित 'गांधीवाद'से क्या हासिल किया है?
पूरा देश एकमत से मानता है कि व्यवस्था परिवर्तन के बिना भृष्टाचार से देश और देश की जनता की मुक्ति संभव नहीं!गांधीवाद तो यथास्थ्तिवाद का पर्याय है.शरद पवार भी पुराने गांधीवादी हैं किसी ने यदि उन्हें एक थप्पड़ जड़ दिया तो दूसरा गाल उस हमलावर के सामने करने में चूक क्यों?शरद पंवार की पार्टी राकपा भी तो गांधीवादी ही है ,फिरइस क्षेत्रीय पार्टी के वफादारों {गांधीवादियों?}के मार्फ़त पूरे महाराष्ट्र में हिंसा का तांडव क्यों?क्या अन्ना ,क्या शरद पंवार सब एक ही बांस भिरे के झंडा वरदार हैं.तभी तो शरद पवार को लगे थप्पड़ पर अन्ना ने जो आप्त बचन उच्चरित किये'बस एक ही थप्पड़' वे खुद अन्ना के दोनों गालों पर और न केवल अन्ना एंड कम्पनी बल्कि पूरी की पूरी तथाकथित गांधीवादी बिरादरी के गालोँ पर दोगलेपन की कालिमा का कलंक बनकर ;सत्याग्रह'अनशन और अहिंसा के सिद्धांतों की छाती पर अठ्ठास कर रहे हैं.
अन्ना हजारे की सोच ,समझ और प्र्ग्याशक्ति के सन्दर्भ में देश के प्रबुद्ध वर्ग ने भी गच्चा खाया हैयह तो होना ही था.अलबतता .जो उन्हें बिजुका मानकर भृष्टाचार रुपी हिंसक जंतुओं से भारत रूपी खेत की रक्षा के लिए उपयुक्त मानकर चल रहे थे उनकी सदाशयता को जरुर धक्का लगा होगा.एक मजबूत लोकपाल बिल बने ,देश में आनैतिक लूट खसोट बंद हो,समानता,बंधुत्व,शांति,और समृद्धि में सभी को बराबर अबसर मिले और इस महान उदेश्य के लिए जो कदम उठाये जा रहे हैं वे किसी विक्षिप्त युवा के एक थप्पड़ से धुल धूसरित न हों इसके लिए जरुरी है कि अन्ना को अपने संगी साथियों समेत संयमित होना होगा.कभी शराबियों को पेड़ से बाँधने और कोड़े मारने के तालिवानी वयां ,कभी किसी पार्टी या उसके नेता को चुनाव में हराने का बयान ,कभी कहना कि 'बस एक थप्पड़'ये किसी उच्च विचारधारा के प्रमाण नहीं.धीरोदात्त उज्जवल धवल चरित्र के स्वामी ,मनसा बाचा -कर्मणा और सामूहिक नेत्र्त्वाकारी व्यक्तित्व के धनि व्यक्ति ही जनता जनार्दन का विश्वाश हासिल कर सकते हैं चापलूसों दुवारा लिखी पटकथाओं के संवाद बोलकर लोक प्रसिद्धि भले ही मिल जाये किन्तु धैर्य और बुद्धि चातुर्य की परीक्षा तो संघर्षों के दरम्यान बार-बार हुआ करती है तब मौन वृत से काम नहीं चलेगा और अनर्गल बाचालता तो नितांत वर्जनीय है.अच्छे -खासे जन आन्दोलन को पंचर करने में लगी अन्ना टीम अपनी असफलता का ठीकरा सरकार या राजनीतिज्ञों पर ढोलने लग जाए ये भी संभव है.शरद पवार को थप्पड़ मारे जाने पर अन्ना की प्रतिक्रिया ने खुद अन्ना टीम को 'विश्वाश के संकट'में धकेल दिया है .खुदा खेर करे!!!
श्रीराम तिवारी
शुक्रवार, 11 नवंबर 2011
विश्व पूंजीवाद के स्वर्णिम दिन लदने को हैं
एक ध्रुवीय गतिज उर्जा के नकारात्मक परिणाम उसके सृजनहार द्वारा छुपाये नहीं छुप रहे हैं.सोवियत समाजवादी व्यवस्था की जड़ों में मठ्ठा डालने वालों को अब दुनिया भर में अपनी फजीहत कराने में भी शर्म नहीं आ रही है.पेंटागन आधारित और बहुराष्ट्रीय एकाधिकारवादी कम्पनियों द्वारा निर्धारित वैश्वीकरण की पूंजीवादी आर्थिक नीतियों के दुष्परिणाम अब अमेरिका तक सीमित नहीं रहे.श्री ओबामा जी लाख चाहें कि अमेरिका अपने संकट कोशेष विश्व के कन्धों पर लादकर अपने परंपरागत पूंजीवादी-साम्राज्यवादी निजाम को बरकरार रख ने में बार -बार कामयाब होता रहे,किन्तु नियति को या यों कहें कि आधुनिक विश्व चेतना को ये मंजूर नहीं.अमेरिकी प्रशासन को ज्ञात हो कि 'रहिमन हांडी काठ कि ,चढ़े न बारम्बार..'या 'ये इश्क नहीं आशां इतना समझ लीजे,इक आग का दरिया है;डूब के जाना है.' उधर आर्थिक संकट से जूझ रहे ग्रीस {यूनान}को राहत देने के लिए' यूरोप संघ 'ने प्रस्ताव का प्रारूप तैयार ही किया , कि इधर इटली ,फ़्रांस की आर्थिक बदहाली के अफ़साने भी मीडिया की जुबान पर आ ही गए.यूरोपीय यूनियन अर्थात यूरोजों के वित्त मंत्रियों की जनरल बॉडी मीटिंग के बाद सभी सम्बंधित देशों और उनके बैंकों को चेतावनी दी गई की वे अपने-अपने घाटे कम करें.ग्रीस के आर्थिक संकट ने न केवल यूरोपीय संघ ,न केवल उसके हमराहएवं घोर पूंजीवाद परस्त -सरपरस्त अमेरिका,बल्कि सारी वैश्विक वित्त मण्डली को बैचेन कर डाला है.पूरी दुनिया के पूंजीवादी अलमबरदार बड़ी -बड़ी बैंकों और पूँजी संचलन केन्द्रों पर दवाव बना रहे हैं कि इस अधोगति और बदनामी से बचाने के पूंजीवादी उपचारों को खंगालिए. ,हमारी ठेठ हिंदी में इसे यों कहा जाता है कि 'मस्के पाद महा पापी-उत्तम्पाद धड़कानाम' अर्थात अपान वायु को विसर्जित करने का अधम तरीका तो हुआ 'मसकैं-पाद' और उत्तम तरीका हुआ धड़कानाम !!!
चूँकि वर्तमान दौर के यूनानी आर्थिक संकट की धुरी विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के मार्फ़त सम्पूर्ण यूरोप और उसके सहयात्री अमेरिका के मर्मस्थल में धसी हुई है,अतएव यूरोपीय यूनियन पर दुनिया भर के सभ्रांत लुटेरों का बेजा दवाव है की इस मौजूदा आग की लपटों को फ़ौरन शांत किया जाए.यही वजह है कि लगभग दिवालिया हो चुकी इटली की अर्थ व्यवस्था और अधःपतन को प्राप्त हो चुकी फ़्रांस की अर्थ व्यवस्था के वावजूद यूरोपीय संघ द्वारा विगत सितम्बर में रोकी गई सहायता लगभग आठ अरब यूरो के रूप में ग्रीस को तत्काल दिए जाने का ऐलान किया जा रहा है.५.८ अरब यूरो की रुकी हुई मदद राशी भी शीघ्र जारी किये जाने की सम्भावना है.
यूनान की आंतरिक राजनीती का ज्वार भी उफान पर है.उपरोक्त ऋण राहत पैकेज पर जनमत संग्रह के ऐलान से बाज़ार हक्के-बक्के हैं.इससे यूरोप के नेता बेहद नाराज हैं.हलाकि फ़्रांस ने राहत पैकेज को अंतिम विकल्प बताया किन्तु स्वयम फ़्रांस की स्थिति ये है की निकोलस सरकोजी को स्वयम वेतन नहीं लेने की घोषणा करनी पड़ रही है.इटली की जर्जर आर्थिक दुरावस्था को स्थिरता प्रदान करने केलिए बर्लुस्कोनी शीर्षासनलगा रहे है.चौतरफा संकट की स्थिति में इटालियन बांड्स भारी दवाव में आ चुके हैं.यूरो क्षेत्र का संकट लगातार फैलता जा रहा है.डालर के मुकाबले यूरो की विनिमय दर घटकर १.३६०९ यूरो रह गई है.इस ताज़ा उठापटक से यूरोपीय बाज़ारों में ५%से ज्यादा गिरावट रेखांकित की गई है.इटली के लिए स्थिति असहज हो चुकी है.आम जनता सड़कों पर निकल चुकी है,फ़्रांस में हड़तालों का दौर जारी है.
उधर अमेरिका में २००८ की आर्थिक मंदी की मार के घाव भरे भी न थे किअचानक चार-चार विशालकाय बैंक धराशाई होते चले गए.इनके सहित मौजूदा आर्थिक सत्र में भूलुंठित बेंकों कि संख्या ८४ हो चुकी है .अमेरिका में आभासी वित्त पूँजी की अनुपलब्धता की वजह से बेंकों का कारोबारी संकट आम हो चला है.इससे पहले २०१० में १५७ अमेरिकी बैंकें अपना बोरिया बिस्तर बाँध चुकी हैं.अपने असीमित अंतर्राष्ट्रीय हितों के बहाने ,आतंकवाद से लड़ाई के बहाने ,दुनिया भर में थानेदारी का रौब बरकरार रखने के फेर में अमेरिका पूंजीवादी साम्राज्यवाद का सूर्यास्त निकट है.वाल स्ट्रीट कब्ज़ा करो 'आन्दोलन इस दिशा में क्रांति की भोर का तारासावित हो सकता है.
श्रीराम तिवारी
चूँकि वर्तमान दौर के यूनानी आर्थिक संकट की धुरी विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के मार्फ़त सम्पूर्ण यूरोप और उसके सहयात्री अमेरिका के मर्मस्थल में धसी हुई है,अतएव यूरोपीय यूनियन पर दुनिया भर के सभ्रांत लुटेरों का बेजा दवाव है की इस मौजूदा आग की लपटों को फ़ौरन शांत किया जाए.यही वजह है कि लगभग दिवालिया हो चुकी इटली की अर्थ व्यवस्था और अधःपतन को प्राप्त हो चुकी फ़्रांस की अर्थ व्यवस्था के वावजूद यूरोपीय संघ द्वारा विगत सितम्बर में रोकी गई सहायता लगभग आठ अरब यूरो के रूप में ग्रीस को तत्काल दिए जाने का ऐलान किया जा रहा है.५.८ अरब यूरो की रुकी हुई मदद राशी भी शीघ्र जारी किये जाने की सम्भावना है.
यूनान की आंतरिक राजनीती का ज्वार भी उफान पर है.उपरोक्त ऋण राहत पैकेज पर जनमत संग्रह के ऐलान से बाज़ार हक्के-बक्के हैं.इससे यूरोप के नेता बेहद नाराज हैं.हलाकि फ़्रांस ने राहत पैकेज को अंतिम विकल्प बताया किन्तु स्वयम फ़्रांस की स्थिति ये है की निकोलस सरकोजी को स्वयम वेतन नहीं लेने की घोषणा करनी पड़ रही है.इटली की जर्जर आर्थिक दुरावस्था को स्थिरता प्रदान करने केलिए बर्लुस्कोनी शीर्षासनलगा रहे है.चौतरफा संकट की स्थिति में इटालियन बांड्स भारी दवाव में आ चुके हैं.यूरो क्षेत्र का संकट लगातार फैलता जा रहा है.डालर के मुकाबले यूरो की विनिमय दर घटकर १.३६०९ यूरो रह गई है.इस ताज़ा उठापटक से यूरोपीय बाज़ारों में ५%से ज्यादा गिरावट रेखांकित की गई है.इटली के लिए स्थिति असहज हो चुकी है.आम जनता सड़कों पर निकल चुकी है,फ़्रांस में हड़तालों का दौर जारी है.
उधर अमेरिका में २००८ की आर्थिक मंदी की मार के घाव भरे भी न थे किअचानक चार-चार विशालकाय बैंक धराशाई होते चले गए.इनके सहित मौजूदा आर्थिक सत्र में भूलुंठित बेंकों कि संख्या ८४ हो चुकी है .अमेरिका में आभासी वित्त पूँजी की अनुपलब्धता की वजह से बेंकों का कारोबारी संकट आम हो चला है.इससे पहले २०१० में १५७ अमेरिकी बैंकें अपना बोरिया बिस्तर बाँध चुकी हैं.अपने असीमित अंतर्राष्ट्रीय हितों के बहाने ,आतंकवाद से लड़ाई के बहाने ,दुनिया भर में थानेदारी का रौब बरकरार रखने के फेर में अमेरिका पूंजीवादी साम्राज्यवाद का सूर्यास्त निकट है.वाल स्ट्रीट कब्ज़ा करो 'आन्दोलन इस दिशा में क्रांति की भोर का तारासावित हो सकता है.
