चाहे तथाकथित अन्ना हजारे टीम हो ,बाबा रामदेव की नाटक मण्डली हो या उनके कन्धों पर चढ़कर राजनीति की उद्दाम आकांक्षा के तथाकथित गैर राजनैतिक असंवैधानिक सत्ता केंद्र हों ,इन को गंभीरता से देश की जनता ने कभी नहीं लिया.एक सौ बीस करोड़ जनता में से भूले -भटके दस-बीस हजार भावुक भारतीयों और सत्ता विरोध का बाजारी उत्पाद बेचकर अपनी आजीविका चलाने वाले दक्षिण पंथी मीडिया और अधुनातन तकनीकी प्रौद्दोगिकी के संचालकों ने भले ही बहती गंगा में हाथ धो लिए हों किन्तु आम भारतीय जन-मानस ने अपनी राष्ट्रीय चेतना के नीति निर्देशक सिद्धांतों पर कोई समझोता नहीं किया.
अन्ना हजारे की बौद्धिक चेतना-राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-वैदेशिक और जन -क्रांति विषयक समझ बूझ पर मुझे कभी कोई शक नहीं रहा.अपने ब्लॉग -इन्कलाब जिंदाबाद पर, प्रवक्ता.कॉम पर ,हस्तक्षेप.कॉम पर मेने जितने लेख प्रस्तुत किये वे इन तथ्यों की स्व्यम्सिद्ध पुष्टि करते हैं.मुझे प्रारंभिक दौर में पूरा यकीन हो गया था कि राष्ट्रीय चेतना और मूलगामी बदलाव समेत भृष्टाचार इत्यादि बिन्दुओं पर अन्ना और रामदेव अपरिपक्व ही हैं.सोच समझ और मौलिक जनवादी चेतना या क्रन्तिकारी दर्शन कि अज्ञानता के वावजूद मेने कई मर्तवा अन्ना और रामदेव समेत अन्य सत्ता विरोधी आवाजों को मुखरित होने में सहयोग किया.क्यों?
जो लोग यह सोच रखते हैं कि सबकी बेहतरी में ही मेरा भी बेहतरी है,देश और दुनिया की भलाई में ही मेरी भी भलाई है ,सबकी बर्बादी में ही मेरी भी बर्बादी है और देश कि बर्बादी में मेरी बर्बादी असंदिग्ध है और यदि देश को भृष्टाचार रुपी कठफुरवा अन्दर से खोखला कर रहा है तब में भी तो अन्दर से खोखला ही होता जा रहा हूँ!इत्यादी ...इत्यादि...स्वाभाविक है कि में भी इस कतार में खड़े होकर अपने हिस्से की आहुति के लिए तैयार रहूँगा.मैं जनता हूँ,मैं आम आदमी हूँ,मुझे जमाने भर के राजनैतिक -सामाजिक-आर्थिक और वैज्ञानिक परिवर्तनों और उनके परिणामस्वरूप पृकृति प्रदुत्त अवदानो का कोई ज्ञान भले न हो किन्तु ' हित अनहित पशु पक्षिंह जाना 'तदनुसार यह भी स्वभाविक है की चाहे कोई राजनैतिक पार्टी हो ,व्यक्ति हो ,गैर राजनैतिक {?}बाबा या गांधीवादी समाज सुधारक होयदि वह इस तरह के सैधांतिक सुधारों की अपेक्षा प्रकट करता है तो उसके स्वर में स्वर मिलाकर अपने सामूहिक हितों की रक्षा करना मेराभी कर्तव्य है.भले ही वैचारिक और दार्शनिक स्तर पर अन्ना और रामदेव जैसे व्यक्तियों का सरोकार शून्य है किन्तु वे बिजुका ही सही ,कागभागोड़े ही सही देश की जनता के एक हिस्से -खास तौर से उत्तर भारत के मध्यम वर्ग को उद्देलित करने का काम तो कर ही रहे थे.भले ही चेनई ,त्रिवेंदृम या हैदरावाद में इनकी पूंछ परख न हो किन्तु दिल्ली के राम लीला मैदान से लेकर हरिद्वार और रालेगन सिद्धि तक तो बोलबाला था ,इसमें किसी को कोई शक नहीं.ये विजूके कुछ हद कारगर हो रहे थे कि "बस एक ही थप्पड़"ने किये कराये पर पानी फेर दिया.
