शनिवार, 14 जुलाई 2018

"एकम सद विप्रः बहुधा बदन्ति''

  • अपने स्वभाव से ही यह भारतीय 'सनातन धर्म' चाहकर भी किसी बिधर्मी का अहित
    नहीं कर सकता!और इसके द्वारा धर्मांतरण की तो कोई संभावना ही नही क्योंकि उसकी जाति -गोत्र की बुनावट या खाप संरचना में नव-आगुंतक 'अतिथि' को कोई स्थान ही नहीं है!न ही यह 'सनातन धर्म' किसी व्यक्ति अथवा समाज पर तलवार या बन्दूक की ताकत से थोपा जा सकता है। हालांकि इस सनातन धर्म के अंदर 'कर्मयोग,ध्यानयोग और सुदर्शन क्रिया इत्यादि आध्यात्मिक गुण सूत्र ऐंसे हैं कि संसार का कोई भी मनुष्य बिना धर्म परिवर्तन के ही 'स...नातन धर्म'का अनुशरण कर सकता है। चूुकि इसके मूल में ही वे मूल्य छिपे हैं ,जिनसे साम्यवाद और भौतिकवादी दर्शन का यूरोप सहित सारे संसार में विस्तार हुआ है!हालाँकि इस्लाम , बौद्ध ,जैन ,सिख और ईसाइयों की भाँति 'सनातन धर्म' में भी अनेक मत-मतांतर और झगड़े हैं। किन्तु इससे सनातन धर्म की सेहत पर कोई फर्क नही पडता!क्योंकि इसके कुछ सिद्धांत और सूत्र वैज्ञानिक हैं,तार्किकता से परिपूर्ण हैं। उपनिषद,वेदांत दर्शन और गीता की शिक्षाएं अपनी रचनात्मक बुनावट में ही सार्वभौम और कालजयी हैं।जगतगुरू आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार धाम और श्री ज्योतिष पीठ की परम्परा,द्वादश ज्योतर्लिंग 52 शक्तिपीठ की स्थापना और भारत में भौगोलिक आधार पर प्रमुख नदियों के किनारे 'कुम्भ मेला' स्नानकी परम्परा ने भी 'सनातन धर्म' को मानवीय सम्वेदनाओं से जोड़ने का काम किया है। चूंकि इसके प्रारंभ का कोई प्रमाण नही है इसलिये शायद इसे सनातन धर्म 'कहा गया है। उसके अधिकांस प्रमुख आर्ष ग्रंथों -वेदों को 'अपौरषेय' कहा गया है। इनमें 'सनातन धर्म'की विनम्रता और उदारता के प्रमाणस्वरूप प्रक्रति सहित मिथकीय देवों के लाखों मन्त्र हैं!इन शास्त्रों में दर्ज एक -दो मंत्र यहाँ प्रस्तुत है :
  • ''इन्द्रम् मित्रम् वरुणं अग्निम अहुरथो,दिव्या सा सुपर्णों गरुत्मान,एकम सद विप्रः बहुधा बदन्ति''
  • अर्थात :-इंद्र,मित्र ,वरुण ,अग्नि ,अहुरमज्द एवं संसार के सभी देवी -देवता ,नैतिक आदर्श ,धर्म सिद्धांत मूलतः एक ही हैं। विद्वान लोग उन्हें भिन्न -भिन्न नामों से याद करते हैं, उनके नाम और उपासना के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं ,किन्तु अंततोगत्वा वह 'सत् 'एक ही है !
  • अयं निजः परोवेत्ति ,गणना लघुचेतसाम। उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम।अर्थात : ये मेरा है ,ये तेरा है इस प्रकार की सोच 'निम्नकोटि' के लोगों की हुआ करती है। उदार चरित्र के लोग तो सारे संसार को अपना कुटुंम्ब मानते हैं।

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