श्रीराम तिवारी
रविवार, 30 अक्तूबर 2011
भाववाद बनाम विज्ञानवाद
वे जो दुनिया को बताते हैं कि चेतना ,आत्मा या परमसत्ता ही इस धरती के होने,ब्रह्मांड के होने का मूल कारक है ;अध्यात्मवादी या भाववादी कहे जाते हैं.वे जो पदार्थ या उर्जा को ब्रह्मांड का मूल कारक मानते हैं;भौतिकवादी या अनीश्वरवादी कहे जाते हैं.आदिमकाल से ही मानव सभ्यताओं के विभिन्न कालों और विभिन्न स्थानों में प्राय:उक्त दोनों ही दर्शनों या विचारधाराओं का बोलबाला रहा है.भाववादी या अध्यात्मवादी द्रष्टिकोण ने आगम-निगम-पुराण -वेद,बाइबिल,कुरआन,जिन्दवेस्ता,मठ,मंदिर,मस्जिद,गुरूद्वारे,गिरजे,पीर,पैगंबर,अवतार,धर्म-अधर्म का सृजन किया है.जबकि पदार्थवादी भौतिकवादी विचारधारा ने मनुष्य को वन्य पशुओं से उत्कृष्ट{अथवा चालाक}और ब्रहमांड को परिभाषित कर सकने लायक बनाया.यह पदार्थवादी चिंतन भारत में लोक-मान्यता नहीं पा सका और किलिष्ट संस्कृत भाषा में प्रस्तुत होने के कारण कणाद,कपिल,अश्वघोष,नागार्जुन,चार्वाक और चाणक्य जैसे भौतिकवादी आज भले ही पढ़े-लिखे अध्येताओं की नज़र में महान हों किन्तु भारत की ७५%जनता को तो वैज्ञानिक परम्परा के मूल अधिष्ठाताओं के व्यक्तित्व क्रतित्व से कोई सरोकार नहों,वे भौतिकवादी विचार से उत्पन्न तमाम आविष्कारों -बिजली,टेलिफोन,दूरदर्शन, कंप्यूटर,रेल,कार,एरो प्लेन का हर संभव दोहन तो धडल्ले से करते हैं किन्तु भाववादी मरी हुई बंदरिया को छाती से चिपकाए हुए हैं.... श्रीराम तिवारी
शनिवार, 29 अक्तूबर 2011
असभ्य कौन ?
जो शब्द रचना मानवीय संवेदनाओं का उन्नयन करे,जिस शब्द संयोजन से सरस निर्झरनी अनवरत सदानीरा सरिता की मानिंद बहती रहे,जो शब्द समुच्चय लोकानुषित्वा हो,जिस वाक् शक्ति से मन-प्राण-शरीर झंकृत हुआ करे,उसे ही छंद रचना अथवा कविता कहते हैं.जब इस प्रकार के शाब्दिक रूप आकार में रस-अलंकार-गेयध्व्नी का अर्क घोला जाए और राज्यसत्ता,लोकसत्ता,जनसत्ता के त्रिफला चूर्ण की जन-आकांक्षा का सत समाहित किया जाए; तो इस लोक-काव्यानुकृति से क्रांति गीतों को अमरत्व प्रदान किया जा सकता है.क्रांति गीत जिस कौम के पास नहीं वो गुलाम और असभ्य है.
श्रीराम तिवारी
श्रीराम तिवारी
मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011
गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011
नये राजनैतिक ध्रुवीकरण की संभावनाएँ पुनर्जीवित.
अति-उन्नत वैज्ञानिक-सूचना एवं संचार क्रांति की बदौलत धरती पर यह बहुत तीव्रगामी परिवर्तनों की लालसा का दौर है. अपने बाह्यरूप -आकार में चीजें जितनी विद्रूप नजर आती हैं ; वस्तुतः वे अपने आप में अन्यान्य सुन्दर और सकारात्मक गुणों से सम्पृक्त भी हैं.वैश्विक परिदृश्य में भारत की तस्वीर यदि यूरोप, पूर्व-एशिया चीन, तथा समीचीन राष्ट्रों के सामने फीकी है तो उपद्रवग्रस्त,आतंकग्रस्त मुस्लिम राष्ट्रों और घोर दरिद्रता एवं भुखमरी से पीड़ित मध्य-अफ़्रीकी राष्ट्रों से उजली भी है.संचार माध्यमों पर शक्तिशाली वर्ग के आधिपत्य और भूमंडलीकरण की कोशिशों ने दुनिया भर के निर्धन,अकिंचन और अभावग्रस्त नर-नारियों को लगभग पंगु ही बना डाला है. शोषण से मुक्ति की कामना की जगह अवसाद,कुंठा,हिंस्र प्रतिस्पर्धा और संवेदनहीनता स्थापित होती जा रही है.
भारत के विद्वान् लेखक,इंटेलेक्चुअल,एनजीओ संचालक,अखवार नवीस और इन सबके प्रभामंडल से आक्रांत भारत का मजदूर-छोटी जोत का किसान-खुदरा व्यवसायी-खेतिहर मजदूर-दैनिक वेतनभोगी और
निम्न मध्यम वर्ग का शिक्षित-अशिक्षित आवाल वृद्ध-नर-नारी वेहद उदिग्नता के दौर से गुज़र रहा है.नितांत सर्वहारा-वर्ग को जो कि वर्गीय-चेतना से कोसों दूर है,इस जड़तामूलक अधोगति से कोई सरोकार नहीं . अपनी दयनीयता,निर्धनता,आवास-हीनता,सामाजिक-आर्थिक-शारीरिक सुरक्षा-विहीनता का कारण देव {इश्वर}को मानकर चलने वालों को वर्तमान दौर के इन झंझावातों में भी आशा कि जो एक किरण नज़र आ रही है ;वो है अपने मताधिकार की ताकत. वोट की ताकत का लोकतंत्र में उतना ही महत्व है जितना कि सूरज में धूप का और चंदा में चांदनी का.वैयक्तिक,पारिवारिक,सामाजिक,जातीय,क्षेत्रीय जैसे निक्रष्ट स्वार्थों से लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्वार्थ भी वोट की ताकत से ही साधे जा सकते हैं. वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य को भारत का सूचना एवं संचारतंत्र कुछ इस तरह पेश कर रहा है की मानों गठबंधन के एनडीए और यूपीए दो ध्रुव ही क्षितिज पर विद्यमान हैं;तीसरा कोई विकल्प मौजूद ही नहीं है.
माना कि अधिकांश क्षेत्रीय दलों में राष्ट्रीय मूल्यों और अंतर्राष्ट्रीय नीतियों का अभाव है ,किन्तु उनको संगठित और संयोजित करने वाले वामपंथ तथा यत्र-तत्र बिखरे हुए पुराने लोहियावादियों-समाजवादियों के पास
किसी किस्म की आर्थिक,सामाजिक,वेदिशिक और राजनेतिक चिन्तनशीलता का अभाव नहीं है नितीश बाबु,मायावती,जयललिता,नवीन पटनायक,देवेगौडा,मुलायम,पंवार,पासवान बादल ,उमर अब्दुल्ला और समूचा वाममोर्चा यदि एक हो जाएँ और भाजपा का बाहर से समर्थन मिले तो तीसरा मोर्चा सता में आ सकता है..कांग्रेस और यु पी ऐ यदि राहुल गाँधी को आगामी प्रधानमंत्री मानकर चल रहे हैं तो यह तभी संभव है जब राहुलजी उन नीतियों से नाता तोड़ें जिनके कारण आज़ादी के ६४ साल बाद भी उन्हें स्वयम गाँव के दलित गरीब कि झोपडी में एक ग्लास स्वच्छ पानी नहीं मिल सका. देश कि जनता यदि यूपीए गठबंधन को तीसरी बार बहुमत से जिताती है और यूपीए संसदीय बोर्ड अपना आगामी नेत्रत्व राहुल को सौंपता है तो इससे यह माना जाएगा कि गाँव में २६ रुपया रोज कमाने वाला और शहर में ३२ रुपया रोज कमाने वाला खुशहाल है. मानाकि राहुलजी नेकदिल इंसान हैं,हर दिल अज़ीज़ हैं,वतन परस्त हैं,भृष्टाचार और अन्याय के विरुद्ध हैं ,युवा हैं,सुन्दर हैं किन्तु क्या वे विश्व-बैंक ,अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और देश पर काबिज कार्पोरेट लाबी द्वारा प्रणीत प्रतिगामी आर्थिक नीतियों को पलटकर जन-कल्याणकारी,सामाजिक सरोकारों से युक्त वैकल्पिक नीतियों के बारे में रंचमात्र भी चल सकेंगे? नहीं !!
१९६९ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिराजी ने नारा दिया था- गरीवी हटाओ- आज़ाद भारत कि सत्ता के ६५ सालों में से लगभग ५५ साल केवल और केवल कांग्रेस ने ही देश पर हुकूमत की है.गरीवी ज्यों की त्यों बरकरार है,महंगाई सुरसा के मुख की तरह बिकराल है,भृष्टाचार अपरम्पार है, हर तरफ सरकारी अफसरों द्वारा देश कि जनता की लूट वेशुमार है. सब जानते हैं कि कौन जिम्मेदार है?
स्वर्गीय राजीव गाँधी ने प्रचंड बहुमत पाने के बाद,सत्ता में आने पर १९८५ में कहा था कि 'हम १०० पैसे दिल्ली से भेजते हैं किन्तु ८५ बीच में गायब हो जाते हैं'कांग्रेस के लिए यह सूक्त-वाक्य अपने अधिकृत लेटर पैड पर छपवा लेना चाहिए.अन्ना एंड कम्पनी,बाबा रामदेव या कोई और अधिनायकवादी व्यक्ति या समूह देश में दिग्भ्रम फ़ैलाता है तो इसकी पूरी जिम्मेदारी बहरहाल कांग्रेसी नेत्रत्व की ही मानी जाएगी.
देश कि प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा बड़े गर्व से दावा करती है कि वह अन्य दलों से अलग है.उसका चाल,चेहरा और चरित्र बहुत उन्नत किस्म का है.केंद्र की सत्ता में आने पर उसने देश को जो घाव दिए वो तो सदियों तक याद रखे जायेंगे किन्तु जो वादे किये उनके पूरे न होने से समूचा हिन्दू समाज उससे कट चूका है.अब भाजपा में यत्र तत्र सर्वत्र विकास -पुरुष {विकास नारी नहीं!}पैदा किये जा रहे हैं.नरेंद्र मोदी को जब गडकरी ने विकास- पुरुष कहा तो आडवानी जी ने कहा शिवराज ही विकास पुरुष है,उधर रमण सिंह भी सरकारी इश्तहारों में विकास पुरुष कि छटाएं बिखेर रहे हैं.स्वयं गडकरी जी कि भी सेहत अच्छी खासी है ,उनका विकास भी वैयक्तिक रूप से श्लान्घ्नीय है,कि संघ ने फर्श से अर्श पर बिठा दिया.भाजपा में रेड्डी बंधुओं ने जितना विकास किया उसका शतांश भी कोई कांग्रेसी क्या खाक करेगा?
तत्कालीन अटल सरकार के चार मंत्रियों पर हवाला काण्ड कि तलवार लटकी थी.२००० में तत्कालीन केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त एन विट्ठल ने सीबीआई से कहा था कि वह उन चार केन्द्रीय मंत्रियों कि अंधाधुंध काली- कमाई की जांच करे, जिन पर हवाला के आरोप हैं.उसके बाद क्या हुआ ?एनडीए सरकार ने विट्ठल की नाक दबा दी, उनके अधिकार छीनकर सतर्कता-आयोग को तीन सदस्यीय बना दिया.ताकि आइन्दा कोई एन बित्थल इस तरह कि हिमाकत न कर सके.यह काम उस भाजपा ने किया जो कांग्रेस पर भृष्टाचार के आरोप लगाने के लिए रथ-यात्रायें निकाल रही है.कभी अन्ना ,कभी रामदेव कभी उपवास और कभी रामधुन गाकर सत्ता-सुन्दरी का आह्वान कर रही है.ये इश्क नहीं आसान ...
भाजपा आज भी क्वात्रोची-क्वात्रोची चिल्ला रही है जबकि अपने किये धरे को भूल रही है.सारा देश जानता है कि वह भाजपा का ही एक चेहरा था जो शराब के नशे में बोल रहा था,पैसा खुदा नहीं,पर खुदा कसम ,खुदा से कम भी नहीं'यह बिडम्बना ही है कि भाजपा अपनी कसौटी पर-चाल,चेहरा,चरित्र पर ढेर हो गई जिसका फायदा अनायास ही उस कांग्रेस को २००४ में मिला जो देश को दुर्गति में ले जाने के लिए जिम्मेदार है.भाजपा अब जनता कि नहीं दौलत वालों कि ,राजनीति के ठेकेदारों कि और बड़बोलों की अंक-शायनी बन चुकी है ,अन्ना,रामदेव या नत्थू-खेरों के चक्कर में दिग्गजों के अहंकार का अड्डा बन चुकी है.
सिर्फ उपवास ,अनशन, रथ-यात्राओं या जन्म दिन मनाने से राज्य-सत्ता की प्रप्ति,अभीष्ट का ध्येय समभाव नहीं. राज्य-क्रांति के लिए यदि जन-समर्थन या वोट चाहिए तो जनता के हित की नीतियां और कार्यक्रम पेश करो वरना हाथ कुछ नहीं आने वाला- वही-जीरो/सन्नाटा.
