सोमवार, 23 जुलाई 2018

  • स्वातांत्रोत्तर भारत के प्रगतिशील साहित्य कारों,कवियों तथा दार्शनिकों के साहित्य सृजन में स्त्री विमर्ष,दलित विमर्ष और शुद्ध सर्वहारा विमर्श शिद्दत से रहा है! किन्तु यह कटू सत्य है कि 'राष्ट्र'की फिक्र उन्हें कतई नही रही!इसी तरह भारतके तमाम स्वार्थी जातिवादी,आरक्षणवादी नेताओं,मजहबी धर्म गुरुओं,कट्टरपंथी अलगाववादियों,और मक्कार अफसरों -मुनाफाखोर व्यापारियों , बड़े जमीनदार घरानों,भूतपूर्व राजवंशों के लिये 'भारत का राष्ट्रवाद' महज सिर दर्द रहा है। विचित्र बिडंबना है कि यह गैरदेशभ...क्त भृष्ट 'बुर्जुवा वर्ग ही भारत राष्ट्र का भाग्य विधाता बन बैठा है। स्वाधीनता संग्राम के दरम्यान और आजादी के बाद के दो दशक बाद तक अधिकांश हिंदी कवियों ने,फ़िल्मी गीतकारों ने आदर्शवादी राष्ट्रवादी चेतना के निमित्त,देशभक्तिपूर्ण कविता,गजल ,शायरी और गीतों का सृजन अवश्य किया और कुछ अब भी कर रहे हैं ! कुछ ने हिन्दी फिल्मों में 'राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रवाद के निमित्त बहुत कुछ सकारात्मक फिल्मांकन किया है। 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,झंडा ऊंचा रहे हमारा।' मेरे देश की धरती सोना उगले ,वन्दे मातरम ,आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की ,,,, ए मेरे वतन के लोगो ,,,,,,झंडा ऊँचा रहे हमारा ,,,,,इत्यादि सैकड़ों गीत आज भी लोगों की जुबान पर हैं। किन्तु जिन लोगों का स्वाधीनता संग्राम में रत्ती भर योगदान नहीं रहा,जो अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बने रहे वे जातिवादी नेता और साम्प्रदायिक संगठन सत्ता की मलाईनखा रहे हैं!ये नापाक तत्व आजादी के बाद 'भारत राष्ट्र' के लिए नहीं बल्कि अपने-अपने धर्म-मजहब के खूंटों के लिए हलकान हो रहे हैं । कोई कहता है ,,'कौन बड़ी सी बात ,,धरम पर मिट जाना' ,,,तो दूसरे को उसके मजहब से बढ़कर दुनिया में कुछ भी नहीं है। सम्भवतः भारत में 'राष्ट्रवाद' का जिम्मा केवल भारतीय फ़ौज ने या राष्ट्रवादी कलम के सिपाहियों ने ले रखा है ?

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