शनिवार, 10 सितंबर 2011

जब तक दुनिया में असमानता रहेगी -वामपंथ तब तक अमर रहेगा.{भाग-१}

   भारतीय दार्शनिक परम्परा में कार्य-कारण का सिद्धांत सारे प्रबुद्ध संसार में न केवल प्रसिद्ध है बल्कि उस पर वैज्ञानिक भौतिकवाद की मुहर भी अब से १५० साल पहले तब लग चुकी थी जब जर्मन दार्शनिकों और खास तौर से मेक्समूलर ,कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ने  इस भारतीय वेदान्त प्रणीत दर्शन को अपने एतिहासिक द्वंदात्मक भौतिकवाद के केंद्र में स्थापित किया था.पृकृति,मानव,समाज और स्थावर-जंगम के मध्य बाह्य -आंतरिक संबंधों को एतिहासिक विकाश क्रम में वैज्ञानिक तार्किकता के आधार पर परिभाषित किये जाने के तदनंतर उक्त भारतीय दर्शन -प्रणीत कार्य कारण के सिद्धांत को  'साम्यवाद'मार्क्सवाद के केंद्र में सबसे ऊँचा मुकाम हासिल है.
      भारतीय उपमहादीप में अनेकानेक यायावर कबीलों के आगमन ,निरंतर आक्रमणों और अधिकांस के यहीं रच-बस जाने के परिणामस्वरूप आर्थिक,सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनैतिक स्तर पर जहां एक ओर अपने-अपने कबीलों,गणों,जनपदों,महाकुलों और वंशों ने अपनी निष्ठाएं स्थापित,कीं वहीँ दूसरी ओर एक -दूसरे के संपर्क में आने तथा भौगोलिक-प्राकृतिक कारणों से वेशभूषा,रहन-सहन,विचार-चिंतन और ज्ञान-विज्ञान में भी समय-समय पर उल्लेखनीय समन्वय और तरक्की की है.हजारों सालों की सतत द्वंदात्मकता के परिणाम स्वरूप आज दुनिया में अधिकांस पुरातन समाजों-राष्ट्रों में जो भी -विचार,चिंतन या दर्शन मौजूद हैं उनका मूल जानना उतना ही कठिन है जितना की सदानीरा सरिताओं का मूल जानना.भारतीय और इंडो यूरोपियन तथा भारतीय सेमेटिक और भारतीय मध्य-एशियाई सभ्यताओं  के द्वन्द का परिणाम ही वर्तमान भारतीय दर्शन है.यही प्रकारांतर से जर्मन और अन्य पाश्चात्य दर्शनों के वैज्ञानिक रूप से परिष्कृत होने का सशक्त उपादान भी  रहा है.इसी से  द्वंदात्मक -एतिहासिक -भौतिकवाद या  मार्क्सवाद या साम्यवाद का जन्म हुआ है.भारत के कुछ दक्षिणपंथी ,कुछ पूंजीवादी और कुछ कोरे मूढमति एक ओर तो अपने राष्ट्रवाद को अंतर्राष्ट्रीयतावाद का बाप समझते हैं दूसरी ओर लगे हाथ अपनी कूपमंडूकता का प्रदर्शन करते हुए मार्क्सवाद या साम्यवाद को विदेशी विचारधारा, विदेशी सिद्धांत घोषित करने में एडी-चोटी का जोर लगाते रहते हैं.
          वेदान्त का स्पष्ट कथन है -
          सर्वे भवन्ति सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया.
          सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, माँ कश्चिद् दुःख भाग्वेत..

