वेशक यूपीए और कांग्रेस बहुत बदनाम हो चुके थे ,इसलिए देश की जनता ने उन्हें सत्ता से उतारना ही बेहतर समझा। वेशक एनडीए और मोदी सरकार भी हर मोर्चे पर असफल होते जा रहे हैं ! वेशक झूंठ -कपट छल और पाखंड का प्रचलन पूँजीवादी और साम्प्रदायिक सत्ता में सर्वत्र व्याप्त हो चुका है। किन्तु जो लोग अन्ना हजारे - रामदेव आंदोलन से पैदा हुए ,वे भी इस व्यवस्था के हम्माम में नंगे होते जा रहे हैं। 'आप'का संभावित स्खलन भी स्पष्ट दिख रहा है। जनता परिवार वाले - लोहिया -जयप्रकाशनारायण और आपातकाल की पुण्याई लूटने वाले निर्लज्ज जातीयतावादी कितनी ही कोशिश कर लें -कितने ही महागठबंधन बना लें वे इस वर्तमान पूँजीवादी -सम्प्रदायिक गठजोड़ की व्यवस्था का विकल्प बिहार में भी नहीं बन सकते ! इनसे सम्पूर्ण भारत राष्ट्र को एक बेहतरीन राजनैतिक विकल्प प्रदान करने लायक क्षमता की उम्मीद करना मूर्खता ही होगी !
तीसरे मोर्चे और क्षेत्रीय दलों का पराभव बहुत स्पष्ट दिख रहा है। किन्तु जो क्रांतिपथ के अलम्बरदार हैं ,वे इस भरम में न रहें कि जनता उन्हें शीघ्र ही राज्य सत्ता सौंपने को लालायित है। वेशक वामपंथ ने देश की जनता के सवालों पर बहुत संघर्ष किये हैं। जनता के सरोकारों को लेकर तथा शासक वर्ग की प्रतिगामी नीतियों के खिलाफ शानदार हड़तालें भी कीं हैं ,किन्तु जनता को वामपंथ की यह अनवरत संघर्षों की -हड़तालों की - क्रांतिकारी भाषा ही पल्ले नहीं पड़ रही है ! यदि इस संघर्ष का मकसद केवल निष्काम भाव से निरंतर संघर्ष ही करते रहना है तो इस पर कोई निषेध नहीं हो सकता ! किन्तु यदि लोगों अभिलाषाओं के मद्दे नजर कुछ असर होता तो सभी प्रकार के चुनावों में -केरल बंगाल में अपनी पुरानी ताकत तो वाम को अवश्य वापिस मिलती। किन्तु लगता है कि बंगाल की जनता को क्षेत्रीय 'ममता ' अधिक प्रिय है। वामपंथ जिनके लिए कुर्बानी दे रहा है उन्ही को 'अधिनायकवाद' बहुत जल्दी लुभा रहा है। वेशक इसके लिए भी जनता नहीं, बल्कि प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग की सोच और वामपंथ के जूने -पुराने सिद्धांत ही जिम्मेदार हैं ! उनका वैयक्तिक आचरण भले ही देवतुल्य हो [माणिक सरकार जैसा ] किन्तु उनके सनातन संघर्ष की फसल कभी कांग्रेस और कभी भाजपा चरती रहे , तो इस के लिए वामपंथी नेतत्व की रणनीतिक असफलता ही कसूरवार हैं।
वे यह मानने के लिए तैयार ही नहीं कि जिस पतनशील समाज - व्यवस्था में वे पैदा हुए हैं , पले -बढे हैं ,उस समाज के अवगुणों से वे भी अछूते नहीं रह सकते। स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो परिकल्पना यह भी बनती है कि 'प्रगतिशील -जनवादी और वामपंथी लोग ओरों से बेहतर इंसान तो अवश्य होते हैं ,किन्तु वे भी सापेक्ष रूप से प्रगतिशील होने के वावजूद हर दौर में हर मोर्चे पर पिछड़ रहे हैं ! वैसे तो