अपने दुसरे कार्यकाल के अंतिम दिनों में तत्कालीन अमेरिकन प्रेसिडेंट मिस्टर जार्ज बुश [जूनियर]ने फ़रमाया था"भारत और चीन के लोग चूँकि अब ज्यादा खाने लगे हैं [अर्थात पहले तो भुखमरे ही थे?]इसलिए अमेरिका और शेष विकसित देशों पर आर्थिक मंदी की मार पडी है"अभी कुछ दिनों पहले वर्तमान प्रेसिडेंट ओबामा ने फ़रमाया "अमेरिकी युवाओं को शंघाई और बंगलुरु से टक्कर लेने का माद्दा रखना होगा"वास्तव में इन वक्तव्यों के पीछे की मंसा भले ही कुंठित हो किन्तु सचाई यही है किभारत और चीन में एक नव -धनाड्य वर्ग तो जरुर समृद्ध हुआ है ,भले ही गरीव और अमीर के बीच की खाई बेतहासा बड़ी हो.चूँकि भारत और चीन की जनसंख्या वाकई दुनिया की एक तिहाई के करीब पहुँचने वाली है जबकि जमीनी हिस्सा १/२० भी नहीं है.इस सूरते हाल में विराट श्रम शक्ति के काल्पनिक आधार और गैर जिम्मेदार वित्त नियोजन को अर्थ व्यवस्था का उन्नायक कैसे कहा जा सकता है ?
नव उदारवाद के रास्ते पर कुलांचे भरते हुए भारतीय अर्थ-व्यवस्था ने आर्थिक वृद्धि दर की जो कल्पना की थी
वह आज अपने अंतिम अंजाम से मीलों दूर पहले भारतीय पूंजीवादी राजनीतिज्ञों को आगाह कर रही है कि मात्र व्याज दरों में कमी वेशी करने ,विदेशी निवेश बढाने,जन-कल्याणकारी मदों से सरकारी इमदाद में कमी करने और वित्तीय पूंजीगत लाभों को राष्ट्र विकाश का माडल भर मान लेने से अर्थ व्यवस्था को सुरखाव के पंख नहीं लगने वाले हैं.जनसँख्या को नियंत्रित किये बिना क्या होगा? खेती के लिए और उद्द्योगों के लिए जमीने क्या आसमान से आयेंगीं?पीने का पानी और उसी अनुपात में शुद्ध आक्सीजन के लिए शुद्ध वायुमंडल भी होना चाहिए कि नहीं?केवल व्यापारिक ताने-बाने से ये सब हासिल नहीं होगा.
खुदरा व्यापार के मल्टी ब्रांड में १००%और एकल जिंसों में ५१%ऍफ़ डी आई को आर्थिक सुधारों की संजीविनी निरुपित करते हुए ,एम् एन सी और उनके वैश्विक नियामक नियंताओं ने वर्तमान नव उदारवादी भारतीय देशी शासक वर्ग को भीवेहद उहापोह की स्थिति में ला खड़ा कर दिया है.ऊपर से भले ही यह दिखाने की कोशिश की जाती रही है कि भारतीय और चीनी अर्थ व्यवस्थाएंवैश्विक आर्थिक संकट की काली डरावनी -विनाशकारी घटाओं से कमोवेश सुरक्षित हैं ;किन्तु जानकारों की आशंकाओं को यत्र-तत्र-सर्वत्र साकार देखा जाने लगा है.यदि चीन और भारत को एक बाज़ार समझकर विकसित देश, अपने आर्थिक संकट से निजात पाने के लिए, अपने अति शेष उत्पादों को इन विकाशशील राष्ट्रों में खपा कर ;अपना उद्धार करना चाहते हैं तो इसमें किसी को तब तक कोई आपत्ति नहीं जब तक उसके हितों पर आंच नहीं आती.अब यदि भारत और चीन की जनता को लगता है कि उनके हितों को खतरा है तो वे ऍफ़ डी आई समेत उन तमाम पश्चिमी पूंजीवादी हथकंडों का विरोध क्यों नहीं करेंगे?विकीलीक्स के ताजे खुलासों में भारत और चीन पर अमेरिकी नीति निर्माताओं के तत विषयक उद्देश्य स्पष्ट होने लगे हैं.