        अयं निजः परोवेति ,गणना लघुचेतसाम.
       उदार चरितानाम तू ,वसुधैव कुटुम्बकम..
 भारतीय पुरातन दार्शनिक परम्परा में ऐंसे लाखों प्रमाण हैं जो सावित करते हैं की जिस तरह भारतीय मनीषियों ने 'जीरो' से लेकर धरती के गोल होने या सूर्य से सृष्टि होनेऔर मत्स्य अवतार से कच्छप,वराह,नृसिंह वामन,परशुराम,राम,कृष्ण,बुद्ध और कल्कि का पौराणिक यूटोपिया प्रस्तुत करने में  वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया वो डार्विन के चिंतन को भी निस्तेज करने में सक्षम है.
  अब यदि डार्विन के 'ओरिजन आफ स्पेसीज'या sarvival  is  the  fittest  में उस भारतीय चिंतन की झलक विद्यमान है जो कहता कि ;-
        यद्द्विभूतिमात्सत्वाम श्रीमदूर्जितमेव वा.
       तत्तदेवावगच्छ त्वम् मम तेजोअश्सम्भ्वम..
                       गीता-अध्याय १०-४१
 तो इसमें ओर डार्विन के विशिष्ठ जीवन्तता सिद्धांत में असाम्य कहाँ है?  कुछ डार्विन से ,कुछ यूनानियों से,कुछ रोमनों से,कुछ जर्मनों से और बाकि का सब कुछ भारतीय दर्शन से लेकर हीगेल और ओवेन जैसे आदर्श उटोपियेयों ने जो आदर्शवादी साम्यवाद का ढांचा खड़ा किया था उसमें वैज्ञानिक भौतिक वाद ,एतिहासिक द्वंदात्मकता,सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक चेतना के पञ्च महाभूतों का समिश्रण कर, उसमें उच्चतर मानवीय संवेदनाओं का प्रत्यारोपण  कर   जो अनुपम विचारधारा प्रकट हुई उसका अनुसंधान या सम्पादन भले ही कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ने किया हो किन्तु इस दर्शन का सार तत्व वही है जो भारतीय वेदान्त ,बौद्ध,जैन,सिख और सनातन साहित्य की आत्मा है.
जब तक भारत में और दुनिया में वेदान्त,दर्शन का,बौद्ध,जैन,और सनातन दर्शनों का महत्व रहेगा तब तक असमानता के खिलाफ ,शोषण के खिलाफ और दरिद्रनारायण के पक्षधर के रूप में 'मार्क्सवाद'और उसके पैरोकार वामपंथ का अस्तित्व अक्षुण रहेगा.कोई भी विचारधारा सिर्फ विधान सभा चुनाव की हार जीत से जीवित या मृत घोषित कर देने वालों को यह सदैव स्मरण रखना चाहिए.इतिहास उन्हें झूंठा सावित करेगा जो अभी वाम की हार पर उसके अवसान के गीत लिख रहे हैं.उन्हें भी निराश होना पड़ेगा जो  पूँजी के आगे नत्मश्तक हैं.
  यह दर्शन फ्रांसीसी क्रांति,सोवियत क्रांति,क्यूबाई क्रांति,चीनी क्रांति,वियेतनामी क्रांति,बोलिबियाई और लातिनी अमेरिकी राष्ट्रों समेत तमाम दुनिया {भारत समेत} के स्वधीनता  संग्रामों का प्रेरणा स्त्रीत रहा है .इसके दूरगामी सकारात्मक प्रभावों ने सामंतवाद  के गर्भ से पूंजीवाद और पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद  के उद्भव की भविष्वाणी भले ही वक्त पर सही सावित न की हो किन्तु यह कहना जल्दबाजी होगी की 'मार्क्सवाद का अब कोई भविष्य नहीं' ३५ साल में एक बार बंगाल में और २ सीट से केरल में माकपा के हारने का मतलब मार्क्सवाद का पराभव नहीं समझ लेना चाहिए.बल्कि वामपंथ और मार्क्सवादियों को भविष्य में बेहतर पारी खेलने के लिए जनता रुपी कोच ने वाम रुपी खिलाडियों को कसौटी पर कसे जाने का फरमान ही जरी किया है.
          श्रीराम तिवार्री
       

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