रविवार, 11 सितंबर 2011

वाम मोर्चे की प्रासंगिकता बरकरार है..

 विगत अप्रैल-मई -२०११ में सम्पन्न पांच राज्यों के विधान सभा चुनाओं में राजनीतिक पार्टियों को बड़ा विसंगतिपूर्ण जनादेश  प्राप्त हुआ है.बंगाल में ३५ साल तक लोकप्रिय रहे , पूंजीवादी संसार को  हैरान करने वाले,साम्प्रदायिक कट्टरवादियों को नकेल डालने वाले,,भारत समेत तमाम दुनिया के मेहनत कश सर्वहारा वर्ग को आशान्वित करने वाले 'वाम मोर्चा',को पहली बार विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला.उधर कांग्रेस ने केरल में ईसाइयों,मुसलमानों की युति को परवान चढ़ाकर,वाम मोर्चे {माकपा] के अंदरूनी विवाद का फायदा उठाकर २ सीटें ज्यादा लेकर वाम मोर्चे को विपक्ष में बिठाने में सफलता प्राप्त कर ली.बाकि पोंड़ीचेरी असम और तमिलनाडु में क्या हुआ वह सर्वविदित है.इन चुनावों का निष्कर्ष यह है की केंद्र में सत्तारूढ़ यु पी ऐ द्वतीय सरकार को  आवाम ने बहरहाल जनादेश जारी रखा और वाम को विपक्ष में बैठने का आदेश दिया.
   इस सन्दर्भ में सबसे उल्लेखनीय और गौर करने वाली बात ये है कि देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी जो कि कभी अन्ना ,कभी रामदेव,कभी ,कभी मंदिर-मस्जिद के सहारे सत्ता की चिर अभिलाषिनी रही ;वो इन पांच राज्यों के चुनाव में ढेरक्यों हो गई? पहले वाली १८ सीटें घटकर सिर्फ ५ क्यों रहगईं?-तमिलनाडु,केरल,पून्दिचेरी और बंगाल में एक भी सीट क्योंनहींमिली? केरल बंगाल में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा किसेहासिलहै? असम में ४ वाम समर्थित प्रत्याशी जीते हैं .इस वास्तविकता के वावजूद संघ परिवार समर्थक प्रकांड बुद्धिजीवी{तरुण विजय जैसें}बड़े-बड़े आलेख ,बड़े-बड़े इस्तहार कभी प्रिंट मीडिया ,कभी द्रश्य और कभी इलेक्ट्रोनिक -वेब माध्यमों में इस तरह गदगदायमान होकर प्रस्तुत कर रहें हैं मानों कांग्रेस और यु पी ऐ की इस अल्पकालिक विजय से उनका अहिवात अचल होने जा रहा हो.साम्यवाद का सूर्यास्त,वाम की एतिहासिक पराजय,माकपा का खात्मा,कम्युनिस्टों की विचारधारा का अंत..इत्यादि...इत्यादि...इसके उलट हम जानना चाहेंगे कि - ?            
                      अभी विगत सप्ताह ही संसद के मानसूनी सत्र का अंतिम दिन भारतीय स्याह इतिहास के मील का एक शिलालेख क्यों बन चूका है? कुशल राजनीतिज्ञ  श्री लाल कृष्ण आडवानी जी को एक बार फिर सिंह गर्जना क्यों करनी पड़ी?    एक बार फिर राष्ट्रव्यापी रथ यात्रा कि धमकी क्यों देना पड़ी? ८३ वर्षीय और भारतीय राजनीती के लोह्पुरुष द्वतीय श्री लाल कृष्ण आडवाणी जी को फग्गन सिंह कुलस्ते और भगोरा जैसे भाजपाई सांसदों को जेल भेजे जाने पर यह क्यों कहना पड़ा कि 'मुझे भी जेल भेजो में भी गुनाहगार हूँ'इस नोट के बदले वोट और जेल के अन्दर अमरसिंह जैसें कुख्यात राजनीतिज्ञों के अन्दर जाने से भाजपा और देश पर कौन सी विपदा आन पड़ी /कि एक वामन को पुनः विराट होने कि तमन्ना जागने लगी है?