बाबा रामदेव तो तभी खाली कारतूस सावित हो चुके थे जब दिल्ली पुलिस के डर से सन्यासी पीत वस्त्र त्याग कर महिला वस्त्रों में छिप -छिपाकर जान बचाने की जुगत में जग हँसाई के पात्र बन गए थे.किन्तु अन्ना रुपी बिजुका फिर भी कारगर लग रहा था.दिल्ली में उनके अनशन के ५ वें रोज तो भारत के भड़काऊ-डरावु-उडाऊ-खाऊ मीडिया ने कभी थ्येन आन मन चौक कभी तहरीर चौक तो कभी क्रेमलिन स्कुँयर की उपमा से अन्ना एंड कम्पनी के उपक्रम को महिमा मंडित किया ही था.किन्तु जिस तरह शेर की खाल ओडने से सियार सिंह नहीं जाता या मात्र काला होने से कौआ कोयल नहीं हो जाता उसी तरह गाँधी टोपी लगाने और नैतिकता की हांक लगाने या सत्याग्रह का स्वांग रचाने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता .चलो मान भी लेते हैं की आप सच्चे गांधीवादी ही हैं तो?इससे क्या फर्क पड़ता है स्वयम गाँधी जी ने और उनके वाद उनके महानतम पत्तशिष्यों
-जे.पी.नेहरु,कृपलानी,विनोवा,मोरारजी,इंदिराजी,राजाजी,सीतारामैयाजी जी,से लेकर देश के तमाम वामपंथी और दक्षिणपंथी गांधीवादियों ने आजादी के ६४ साल में उस तथाकथित 'गांधीवाद'से क्या हासिल किया है?
पूरा देश एकमत से मानता है कि व्यवस्था परिवर्तन के बिना भृष्टाचार से देश और देश की जनता की मुक्ति संभव नहीं!गांधीवाद तो यथास्थ्तिवाद का पर्याय है.शरद पवार भी पुराने गांधीवादी हैं किसी ने यदि उन्हें एक थप्पड़ जड़ दिया तो दूसरा गाल उस हमलावर के सामने करने में चूक क्यों?शरद पंवार की पार्टी राकपा भी तो गांधीवादी ही है ,फिरइस क्षेत्रीय पार्टी के वफादारों {गांधीवादियों?}के मार्फ़त पूरे महाराष्ट्र में हिंसा का तांडव क्यों?क्या अन्ना ,क्या शरद पंवार सब एक ही बांस भिरे के झंडा वरदार हैं.तभी तो शरद पवार को लगे थप्पड़ पर अन्ना ने जो आप्त बचन उच्चरित किये'बस एक ही थप्पड़' वे खुद अन्ना के दोनों गालों पर और न केवल अन्ना एंड कम्पनी बल्कि पूरी की पूरी तथाकथित गांधीवादी बिरादरी के गालोँ पर दोगलेपन की कालिमा का कलंक बनकर ;सत्याग्रह'अनशन और अहिंसा के सिद्धांतों की छाती पर अठ्ठास कर रहे हैं.
अन्ना हजारे की सोच ,समझ और प्र्ग्याशक्ति के सन्दर्भ में देश के प्रबुद्ध वर्ग ने भी गच्चा खाया हैयह तो होना ही था.अलबतता .जो उन्हें बिजुका मानकर भृष्टाचार रुपी हिंसक जंतुओं से भारत रूपी खेत की रक्षा के लिए उपयुक्त मानकर चल रहे थे उनकी सदाशयता को जरुर धक्का लगा होगा.एक मजबूत लोकपाल बिल बने ,देश में आनैतिक लूट खसोट बंद हो,समानता,बंधुत्व,शांति,और समृद्धि में सभी को बराबर अबसर मिले और इस महान उदेश्य के लिए जो कदम उठाये जा रहे हैं वे किसी विक्षिप्त युवा के एक थप्पड़ से धुल धूसरित न हों इसके लिए जरुरी है कि अन्ना को अपने संगी साथियों समेत संयमित होना होगा.कभी शराबियों को पेड़ से बाँधने और कोड़े मारने के तालिवानी वयां ,कभी किसी पार्टी या उसके नेता को चुनाव में हराने का बयान ,कभी कहना कि 'बस एक थप्पड़'ये किसी उच्च विचारधारा के प्रमाण नहीं.धीरोदात्त उज्जवल धवल चरित्र के स्वामी ,मनसा बाचा -कर्मणा और सामूहिक नेत्र्त्वाकारी व्यक्तित्व के धनि व्यक्ति ही जनता जनार्दन का विश्वाश हासिल कर सकते हैं चापलूसों दुवारा लिखी पटकथाओं के संवाद बोलकर लोक प्रसिद्धि भले ही मिल जाये किन्तु धैर्य और बुद्धि चातुर्य की परीक्षा तो संघर्षों के दरम्यान बार-बार हुआ करती है तब मौन वृत से काम नहीं चलेगा और अनर्गल बाचालता तो नितांत वर्जनीय है.अच्छे -खासे जन आन्दोलन को पंचर करने में लगी अन्ना टीम अपनी असफलता का ठीकरा सरकार या राजनीतिज्ञों पर ढोलने लग जाए ये भी संभव है.शरद पवार को थप्पड़ मारे जाने पर अन्ना की प्रतिक्रिया ने खुद अन्ना टीम को 'विश्वाश के संकट'में धकेल दिया है .खुदा खेर करे!!!