चीन की अर्थव्यवस्था विशुद्ध साम्यवादी व्यवस्था के दौर में नितांत सफल,निरापद और निष्कंटक हुआ करती थी;किन्तु सोवियत पराभव से आक्रांत होकर देंग शियाओ पिंगके अनुयाइयों ने जिस तरह से अर्ध पूंजीवादी अर्ध साम्यवादी खिचडी पकाई उससे निसंदेह चीन को आधारभूत संरचनाओंमें आशातीत सफलता और तीव्र औद्यौगीकरन की मृग मरीचिका का दिग्दर्शन भले ही हुआ हो किन्तु अब उसके लिए आगे कुआँ और पीछे खाई है चीन की अर्थव्यवस्था का संकट प्रारंभ हो चला है.विगत तीन सालों में लगातार आर्थिक रफ़्तार घटने और विनिर्माण क्षेत्र सिकुड़ने के संकेत मिलने लगे हैं.यही वजह है कि चीन को मजबूरन अपनी मौद्रिक नीति को नरम करने की आवश्यकता आन पडी है'.चाइना फेड्रेसन आफ लाजिस्टिक्स एंड perchesing के अनुसार नवम्बर में पी एम् आई घटकर ४९ पर आ गिरा है जबकि अक्तूबर में ५०.४ था.उसके निर्यात में अप्रत्याशित गिरावट और अन्दुरुनी प्राकृतिक झंझावातों ने राजकोषीय घाटे को वैश्विक देनदारियों के समकक्ष ला खड़ा कर दिया है.मजदूर,कर्मचारी ,किसान और वेरोजगार युवाओं में वर्तमान चीनी शासकों के प्रति अवज्ञा का भाव पैदा हो चला है .हड़ताल,प्रदर्शन और सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी गतिविधियाँ अब चीन में आम हो चली है .चीन का मीडिया सिर्फ वही बतलाता है जो वर्तमान शासकों और पूंजीवादी संसार को लुभाता हो.चीन की कोम्मुनिस्ट पार्टी अब मार्क्स,लेनिन और माओ के जनवादी सिद्धांतों-वास्तविक साम्यवादी व्यवस्था से पदच्युत होकर केवल पेंशन भोगियों और सत्ता के दलालों की एकांगी दिग्भ्रमित नाम मात्र की साम्यवादी होकर रह गई है.यही वजह है कि जनसंख्या नियंत्रण ,कृषि उत्पादन में आनुपातिक वृद्धि और समतामूलक समाज व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों से भटकती हुई चीन की वर्तमान हु जिन्ताओ सरकार वैश्विक बाजारीकरण की राह पर चलते हुए हाराकिरी की ओर अग्रसर है.जनसँख्या नियंत्रण के कठोर और वैज्ञानिक उपायों के बिना चीन का भविष्य तो खतरे में है ही किन्तु भारत को प्रकारांतर से इससे बेजा खतरा हो सकता है.
भारत में कृषि उत्पादन,जनसँख्या बृद्धि तथा सार्वजनिक वितरण व्यवस्था इत्यादि महत्वपूर्ण विषयों को वर्तमान यु पी ऐ सरकार के अजेंडे में कोई खास महत्व नहीं है.उत्तम गुणवत्ता के बीज,उर्वरक,सिचाई,बिजली,की किल्लत का आलम यह है कि हजारों क़र्ज़ ग्रस्त सीमान्त किसानों ने विगत ५-६ सालों में आत्म हत्या कर ली .महंगाई,भृष्टाचार और आधुनिकीकरण पर तो फिर भीजनता और मीडिया कि निरंतर सक्रियिता बनी हुई है किन्तु जनसँख्या नियंत्रण,पर्यावरण,प्रदूषण,अनुत्पादक श्रम नियोजन तथा सार्वजनिक वितरण व्यवस्था पर न तो जन मानसगंभीर है और न ही राज्यसत्ता के हितग्राहियों को उतनी उत्कंठा या व्यग्रता है जितनी की सांसदों के भत्ते बढवा लेने,विदेशी निवेशकों को लाल कालीन बिछाने या कारपोरट लाबी के सरोकारों को उनके हितों के परिप्रेक्ष्य में परिपूर्ण करने की व्यग्रता रहती है.राजनीतिक भृष्टाचार और अफसरों की लूटखोरी ने देश को अन्दर ही अन्दर खोखला कर डाला है. यही वजह है कि विगत जून २०११ में भारत का विदेशी ऋण ३१६.९ अरब डालर तक जा पहुंचा जो मार्च २०११ में ३०६.५ डालर था.विदेशी वाण्जिक उधारियों को विनियमित करने ,अनिवासी भारतीयों के द्वारा जमा राशियों पर इंटरेस्ट रेट को युक्ति संगत बनाए जाने की चर्चा भी पक्ष -विपक्ष नहीं करता.इन सभी मशक्कतों का परिणाम यह कि' ऊँट के मुंह में जीरा'.वाली कहावत ही चरितार्थ हो सकती है.