सिद्धांत; आत्मालोचना का स्वागत है, किन्तु व्यवहार में अपने आपको आलोचना से परे मानते रहने की आत्ममुग्धता से भी वामपंथी नेतत्व आक्रांत है। जबकि बौद्धिक नॉस्टेलजिया से ग्रस्त व्यक्ति प्रगतिशील हो ही नहीं सकता ! इस दौर में बहुत कुछ ऐंसा ही घटित हो रहा है। कई संदर्भो पर प्रगतिशील -जनवादियों की कुछ स्थापनाएं आलोच्य हैं। इस दौर में कुछ स्थापनाएं - मार्क्सवाद - लेनिनवाद - सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयता के अनुकूल नहीं हैं ! यदि वे वर्तमान आर्थिक नीतियों की आलोचना कर सत्ता में आ भी गए तो बंगाल ,केरल की तरह किसी तरह का न तो कोई विकास कर पाएंगे और आरएसएस -कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया के दुष्प्रचार का मुकाबला भी नहीं कर पाएंगे। तब यही कहावत चरितार्थ होगी कि 'अंधे -पीसें कुत्ते खाएं ' !
तब जन-आकांक्षा को पूरा करने में सफल नहीं हो पाने के कारण सत्ता से बाहर होना ही पड़ेगा। कहने का तातपर्य यह है कि वामपंथ को अपने 'वैकल्पिक 'प्रारूप को तेजी से अपडेट करते रहना चाहिए ! पचास साल पुराने नारों से अब कोई काम नहीं सधने वाला। बाजारबाद,भूमंडलीकरण ,निजीकरण ,जातीयता ,संचार-क्रांति और सम्प्रदायिकता की अनदेखी कर जो भी नीतियाँ और कार्यक्रम बनाये गए हैं ,वे कारगर कैसे हो सकते हैं ?वेशक पूंजीवाद का विकल्प 'समाजवाद' ही हो सकता है ,किन्तु जब मुलायम ,लालू ,पप्पू यादव के गिरोह समाजवाद का ठप्पा लगाकर उसे बदनाम आकर चुके हों ,जब वे इसे पारिवारिक ,और सजातीय घान में सेंक चुकें हों तो फिर 'वामपंथ' को क्यों नहीं बिहार में सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने चाहिए ? भले ही सब हर जाएँ ! वेशक आगामी विधान सभा चुनाव में ,बिहार में नागनाथ या सांपनाथ में से ही कोई जीतेगा ! अभी असली लोकतंत्र तो यूपी बिहार से कोसों दूर है। भारत में समाजवाद के असली अवरोधक कौन हैं ? कांग्रेस और भाजपा कदापि नहीं है ! बल्कि तीसरे मोर्चे और जनता परिवार वाले ही समाजवाद और साम्यवाद के असली दुश्मन हैं। यही जनता के भी असली दुश्मन है ! कांग्रेस ,भाजपा और वामपंथ के अलावा किसी को भी भारतीय अस्मिता -अखंडता और नवनिर्माण की फ़िक्र नहीं है। ममता ,सपा ,वसपा राजद ,जदयू लोजद ,बीजद अकाली इत्यादि को देश की नहीं अपनी -अपनी ,जाति ,खाप ,समाज और गिरोहबंदी की फ़िक्र है। वामपंथ को कांग्रेस या भाजपा से इतर अन्य सभी -अराजक दलों को कोई तरजीह नहीं देना चाहिए ! तीसरे विकल्प के रूप में देश के हर चुनाव में हर सीट पर वामपंथ का प्रत्याशी खड़ा क्यों नहीं किया जाना चाहिए ? यदि नहीं जीत पाये तो वास्तविक वोट प्रतिशत तो बढ़ेगा ! जनता के बीच कार्यक्रम और नीतियां तो पहुंचेंगी ! हो सकता है तब मीडिया और सूचना संचार तंत्र से लेस युवा शक्ति भी वामपंथ का साथ देने लगे !