श्रीराम तिवारी
बुधवार, 12 अक्तूबर 2011
शुक्रिया
सभी सुह्र्दय्जनों ,बंधुओं,मित्रों,प्रसंशकों का शुक्रिया.
दोस्तों, मैं विगत दिनों इंदौर के राज्यश्री अस्पताल में भर्ती था.मुझे अस्थमा ,उच्च-रक्तचाप,और चिकनगुनिया सब एक साथ हो गए थे.अत्यंत मर्मान्तक और असहनीय वेदना सहते हुए तीन महीने हो गए हैं.अभी शतांश ही स्वस्थ हो पाया हूँ .इस बीमारी के दौरान जिन मित्रों,सपरिजनों,और शुभचिंतकों ने मेरा संबल बढाया,सहयोग दिया उनका तहेदिल से आभारी हूँ.
सर्व श्री डॉ अशोक वाजपेई,श्री भदालेजी,दिनेश तिवारीजी,पुष्पेन्द्र सिंह जी,नरेन्द्रजी,किरणजी,उपाध्यायजी,कमल टटवडे जी,शेरुजी,पटोदिया जी,टोपोजी,लोदवालजी ,गंगमवार जी,चिदारजी अनिल जैन एसडीओ-खान साब, एस डी ओ- श्रीमती दीप्तिमती शुक्लजी,प्रेम तिवारी जी,संतोष शर्माजी ,हाडा जी, कौशिक् जी, सुधीर शर्मा जी,नेमीजी ,विपिनजी एवं अन्य उन सभी बंधुजनो,मित्रों का आभारी हूँ;जिन्होंने इस संकटकाल में प्रत्यक्ष व् परोक्ष सहयोग दिया.
का. संपतराव, सर्कल सेक्रेटरी-आंध्र, का.नम्बूदिरी अध्यक्ष-बी एस एन एल इ यु तथा का.प्रकाश शर्मा का भी आभारी हूँ ; जिन्होंने होसला आफजाई की.
चिरंजीव प्रवीन,पुत्रवधू अर्चना,पत्नी उर्मिला ,समधी कीर्तिवल्लभ जी, दोनों समधिन जी , छोटे समधी जी , सुधीर खर्कवाल जी, पुत्री अनामिका ,नाती अक्षत,और पौत्र चेतन्य के निरंतर स्नेह और प्यार ने मेरी जिजीविषा को साधा ,उन सभी को ढेर सारा प्यार.
श्रीराम तिवारी शुक्रिया
शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011
बुधवार, 28 सितंबर 2011
१० अक्तूबर को हड़ताल
भारत संचार निगम में एक लाख कर्मचारियों,अधिकारीयों, को वी आर एस देने तथा अन्य आर्थिक सुविधाओं में कटौती को लेकर १० अक्तूबर को हड़ताल होगी.जे ऐ सी का फैसला.सभी जिलों में लागु किये जाने की सम्भावना है. श्रीराम तिवारी- आल इंडिया आर्गेनिजिंग सेक्रेटरी -बी एस एन एल ई यु ,नयी दिल्ली
गुरुवार, 22 सितंबर 2011
नरेंद्र भाई दिल्ली अभी दूर है ..
भारत में राजनीति को कुआँर कि कुतिया समझ कर सरे राह लतियाने वालों में दिग्भ्रमित विपक्ष और टी आर पी रोग से पीड़ित -प्रिंट,श्रव्य,दृश्य और बतरस मीडिया का नाम पहले आता है.भारत को बर्बाद करने में जुटी पाकिस्तान कि खुफिया एजेंसी आई एस आई,उसके द्वारा प्रेरित -पोषित घृणित आतंकवादियों,अलगाववादियों,नक्सलवादियों,पूंजीवादी -सामंती शोषण कि ताकतों,एनजीओ और स्वनामधन्य तथाकथित सच्चाई -ईमानदारी के ठेकेदार अन्नाओं,योग गुरुओं का नाम उसके बाद आता है.वर्तमान सत्तारूढ़ यूपीए सरकार और कांग्रेस को सत्ता च्युत करने का न तो अभी वक्तआया है और न किसी राजनैतिक ,सामाजिक जन आन्दोलन के प्रहारों की नितांत आवश्यकता ही अपेक्षित है,कांग्रेस को सत्ता विमुख करने में कांग्रेसी खुद सक्षम हैं.यकीन न हो तो जिन राज्यों में उसकी सरकारें अतीत में सत्ताच्युत हुई वहाँ का और जब -जब केंद्र में सत्ता से बाहर हुई वहाँ के राजनैतिक सफरनामों पर गौर फरमाकर देख लीजिये. कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांशतः काग्रेस जन खुद ही कांग्रेस के सत्ताच्युत होते रहने के लिए जिम्मेदार रहे हैं.अब यदि वर्तमान दौर मैं विश्व बैंक और आई एम् ऍफ़ निर्देशित नेता और नीतियां इसी तरह जबरियां देश पर लादी जाती रहीं कि गाँव में २६ रुपया रोज और शहर में ३२ रुपया रोज कमाने वाला अब गरीब नहीं कहलायेगा तो इस सरकार को २०१४ को होने जा रहे लोक सभा चुनाव में पराजय का मुंह क्यों नहीं देखना चाहिए?
मेरा आशय ये है कि जब सरकार और सतारूढ़ पार्टी में विराजे लोग हाराकिरी पर उतारू हैं तो क्यों खामखाँ लोग बाग़ राजनीति को गन्दा और अपवित्र सिद्द करने पर तुले हैं?जो निपट निरीह अनाडी और व्यक्तिवादी -आदर्शवादी समूहों ,गुटों और व्यक्तियों के रोजमर्रा के आदतन सरकार विरोधी अरण्यरोदन हैं वे तो वैसे भी इस देश के मजबूत प्रजातांत्रिक ढांचे में मौसमी पखेरुओं या कीट पतंगों कि तरह जन्मते -मरते रहेंगे,किन्तु विराट जनसमर्थन वाले , केडर आधारित ,नीतियों -कार्यक्रमों औरघोषणा पत्रों वाले राष्ट्रव्यापी जनाधार वालेविपक्षी राजनैतिक दलों को यह शोभा नहीं देता कि सिर्फ भंवर में फंसी मछली को आहार बना लिया जाए या रणभूमि में रक्तरंजित धरा में धसे कर्ण के रथ को देखकर विजय श्री का उद्घोष किया जाए.
प्रतिगामी आर्थिक नीतियों और निम्न आय वर्ग की दुर्दशा एक दूसरे के अन्योंनाश्रित हैं ,वर्तमान दौर की असहनीय महंगाई और भृष्टाचार भी पूंजीवादी पतनशील मुनाफा आधारित व्यक्तिनिष्ठ साम्पत्तिक अधिकार की लोलुपता का परिणाम है.इसके बरक्स निरंतर जन लाम-बंदी और जनतांत्रिक जनवादी क्रांति की दरकार है.भारत के संगठित मजदूर,कर्मचारी किसान,केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें और वाम मोर्चा लगातार जी जान से इस सर्वजनाहित्कारी उद्देश्य के लिए संघर्षरत थे,संघर्ष रत हैं और जब तलक सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक,राजनैतिक असमानता और अमानवीयता का इति श्री नहीं हो जाता तब तलक उम्मीद है कि वे अविराम संघर्ष जारी रखेंगे. संसदीय प्रजातांत्रिक परम्परा में सिर्फ सरकारें बदल जाने ,इस या उस गठबंधन या पार्टी के सत्ता में आने-जाने से किसी भी पूंजीवादी निजाम में आम जनता को न्याय मिल जायेगा यह कदापि संभव नहीं.नेता और चेहरों को ताश के पत्तों कि तरह फेंटने से देश की तकदीर नहीं बदल जायेगी, विनाशकारी भृष्ट नीतियों को बदलने और जनाभिमुख कल्याणकारी श्रम समर्थक नीतियों को स्थापित किये बिना कोई भी व्यक्ति तो क्या विशाल राजनैतिक पार्टी भी व्यवस्था में बदलाव की उम्मीद न करे.
देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भाजपा में इन दिनों जो चल रहा है वो सिर्फ व्यक्तियों के अहम् का विस्फोट है.आर्थिक ,सामाजिक,वैदेशिक पर्यावरण ,साक्षरता,इत्यादि किसी खास मुद्दे पर सरकार को घेरने और जनांदोलन चलाने के बजाय कोई सद्भावना उपवास पर बैठ जाता है ,कोई रथ यात्रा की हुंकार भरता है और कोई मीडिया के सामने विफर रहा है.प्रधानमंत्री बनने की तमन्ना जिस तरह उछालें मार रही है उससे तो लगता है कि बस वो सत्तासीन होने ही जा रहा है. इन नादानों को यह जानने का सब्र नहीं है कि कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने अभी किसी भी कोण से यह नहीं दर्शाया है कि वो पस्तहिम्मत हो चुकी है.अभी आगामी लोक सभा चुनाव के लिए इतना समय पर्याप्त है कि कांग्रेस अपनी खामियों को दुरुस्त कर लगातार तीसरी बार सत्ता में पहुंचे हालाँकि जब अन्ना एंड कम्पनी राम लीला मैदान में केंद्र सरकार को गरिया रही थी तब कोई सर्वे में बताया गया था कि मनमोहन सरकार की साख घटी है.लेकिन उतनी नहीं घटी कि बस अब सिंहासन खली होने जा रहा है तो ख़ुशी के मारे कोई राजघाट पर नाच उठता है,कोई अपने जन्मदिन पर उपवास का प्रहसन करता है,कोई अपनी धवल कीर्ति को दाव पर लगाने को उद्धृत रहता है.
दरसल भाजपा में जो प्रथम पूज्य की होड़ मची है उसमें उसके सभी घोषित -चर्चित चेहरे कार्तिकेय भले ही हो जाएँ किन्तु गणपति वही वन पायेगा जो धर्मनिरपेक्षता की कसोटी पर खरा नहीं तो कम से कम अटल बिहारी या वक्रतुंड तो होगा ही.भाजपा कि सबसे बड़ी ताकत उसका संघ आधारित काडर है और भाजपा में संघ का दखल ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है.भविष्य में यदि यूपीए कि हार और एनडीए की जीत होती है तो जिस व्यक्ति को संघ का आशीर्वाद होगा वो कभी भी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुँच सकता.भले ही नितीश्कुमार ,शरद यादव,अकाली,शिवसेना नवीन पटनायक ,झामुमो या मायावती संघ के मुरीद हो जाएँ किन्तु भारतीय मूल्यों की वजह से.भारतीय वैविध्य की वजह से,भारतीय प्रजातांत्रिक आकांक्षाओं की वजह से एक्चालुकनुवार्तित्व के प्रसाद पर्यंत वाला व्यक्ति प्रधानमंत्री नहीं बन सकता.नरेंद्र मोदी जी को यदि संघ ने भावी प्रधानमंत्री मान लिया है तो समझो वे आजीवन प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री रहेंगे.
संघ को चाहिए कि नेत्रत्व की दौड़ में हस्तक्षेप न करते हुए भाजपा को स्वतंत्र रूप से प्रजातांत्रिक तौर तरीके से अपने और अपने अलायंस पार्टनर्स की सहमती आधारित सर्व स्वीकार्य नेता ,सामूहिक नेत्रत्व की अवधारणा और न्यूनतम साझा कार्यक्रम आधारित जनोन्मुखी नीतियों तय करने में कोई बाह्य संविधानेतर दवाव स्वीकार नहीं करना चाहिए तभी भाजपा और एन डी ऐ की केंद्र में सरकार और भाजपा का प्रधानमंत्री बन सकता है.लगातार नागपुर में जिस किसी की उठक-बैठक कराओगे उसको देश की १२० करोड़ आवाम अपना नेता कैसे स्वीकार कर सकती है?
सुप्रीम कोर्ट के किसी अंतरिम वर्डिक्स या अमेरका के दो-चार सीनेटरों द्वारा मोदी को संदेह का लाभ मात्र दिए जाने का तात्पर्य भारत का राज सिंहासन सौंपना नहीं है.नरेंद्र मोदी वैसे भी सामूहिक नेत्रत्व,प्रजातांत्रिक कार्य प्रणाली से कोसों दूर हैं.उनकी व्यक्तिवादी हठधर्मिता से भाजपा को कोई फायदा नहीं होने वाला.गुजरात विकाश के ढिंढोरे पीटने वाले और कुछ नहीं तो अन्य भाजपा शाशित राज्यों की जनता और वहाँ के भाजपा नेत्रत्व को तो नीचा दिखा ही रहे हैं.ऐंसे में मोदी जी का समर्थन शिवराजसिंह,रमनसिंह या कर्णाटक,उत्तरांचल के सी एम् क्यों करने चले.इन हालातों में नितीश,नवीन,चौटाला,कुलदीप ठाकरे या बादल को भी मोड़ो जैसे का समर्थन करने में कितनी इन्सल्ट होगी यह अभी मूल्यांकित कर पाना संभव नहीं है.
शरद यादव .पासवान,लालू,मुलायम,मायावती,फारुख,ममता,जयललिता अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाए रखने के लिए भाजपा से यदि सम्बन्ध बनायेंगे तो अटल बिहारी की लाइन का कोई भी दोयम नेता स्वीकार कर लेंगे किन्तु संघ प्रिय व्यक्ति को वे सहज स्वीकारेंगे इस में संदेह है.