भारतीय मीडिया का एक खास हिस्सा हैजो बाबाओं,समाज सेवकों ,धर्म गुरुओं और गैर राजनैतिक आवरण में छिपकर विशुद्ध राजनीती करने में निरंतर जुटे निहित स्वोर्थियों को राजनीती का समस्थानिक सिद्ध करने में व्यस्त है. देशी-विदेशी इजारेदारों की गिरफ्त वाला मीडिया भी अपने नव उदारवादी अजेंडे पर काम करते हुए कभी १-२-३,एटमी करार,कभी रिटेल में ऍफ़ डी आई और कभी राष्ट्र्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथो में सौंपने का वातावरण तैयार करता रहता है.यह पूंजीवादी दुमछल्ला वैश्विक नव उदारवादीआर्थिक उद्घोष इतने यकीन से करता है कि इसका असर न केवल भारत और चीन बल्कि तीसरी दुनिया के अन्य देश भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते.राष्ट्रीय मुख्य धारा के मीडिया को स्वनियंत्रण सीखना होगा और जन संख्या नियंत्रण,साम्प्रदायिक पाखंड और एन जी ओ रुपी परजीवी अमर्वेलों पर प्रतिघाती कदम उठाना चाहिए.
विगत दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ ने च्र्तावनी दी है कि दुनिया एक और आर्थिक मंदी की चपेट में आ सकती है.वर्ष २०१२ में दुनिया की आर्थिक विकाश दर धीमी होती चली जायेगी और भारत तथा चीन जैसे तथाकथित उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे.चीन और भारत के बारे में मिस्टर ओबामा का काल्पनिक भयादोहन भी अब असरकारक नहीं होगा.संयुक राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार यूरोप ,अमेरिका और तथाकथित एशियन चीतों की जान सांसत में होगी.नयी नौकरियों का आभाव ,बढ़ता क़र्ज़ संकट और वित्तीय क्षेत्रों में आ रही दुश्वारियों के बरक्स नवउदारवादी अर्थव्यवस्थाओं की नाकामी सारी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेगी.भारत और चीन भी इस भयावह सुनामी से अछूते नहीं रह पायेंगे. जनसँख्या नियंत्रण के बिना 'किसी का गुजारा नहीं.आवश्यकताओं की आपूर्ति ,जिंसों का उत्पादन और जनसँख्या में वैज्ञानिक आनुपातिक सामंजस्य होना चाहिए.केवल राजनीतिज्ञों या व्यवस्थाओं पर काबिज शक्तियों को कोसने से काम नहीं चलने वाला.भावी पीढीयाँ नारकीय यंत्रणा भोगने को अभिशप्त होंगी ;यदि वर्तमान पीढी ने अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वहन ठीक से नहीं किया,अर्थात जनसंख्या नियंत्रण के ठोस और वैज्ञानिक उपायों का क्रियान्वन.