विभिन्न चुनावों के मार्फ़त देश की जनता को यह भी बताया जाए कि बाकई सोवियत संघ की महान क्रांति को पूँजीवाद ने खत्म किया है ? यह भी स्वीकारना होगा कि ग्रीस का आर्थिक संकट यूरोप -अमेरिका की देन नहीं है बल्कि समग्र भूमंडलीकरण का प्रतिषाद है। यूनान की की वर्तमान वामपंथी सरकार जब उन्ही पूँजीवादी राष्ट्रों से 'उधार' ले रही हो तो उसके आर्थिक संकट से निजात कैसे मिल पाएगी ?यदि ब्राजील , बेनेजुएला लड़खड़ा रहे हैं ,तो क्या उसकी पूरी जिम्मेदारी अमेरिका की ही है ? केवल ओरों की आलोचना करने से साम्यवादी आंदोलन शसक्त नहीं होगा बल्कि पूँजीवाद का विकल्प बनने के लिए उसे व्यवाहरिक वैज्ञानिकता अपनानी होगी।
चूँकि भारतीय वामपंथ के लिए यूनिफॉर्म लेविल प्लेयिंग फील्ड मौजूद नहीं है। इसलिए कुछ प्रगतिशील लेखक ,कवि और विचारक -भाई लोग बड़े ही ज्ञानवान अर्थात मेधाशक्ति से ओत -प्रोत हैं। उनकी विध्वंशक क्रान्तिकारी सोच ये है कि उन्हें जो कुछ भी अतीत में रटा दिया गया है वे उससे आगे कुछ भी कहना -सुनना कुफ्र समझते हैं ! स्वर्गीय राजेन्द्र यादव की तरह महावज्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सनातन विरोध किस प्रगतिशीलता का द्वेतक है ? बल्कि इस तरह की घोर 'अराष्ट्रवादी' चेतना ने भारतीय जन-मानस को वामपंथ से दूर कर दिया है। यही वजह है कि केरल में चर्च ,मंदिर और मस्जिद से वामपंथ को हारना पड़ रहा है। यही वजह है कि बंगाल में ज्योति वसु और कॉम प्रमोददास जैसे कर्मठ ईमानदार नेताओं की पुण्यायी को ममता बेनर्जी जैसी 'उजबक ' महिला हजम कर गयी है। यही वजह है भारत में पहले तो केवल भूस्वामियों-पूँजीपतियों का ही वर्चस्व था ,किन्तु अब तो भारत में साम्प्रदायिकता और क्रोनी पूँजीवाद दोनों की जुगलबंदी मजबूत हो चुकी है। जो लोग यूपी -बिहार में समाजवाद का मुखौटा लगाकर जातीयता की राजनीति कर रहे हैं वे भी इस भृष्ट सिस्टम के ही बगलगीर हो चुके हैं।
शीतयुद्ध के दौर में जब सोवियत संघ ने यह स्थापना दी कि यहूदी शब्द ही प्रतिक्रांतिकारी है तो सारे संसार के प्रगति शीलों - जनवादियों और वामपंथी साहित्यकारों ने भी मान लिया था कि 'यहूदी' उनके लिए अछूत हैं ! अब जबकि सोवियत संघ ही नहीं रहा ,और बचे-खुचे 'रूसी फेडरेशन ' ने न केवल इजरायल से बल्कि यूरोप और अमेरिका से भी बेहतरीन द्विपक्षीय संबंध कायम कर लिए हैं। साहित्यिक विमर्श में , उनके लेखन कर्म में ,उनके राजधर्म में यहूदियों -इजऱायलियों का प्रतिकार कब का समाप्त हो चुका है । किन्तु भारत के महान प्रगतिशील' साथी अभी भी इजरायल को 'पाप का घड़ा' ही मानते हैं। इस्लामिक संसार में दुधमुहे बच्चों ,बूढ़ों और औरतों पर जो कहर ढाया जा रहा है,क्या बाकई आरएसएस भी वह सब कर रहा है ? यदि नहीं तो यह नाजायज तुलना क्यों ?