एन डी ऐ ही नहीं तीसरे मोर्चे की भी भविष्य में सशशक्त होने की सम्भावना है.क्योंकि सत्तारूढ़ यूपीए का यदि पराभव होगा तो अकेले भाजपा ही ५५० सीटों पर काबिज नहीं होगी.विगत विधान सभा चुनावों में पांच राज्यों में से चार में भाजपा का खता भी नहीं खुला था केवल असम में ५ विधायक जीते जबकि पूर्व में वहाँ १८ विधायक थे.इसी तरह जिन राज्यों में वो गठबंधन में शामिल होकर सत्तारूढ़ है वहाँ भी भेला नहीं कर लिया.खुद नितीश ,नवीन चौटाला और कर्नाटक में भाजपा ही संकट में है.अकेले एम् पी ,छ गा,और गुजरात के भरोसे दिल्ली के सिंहासन पर अपने हिंदुत्व ध्वजाधारी को बिठाने की तमन्ना पालने वालों को निराशा ही हाथ लगेगी.ऐंसे में भाजपा के बड़े नेताओं का कुर्सी संघर्ष कोरी मृग मरीचिका है.जनता के सवालों पर तीसरे मोर्चे और वाम मोर्चे का साथ देकर भाजपा और एन डी ऐ सत्ता में आ सकता है वशर्ते उसके नेता 'संघम शरणम् गच्छामि' का मन्त्र न पढ़ें.
श्रीराम तिवारी
रविवार, 11 सितंबर 2011
वाम मोर्चे की प्रासंगिकता बरकरार है..
विगत अप्रैल-मई -२०११ में सम्पन्न पांच राज्यों के विधान सभा चुनाओं में राजनीतिक पार्टियों को बड़ा विसंगतिपूर्ण जनादेश प्राप्त हुआ है.बंगाल में ३५ साल तक लोकप्रिय रहे , पूंजीवादी संसार को हैरान करने वाले,साम्प्रदायिक कट्टरवादियों को नकेल डालने वाले,,भारत समेत तमाम दुनिया के मेहनत कश सर्वहारा वर्ग को आशान्वित करने वाले 'वाम मोर्चा',को पहली बार विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला.उधर कांग्रेस ने केरल में ईसाइयों,मुसलमानों की युति को परवान चढ़ाकर,वाम मोर्चे {माकपा] के अंदरूनी विवाद का फायदा उठाकर २ सीटें ज्यादा लेकर वाम मोर्चे को विपक्ष में बिठाने में सफलता प्राप्त कर ली.बाकि पोंड़ीचेरी असम और तमिलनाडु में क्या हुआ वह सर्वविदित है.इन चुनावों का निष्कर्ष यह है की केंद्र में सत्तारूढ़ यु पी ऐ द्वतीय सरकार को आवाम ने बहरहाल जनादेश जारी रखा और वाम को विपक्ष में बैठने का आदेश दिया.
इस सन्दर्भ में सबसे उल्लेखनीय और गौर करने वाली बात ये है कि देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी जो कि कभी अन्ना ,कभी रामदेव,कभी ,कभी मंदिर-मस्जिद के सहारे सत्ता की चिर अभिलाषिनी रही ;वो इन पांच राज्यों के चुनाव में ढेरक्यों हो गई? पहले वाली १८ सीटें घटकर सिर्फ ५ क्यों रहगईं?-तमिलनाडु,केरल,पून्दिचेरी और बंगाल में एक भी सीट क्योंनहींमिली? केरल बंगाल में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा किसेहासिलहै? असम में ४ वाम समर्थित प्रत्याशी जीते हैं .इस वास्तविकता के वावजूद संघ परिवार समर्थक प्रकांड बुद्धिजीवी{तरुण विजय जैसें}बड़े-बड़े आलेख ,बड़े-बड़े इस्तहार कभी प्रिंट मीडिया ,कभी द्रश्य और कभी इलेक्ट्रोनिक -वेब माध्यमों में इस तरह गदगदायमान होकर प्रस्तुत कर रहें हैं मानों कांग्रेस और यु पी ऐ की इस अल्पकालिक विजय से उनका अहिवात अचल होने जा रहा हो.साम्यवाद का सूर्यास्त,वाम की एतिहासिक पराजय,माकपा का खात्मा,कम्युनिस्टों की विचारधारा का अंत..इत्यादि...इत्यादि...इसके उलट हम जानना चाहेंगे कि - ?
अभी विगत सप्ताह ही संसद के मानसूनी सत्र का अंतिम दिन भारतीय स्याह इतिहास के मील का एक शिलालेख क्यों बन चूका है? कुशल राजनीतिज्ञ श्री लाल कृष्ण आडवानी जी को एक बार फिर सिंह गर्जना क्यों करनी पड़ी? एक बार फिर राष्ट्रव्यापी रथ यात्रा कि धमकी क्यों देना पड़ी? ८३ वर्षीय और भारतीय राजनीती के लोह्पुरुष द्वतीय श्री लाल कृष्ण आडवाणी जी को फग्गन सिंह कुलस्ते और भगोरा जैसे भाजपाई सांसदों को जेल भेजे जाने पर यह क्यों कहना पड़ा कि 'मुझे भी जेल भेजो में भी गुनाहगार हूँ'इस नोट के बदले वोट और जेल के अन्दर अमरसिंह जैसें कुख्यात राजनीतिज्ञों के अन्दर जाने से भाजपा और देश पर कौन सी विपदा आन पड़ी /कि एक वामन को पुनः विराट होने कि तमन्ना जागने लगी है?
वास्तव में जिस महत्वपूर्ण घटना के कारण यु पी ऐ प्रथम सरकार को संसद में विश्वाश मत हासिल करने के लिए वोटों कि दरकार थी ,जिसके कारण अमरसिंह ,कुलस्ते,भगोरा इत्यादि सांसद जेल में हैं ,जिसके कारण आडवानी जी को संसद के विगत सत्रावसान के अंतिम दिन अरण्य रोदन करना पड़ा और कहना पड़ा कि जो भृष्टाचार को उजागर करने में आगे थे उन्हें तो जेल भेज दिया और जो इस सब के लिए जिम्मेदार हैं वे अभी भी क़ानून से परे हैं.यदि मेरे {आडवानी जी के} साथी गुनाहगार हैं तो मैं भी गुनाहगार हूँ,मुझे भी जेल भेज दो.उस घटना कि तारिख है २८ जुलाई -२००८ और समय शाम ४ बजे से मध्य रात्रि तक.स्थान भारतीय संसद ,नई दिल्ली.
दरसल २८ जुलाई २००८ को जब १-२-३ एटमी करार पर यु पि ऐ प्रथम से असहमत होने के कारण वाम ने तत्कालीन केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापिस लिया तो मनमोहन सरकार घोर संकट के भंवर में फंस चुकी थी.वह अल्पमत सरकार तत्काल बरखस्त होनी चाहिए थी किन्तु अमेरिकी दूतावास ने आदरणीय आडवानी जी से निवेदन किया कि यदि वे १-२-३ एटमी करार के विरोध में मतदान करेंगे तो अमेरिका में गलत सन्देश जाएगा कि संघ परिवार अमेरिका के खिलाफ है.भाजपा और आडवानी जी के समक्ष दुविधा थी कि एक तरफ तो वे अमेरिका कि नज़र से गिरना नहीं चाहते,दूसरे वे यु पी सरकार को गिराकर वाम को हीरो बनने का मौका भी नहीं देना चाहते थे ,वे यु पी ऐ को सत्ता से वेदखल करने के बदले में स्वयम सत्तासीन होने के मंसूबे बाँधने में जुट गए.भले ही वे १-२-३ एटमी करार को एन डी ऐ के सत्ता में आने पर सुलटा लेते.किन्तु तत्काल तो उन्हें वही सूझा जो उन्होंने २८ जुलाई २००८ को संसद में संपादित किया.
अब रेवतीरमण सिंह,अमरसिंह,या अन्य धुरंधरों ने किसके इशारे पर किस-किस को साधने का क्या-क्या इंतजाम किये ये जिसे नहीं मालूम हो वो बिकिलीक्स के खुलासों का इंतज़ार करे.इतना तो सभीको विदितहै कि अमेरिका के आगे घुटने टेकने कि सूरत में वाम मोर्चे के सभी ६२ सांसदों ने मनमोहन सरकार के विरुद्ध मतदान किया था ,भाजपा के कुछ सांसद जान बूझकर गैर हाज़िर क्यों रहे?इसका जबाब भी भाजपा ने तत्काल शोकाज नोटिश थमाकर दिया था. अशोक अर्गल ,कुलस्ते और भगोरा ने कांग्रेस कि लाबिंग के नोट लेकर बाद में किसके कहने पर मीडिया के सामने नोटों कि गद्दियाँ हवा में लहराई उसका जबाब भी खुद आडवाणी जी ने अभी संसद के मानसून सत्र के अंतिम दिन सिंह गर्जना के साथ दिया कि यदि मेरे साथी दोषी हैं तो मैं भी दोषी हूँ ...या कि मुझे जेल भेज कर दिखाओ...बहरहाल ....आडवानी जी के इस नए स्टैंड से एनडीए सत्ता में आये ,मेरी शुभकामनाएं..मेरा निहतार्थ यह है कि जब वाम ने समर्थन वापिस लिया और अमेरिका ने अपने पसंदीदा प्रधानमंत्री मनमोहन को बचाने {कांग्रेस नहीं} के लिए भारतीय राजनीती में खुलकर राजनीति की; तब भाजपा ने उसे सहारा दिया.परिणाम स्वरूप मनमोहनसिंह सरकार बच गई .न केवल सरकार बच गई बल्कि १-२-३ नाभकीय उर्जा करार भी जैसा अमेरिका चाहता था ;वैसा हो गया.' सिंह आला पर गढ़ गेला' तब कार्पोरेट लाबी ने सम्पूर्ण पूंजीवादी मीडिया के मार्फ़त वाम पंथ को देश विरोधी,विकाश विरोधी,आर्थिक सूधार विरोधी सावित कराने ,भाजपा को अमेरिका प्रणीत उदार आर्थिक सुधारों के भारतीय झंडाबरदार मनमोहन सिंह का उद्धारक बताने की जो कुचेष्टा की उसी का परिणाम था कि जिस वाम पंथ ने नरेगा,आर टी आई ,भूमि सूधार और श्रम सुधारों की निरंतर वकालत की वो वाम पंथ जनता की नजर में आर्थिक विकाश विरोधी प्रचारित किया गया.अमेरिका के प्रभाव में भारतीय स्वछंद मीडिया ने वाम को खलनायक और मनमोहनसिंह को 'सिंह इज किंग' सिद्ध कर दिया.अब जनता ने वाम को ६२ से २५ लोक सभा सीटों में समेत दिया तो इसमें आश्चर्य जनक क्या है?और जब मनमोहन को भाजपा के अनैतिक समर्थन से हीरो बनाओगे तो यूपीए -२ को तो सत्ता में लौटना ही था तब पी एम् इन वेटिंग का औचित्य क्या था?भाजपा यदि इसी तरह पूंजीवादी बाजारीकरण की नीतियों का समर्थन जारी रखेगी तो उसे सत्ता में कौन बिठाएगा?क्योंकि इन्हीं आर्थिक नीतियों का सर्वश्रेष्ठ अमेरिकी पसंद व्यक्ति तो आलरेडी भारत के सत्ता शिखर पर विराजमान है.तभी तो २८ जुलाई -२००८ को संसद में विश्वाश मत [नोट के बदले वोट}हासिल करने के बाद श्री मनमोहन सिंह ने कहा था 'अब में सहज महसूस कर रहा हूँ ,रास्ते के रोढ़े हट गए' अब उस दिन जो लम्हों ने खता की थी उसकी सजा सदियों तक उन सभी को {न केवल अमरसिंह,कुलस्ते,भगोरा} को मिलना ही है जो अभी तक तिहाड़ जाने से बचे हैं.
मेरे इस आलेख की विषय वस्तु के केंद्र में वाम की वह भूमिका है जिसके कारण कांग्रेस नीत यूपीए प्रथम सरकार अल्पमत में आई .वह भूमिका निसंदेह बाद में खुद वाम के लिए कतई शुभ सावित नहीं हुई. लोकसभा में वाम को भारी झटके लगे और विगत विधानसभा चुनावों में बंगाल में पूंजीवादी साम्प्रदायिक और सत्ता परिवर्तन आकांक्षी ताकतों ने वामपंथ को एक तगड़ा झटका दिया है.केरल में तो कोई खास फर्क नहीं आया.वहाँ वोट प्रतिशत और बढ़ा है हालांकि कांग्रेस ने २-३ साम्प्रदायिक दलों को सहलाया तो उसके असर से कांग्रेस को सत्ता मिल गई .किन्तु भाजपा को केरल और बंगाल में खाता भी नहीं खुलने के वावजूद बजाय कांग्रेस और स्वयं भाजपा की रीति-नीति का विश्लेषण करने के सिर्फ वाम पंथ पर निरंतर हमले किये जा रहे है क्यों?
न केवल प्रेस ,मीडिया बल्कि बंगाल में तो घरों में ,दफ्तरों में,खेतों में तृणमूल कांग्रेसी गुंडे बेक़सूर लोगों को ,मजदूरों को,किसानों को जिन्दा जला रहे हैं.उनकी जमीने छीन रहे हैं,महिलाओं का अपहरण ,बलात्कार और चुन-चुनकर वाम समर्थकों को दमन का शिकार बनाया जा रहा है.