अभी तक आम धारणा रही है कि भारत और चीन में चूँकि श्रम सस्ता और कच्चा माल इफरात में मौजूद है भारत और चीन दोनों हीपड़ोसी देशों के विकसित देशों से व्यापार और वित्तीय रिश्ते गहरे हैं और विश्व अर्थ व्यवस्था को सहारा देने की क्षमता रखते हैं ,सहारा दिया भी है किन्तु वर्ष २०१२ में भारत की विकाश दर लुढ़कती हुई ७-७ से नीचे जाती दिख रही है .डालर के मुकाबले रुपया और युयान दोनों ही अब पस्त होते दिख रहे हैं ९% से ऊपर की आर्थिक विकाश दर और आशातीत आर्थिक अवलंबन में भारत और चीन अब विश्व के संकट ग्रस्त पूंजीवादी देशों को कुछ खास नहीं दे सकेंगे.भारत और चीन को अपने घरेलू रक्षात्मक संसाधनों में कटौती करते हुए दुनिया के अस्त्र उत्पादकों से पीछा छुड़ा लेना चाहिए.भारत चीन को अपने यहाँ ज्यादा नौकरियां पैदा करनी होंगी,सड़क-बिजली -बंदरगाह जैसे अधोसंरचना क्षेत्र में निवेश बढ़ाना होगा.न केवल उर्जा खपत नियंत्रण के उपाय करने होंगे बल्कि टिकाऊ उर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करनी होगी.भारत के लिए स्थिति चीन से भी दुष्कर है .आंतरिक वाह्य खतरों को केवल आतंकवादी या अलगाववादी ही नहीं बल्कि भारतीय अस्मिता को जमींदोज किये जाने के खतरे भी विद्यमान हैं . आर्थिक मंदी दुनिया को फिर से दस्तक देने लगी है ,भारत और चीन भी उससे से अछूते नहीं रह पायेंगे.दोनों सनातन पड़ोसियों को अपने सीमा विवादों को ठन्डे वसते में रख देना चाहिए.खास तोर से चीन के वुद्धिजीवियों,साहित्यकारों,छात्रों,युवाओं ,मजदूरों और किसानो की यह एतिहासिक जिम्मेदारी है की वे अपने शासक वर्गों पर दवाव बनाएं ताकि वे भारत के खिलाफ पाकिस्तान रुपी बिगडेल निजाम का इस्तेमाल न करे.जहां तक भारतीय विदेश नीति का सवाल है ,वह पूरी तरह पारदर्शी ,विश्व बंधुत्व आधारित,अहिंसा,स्वतंत्रता और समानता के नीति निर्देशक सिद्धांतों पर अवलंबित है.आज़ाद भारत में विगत ६५ सालों में भारत की विदेश नीति को पूरे राष्ट्र ने उसे ही तस्दीक किया जिसे पंडित नेहरु के नेत्रत्व में उदीयमान भारत ने अपने शैशव काल में अनुप्रमाणित किया था. अब जो कुछ भी बदलना है या सकारात्मक कदम उठाना है वो चीन को ही करना है.भारत तो अपने हिस्से के तमाम जिम्मेदारियां पहले ही पूर्ण कर चूका है.अब यदि पाकिस्तान के कंधे पर बन्दूक रखकर चीन अपने सनातन पड़ोसी और पंचशील प्रणेता भारत को शत्रु मानकर चलता है तो उसमें चीन का ही नुक्सान ज्यादा है..
श्रीराम तिवारी
नव उदारवाद के रास्ते पर कुलांचे भरते हुए भारतीय अर्थ-व्यवस्था ने आर्थिक वृद्धि दर की जो कल्पना की थी
वह आज अपने अंतिम अंजाम से मीलों दूर पहले भारतीय पूंजीवादी राजनीतिज्ञों को आगाह कर रही है कि मात्र व्याज दरों में कमी वेशी करने ,विदेशी निवेश बढाने,जन-कल्याणकारी मदों से सरकारी इमदाद में कमी करने और वित्तीय पूंजीगत लाभों को राष्ट्र विकाश का माडल भर मान लेने से अर्थ व्यवस्था को सुरखाव के पंख नहीं लगने वाले हैं.जनसँख्या को नियंत्रित किये बिना क्या होगा? खेती के लिए और उद्द्योगों के लिए जमीने क्या आसमान से आयेंगीं?पीने का पानी और उसी अनुपात में शुद्ध आक्सीजन के लिए शुद्ध वायुमंडल भी होना चाहिए कि नहीं?केवल व्यापारिक ताने-बाने से ये सब हासिल नहीं होगा.