इसी तरह जब कोई आतंकी मुंबई , उधमपुर या कश्मीर में हिंसक कार्यवाही करता है, तो हमारे अत्यंत प्रगतिशील साथी अपना मुँह बंद रखते हैं। इतना ही नहीं जब किसी अफजल गुरु या याकूब - आतंकी को फांसी की सजा होती है तो वे उसके पक्ष में भी आवाज उठाने लगते हैं। किन्तु जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश मदरसों में राष्ट्रीय झंडा फहराने का निर्णय देते हैं,और मदरसे वाले उसे ठुकरा देते हैं तब और जब उपराष्ट्रपति महोदय तिरंगे झंडे को सलामी देने से इंकार करते हैंतब और जब कोई 'खास अल्पसंख्यक वर्ग राष्ट्रगीत गायन से इंकार करता है तब ये 'असली' क्रांतिकारी साथी बजाय उसे नसीहत देने के आरएसएस पर टूट पड़ते हैं। कुछ लोग तो आरएसएस और आईएसएस की तुलना ही करने लगते हैं। ये तो सभी जानते हैं कि आरएसएस ने प्रचंड राष्ट्रवाद की हमेशा पैरवी की है और उसके लिए कोई विशेष काम कम 'बड़बोलापन' और ढ़पोरशंखी दुष्प्रचार जयादा किया है। उन्होंने वोट के लिए हिन्दुत्ववादी प्रचार-प्रसार अवश्य किया है ,किन्तु हिन्दू समाज के हित में कोई काम नहीं किया ! आरएसएस की खूबी है कि वह हमेशा सत्ता के साथ रहा है। चाहे अंग्रेज हों ,चाहे कांग्रेस हो या अभी भाजपा हो -सभी के सामने 'संघ' ने सदाशयता का प्रदर्शन किया है। वे तोप तमंचा लेकर कभी भी किसी से नहीं लड़े। वे लड़ना भी नहीं चाहते। वे केवल लाठी चलाना पथसंचलन करना और चुनाव में वोटों की जुगाड़ करने वाले अघोषित राजनैतिक कार्यकर्ता हैं। क्या बाकई आरएसएस और आईएसएस की तुलना जायज है ? यदि आरएसएस का कोई बन्दा कसाब ,नावेद या याकूब की तरह ,सीरिया ,इराक ,लेबनान या पाकिस्तान में कभी किसी नरसंहार में शामिल हुआ पाया जाएगा तो गजब हो जाएगा।
मैं सबसे पहले उनकी निंदा करूंगा। किन्तु केवल एक नाथूराम गोडसे के कारण जिसने किसी कम्युनिस्ट को नहीं मारा। कम्युनिस्टों को तो लालुओं,पप्पुओं, तृणमूलियों और कांग्रेसियों ने ही मारा है। गोडसे ने तो 'बिड़लाओं ,बजाजों और बनियों के बापू अर्थात 'महात्माजी' को ही ढेर किया था। उससे प्रगतिशीलों को क्या परेशानी है ? यदि आरएसएस किसी किस्म की घातक चेष्टा का जिम्मेदार होगा तो देश की जनता ही तय करेगी कि आरएसएस ने आईएसएस की बराबरी की है या नहीं ! यदि वे नाजी हो जाते हैं ,यदि वे फासिस्ट हो जाते हैं तो क्या भारत की जनता उन्हें सिर पर बिठाएगी ?