यह वाम पंथ की उस हिमाकत का नतीजा है कि मनमोहन सरकार के अमरीका प्रेम और देश में आर्थिक बदहाली के चलते उसका समर्थन वापिस लिया.अब यदि हरिश्चंद्र बनोगे तो भुगतना भी पडेगा.इसमें ये कहना कि वाम तो अब अप्रसांगिक हो गया या वाम का खात्मा हो गया ,ये सब बचकानी बातें हैं.वाम और उसका साम्यवादी दर्शन तब तक ख़त्म नहीं होगा जब तक दुनिया में आर्थिक -सामाजिक और राजनीतिक विषमता विद्यमान है.
श्रीराम तिवारी
मेरे इस आलेख की विषय वस्तु के केंद्र में वाम की वह भूमिका है जिसके कारण कांग्रेस नीत यूपीए प्रथम सरकार अल्पमत में आई .वह भूमिका निसंदेह बाद में खुद वाम के लिए कतई शुभ सावित नहीं हुई. लोकसभा में वाम को भारी झटके लगे और विगत विधानसभा चुनावों में बंगाल में पूंजीवादी साम्प्रदायिक और सत्ता परिवर्तन आकांक्षी ताकतों ने वामपंथ को एक तगड़ा झटका दिया है.केरल में तो कोई खास फर्क नहीं आया.वहाँ वोट प्रतिशत और बढ़ा है हालांकि कांग्रेस ने २-३ साम्प्रदायिक दलों को सहलाया तो उसके असर से कांग्रेस को सत्ता मिल गई .किन्तु भाजपा को केरल और बंगाल में खाता भी नहीं खुलने के वावजूद बजाय कांग्रेस और स्वयं भाजपा की रीति-नीति का विश्लेषण करने के सिर्फ वाम पंथ पर निरंतर हमले किये जा रहे है क्यों?
न केवल प्रेस ,मीडिया बल्कि बंगाल में तो घरों में ,दफ्तरों में,खेतों में तृणमूल कांग्रेसी गुंडे बेक़सूर लोगों को ,मजदूरों को,किसानों को जिन्दा जला रहे हैं.उनकी जमीने छीन रहे हैं,महिलाओं का अपहरण ,बलात्कार और चुन-चुनकर वाम समर्थकों को दमन का शिकार बनाया जा रहा है.
यह वाम पंथ की उस हिमाकत का नतीजा है कि मनमोहन सरकार के अमरीका प्रेम और देश में आर्थिक बदहाली के चलते उसका समर्थन वापिस लिया.अब यदि हरिश्चंद्र बनोगे तो भुगतना भी पडेगा.इसमें ये कहना कि वाम तो अब अप्रसांगिक हो गया या वाम का खात्मा हो गया ,ये सब बचकानी बातें हैं.वाम और उसका साम्यवादी दर्शन तब तक ख़त्म नहीं होगा जब तक दुनिया में आर्थिक -सामाजिक और राजनीतिक विषमता विद्यमान है.
श्रीराम तिवारी
शनिवार, 10 सितंबर 2011
जब तक दुनिया में असमानता रहेगी -वामपंथ तब तक अमर रहेगा.{भाग-१}
भारतीय दार्शनिक परम्परा में कार्य-कारण का सिद्धांत सारे प्रबुद्ध संसार में न केवल प्रसिद्ध है बल्कि उस पर वैज्ञानिक भौतिकवाद की मुहर भी अब से १५० साल पहले तब लग चुकी थी जब जर्मन दार्शनिकों और खास तौर से मेक्समूलर ,कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ने इस भारतीय वेदान्त प्रणीत दर्शन को अपने एतिहासिक द्वंदात्मक भौतिकवाद के केंद्र में स्थापित किया था.पृकृति,मानव,समाज और स्थावर-जंगम के मध्य बाह्य -आंतरिक संबंधों को एतिहासिक विकाश क्रम में वैज्ञानिक तार्किकता के आधार पर परिभाषित किये जाने के तदनंतर उक्त भारतीय दर्शन -प्रणीत कार्य कारण के सिद्धांत को 'साम्यवाद'मार्क्सवाद के केंद्र में सबसे ऊँचा मुकाम हासिल है.
भारतीय उपमहादीप में अनेकानेक यायावर कबीलों के आगमन ,निरंतर आक्रमणों और अधिकांस के यहीं रच-बस जाने के परिणामस्वरूप आर्थिक,सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनैतिक स्तर पर जहां एक ओर अपने-अपने कबीलों,गणों,जनपदों,महाकुलों और वंशों ने अपनी निष्ठाएं स्थापित,कीं वहीँ दूसरी ओर एक -दूसरे के संपर्क में आने तथा भौगोलिक-प्राकृतिक कारणों से वेशभूषा,रहन-सहन,विचार-चिंतन और ज्ञान-विज्ञान में भी समय-समय पर उल्लेखनीय समन्वय और तरक्की की है.हजारों सालों की सतत द्वंदात्मकता के परिणाम स्वरूप आज दुनिया में अधिकांस पुरातन समाजों-राष्ट्रों में जो भी -विचार,चिंतन या दर्शन मौजूद हैं उनका मूल जानना उतना ही कठिन है जितना की सदानीरा सरिताओं का मूल जानना.भारतीय और इंडो यूरोपियन तथा भारतीय सेमेटिक और भारतीय मध्य-एशियाई सभ्यताओं के द्वन्द का परिणाम ही वर्तमान भारतीय दर्शन है.यही प्रकारांतर से जर्मन और अन्य पाश्चात्य दर्शनों के वैज्ञानिक रूप से परिष्कृत होने का सशक्त उपादान भी रहा है.इसी से द्वंदात्मक -एतिहासिक -भौतिकवाद या मार्क्सवाद या साम्यवाद का जन्म हुआ है.भारत के कुछ दक्षिणपंथी ,कुछ पूंजीवादी और कुछ कोरे मूढमति एक ओर तो अपने राष्ट्रवाद को अंतर्राष्ट्रीयतावाद का बाप समझते हैं दूसरी ओर लगे हाथ अपनी कूपमंडूकता का प्रदर्शन करते हुए मार्क्सवाद या साम्यवाद को विदेशी विचारधारा, विदेशी सिद्धांत घोषित करने में एडी-चोटी का जोर लगाते रहते हैं.
वेदान्त का स्पष्ट कथन है -
सर्वे भवन्ति सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया.
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, माँ कश्चिद् दुःख भाग्वेत..
अयं निजः परोवेति ,गणना लघुचेतसाम.
उदार चरितानाम तू ,वसुधैव कुटुम्बकम..
भारतीय पुरातन दार्शनिक परम्परा में ऐंसे लाखों प्रमाण हैं जो सावित करते हैं की जिस तरह भारतीय मनीषियों ने 'जीरो' से लेकर धरती के गोल होने या सूर्य से सृष्टि होनेऔर मत्स्य अवतार से कच्छप,वराह,नृसिंह वामन,परशुराम,राम,कृष्ण,बुद्ध और कल्कि का पौराणिक यूटोपिया प्रस्तुत करने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया वो डार्विन के चिंतन को भी निस्तेज करने में सक्षम है.
अब यदि डार्विन के 'ओरिजन आफ स्पेसीज'या sarvival is the fittest में उस भारतीय चिंतन की झलक विद्यमान है जो कहता कि ;-
यद्द्विभूतिमात्सत्वाम श्रीमदूर्जितमेव वा.
तत्तदेवावगच्छ त्वम् मम तेजोअश्सम्भ्वम..
गीता-अध्याय १०-४१
तो इसमें ओर डार्विन के विशिष्ठ जीवन्तता सिद्धांत में असाम्य कहाँ है? कुछ डार्विन से ,कुछ यूनानियों से,कुछ रोमनों से,कुछ जर्मनों से और बाकि का सब कुछ भारतीय दर्शन से लेकर हीगेल और ओवेन जैसे आदर्श उटोपियेयों ने जो आदर्शवादी साम्यवाद का ढांचा खड़ा किया था उसमें वैज्ञानिक भौतिक वाद ,एतिहासिक द्वंदात्मकता,सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक चेतना के पञ्च महाभूतों का समिश्रण कर, उसमें उच्चतर मानवीय संवेदनाओं का प्रत्यारोपण कर जो अनुपम विचारधारा प्रकट हुई उसका अनुसंधान या सम्पादन भले ही कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ने किया हो किन्तु इस दर्शन का सार तत्व वही है जो भारतीय वेदान्त ,बौद्ध,जैन,सिख और सनातन साहित्य की आत्मा है.
जब तक भारत में और दुनिया में वेदान्त,दर्शन का,बौद्ध,जैन,और सनातन दर्शनों का महत्व रहेगा तब तक असमानता के खिलाफ ,शोषण के खिलाफ और दरिद्रनारायण के पक्षधर के रूप में 'मार्क्सवाद'और उसके पैरोकार वामपंथ का अस्तित्व अक्षुण रहेगा.कोई भी विचारधारा सिर्फ विधान सभा चुनाव की हार जीत से जीवित या मृत घोषित कर देने वालों को यह सदैव स्मरण रखना चाहिए.इतिहास उन्हें झूंठा सावित करेगा जो अभी वाम की हार पर उसके अवसान के गीत लिख रहे हैं.उन्हें भी निराश होना पड़ेगा जो पूँजी के आगे नत्मश्तक हैं.
यह दर्शन फ्रांसीसी क्रांति,सोवियत क्रांति,क्यूबाई क्रांति,चीनी क्रांति,वियेतनामी क्रांति,बोलिबियाई और लातिनी अमेरिकी राष्ट्रों समेत तमाम दुनिया {भारत समेत} के स्वधीनता संग्रामों का प्रेरणा स्त्रीत रहा है .इसके दूरगामी सकारात्मक प्रभावों ने सामंतवाद के गर्भ से पूंजीवाद और पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद के उद्भव की भविष्वाणी भले ही वक्त पर सही सावित न की हो किन्तु यह कहना जल्दबाजी होगी की 'मार्क्सवाद का अब कोई भविष्य नहीं' ३५ साल में एक बार बंगाल में और २ सीट से केरल में माकपा के हारने का मतलब मार्क्सवाद का पराभव नहीं समझ लेना चाहिए.बल्कि वामपंथ और मार्क्सवादियों को भविष्य में बेहतर पारी खेलने के लिए जनता रुपी कोच ने वाम रुपी खिलाडियों को कसौटी पर कसे जाने का फरमान ही जरी किया है.
श्रीराम तिवार्री
गुरुवार, 8 सितंबर 2011
वहशी दरिंदो को ईश्वर सद्बुद्धि दे.
कायरो बुजदिलो नाली के कीड़ो
दिल्ली हाई कोर्ट परिसर में
निर्दोषों का खून बहाने वाले नराधमो-तुम्हारा
कोई धरम कोई मज़हब दर्शन-
कोई दीनो-ईमान नहीं होता...
छुप-छुप कर कभी मुंबई कभी दिल्ली,
कभी मालेगांव कभी गुजरात में ,
आम आदमी का रक्त बहाने वालों का
कोई दीनो ईमान नहीं होता..
आज दिल्ली हाई कोर्ट के परिसर में ,
जिनका रक्त बहा,जिनके अंग-भंग हुए,
जिनके घर का चिराग बुझा ,जिनके
आश्रितों को मुफलिसी लाचारगी का ,
शिकार होना पड़ा उनमें-
हिन्दू -मुस्लिम -सिख सभी थे ,
सेकड़ों घायलों में इन सभी के मर्मान्तक ,
चीत्कार पर अठ्ठास करने वालो,
तुम्हारी मर्दानगी पर कुत्ते भी ,
मूतना पसंद नहीं करेंगे.
तुम नितांत डरपोंक हैवान हो,
खुदा,अल्लाह,इश्वर,वाहे गुरु,
उसका चाहे जो भी नाम रूप आकार हो,
उसका चाहे जो भी नाम रूप आकार हो,
वो भले ही तुम्हे भूल जाएया माफ़ कर दे ,
किन्तु इंसानियत में तुम्हें सिर्फ -धिक्कार है.
धिक्कार है,बारम्बार धिकार है...
मानवता के हत्यारों,बम बारूदसे,
हिंसा रक्तपात और बाद-अमनी से ,
तुम्हें सिर्फ एक चीज हासिल होगी ,
अनंतकाल तक नारकीय वेदना,
अपने किये हुए अक्षम्य अपराध ,
लिए अपना शेष जीवन मानवता ,की सेवा
में समर्पित करो-इसी में तुम्हारा कल्याण है...
इंसानियत के,अमन के,अक्ल के दुश्मनों को ,
इश्वर,अल्लाह,परवरदिगार सद्बुद्धि दे,
अमन-शांति-भाईचारा ज़िन्दवाद....
मानवता के हत्यारों,बम बारूदसे,
हिंसा रक्तपात और बाद-अमनी से ,
तुम्हें सिर्फ एक चीज हासिल होगी ,
अनंतकाल तक नारकीय वेदना,
अपने किये हुए अक्षम्य अपराध ,
लिए अपना शेष जीवन मानवता ,की सेवा
में समर्पित करो-इसी में तुम्हारा कल्याण है...
इंसानियत के,अमन के,अक्ल के दुश्मनों को ,
इश्वर,अल्लाह,परवरदिगार सद्बुद्धि दे,
अमन-शांति-भाईचारा ज़िन्दवाद....