      वास्तव में जिस महत्वपूर्ण घटना के कारण यु पी ऐ प्रथम सरकार को संसद में विश्वाश मत हासिल करने के लिए वोटों कि दरकार थी ,जिसके कारण अमरसिंह ,कुलस्ते,भगोरा इत्यादि सांसद जेल में हैं ,जिसके कारण आडवानी जी को  संसद के विगत सत्रावसान के अंतिम दिन अरण्य रोदन करना पड़ा और कहना पड़ा कि जो भृष्टाचार को उजागर  करने में आगे थे उन्हें तो जेल भेज दिया और जो इस सब के लिए जिम्मेदार हैं वे अभी भी क़ानून से परे हैं.यदि मेरे {आडवानी जी के} साथी गुनाहगार हैं तो मैं भी गुनाहगार हूँ,मुझे भी जेल भेज दो.उस घटना कि तारिख है २८ जुलाई -२००८ और समय शाम ४ बजे से मध्य रात्रि तक.स्थान भारतीय संसद ,नई दिल्ली.
      दरसल २८ जुलाई २००८ को जब १-२-३ एटमी करार पर यु पि ऐ प्रथम से असहमत होने के कारण वाम ने तत्कालीन केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापिस लिया तो मनमोहन सरकार घोर संकट के भंवर में फंस चुकी थी.वह अल्पमत सरकार तत्काल बरखस्त  होनी चाहिए थी किन्तु अमेरिकी दूतावास ने आदरणीय आडवानी जी से निवेदन किया कि यदि वे १-२-३ एटमी करार के विरोध में मतदान करेंगे तो अमेरिका में गलत सन्देश जाएगा कि संघ परिवार अमेरिका के खिलाफ है.भाजपा और आडवानी जी के समक्ष दुविधा थी कि एक तरफ तो वे अमेरिका कि नज़र से गिरना नहीं चाहते,दूसरे वे यु पी सरकार को गिराकर वाम को हीरो बनने का मौका भी नहीं देना चाहते थे ,वे यु पी ऐ को सत्ता से वेदखल करने के बदले में स्वयम सत्तासीन होने के मंसूबे बाँधने में जुट गए.भले ही वे १-२-३ एटमी करार को एन डी ऐ के सत्ता में आने पर सुलटा लेते.किन्तु तत्काल तो उन्हें वही सूझा जो उन्होंने २८ जुलाई २००८ को संसद में संपादित किया.
  अब रेवतीरमण सिंह,अमरसिंह,या अन्य धुरंधरों ने किसके इशारे पर किस-किस को साधने का क्या-क्या इंतजाम किये ये  जिसे नहीं मालूम हो वो बिकिलीक्स के खुलासों का इंतज़ार करे.इतना तो सभीको विदितहै कि  अमेरिका के आगे घुटने टेकने  कि सूरत में वाम मोर्चे के सभी ६२ सांसदों ने मनमोहन सरकार के विरुद्ध मतदान किया था ,भाजपा के कुछ सांसद जान बूझकर गैर हाज़िर क्यों रहे?इसका जबाब भी भाजपा ने तत्काल शोकाज नोटिश  थमाकर दिया था. अशोक अर्गल ,कुलस्ते और भगोरा ने कांग्रेस कि लाबिंग के नोट लेकर बाद में किसके कहने पर मीडिया के सामने नोटों कि गद्दियाँ  हवा में लहराई उसका जबाब भी खुद आडवाणी जी ने अभी संसद के मानसून सत्र के अंतिम दिन सिंह गर्जना के साथ दिया कि यदि मेरे साथी दोषी हैं तो मैं भी दोषी हूँ ...या कि मुझे जेल भेज कर दिखाओ...बहरहाल ....आडवानी जी के इस नए स्टैंड से एनडीए सत्ता में आये ,मेरी शुभकामनाएं..मेरा निहतार्थ यह है कि जब वाम ने समर्थन वापिस लिया और अमेरिका ने अपने पसंदीदा प्रधानमंत्री मनमोहन को बचाने {कांग्रेस नहीं} के लिए भारतीय राजनीती में खुलकर राजनीति की; तब भाजपा ने उसे सहारा दिया.परिणाम स्वरूप मनमोहनसिंह सरकार बच गई .