साहित्यालोचना के मानकों को जाने वगैर हिंदी की आलोचकों का बहुत बड़ा हिस्सा आलोचना लिखता रहा है।संयोग से आज के फेसबुकिए हिंदी के तुलसी विरोधी प्रगतिशील उनके लिखे को ही उद्धृत कर रहे हैं। हम यहीं कहेंगे, साहित्यालोचना को आलोचना के मानकों की नजर से देखो।
पहले विधा की लिशेषताएं पढ़ो और फिर रामचरित मानस पढ़ो फिर उसके महाकाव्य रुप की आलोचना कैसे करें यह सीखो, लेकिन उनका दिल है कि मानता ही नहीं,वे बार बार घिसे पिटे उद्धरण देकर सारे मामले को तुलसी विरोधी बनाने पर तुले हैं।इससे आलोचना कम और साहित्यिंक फंडामेंटलिज्म अधिक फैल सकता है इससे आरएसएस जैसे संगठन लाभान्वित होते हैं।
मैं विनम्रता पूर्वक कहना चाहता हूँ पुरानी पीढ़ी की मार्क्सवादी आलोचना इसी बीमारी की शिकार थी।आज के आलोचकों में यह बीमारी अब कैंसर का रुप ले चुकी है।
जिन प्रगतिशीलों को आलोचना लिखने का शौक है और अपने तुलसी विरोधी तीर फेसबुक में लहरा रहे हैं वे सिर्फ महाकाव्य के बारे में कार्ल मार्क्स के लिखे को पढ़ लें। रामविलास शर्मा से लेकर रांगेय राघव तक नहीं जानते थे कि मार्क्स ने क्या लिखा है, ऐसे में थोड़ा संभलकर चलें । संयोग की बात है कि इस पहलू की ओर सबसे सन् 1986 -87 में पीएचडी में मैंने ध्यान खींचा था और यह बात पहलीबार हिंदी में आई।इसका कई पुस्तकों में मैंने विस्तार से जिक्र भी किया है।
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