श्रीराम तिवारी
सोमवार, 5 सितंबर 2011
दूसरों पर एक अंगुली उठाओगे तो चार तुम्हारी ओर मुड़ जाएँगी...
केंद्र की वर्तमान कांग्रेस नीति यु पी ऐ सरकार को लगातार चौतरफा हमलों ने इस कदर चकरघिन्नी बना दिया है कि 'कोर समन्वय'या ग्रुप आफ मिनिस्टर्स 'जो कि विशाल भारत के नीति नियामक होने चाहिए ,वे अपनी प्रभुसत्ता का प्रयोग अदने से सामाजिक कार्यकर्ताओं की नादानियों के बहाने ;उन्हें दबोचने में कर रहे हैं. अन्ना हजारे को संसदीय परम्परा और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ज्ञान नहीं है,वे लगातार सांसदों,मंत्रियों और राजनीतिज्ञों को भृष्ट एवं झूंठा बता रहे हैं;जो कि न तो प्रमाणित है और न ही मर्यादित है.उनके तथाकथित भृष्टाचार विरोध की लड़ाई में सिर्फ एक ही सच है कि उद्देश्य सही है किन्तु साधनों कि शुचिता संदेहास्पद है.देश को बुरी तरह लूटने वाले दलाल पूंजीपतियों की आकूत मुनाफाखोरी ,प्रशाशनिक मशीनरी को खरीदकर जेब में रखने की दुर्दमनीय क्षमता पर अन्ना एंड कम्पनी को या तो ज्ञान ही नहीं या वे उनके हाथों बिक चुके हैं. देश में जो लोग -नेता आफिसर,कर्मचारी और जन प्रतिनिधि ईमानदार हैं,जिनके कारण देश न केवल सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न है बल्कि दुनिया में एक सम्मान की स्थिति में आ गया है ऐंसे देशभक्त लोगों को वर्तमान व्यक्तिवादी नकारात्मक आंदोलनों से कोई उम्मीद नहीं है.वे जानते हैं की देश में बढ़ती आबादी,प्रतिस्पर्धात्मक बाजारीकरण,पूंजीवादी मुनाफा आधारित अर्थ व्यवस्था और उस पर नियंत्रण रखने वाला सरमायादार वर्ग ही न केवल भृष्टाचार,न केवल असमानता, न केवल शोषण,बल्कि महंगाई,वेरोजगारी को परवान चढाने के लिए जिम्मेदार है.इनके खिलाफ अन्ना हजारे,अरविन्द केजरीवाल,शशिभूषण,प्रशांत भूषन,संतोष हेगड़े,किरण वेदी और बाबा रामदेव जैसे स्वयम्भू जन नायक एक शब्द नहीं बोलते क्यों?
विविधताओं और अतीत के भग्नावेशों से भरे पड़े देश की एक अरब ३० करोड़ जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारत को आरम्भ से ही पडोसी मुल्कों के दुश्चक्रों का शिकार होना पड़ा है.ऐंसे माहोल में भी भारत की महानतम प्रजातांत्रिक व्यवस्था को दुनिया में ईर्ष्या की नज़र से देखा जाता है.माना की चीन ने भारत से वेहतर विकाश ,विनियोजन,सामाजिक-आर्थिक समानता पर आधारित धर्म निरपेक्ष समाज को बराबरी के अधिकारों और सामाजिक सुरक्षा के सरोकारों से लबालब किया है किन्तु भारत में भारी भृष्टाचार ,भारी असमानता के वावजूद लोगों को अधिकार है कि विना पढ़े लिखे लोग या सरकारी धन से ही एन जी ओ चलाने वाले लोग अपनी व्यक्तिगत सनक या श्वान्तः सुखाय के लिए मनमोहन सिंह जैसे देश के एक सर्वश्रेष्ठ ईमानदार प्रधान मंत्री को कभी जंतरमंतर ,कभी रामलीला मैदान,कभी प्रेस और मीडिया की खुराक के रूप में गाली दे सकते हैं .क्या थेन आन मन चौक पर यह मुमकिन है?नहीं!चीन में या अमेरिका में निठल्ले लोगों को समाज में कोई सम्मान नहीं.जबकि भारत में ऐयाश बाबाओं,एन जी ओ कर्ताओं,धार्मिक मठाधीशो को जनता पागलों की तरह भगवान् या अवतार मान बैठती है.
यह सभी जानते हैं की भारत में गरीबी,वेरोजगारी अशिक्षा,कुपोषण और रहन सहन के रूप में जो बिकराल खाई है उसकी जड़ में भृष्टाचार ही है, वामपंथ,मार्क्सवादी,जनवादी,बुद्धिजीवी,देशभक्त और दीगर संगठन इस भृष्टाचार रुपी रक्तबीज के खिलाफ दशकों से संघर्ष कर रहे हैं.उनके आंदोलनों में हजारे और रामदेव जैसी नाटकीयता नहीं है इसीलिये पूंजीपतियों का क्रीत दास श्रव्य,छप्य,पाठ्य मीडिया समवेत स्वरों में अन्ना एंड कम्पनी को रामदेव एंड कम्पनी को क्रांति की मशाल घोषित करता है ,क्योंकि ये आन्दोलन पूंजीवादी व्यवस्था के पक्षधर हैं और केवल आधा दर्जन मंत्रियों और १०० सांसदों को टार्गेट करते हुए पूंजीवादी विपक्ष[भाजपा ] को अमृतपान कराने के लिए उद्धत रहते हैं.जबकि वामपंथ और किसान- मजदूर स्पष्ट कहते हैं की सरमायेदारी के चलते न तो भृष्टाचार मिटेगा और न गरीबी और वेरोजगारी ख़त्म होगी. भाजपा को उसके सबसे बुरे दौर में जबकि कर्णाटक के नेताओं की ऐयाशी ,भृष्टाचार गले-गले तक उबलचुकी हो,पांचजन्य या ओर्गेनिज़र के भूत पूर्व स्वनामधन्य विद्वान् सम्पादक अपनी महिला मित्रों के साथ विदेशों में रंगरेलियां मानने के लिए भोपाल से लेकर स्वित्ज़रलैंड तक कुख्यात हो रहे हों,बेलारी से लेकर सिंगरोली तक और कच्छ से लेकर मुजफ्फरपुर तक हर जगह उसके नेताओं के दिव्य रूपों के दर्शन अन्ना एंड कम्पनी या बाबा रामदेव को नहीं हो रहे .उन्हें सोनिया गाँधी ,मन मोहन सिंह,राहुल गाँधी,दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल में खोट नज़र आती है तरुण विजय,प्रमोद महाजन,रेड्डी बंधू,येदुरप्पा,और अनंत कुमार दूध के धुले नज़र आते हैं.इसीलिए अना हजारे और बाबा रामदेव पर देश का पढ़ा लिखा विवेकशील आदमी यकीन नहीं करता .लाख दो लाख लोग इस देश में हमेशा निठल्ले घुमते रहते हैं.उन्हें अन्ना और रामदेव जैसों के नट-लीलाओं में देशभक्ति नज़र आती है ऐंसी बात नहीं है,दरसल जो लोग कुछ कर नहीं पाते और संघर्ष का व्यक्तिगत माद्दा मृतप्राय जिनका हो चूका होता है ऐंसे नर-नारी इन बाबाओं,एन जी ओ कर्ताओं के चोंचलों में अपने को अभिव्यक्त कर आत्म संतुष्टि पाते हैं.
मीडिया समझता है की वो जो दिखा रहा है याने सरकार के खिलाफ जो झूंठी तस्वीर बदतर माहोल बना रहा है वो शायद जनता {दर्शकों }को रास आ रहा है.प्रथम दृष्टया आम आदमी उसी के खिलाफ होता है जो सत्ता में होता है,किन्तु विभिन्न चेनलों की प्रित्स्पर्धा के परिणामस्वरूप सचाई सामने आ ही जाती है.लोग तब अपने आप को फिर ठगा सा महसूस कर किसी और अन्ना या रामदेव के बाड़े की और चल देते हैं.
" सरकार झूंठी है,मंत्री झूंठे हैं,सांसद वेइमान हैं 'ये वक्तव्य किसी गांधीवादी का हो ही नहीं सकता..."
ऐंसा वक्तव्य मेरे जैसा कोई कम-अकल या कोई आम आदमी दे तो माफ़ किया जा सकता है,किन्तु जो लोग महात्मा गाँधी के अवतार वन बैठे हों ,भृष्टाचार को जडमूल से उखाड़ फेंकना चाहते हों,उनके मुखार बिन्द से सम्पूर्ण व्यवस्था की बदहाली के लिए सिर्फ वर्तमान सरकार और खास तौर से ईमानदार प्रधानमंत्री और दर्जनों अच्छे ईमानदार सांसदों [उसमें अकेली कांग्रेस ही नहीं भाजपा और माकपा के भी सांसद हैं}को बाईस पसेरी धान की तरहएकही तराजू से तौलने की क्या तुक है? अन्ना हजारे अभी भी असंसदीय भाषा का प्रयोग कर रहे हैं,बाबा रामदेव के तो सौ खून माफ़ हैं क्योंकि वे तो भारतीय संविधान का ककहरा भी नहीं जानते;किन्तु अन्ना टीम में बड़े-बड़े वकील जज और भूतपूर्व आईपीस ,आई टी एस हैं ,वे सभी जानते हैं की भारत की लोकतंत्रात्मक शैली की सबसे बड़ी अच्छाई और विशेषता उसकी संसदीय सर्वोच्चता है.अभिव्यक्ति की जो आज़ादी भारत का संविधान देता है ,पारदर्शता और न्याय की आकांक्षा जो भारतीय संविधान जगाता है वही तो वर्तमान जनांदोलनो का मूलाधार है.उसी पर मठ्ठा डालने वाले अन्ना हजारे ,रामदेव और उनके लग्गू-भग्गू देश के जन नायक कैसे हो सकते हैं?
उधर अपनी चूकों ,नाकामियों और शिथिलताओं के चलते वर्तमान सरकार को अपने बेहतर और कारगर जन हितेषी कार्यों ,वेहतर परफार्मेंस के प्रदर्शन का अवसर ही नहीं मिल पा रहा है.स्पष्ट बहुमत के आभाव में क्षेत्रीय चोट्टों का समर्थन और फिर उनके किये धरे का खामयाजा भुगतने की बजाय कांग्रेस और यु पि ऐ सरकार ने अपने ही सहयोगियों को तिहाड़ की ओर धकेलकर जो हिम्मत का काम किया उस पर अन्ना और रामदेव मौन क्यों हैं?
अन्ना और रामदेव के सामने न झुककर भारत की वर्तमान केंद्र सरकार ने न केवल देशभक्तिपूर्ण कार्य किया है अपितु भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिध्धान्तों की रक्षा भी की है.यही उसका दायित्व भी था.यदि किसी खास व्यक्ति ,समूह ,ग्रुप या झुण्ड ने 'अनशन'कर डाला की हमें संसद और सरकार पसंद नहीं इसीलिए जब तक उसके अधिकार किसी 'लोकपाल'को नहीं हस्तांतरित किये जाते
हम अनशन पर मजमा लगायेंगे? भले ही लोगों को 'भारत माता की जय'वन्दे मातरम्' भृष्टाचार ख़तम करो' इत्यादि नारे आशान्वित करते हों किन्तु जिस विधायिका को ,कार्यपालिका को आप स्वयम पाप पंक में धसा हुआ मान बैठे इसी तथाकथित भृष्ट व्यवस्थापिका ,विधायिका और कार्यपालिका के सहयोग बिना कोई भी नया क़ानून ,विधेयक या नीति परिवर्तन संभव नहीं है. ,यह भी तो स्मरण रखना चाहिए.