श्रीराम तिवारी
अन्ना हजारे की बौद्धिक चेतना-राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-वैदेशिक और जन -क्रांति विषयक समझ बूझ पर मुझे कभी कोई शक नहीं रहा.अपने ब्लॉग -इन्कलाब जिंदाबाद पर, प्रवक्ता.कॉम पर ,हस्तक्षेप.कॉम पर मेने जितने लेख प्रस्तुत किये वे इन तथ्यों की स्व्यम्सिद्ध पुष्टि करते हैं.मुझे प्रारंभिक दौर में पूरा यकीन हो गया था कि राष्ट्रीय चेतना और मूलगामी बदलाव समेत भृष्टाचार इत्यादि बिन्दुओं पर अन्ना और रामदेव अपरिपक्व ही हैं.सोच समझ और मौलिक जनवादी चेतना या क्रन्तिकारी दर्शन कि अज्ञानता के वावजूद मेने कई मर्तवा अन्ना और रामदेव समेत अन्य सत्ता विरोधी आवाजों को मुखरित होने में सहयोग किया.क्यों?
जो लोग यह सोच रखते हैं कि सबकी बेहतरी में ही मेरा भी बेहतरी है,देश और दुनिया की भलाई में ही मेरी भी भलाई है ,सबकी बर्बादी में ही मेरी भी बर्बादी है और देश कि बर्बादी में मेरी बर्बादी असंदिग्ध है और यदि देश को भृष्टाचार रुपी कठफुरवा अन्दर से खोखला कर रहा है तब में भी तो अन्दर से खोखला ही होता जा रहा हूँ!इत्यादी ...इत्यादि...स्वाभाविक है कि में भी इस कतार में खड़े होकर अपने हिस्से की आहुति के लिए तैयार रहूँगा.मैं जनता हूँ,मैं आम आदमी हूँ,मुझे जमाने भर के राजनैतिक -सामाजिक-आर्थिक और वैज्ञानिक परिवर्तनों और उनके परिणामस्वरूप पृकृति प्रदुत्त अवदानो का कोई ज्ञान भले न हो किन्तु ' हित अनहित पशु पक्षिंह जाना 'तदनुसार यह भी स्वभाविक है की चाहे कोई राजनैतिक पार्टी हो ,व्यक्ति हो ,गैर राजनैतिक {?}बाबा या गांधीवादी समाज सुधारक होयदि वह इस तरह के सैधांतिक सुधारों की अपेक्षा प्रकट करता है तो उसके स्वर में स्वर मिलाकर अपने सामूहिक हितों की रक्षा करना मेराभी कर्तव्य है.भले ही वैचारिक और दार्शनिक स्तर पर अन्ना और रामदेव जैसे व्यक्तियों का सरोकार शून्य है किन्तु वे बिजुका ही सही ,कागभागोड़े ही सही देश की जनता के एक हिस्से -खास तौर से उत्तर भारत के मध्यम वर्ग को उद्देलित करने का काम तो कर ही रहे थे.भले ही चेनई ,त्रिवेंदृम या हैदरावाद में इनकी पूंछ परख न हो किन्तु दिल्ली के राम लीला मैदान से लेकर हरिद्वार और रालेगन सिद्धि तक तो बोलबाला था ,इसमें किसी को कोई शक नहीं.ये विजूके कुछ हद कारगर हो रहे थे कि "बस एक ही थप्पड़"ने किये कराये पर पानी फेर दिया.