न केवल सरकार बच गई बल्कि १-२-३ नाभकीय उर्जा करार भी जैसा अमेरिका चाहता था ;वैसा हो गया.' सिंह आला पर गढ़ गेला' तब कार्पोरेट लाबी ने सम्पूर्ण पूंजीवादी मीडिया के मार्फ़त वाम पंथ को देश विरोधी,विकाश विरोधी,आर्थिक सूधार विरोधी सावित कराने ,भाजपा को  अमेरिका प्रणीत उदार आर्थिक सुधारों के भारतीय झंडाबरदार मनमोहन सिंह का उद्धारक बताने की जो कुचेष्टा की उसी का परिणाम था कि जिस वाम पंथ ने नरेगा,आर टी आई ,भूमि सूधार और श्रम सुधारों की निरंतर वकालत की वो वाम पंथ जनता की नजर में आर्थिक विकाश  विरोधी प्रचारित किया गया.अमेरिका के प्रभाव में भारतीय स्वछंद मीडिया ने वाम को खलनायक और मनमोहनसिंह को 'सिंह इज किंग' सिद्ध कर दिया.अब जनता ने वाम को ६२ से २५ लोक सभा सीटों में समेत दिया तो इसमें आश्चर्य जनक क्या है?और जब मनमोहन को भाजपा के अनैतिक समर्थन से हीरो बनाओगे तो यूपीए -२ को  तो सत्ता में लौटना ही था तब पी एम् इन वेटिंग का औचित्य क्या था?भाजपा यदि इसी तरह पूंजीवादी बाजारीकरण की नीतियों का समर्थन जारी रखेगी तो उसे सत्ता में  कौन बिठाएगा?क्योंकि इन्हीं आर्थिक नीतियों का सर्वश्रेष्ठ अमेरिकी पसंद व्यक्ति तो आलरेडी भारत के सत्ता शिखर पर विराजमान है.तभी तो २८ जुलाई -२००८ को संसद में विश्वाश मत [नोट के बदले वोट}हासिल करने के बाद श्री मनमोहन सिंह ने कहा था 'अब में सहज महसूस कर रहा हूँ ,रास्ते के रोढ़े हट गए' अब उस दिन जो लम्हों ने खता की थी उसकी सजा सदियों तक उन सभी को {न केवल अमरसिंह,कुलस्ते,भगोरा} को मिलना ही है जो अभी तक तिहाड़ जाने से बचे हैं.
                                         मेरे इस आलेख की विषय वस्तु के केंद्र में वाम की वह भूमिका है जिसके कारण कांग्रेस नीत यूपीए प्रथम सरकार अल्पमत में आई .वह भूमिका निसंदेह बाद में खुद वाम के लिए कतई शुभ सावित नहीं हुई. लोकसभा में वाम को भारी झटके लगे और विगत विधानसभा चुनावों में बंगाल में पूंजीवादी साम्प्रदायिक और सत्ता परिवर्तन आकांक्षी ताकतों ने वामपंथ को  एक तगड़ा झटका दिया है.केरल में तो कोई खास फर्क नहीं आया.वहाँ वोट प्रतिशत और बढ़ा है हालांकि कांग्रेस ने २-३ साम्प्रदायिक दलों को सहलाया तो उसके असर से कांग्रेस को सत्ता मिल गई .किन्तु भाजपा को केरल और बंगाल में खाता भी नहीं खुलने के वावजूद बजाय कांग्रेस और स्वयं भाजपा की रीति-नीति का विश्लेषण करने के सिर्फ वाम पंथ पर निरंतर हमले किये जा रहे है क्यों?
न केवल प्रेस ,मीडिया बल्कि बंगाल में तो घरों में ,दफ्तरों में,खेतों में तृणमूल कांग्रेसी गुंडे बेक़सूर लोगों को ,मजदूरों को,किसानों को जिन्दा जला रहे हैं.उनकी जमीने छीन रहे हैं,महिलाओं का अपहरण ,बलात्कार और चुन-चुनकर वाम समर्थकों को दमन का शिकार बनाया जा रहा है.
          यह वाम पंथ की उस हिमाकत का नतीजा है कि मनमोहन सरकार के अमरीका प्रेम और देश में आर्थिक बदहाली के  चलते उसका समर्थन वापिस लिया.अब यदि हरिश्चंद्र बनोगे तो भुगतना भी पडेगा.इसमें ये कहना कि वाम तो अब अप्रसांगिक हो गया या वाम का खात्मा हो गया ,ये सब बचकानी बातें हैं.वाम और उसका साम्यवादी दर्शन तब तक ख़त्म नहीं होगा जब तक दुनिया में आर्थिक -सामाजिक और राजनीतिक विषमता विद्यमान है.
               श्रीराम तिवारी
        
    

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