जो लोग सरकार को गालियाँ देते हैं पानी पी पी कर कोसते हैं,विपक्ष को सहलाते हैं अपने वैयक्तिक कीर्तिध्वज को आसमान में देखने की तमन्ना रखते हैं वे ही लोग देश और सरकार से विशेषाधिकार की उम्मीद क्यों रखते हैं.केजरीवाल ने कम्पुटर लोन लिया ,वपिश नहीं किया,नौकरी के वास्तविक पीरियड की गणना में वे स्टडी लीव घुसेड रहे हैं और अब कहते हैं की हमारे जी पी ऍफ़ में से काट लो हद हो गई अज्ञानता की जिस आदमी को इतना ज्ञान नहीं की लोन की रिकवरी प्रोविडेंट फंड से तब तक संभव नहीं जब तक लोनी स्वयम होकर आवेदन कर जी पी ऍफ़ का पैसा निकालकर लोन मद में वापिश करे .यदि आपने सरकार का पैसा लिया है और आप ६ साल तक खुद ये कार्यवाही करने में अक्षम रहे तो आपसे {केजरीवाल जी] क्यों उम्मीद करें कि आप जनांदोलन के काबिल हैं?भूषन पिता-पुत्र के बारे में अमरसिंह जैसे मुलायम सिंह जैसे लोग ज्यादा जानते हैं,किरण वेदी की वाचालता और ओवर कान्फिडेंस के कारणमीडिया और विद्वत समाज ने कभी गंभीरता से नहीं लिया. वर्तमान दौर के इन गैर राजनैतिक और गैर जिम्मेदार आन्दोलन कर्ताओं को देश के गैर जिम्मेदार मीडिया का भरपूर समर्थन हासिल है.उनके आकाओं ने केंद्र सरकार को खलनायक .संसद को 'गंवार'लोगों का जमावड़ा और केन्द्रीय मंत्री परिषद् को'झून्ठों'का समूह सावित करने के लिए अन्ना जेसे अनपढ़ और रामदेव जैसे बन्दार्कूंदों को हीरो बनाने में कोई कसर बाकि नहीं रखी . लोगों को सचाई मालूम है की 'वास्तव में पूरा देश ही इस भृष्टाचार के लिए जिम्मेदार है. कोई दूध का धुला नहीं.कोई मिलावट कर रहा है ,कोई रिश्वत देकर ज्यादा लाभ भी उठाना चाहता है कोई रिश्वत देकर अपने कुकर्म या अपराधों को छिपाता है ,कोई भी किसी लाइन में लगना उचित नहीं समझता किन्तु जिसके पास देने को रिश्वत नहीं वो मजबूरी में लाइन में लगता है,जिसके पास धन -रुपया पैसा है वो घर बैठे फोन घुमाकर अपना काम करा लेता है.सरकारी भृष्टाचार के लिए तो फिर भी कानून है,सी सी एस ,ऍफ़ आर एस कंडक्ट रूल्स हैं किन्तु एन जी ओ ,हवाला घोटाला,कार्पोरेट दुरभिसंधियां और कनक-कामिनी-कंचन के सहारे राजनीती की गंगा मैली करने वालों को अन्ना एंड कम्पनी भूल जाती है.नरेंद्र मोदी लोकायुक्त की नियुक्ति में ६ साल लगा देते हैं येदुरप्पा रेड्डी बंधू घूरे के ढेर पर खड़े हैं शिवराजसिंह डम्पर काण्ड से मुक्ति के लिए कानून में संशोधन करते हैं,देश भर में महिलाओं और दलितों पर अत्याचार होते हैं,किसान आत्म हत्या करते हैं अन्ना और उनके बडबोले बगलगीर मुहं में दही जमाकर बैठे हैं.
भृष्टाचार के खिलाफ मनमोहनसिंह भी हैं ,कांग्रेस में भी कुछ तो हैं जो सिर्फ पैसे के लिए नहीं बल्कि अपने उत्तरदायित्व के लिए निष्ठावान हैं.जिन लोगों को सिर्फ कांग्रेस और केंद्र सरकार में साडी बुराइयां नजर आ रहीं हैं वे शीशे के मकानों में रहना छोड़ दें ,वर्ना अभी तो अरविन्द केजरीवाल और किरण वेदी को ही नोटिस मिला है यदि लोग इस तरह के गैर जिम्मेदार आचरण और स्वयं भृष्ट होते हुए भी केंद्र सरकार को कोसते रहेंगे तो जनता के असली सवालों-महंगाई,वेरोजगारी,विकाश इत्यादि के मुद्दे नेपथ्य में चले जायेंगे ,इन दिशाहीन आंदोलनो से सिर्फ इतना परिणाम परिलक्षित होगा कि आगामी पीढ़ी को प्रायमरी में पढाई जाने वाली पाठ्य पुस्तकों में गाँधी ,नेहरु तिलक,मौलाना आज़ाद,आंबेडकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण,इंदिरा गाँधी,के साथ किसी अन्ना हजारे या रामदेव का भी जीवन वृतांत छाप दिया जाए.बाकि देश की हालत के लिए जनता को अपनी वास्तविक राष्ट्रीय चेतना विकसित करनी होगी,वर्तमान आंदलनो को यदि सही दिशा में मोड़कर जन-जागरण के पक्ष में ले जाया जाये और सरकार आगे बढ़कर सहयोग और समन्वय के प्रयाश करे तो इन आंदलनो से देश के पुनर्जागरण में भारी सकरात्मक क्रन्तिकारी परिवर्तन लाया जा सकता है..अकेले कोरे गांधीवाद से देश का कल्याण हो सकता होता तो गाँधी जी ही सफल क्यों नहीं हुए?जे पी ,लोहिया नेहरु,कृपलानी और नम्बूदिरिपाद से बड़ा कोई गांधीवादी नहीं किन्तु वे भी अन्ततोगत्वा मार्क्सवाद के साथ साथ सोसल डेमोक्रेसी को मानने के लिए बाध्य हुए थे.अन्ना और उसके चेले तो सोसल डेमोक्रेसी की या वेलफेयर स्टेट की परिभाषा भी नहीं जानते .जानते होते तो सरकार या राजनीति को नहीं बल्कि जनता को अपने आप में बदलाव के लिए ,त्याग के लिए आह्वान करते.दूसरों को कोसने मात्र से क्रांतियाँ तो नहीं भ्रांतियां अवश्य हुईं हैं.
बुरा जो देखन में चला ,बुरा न मिलिया कोय.
जो दिल खोजों आपना, मुझसे बुरा न कोय..
श्रीराम तिवारी
मंगलवार, 9 अगस्त 2011
सखी पिया नहीं पास...{कविता}
हरित वसुधरा हो गई,करत दिव्य श्रृंगार!
तृण संकुल वन प्रांतर,पावस की झंकार!!
सरिताएं उन्मत्त भईं,उमड़े पोखर-ताल!
दमक चमक सौदामिनी,गर्जत मेघ कराल!!
बून्दनिया बरसन लगीं,ज्यों अमृत रस धार!
धरा- गगन सावन निशा,गावें मेघ मल्हार!!
जलज-पयोनिधि फूट गए,टूटत सब तटबंध!
ताल सरोवर मचल रहे,भंजन को प्रतिबन्ध!!
नाचे उपवन मोरनी , दुति दमकत आकाश!
झर-झर निर्झरनि बहे,सखी पिया नहीं पास!!
श्रीराम तिवारी
रविवार, 7 अगस्त 2011
काकः कृष्णः पिकः कृष्ण;को भेद पिक काकयो;
जिनका मकसद सिर्फ हंगांमा खड़ा करना और मीडिया के मार्फ़त जन-समर्थन बढ़ाने या बहरहाल जो है;जितना है;जहां है;उसे बरकरार रखने की प्रत्याशा हुआ करती है, वे पूंजीवादी राजनैतिक दल या व्यक्ति वही करते हैं जो उन्होंने कल भारत की संसद में किया.संसद के मानसून सत्र की शुरुआत में तो "दो बांके"[यु पी ऐ और एन डी ऐ ]अपने -अपने पाले में एक दूसरे को कच्चा चबा जाने की मुद्रामें सबको नज़र आ रहे थे.महंगाई के मुद्दे पर चली दो दिनी बहस का परिणाम सबके सामने है.कोरी शाब्दिक
लफ्फाजी से जनता को लुभाने में एक -दूजे से बढ़-चढ़ कर भाषण बाज़ी कर रहे थे.चाहे कांग्रेस हो या भाजपा कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता.लेकिन जब मत विभाजन का अवसर आया तो केंद्र की मन मोहनी सरकार के खिलाफ मात्र ५१ वोट पड़े.सरकार के पक्ष में सिर्फ ३२० ही नहीं बल्कि वे सांसद भी गिने जावेंगे जो इस अवसर पर अनुपस्थित रहे.
५५० लोकसभा सांसदों में से सिर्फ ५१ वामपंथी -जनवादी सांसदों ने ही सही मायने में भयानक महंगाई से पीड़ित देश की आवाम को अभिव्यक्त किया. बाकी के मान्यवरों ने क्या सिर्फ गाल बजाने,नोट के बदले वोट जुटाने,पूंजीवादी लुटेरों के सामने शीश झुकाने,निर्वल-निरीह आवाम को वेवकूफ बनाने और भृष्टाचार में आकंठ डूबी सरकर को बचाने के लिए जनादेश हासिल किया था?
आम तौर पर कहा जाता है कि 'इंडिया'की सेहत तो ठीक ठाक है किन्तु 'भारत'फटेहाल है.देश में
जिनकी आमदनी पिछले ४-५ वर्षों में रत्ती भर भी नहीं बढ़ी,जिन्हें पूर्णकालिक रोजगार प्राप्त नहीं है,जिनकी आय स्थिर नहीं है उन्हें महंगाई ने बुरी तरह दबोच लिया है.महंगाई की सर्वाधिक मार खेतिहर मजदूरों और सीमान्त -छोटी जोत के किसानों पर ज्यादा पड़ रही है.मझोल किसान भी महंगे खाद-बीज,खरपतवार नाशक,कीटनाशक दवाओं और आधुनिक महंगे काश्तकारी उपकरणों के कारण बढ़ी हुई लागत के सापेक्ष महंगे खाद्यान्न बेचने पर मजबूर होता जा रहा है.डीजल और बिजली की महंगाई ने गाँव की अर्थ व्यवस्था को चौपट कर दिया है.
आम जनता पूंछ रही है कि जब देश की सकल राष्ट्रीय आय और आधारभूत संरचनात्मक प्रगति उल्लेखनीय है- जैसा कि स्वयं देश की सरकार , विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष फरमा रहा है- तो फिर जीवन उपयोगी वस्तुओं और नितांत जरुरी खाद्यान्नों के दाम आसमान छूने को उतावले क्यों हैं?माना कि आज क़र्ज़ के शिकंजे में यूरोपीय संघ ,अमेरिका और अन्य विकसित देश भी आ चुके हैं,ये भी सच है कि डालर कमजोर होता जा रहा है,अमेरिका की साख दाव पर है
देशी -विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों के पूंजीवादी अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क ने जब यह अनुभव किया कि जन बैचेनी बिस्फोटक हो सकती है,तो उसने एक तीर से दो शिकार करने की योजना का क्रियान्वन किया.पूंजीवाद की रक्षा के लिए और समाजवादी क्रांति की संभावनाएं ख़त्म करने के लिए एक तरफ तो 'दो दलीय' शाशन प्रणाली का पुरजोर प्रचार किया.दूसरी ओर पूंजीवादी साम्प्रदायिक नेटवर्क की मिलकियत वाले मीडिया [टेलीविजन चेनल्स और बड़े अखवार]को नियंत्रित करते हुए महंगाई से इतर गैर जरुरी सवालों पर -सास बहु के झगड़ों पर,मंदिर-मस्जिद पर ,२-जी स्पेक्ट्रम पर,और आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर आवाम को उलझा दिया.
पूंजीवाद का यह हथकंडा सर्व विदित है.जब उसकी नीतियों से उसके जन्मदाता अमेरिका में भी आर्थिक संकट आता है तो उस संकट को आम आदमी के कन्धों परही डाल दिया जाता है.जनाक्रोश से बचने के लिए जनतंत्र के नाम पर जनता को [दो दलीय]शाशन प्रणाली की घूटी पिलाई जाती है.ताकि यदि एक पार्टी बदनाम हो तो दूसरी [पूंजीवादी ]पार्टी को चुनने के लिए आवाम मजबूर रहे.एक खास रणनीति के तहत पूंजीपति और उसके दलाल भृष्ट सरकारी अफसर बड़ी चालाकी से [दो पार्टी]सिद्धांत की पेरवी के लिए मीडिया को कब्जे में रखते हैं.दो दलीय पोलिटिकल सिस्टम को मजबूत करने के उनके स्वार्थ सर्वविदित हैं.पूंजीवादी लूट-खसोट जारी रखने,जातिवाद-वर्णवाद जारी रखने,साम्यवाद-समाजवाद का रास्ता रोकने ,सामाजिक-आर्थिक विषमता जारी रखने के लिए विचारधारात्मक रूप से कमोवेश एक जैसी नीतियों वाले [दो दल] हीवित्तीय पयपान के हक़दार हो सकते हैं.विभिन्न मसलों और सवालों पर उपरी तौर पर ये दोनों[बड़े}दल आपस में शत्रुवत प्रतीत होते हैं किन्तु गुप्त रूप से वे एक दूसरे के संपूरक ही हैं.यही वजह है कि २८ जुलाई -२००८ हो या ६-जुलाई २०११ भारत की संसद में दोनों बार सत्तारूढ़ {अल्पमत}सरकार की चूल भी नहीं हिलती.२८-जुलाई २००८ को १-२-३ एटमी करार के मुद्दे पर और ६-जुलाई २०११ को नाकाबिल-ऐ-बर्दास्त महंगाई के मुद्द्ये पर यूपीए और एनडीए की अंतरंगता दर्स्शाती है कि इनके रूप रंग आकार और नाम भले ही अलग-अलग हों किन्तु सार रूप में भाजपा और कांग्रेस के गुण सूत्र वही हैं जो भूमंडलीकरण और उदारीकरण कि पूंजीवादी रासायनिक प्रक्रिया से उद्भूत हुए हैं.
वामपंथ के सभी २५ और अन्य दलों के जिन २६ सांसदों ने देश में व्याप्त महा महंगाई के मुद्दे पर देश की आवाम की आवाज को संसद में बुलंद किया ,उन सभी का क्रन्तिकारी अभिवादन!हालांकि विश्व अर्थव्यवस्था का असर भारत पर होना लाजमी है किन्तु नक़ल में भी अकल की जरुरत है कि नहीं?उधर प्रेसिडेंट ओबामा ने अपने बढ़ते हुए राजकोषीय घाटे से निपटने में रिपब्लिकनों और डेमोक्रटों की कथित एकता का आह्वान किया है ,इधर सत्ता पक्ष और प्रधानजी ने परसों फ़रमाया कि 'हमें विपक्षियों के सब राज मालूम हैं' तो कल इसीलिये जिनके राज प्रधानमंत्री जी को मालूम थे उन सभी ने बिना मांगे ,बिना चूँ-चपड के महंगाई के मुद्द्ये पर सिर्फ कोरी भाषण बाज़ी कर मामला निपटा दिया जब मतदान का वक्त आया तो सिर्फ ५१ सांसद{वामपंथी और समाजवादी}देश कि जनता के साथ थे.बाकि के सभी दो पंक्तियों {एनडीए और यूपीए} में बैठकर पूंजीवाद कि चरण वंदना कर रहे थे.