खुदरा व्यापार के मल्टी ब्रांड में १००%और एकल जिंसों में ५१%ऍफ़ डी आई को आर्थिक सुधारों की संजीविनी निरुपित करते हुए ,एम् एन सी और उनके वैश्विक नियामक नियंताओं ने वर्तमान नव उदारवादी भारतीय देशी शासक वर्ग को भीवेहद उहापोह की स्थिति में ला खड़ा कर दिया है.ऊपर से भले ही यह दिखाने की कोशिश की जाती रही है कि भारतीय और चीनी अर्थ व्यवस्थाएंवैश्विक आर्थिक संकट की काली डरावनी -विनाशकारी घटाओं से कमोवेश सुरक्षित हैं ;किन्तु जानकारों की आशंकाओं को यत्र-तत्र-सर्वत्र साकार देखा जाने लगा है.यदि चीन और भारत को एक बाज़ार समझकर विकसित देश, अपने आर्थिक संकट से निजात पाने के लिए, अपने अति शेष उत्पादों को इन विकाशशील राष्ट्रों में खपा कर ;अपना उद्धार करना चाहते हैं तो इसमें किसी को तब तक कोई आपत्ति नहीं जब तक उसके हितों पर आंच नहीं आती.अब यदि भारत और चीन की जनता को लगता है कि उनके हितों को खतरा है तो वे ऍफ़ डी आई समेत उन तमाम पश्चिमी पूंजीवादी हथकंडों का विरोध क्यों नहीं करेंगे?विकीलीक्स के ताजे खुलासों में भारत और चीन पर अमेरिकी नीति निर्माताओं के तत विषयक उद्देश्य स्पष्ट होने लगे हैं.
चीन की अर्थव्यवस्था विशुद्ध साम्यवादी व्यवस्था के दौर में नितांत सफल,निरापद और निष्कंटक हुआ करती थी;किन्तु सोवियत पराभव से आक्रांत होकर देंग शियाओ पिंगके अनुयाइयों ने जिस तरह से अर्ध पूंजीवादी अर्ध साम्यवादी खिचडी पकाई उससे निसंदेह चीन को आधारभूत संरचनाओंमें आशातीत सफलता और तीव्र औद्यौगीकरन की मृग मरीचिका का दिग्दर्शन भले ही हुआ हो किन्तु अब उसके लिए आगे कुआँ और पीछे खाई है चीन की अर्थव्यवस्था का संकट प्रारंभ हो चला है.विगत तीन सालों में लगातार आर्थिक रफ़्तार घटने और विनिर्माण क्षेत्र सिकुड़ने के संकेत मिलने लगे हैं.यही वजह है कि चीन को मजबूरन अपनी मौद्रिक नीति को नरम करने की आवश्यकता आन पडी है'.चाइना फेड्रेसन आफ लाजिस्टिक्स एंड perchesing के अनुसार नवम्बर में पी एम् आई घटकर ४९ पर आ गिरा है जबकि अक्तूबर में ५०.४ था.उसके निर्यात में अप्रत्याशित गिरावट और अन्दुरुनी प्राकृतिक झंझावातों ने राजकोषीय घाटे को वैश्विक देनदारियों के समकक्ष ला खड़ा कर दिया है.मजदूर,कर्मचारी ,किसान और वेरोजगार युवाओं में वर्तमान चीनी शासकों के प्रति अवज्ञा का भाव पैदा हो चला है .हड़ताल,प्रदर्शन और सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी गतिविधियाँ अब चीन में आम हो चली है .चीन का मीडिया सिर्फ वही बतलाता है जो वर्तमान शासकों और पूंजीवादी संसार को लुभाता हो.चीन की कोम्मुनिस्ट पार्टी अब मार्क्स,लेनिन और माओ के जनवादी सिद्धांतों-वास्तविक साम्यवादी व्यवस्था से पदच्युत होकर केवल पेंशन भोगियों और सत्ता के दलालों की एकांगी दिग्भ्रमित नाम मात्र की साम्यवादी होकर रह गई है.यही वजह है कि जनसंख्या नियंत्रण ,कृषि उत्पादन में आनुपातिक वृद्धि और समतामूलक समाज व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों से भटकती हुई चीन की वर्तमान हु जिन्ताओ सरकार वैश्विक बाजारीकरण की राह पर चलते हुए हाराकिरी की ओर अग्रसर है.जनसँख्या नियंत्रण के कठोर और वैज्ञानिक उपायों के बिना चीन का भविष्य तो खतरे में है ही किन्तु भारत को प्रकारांतर से इससे बेजा खतरा हो सकता है.