हो सकता है कि कुछ प्रगतिशीलों को ये निर्णय प्रतिगामी और साम्प्रदायिकता से संबध्द लगे । किन्तु वे जिस प्रगतिशीलता का परिचय देते हैं उसे तो तब लकवा मार जाता है जब आजीवन संघर्ष में जुटे खुद उनके बच्चे भी क्रांति और समाजवाद से घृणा करने लगते हैं। जमाने की तरक्की देखकर उनका भी मन करता है कि उन्हें कमसेकम एक बक्त का खाना तो नसीब हो। कामरेडों के बच्चे जब देखते हैं कि जातीय आरक्षण की ताकत पर , भृष्टाचार के पैसे की ताकत से लाखों भारतीय युवा - विदेशों में मजे कर रहे हैं । जबकि अधिकांस वामपंथी क्रांतिकारी अभिभावकों के बच्चे केवल नारे-लगाने में अपना बचपन स्वाहा करते रहते हैं। उनके अभिभावक को विधायक या पार्षद के चुनाव में हारते हुए देखकर वेचारे 'कामरेड पुत्र ' या पुत्रियाँ घोर निराशा के शिकार हो जाते हैं। आजीविका के लिए निजी क्षेत्र के मालिकान के यहाँ चाकरी करने के लिए विवश हो रहे हैं। समाज की ओर से सवाल उठने लगते हैं कि जब क्रांतिकारी लोग खुद का घर ठीक नहीं रख सकते ,खुद की आजीविका निर्धारित नहीं कर सकते ,जो अपने परिवार का पालन -पोषण भी ठीक से नहीं कर सकते वे एक बहुत बड़े अभियान में सफल कैसे हो सकते हैं ? जो पारिवारिक दायित्व से मुक्त हों उनपर तो जनता को और भी भरोसा नहीं रहता क्योंकि ऐंसे लोग तो समाज का मतलब भी ठीक से नहीं जानते तो 'समाजवाद' को ख़ाक समझेंगे ?
श्रीराम तिवारी
तीसरे मोर्चे और क्षेत्रीय दलों का पराभव बहुत स्पष्ट दिख रहा है। किन्तु जो क्रांतिपथ के अलम्बरदार हैं ,वे इस भरम में न रहें कि जनता उन्हें शीघ्र ही राज्य सत्ता सौंपने को लालायित है। वेशक वामपंथ ने देश की जनता के सवालों पर बहुत संघर्ष किये हैं। जनता के सरोकारों को लेकर तथा शासक वर्ग की प्रतिगामी नीतियों के खिलाफ शानदार हड़तालें भी कीं हैं ,किन्तु जनता को वामपंथ की यह अनवरत संघर्षों की -हड़तालों की - क्रांतिकारी भाषा ही पल्ले नहीं पड़ रही है ! यदि इस संघर्ष का मकसद केवल निष्काम भाव से निरंतर संघर्ष ही करते रहना है तो इस पर कोई निषेध नहीं हो सकता ! किन्तु यदि लोगों अभिलाषाओं के मद्दे नजर कुछ असर होता तो सभी प्रकार के चुनावों में -केरल बंगाल में अपनी पुरानी ताकत तो वाम को अवश्य वापिस मिलती। किन्तु लगता है कि बंगाल की जनता को क्षेत्रीय 'ममता ' अधिक प्रिय है। वामपंथ जिनके लिए कुर्बानी दे रहा है उन्ही को 'अधिनायकवाद' बहुत जल्दी लुभा रहा है। वेशक इसके लिए भी जनता नहीं, बल्कि प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग की सोच और वामपंथ के जूने -पुराने सिद्धांत ही जिम्मेदार हैं ! उनका वैयक्तिक आचरण भले ही देवतुल्य हो [माणिक सरकार जैसा ] किन्तु उनके सनातन संघर्ष की फसल कभी कांग्रेस और कभी भाजपा चरती रहे , तो इस के लिए वामपंथी नेतत्व की रणनीतिक असफलता ही कसूरवार हैं।