भले बुरे सब एक से ,जोऊ लों बोलत नाहिं!
जानि परत हैं काक-पिक ,ऋतू वसंत के माहिँ!!
श्रीराम तिवारी
शनिवार, 6 अगस्त 2011
तंत्र-मंत्र--यंत्र-षड्यंत्र {कविता}
व्यवस्था को नियंत्रित करे जो कारगर साधन,
उसे ही तंत्र कहते हैं!
मशविरे लोक कल्याण के सार्थक सर्वकालिक ,
उन्हें ही मन्त्र कहते हैं!!
मानव मात्र हित साधन सकल आविष्कृत भौतिक,
उन्हें ही यंत्र कहते हैं!
शोषण, उत्पीडन ,हिंसा, नशाखोरी, घून्सखोरी, मक्कारी,
इन्हें षड्यंत्र कहते हैं!
बिकता हो ईमान जहां पे ,पैसा सब कुछ बन बैठा,
उसे धनतंत्र कहते हैं!
हो सर्व प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक समाजवाद,
उसे गणतंत्र कहते हैं !!
श्रीराम तिवारी
शनिवार, 23 जुलाई 2011
गाँव का भूस्वामी ओर शहर का पूंजीपति आपस में मौसेरे भाई हैं.
यह सर्वज्ञात है कि मरण धरमा एवं नित्य परिवर्तनीय सृष्टि में मनुष्य सबसे अधिक सचेतन प्राणी है.इसके वावजूद कि सभ्यता के आरम्भ से ही वह एक ओर तो पृकृति के अवदानों से प्रमुदित था ही किन्तु दूसरी तरफ दुर्दमनीय प्राकृतिक अबूझ आपदाओं से पराजित होकर चुपचाप हाथ पै हाथ धरे नहीं बैठा रहा.नदी घाटी सभ्यताओं और दोआब की सभ्यताओं के उत्थान -पतन के साथ-साथ जहां जहां भी उसकी जीवन्तता सुनिश्चित संभव थी मानव समुदाय के रूप में गाँव एवं नगरों में ;उसने अपनी जेविक श्रेष्ठता के झंडे गाड़े.यूरोप ,अमेरिका ,चीन और दक्षिण अमेरिकी राष्ट्रोंमें गाँव और शहर का अंतर मिटता जा रहा है.किन्तु इस से इतर भारतमें गाँवों की स्थिति बद से बदतरहोती जा रही है.भारत में भी यदि पंजाब हरियाणा और यु पी केकुछ गाँव समृद्ध हैं भी तो वहां खापवाद ,जातिवाद ,सामंतवाद जैसी सामाजिक विषमताएं और कन्या भ्रूण हत्या केअमानवीय कृत्यों के चर्चे आम हैं.यदि बिहार,मध्यप्रदेश ,छतीसगढ़ और राजस्थान के गाँवों पर नज़र डालें तो सर्वत्र न्यूनतम मानवीय सुविधाओं वंचित हैं.गाँव सिर्फ शहरों के उदर भरण के निमित्त बनकर रह गए हैं.
सभ्यता के अधुनातन दौर में गाँव हासिये पर चला गया.है वैज्ञानिक तरक्की और संचार सूचना प्रौद्दौगिकि के अति उन्नत युग में भी आज का गाँव अपने समसामयिक नगरों से कोसों नहीं तो मीलों दूर जरुर हो गया है. वे गाँव जो बड़े शहरों के इर्द-गिर्द बसे हैं या किसी राष्ट्र्यीय राजमार्ग के विस्तारीकरण की जद में आये हैं उनके तो बाजारीकरण के वरदान स्वरूप मानो भाग्य ही खुल गए हैं.खास तौर से इन गाँवों के चंद दवंग और जमींदार वर्ग की तो पौ बारह हो रही है. कहीं इनके लिए ममता बेनर्जी ,कहीं राहुल गाँधी ,कहीं अग्निवेश्जी,कहीं मेघा पाटकर जी और कहीं स्वयम माननीय अदालतें अपनी कृपा दृष्टी से मालामाल कर रहीं हैं. किन्तु यह सौभाग्य देश के उन आठ लाख गाँवों को प्राप्त नहीं है जो सड़क बिजली और पेयजल जैसी मूलभूत न्यूनतम सुविधाओं से आज भी महरूम हैं.शिक्षा और स्वास्थ्य में तोइन दिनों शहरों की भी हालत चिंताजनक है तब इन उपेक्षित गाँवों की क्या बखत होगी?जबसेबाज़ार ने भूमि अधिगृहण को पूँजी के सर्वोत्तम उत्पाद में रूपांतरित करने का फार्मूला
ईजाद किया है,बड़े किसानों और भूतपूर्व जमीनदारों की बल्ले-बल्ले हो रही है.यह तबका भले ही गाँव की कुल आवादी का १०% ही क्यों न हो किन्तु वह ग्रामीण क्षेत्र की सकल संपदा के ८०%पर काबिज है.शेष ९० % ग्रामीण आबादी के हिस्से में मात्र २०%जमीन और अन्य सम्पत्ति आती है. पहले वाले हिस्से को शहरी पूंजीपतियों,अफसरों,नेताओं,समाजसेविओं,बिचोलियों और वित्तीय संस्थानों का अन्योंन आश्रित सहयोग प्राप्त है.इन्ही के हितों को साधने में सिंगूर,नंदीग्राम,भट्टापारसौल,अलीगढ,आगरा और तमाम उन जगहों पर जमीन को लेकर मारामारी चल रही है.सभी जगह जब सत्ता से समीकरण नहीं बैठ पता तो प्रतिरोध दरसाने के लिए गाँव के उन गरीव -मजदूर किसानो और वेरोजगारों को पुलिस और क़ानून के आगे ढाल बनाकर खड़ा करने में उक्त एलीट क्लासअर्थात बड़ी जोत के मालिकों की चालाकी का कोई सानी नहीं .यह आधुनिक सामंती प्रभु वर्ग अपने पुरातन दंड विधान से ग्रामीण क्षेत्र की निरक्षर ,निरीह और लाचार जनता का श्रम शोषण तो करता ही है साथ में आधुनिक प्रजातांत्रिक अधिकारों को,न्याय व्यवस्था को और राजनीती को अपने पद प्रक्षालन के लिए तैनात कर सकने में भी सिद्धहस्त है.दिल्ली में चाहे एन ड़ी ऐ हो ,यु पिए हो,या कोई भी सरकार राज्यों में हो यदि कोई जन्कल्यान्कारी या ग्रामीण जनता के हित की योजना सरकार द्वारा लागू होती है तो यह गाँव के तथाकथित दवंगों और भू स्वमियों का स्वल्पाहार बनकर रह जाती है.
विगत दिनों एक ऐसे ही गाँव में मेरा जाना हुआ जो एक प्रख्यात राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे बसा हुआ है.उस गाँव के किनारे से होकर गुजरने बाले राष्ट्रीय राजमार्ग को ४-६ लेन में बदला जा रहा है.कहीं-कहीं काम अधूरा था.गाँव के भूतपूर्व जमींदार और वर्तमान सरपंच पति ने बड़े गर्व से बताया कि ५-६ साल पहले जब उसे इस राष्ट्रीय राजमार्ग के चौडीकरण कि खबर लगी ;तो उसने उन किसानों कि जमीन को ,;सस्ते दामों पर खरीद ली , जो कि सड़क के निमित्त अधिगृहीत किया जाना संभावित थी इन महाशय ने बड़े गर्व से अपनी और शाशन व्यवस्था कि काली करतूतकुछ इस तरह बताई मानों उनने सिंहगढ़ विजय किया हो.उनका कहना था कि गरीव किसानो को पहले तो उन्होंने डर दिखाया कि तुम लोग सरकार से मुआवजा हासिल नहीं कर पाओगे,मुआवजा तुम्हें जितना मिलना है वो पटवारी ,रेवेनु इन्स्पेक्टरया तहसीलदार से पता कर लो.गरीब सीमान्त किसानों ने जब इन भृष्ट अधिकारीयों से पता किया तो उन्होंने वही बताया जो सरपंच पति उर्फ़ जमीन्खोर ने उन अधिकारीयों को पहले से बता रखा था.वे सब आपस में मिले हुए थे और नाते रिश्ते लेन-देन के सहभागी थे.इस तरह प्रस्तावित सडक चौडीकरण कि प्रारंभिक प्रक्रिया से बहुत पहले ही रास्ता साफ़ कर लिया गया.जब शाशन ने राष्ट्रीय राजमार्ग के चौडीकरण हेतु जमीनों के अधिग्रहण बाबत सर्वे प्रकाशित किया तो उन गरीब किसानों को भरी अफसोश हुआ.जब मुआवजे कि
दरें घोषित हुईं तो गरीब किसानो के होश उड़ गए जो जमीन उन्होंने जमींदारों को ५० हजार रुपया एकड़ में बेचीं उसकी कीमत २ लाख रुपया एकड़ हो गई.इन स्वनामधन्य जमीन दार महोदय ने एक ओर चमत्कार किया कि उनकी अत्यंत उपजाऊ और सिंचित जमीन को बचाने के लिए सर्वेयरों तक को खरीद डाला.राष्ट्रीय राजमार्ग कि दिशा और दशा ही बदल डाली.उनका गर्वोक्ति पूर्ण यह कथन भी था कि हमने" ऊपर तक सबको साध रखा है".प्रमाण स्वरूप प्रदेश कि राजधानी में भव्य बंगले से लेकर ठेठ गाँव तक दारू कि कलाली का ठेका उन्ही के पास है.उनकी एक खूबी और है वे समय के साथ चलते हैं जबराज्य कि सत्ता में कांग्रेस होती थी तो उसके झंडावरदार हुआ करते थे ,अब जबकि मध्यप्रदेश में भाजपा का शाशन है तो ये श्रीमानजी पक्के "भाईजी"बन बैठे हैं.उनके बारे में आम धरना है कि वे अपने निहित स्वर्थों के लिए किसी का भी गला काट सकते हैं.ये भारतीय ग्रामीण दुर्दशा के जीवंत प्रमाण हैं.गाँवों के वोटों का और विकाश के सरकारी नोटों का स्थाई ठेका इन जैसे लुच्चों लफंगों के हाथ में रहेगा तब तक अन्नाजी हों,रामदेवजी हों,लोकपालजी हों या माननीय उच्चतम न्यायालायजी हों ;कोई भी इस देश के गाँव के गरीबों का तब तक उद्धार नहीं कर सकता जब तक गाँव और शहरों में आ बसे जमीन्खोरों को हदबंदी क़ानून के तहत बेल कि तरह नाथ नहीं दिया जायेगा..चाहे मुग़ल हों अंग्रेज हों ,चाहे नेहरु युगीन कांग्रेस हो,चाहे इंदिरा युगीन कांग्रेस हो,चाहे अटल युगीन एन डी ऐ हो या वर्तमान मनमोहन सोनिया युगीन कांग्रेस सभी को साधने में माहिर यह पूरातन सामंती अवशेष अब पूंजीपती वर्ग से समन्वय स्थापित कर बाज़ार की ताकतों में शुमार हो चूका है.इस तरह गाँव से लेकर शहर और शहर से लेकर महानगरों तक और देश कि राजधानी के सत्ता केंद्र से लेकर विश्व बैंक और आई एम् ऍफ़ तक में अब भारत के बड़े भू स्वामियों के एजेंट मौजूद हैं.इसीलिये भारत के गरीब और छोटी जोत के किसानों ,खेतिहर मजदूरों,और वेरोजगार युवाओं को को वर्ग चेतना से लेस करने के प्रयासों कि महती जरुरत है. ,फ्रुस्टेशन,क़र्ज़ यातना,आत्म हत्या और शहरों कि ओर दिग्भ्रमित पलायन से भारतीय ग्रामीण क्षेत्र पंगु होता जा रहा है.शहरों कि चकाचोंध और अधुनातन जीवन शेली कि चाह में और अपनी अल्प खेती में गुजारा न हो सकने कि सूरत में गाँव के गरीबों ने शहरों में झुग्गियों में शरण ले रखी है.चूँकि शहरों में पहले से ही महंगाई ,गरीबी भुखमरी के विकराल टापुओं का डेरा है अतेव कोई आश्चर्य नहीं कि अपराधों में बृद्धि हो रही है.ह्त्या बलात्कार ,चोरियां और सेंधमारी आम बात हो चुकी अब तो ये हालत है कि सुदूर बिहार के गाँव से आने वाला एक वेरोजगार नौजवान विगत दिनों इंदौर केदेवी अहिल्या विश्वविद्यालय का ATM ही उखाड़ कर ले गया..शायद यह इस बात कि चेतावनी है कि गाँव हमारा और शहर तुम्हारा ...नहीं चलेगा...नहीं चलेगा... श्रीराम तिवारी
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