भारत में कृषि उत्पादन,जनसँख्या बृद्धि तथा सार्वजनिक वितरण व्यवस्था इत्यादि महत्वपूर्ण विषयों को वर्तमान यु पी ऐ सरकार के अजेंडे में कोई खास महत्व नहीं है.उत्तम गुणवत्ता के बीज,उर्वरक,सिचाई,बिजली,की किल्लत का आलम यह है कि हजारों क़र्ज़ ग्रस्त सीमान्त किसानों ने विगत ५-६ सालों में आत्म हत्या कर ली .महंगाई,भृष्टाचार और आधुनिकीकरण पर तो फिर भीजनता और मीडिया कि निरंतर सक्रियिता बनी हुई है किन्तु जनसँख्या नियंत्रण,पर्यावरण,प्रदूषण,अनुत्पादक श्रम नियोजन तथा सार्वजनिक वितरण व्यवस्था पर न तो जन मानसगंभीर है और न ही राज्यसत्ता के हितग्राहियों को उतनी उत्कंठा या व्यग्रता है जितनी की सांसदों के भत्ते बढवा लेने,विदेशी निवेशकों को लाल कालीन बिछाने या कारपोरट लाबी के सरोकारों को उनके हितों के परिप्रेक्ष्य में परिपूर्ण करने की व्यग्रता रहती है.राजनीतिक भृष्टाचार और अफसरों की लूटखोरी ने देश को अन्दर ही अन्दर खोखला कर डाला है. यही वजह है कि विगत जून २०११ में भारत का विदेशी ऋण ३१६.९ अरब डालर तक जा पहुंचा जो मार्च २०११ में ३०६.५ डालर था.विदेशी वाण्जिक उधारियों को विनियमित करने ,अनिवासी भारतीयों के द्वारा जमा राशियों पर इंटरेस्ट रेट को युक्ति संगत बनाए जाने की चर्चा भी पक्ष -विपक्ष नहीं करता.इन सभी मशक्कतों का परिणाम यह कि' ऊँट के मुंह में जीरा'.वाली कहावत ही चरितार्थ हो सकती है.
भारतीय मीडिया का एक खास हिस्सा हैजो बाबाओं,समाज सेवकों ,धर्म गुरुओं और गैर राजनैतिक आवरण में छिपकर विशुद्ध राजनीती करने में निरंतर जुटे निहित स्वोर्थियों को राजनीती का समस्थानिक सिद्ध करने में व्यस्त है. देशी-विदेशी इजारेदारों की गिरफ्त वाला मीडिया भी अपने नव उदारवादी अजेंडे पर काम करते हुए कभी १-२-३,एटमी करार,कभी रिटेल में ऍफ़ डी आई और कभी राष्ट्र्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथो में सौंपने का वातावरण तैयार करता रहता है.यह पूंजीवादी दुमछल्ला वैश्विक नव उदारवादीआर्थिक उद्घोष इतने यकीन से करता है कि इसका असर न केवल भारत और चीन बल्कि तीसरी दुनिया के अन्य देश भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते.राष्ट्रीय मुख्य धारा के मीडिया को स्वनियंत्रण सीखना होगा और जन संख्या नियंत्रण,साम्प्रदायिक पाखंड और एन जी ओ रुपी परजीवी अमर्वेलों पर प्रतिघाती कदम उठाना चाहिए.
विगत दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ ने च्र्तावनी दी है कि दुनिया एक और आर्थिक मंदी की चपेट में आ सकती है.वर्ष २०१२ में दुनिया की आर्थिक विकाश दर धीमी होती चली जायेगी और भारत तथा चीन जैसे तथाकथित उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे.चीन और भारत के बारे में मिस्टर ओबामा का काल्पनिक भयादोहन भी अब असरकारक नहीं होगा.संयुक राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार यूरोप ,अमेरिका और तथाकथित एशियन चीतों की जान सांसत में होगी.नयी नौकरियों का आभाव ,बढ़ता क़र्ज़ संकट और वित्तीय क्षेत्रों में आ रही दुश्वारियों के बरक्स नवउदारवादी अर्थव्यवस्थाओं की नाकामी सारी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेगी.भारत और चीन भी इस भयावह सुनामी से अछूते नहीं रह पायेंगे. जनसँख्या नियंत्रण के बिना 'किसी का गुजारा नहीं.आवश्यकताओं की आपूर्ति ,जिंसों का उत्पादन और जनसँख्या में वैज्ञानिक आनुपातिक सामंजस्य होना चाहिए.केवल राजनीतिज्ञों या व्यवस्थाओं पर काबिज शक्तियों को कोसने से काम नहीं चलने वाला.भावी पीढीयाँ नारकीय यंत्रणा भोगने को अभिशप्त होंगी ;यदि वर्तमान पीढी ने अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वहन ठीक से नहीं किया,अर्थात जनसंख्या नियंत्रण के ठोस और वैज्ञानिक उपायों का क्रियान्वन.