वे यह मानने के लिए तैयार ही नहीं कि जिस पतनशील समाज - व्यवस्था में वे पैदा हुए हैं , पले -बढे हैं ,उस समाज के अवगुणों से वे भी अछूते नहीं रह सकते। स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो परिकल्पना यह भी बनती है कि 'प्रगतिशील -जनवादी और वामपंथी लोग ओरों से बेहतर इंसान तो अवश्य होते हैं ,किन्तु वे भी सापेक्ष रूप से प्रगतिशील होने के वावजूद हर दौर में हर मोर्चे पर पिछड़ रहे हैं ! वैसे तो सिद्धांत; आत्मालोचना का स्वागत है, किन्तु व्यवहार में अपने आपको आलोचना से परे मानते रहने की आत्ममुग्धता से भी वामपंथी नेतत्व आक्रांत है। जबकि बौद्धिक नॉस्टेलजिया से ग्रस्त व्यक्ति प्रगतिशील हो ही नहीं सकता ! इस दौर में बहुत कुछ ऐंसा ही घटित हो रहा है। कई संदर्भो पर प्रगतिशील -जनवादियों की कुछ स्थापनाएं आलोच्य हैं। इस दौर में कुछ स्थापनाएं - मार्क्सवाद - लेनिनवाद - सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयता के अनुकूल नहीं हैं ! यदि वे वर्तमान आर्थिक नीतियों की आलोचना कर सत्ता में आ भी गए तो बंगाल ,केरल की तरह किसी तरह का न तो कोई विकास कर पाएंगे और आरएसएस -कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया के दुष्प्रचार का मुकाबला भी नहीं कर पाएंगे। तब यही कहावत चरितार्थ होगी कि 'अंधे -पीसें कुत्ते खाएं ' !
तब जन-आकांक्षा को पूरा करने में सफल नहीं हो पाने के कारण सत्ता से बाहर होना ही पड़ेगा। कहने का तातपर्य यह है कि वामपंथ को अपने 'वैकल्पिक 'प्रारूप को तेजी से अपडेट करते रहना चाहिए ! पचास साल पुराने नारों से अब कोई काम नहीं सधने वाला। बाजारबाद,भूमंडलीकरण ,निजीकरण ,जातीयता ,संचार-क्रांति और सम्प्रदायिकता की अनदेखी कर जो भी नीतियाँ और कार्यक्रम बनाये गए हैं ,वे कारगर कैसे हो सकते हैं ?वेशक पूंजीवाद का विकल्प 'समाजवाद' ही हो सकता है ,किन्तु जब मुलायम ,लालू ,पप्पू यादव के गिरोह समाजवाद का ठप्पा लगाकर उसे बदनाम आकर चुके हों ,जब वे इसे पारिवारिक ,और सजातीय घान में सेंक चुकें हों तो फिर 'वामपंथ' को क्यों नहीं बिहार में सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने चाहिए ? भले ही सब हर जाएँ ! वेशक आगामी विधान सभा चुनाव में ,बिहार में नागनाथ या सांपनाथ में से ही कोई जीतेगा ! अभी असली लोकतंत्र तो यूपी बिहार से कोसों दूर है। भारत में समाजवाद के असली अवरोधक कौन हैं ? कांग्रेस और भाजपा कदापि नहीं है ! बल्कि तीसरे मोर्चे और जनता परिवार वाले ही समाजवाद और साम्यवाद के असली दुश्मन हैं। यही जनता के भी असली दुश्मन है ! कांग्रेस ,भाजपा और वामपंथ के अलावा किसी को भी भारतीय अस्मिता -अखंडता और नवनिर्माण की फ़िक्र नहीं है। ममता ,सपा ,वसपा राजद ,जदयू लोजद ,बीजद अकाली इत्यादि को देश की नहीं अपनी -अपनी ,जाति ,खाप ,समाज और गिरोहबंदी की फ़िक्र है। वामपंथ को कांग्रेस या भाजपा से इतर अन्य सभी -अराजक दलों को कोई तरजीह नहीं देना चाहिए ! तीसरे विकल्प के रूप में देश के हर चुनाव में हर सीट पर वामपंथ का प्रत्याशी खड़ा क्यों नहीं किया जाना चाहिए ? यदि नहीं जीत पाये तो वास्तविक वोट प्रतिशत तो बढ़ेगा ! जनता के बीच कार्यक्रम और नीतियां तो पहुंचेंगी ! हो सकता है तब मीडिया और सूचना संचार तंत्र से लेस युवा शक्ति भी वामपंथ का साथ देने लगे !