बाबा रामदेव तो तभी खाली कारतूस सावित हो चुके थे जब दिल्ली पुलिस के डर से सन्यासी पीत वस्त्र त्याग कर महिला वस्त्रों में छिप -छिपाकर जान बचाने की जुगत में जग हँसाई के पात्र बन गए थे.किन्तु अन्ना रुपी बिजुका फिर भी कारगर लग रहा था.दिल्ली में उनके अनशन के ५ वें रोज तो भारत के भड़काऊ-डरावु-उडाऊ-खाऊ मीडिया ने कभी थ्येन आन मन चौक कभी तहरीर चौक तो कभी क्रेमलिन स्कुँयर की उपमा से अन्ना एंड कम्पनी के उपक्रम को महिमा मंडित किया ही था.किन्तु जिस तरह शेर की खाल ओडने से सियार सिंह नहीं जाता या मात्र काला होने से कौआ कोयल नहीं हो जाता उसी तरह गाँधी टोपी लगाने और नैतिकता की हांक लगाने या सत्याग्रह का स्वांग रचाने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता .चलो मान भी लेते हैं की आप सच्चे गांधीवादी ही हैं तो?इससे क्या फर्क पड़ता है स्वयम गाँधी जी ने और उनके वाद उनके महानतम पत्तशिष्यों
-जे.पी.नेहरु,कृपलानी,विनोवा,मोरारजी,इंदिराजी,राजाजी,सीतारामैयाजी जी,से लेकर देश के तमाम वामपंथी और दक्षिणपंथी गांधीवादियों ने आजादी के ६४ साल में उस तथाकथित 'गांधीवाद'से क्या हासिल किया है?
पूरा देश एकमत से मानता है कि व्यवस्था परिवर्तन के बिना भृष्टाचार से देश और देश की जनता की मुक्ति संभव नहीं!गांधीवाद तो यथास्थ्तिवाद का पर्याय है.शरद पवार भी पुराने गांधीवादी हैं किसी ने यदि उन्हें एक थप्पड़ जड़ दिया तो दूसरा गाल उस हमलावर के सामने करने में चूक क्यों?शरद पंवार की पार्टी राकपा भी तो गांधीवादी ही है ,फिरइस क्षेत्रीय पार्टी के वफादारों {गांधीवादियों?}के मार्फ़त पूरे महाराष्ट्र में हिंसा का तांडव क्यों?क्या अन्ना ,क्या शरद पंवार सब एक ही बांस भिरे के झंडा वरदार हैं.तभी तो शरद पवार को लगे थप्पड़ पर अन्ना ने जो आप्त बचन उच्चरित किये'बस एक ही थप्पड़' वे खुद अन्ना के दोनों गालों पर और न केवल अन्ना एंड कम्पनी बल्कि पूरी की पूरी तथाकथित गांधीवादी बिरादरी के गालोँ पर दोगलेपन की कालिमा का कलंक बनकर ;सत्याग्रह'अनशन और अहिंसा के सिद्धांतों की छाती पर अठ्ठास कर रहे हैं.
अन्ना हजारे की सोच ,समझ और प्र्ग्याशक्ति के सन्दर्भ में देश के प्रबुद्ध वर्ग ने भी गच्चा खाया हैयह तो होना ही था.अलबतता .जो उन्हें बिजुका मानकर भृष्टाचार रुपी हिंसक जंतुओं से भारत रूपी खेत की रक्षा के लिए उपयुक्त मानकर चल रहे थे उनकी सदाशयता को जरुर धक्का लगा होगा.एक मजबूत लोकपाल बिल बने ,देश में आनैतिक लूट खसोट बंद हो,समानता,बंधुत्व,शांति,और समृद्धि में सभी को बराबर अबसर मिले और इस महान उदेश्य के लिए जो कदम उठाये जा रहे हैं वे किसी विक्षिप्त युवा के एक थप्पड़ से धुल धूसरित न हों इसके लिए जरुरी है कि अन्ना को अपने संगी साथियों समेत संयमित होना होगा.कभी शराबियों को पेड़ से बाँधने और कोड़े मारने के तालिवानी वयां ,कभी किसी पार्टी या उसके नेता को चुनाव में हराने का बयान ,कभी कहना कि 'बस एक थप्पड़'ये किसी उच्च विचारधारा के प्रमाण नहीं.धीरोदात्त उज्जवल धवल चरित्र के स्वामी ,मनसा बाचा -कर्मणा और सामूहिक नेत्र्त्वाकारी व्यक्तित्व के धनि व्यक्ति ही जनता जनार्दन का विश्वाश हासिल कर सकते हैं चापलूसों दुवारा लिखी पटकथाओं के संवाद बोलकर लोक प्रसिद्धि भले ही मिल जाये किन्तु धैर्य और बुद्धि चातुर्य की परीक्षा तो संघर्षों के दरम्यान बार-बार हुआ करती है तब मौन वृत से काम नहीं चलेगा और अनर्गल बाचालता तो नितांत वर्जनीय है.अच्छे -खासे जन आन्दोलन को पंचर करने में लगी अन्ना टीम अपनी असफलता का ठीकरा सरकार या राजनीतिज्ञों पर ढोलने लग जाए ये भी संभव है.शरद पवार को थप्पड़ मारे जाने पर अन्ना की प्रतिक्रिया ने खुद अन्ना टीम को 'विश्वाश के संकट'में धकेल दिया है .खुदा खेर करे!!!
श्रीराम तिवारी
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