अभी तक आम धारणा रही है कि भारत और चीन में चूँकि श्रम सस्ता और कच्चा माल इफरात में मौजूद है भारत और चीन दोनों हीपड़ोसी देशों के विकसित देशों से व्यापार और वित्तीय रिश्ते गहरे हैं और विश्व अर्थ व्यवस्था को सहारा देने की क्षमता रखते हैं ,सहारा दिया भी है किन्तु वर्ष २०१२ में भारत की विकाश दर लुढ़कती हुई ७-७ से नीचे जाती दिख रही है .डालर के मुकाबले रुपया और युयान दोनों ही अब पस्त होते दिख रहे हैं ९% से ऊपर की आर्थिक विकाश दर और आशातीत आर्थिक अवलंबन में भारत और चीन अब विश्व के संकट ग्रस्त पूंजीवादी देशों को कुछ खास नहीं दे सकेंगे.भारत और चीन को अपने घरेलू रक्षात्मक संसाधनों में कटौती करते हुए दुनिया के अस्त्र उत्पादकों से पीछा छुड़ा लेना चाहिए.भारत चीन को अपने यहाँ ज्यादा नौकरियां पैदा करनी होंगी,सड़क-बिजली -बंदरगाह जैसे अधोसंरचना क्षेत्र में निवेश बढ़ाना होगा.न केवल उर्जा खपत नियंत्रण के उपाय करने होंगे बल्कि टिकाऊ उर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करनी होगी.भारत के लिए स्थिति चीन से भी दुष्कर है .आंतरिक वाह्य खतरों को केवल आतंकवादी या अलगाववादी ही नहीं बल्कि भारतीय अस्मिता को जमींदोज किये जाने के खतरे भी विद्यमान हैं . आर्थिक मंदी दुनिया को फिर से दस्तक देने लगी है ,भारत और चीन भी उससे से अछूते नहीं रह पायेंगे.दोनों सनातन पड़ोसियों को अपने सीमा विवादों को ठन्डे वसते में रख देना चाहिए.खास तोर से चीन के वुद्धिजीवियों,साहित्यकारों,छात्रों,युवाओं ,मजदूरों और किसानो की यह एतिहासिक जिम्मेदारी है की वे अपने शासक वर्गों पर दवाव बनाएं ताकि वे भारत के खिलाफ पाकिस्तान रुपी बिगडेल निजाम का इस्तेमाल न करे.जहां तक भारतीय विदेश नीति का सवाल है ,वह पूरी तरह पारदर्शी ,विश्व बंधुत्व आधारित,अहिंसा,स्वतंत्रता और समानता के नीति निर्देशक सिद्धांतों पर अवलंबित है.आज़ाद भारत में विगत ६५ सालों में भारत की विदेश नीति को पूरे राष्ट्र ने उसे ही तस्दीक किया जिसे पंडित नेहरु के नेत्रत्व में उदीयमान भारत ने अपने शैशव काल में अनुप्रमाणित किया था. अब जो कुछ भी बदलना है या सकारात्मक कदम उठाना है वो चीन को ही करना है.भारत तो अपने हिस्से के तमाम जिम्मेदारियां पहले ही पूर्ण कर चूका है.अब यदि पाकिस्तान के कंधे पर बन्दूक रखकर चीन अपने सनातन पड़ोसी और पंचशील प्रणेता भारत को शत्रु मानकर चलता है तो उसमें चीन का ही नुक्सान ज्यादा है..
श्रीराम तिवारी
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