विभिन्न चुनावों के मार्फ़त देश की जनता को यह भी बताया जाए कि बाकई सोवियत संघ की महान क्रांति को पूँजीवाद ने खत्म किया है ? यह भी स्वीकारना होगा कि ग्रीस का आर्थिक संकट यूरोप -अमेरिका की देन नहीं है बल्कि समग्र भूमंडलीकरण का प्रतिषाद है। यूनान की की वर्तमान वामपंथी सरकार जब उन्ही पूँजीवादी राष्ट्रों से 'उधार' ले रही हो तो उसके आर्थिक संकट से निजात कैसे मिल पाएगी ?यदि ब्राजील , बेनेजुएला लड़खड़ा रहे हैं ,तो क्या उसकी पूरी जिम्मेदारी अमेरिका की ही है ? केवल ओरों की आलोचना करने से साम्यवादी आंदोलन शसक्त नहीं होगा बल्कि पूँजीवाद का विकल्प बनने के लिए उसे व्यवाहरिक वैज्ञानिकता अपनानी होगी।
चूँकि भारतीय वामपंथ के लिए यूनिफॉर्म लेविल प्लेयिंग फील्ड मौजूद नहीं है। इसलिए कुछ प्रगतिशील लेखक ,कवि और विचारक -भाई लोग बड़े ही ज्ञानवान अर्थात मेधाशक्ति से ओत -प्रोत हैं। उनकी विध्वंशक क्रान्तिकारी सोच ये है कि उन्हें जो कुछ भी अतीत में रटा दिया गया है वे उससे आगे कुछ भी कहना -सुनना कुफ्र समझते हैं ! स्वर्गीय राजेन्द्र यादव की तरह महावज्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सनातन विरोध किस प्रगतिशीलता का द्वेतक है ? बल्कि इस तरह की घोर 'अराष्ट्रवादी' चेतना ने भारतीय जन-मानस को वामपंथ से दूर कर दिया है। यही वजह है कि केरल में चर्च ,मंदिर और मस्जिद से वामपंथ को हारना पड़ रहा है। यही वजह है कि बंगाल में ज्योति वसु और कॉम प्रमोददास जैसे कर्मठ ईमानदार नेताओं की पुण्यायी को ममता बेनर्जी जैसी 'उजबक ' महिला हजम कर गयी है। यही वजह है भारत में पहले तो केवल भूस्वामियों-पूँजीपतियों का ही वर्चस्व था ,किन्तु अब तो भारत में साम्प्रदायिकता और क्रोनी पूँजीवाद दोनों की जुगलबंदी मजबूत हो चुकी है। जो लोग यूपी -बिहार में समाजवाद का मुखौटा लगाकर जातीयता की राजनीति कर रहे हैं वे भी इस भृष्ट सिस्टम के ही बगलगीर हो चुके हैं।
शीतयुद्ध के दौर में जब सोवियत संघ ने यह स्थापना दी कि यहूदी शब्द ही प्रतिक्रांतिकारी है तो सारे संसार के प्रगति शीलों - जनवादियों और वामपंथी साहित्यकारों ने भी मान लिया था कि 'यहूदी' उनके लिए अछूत हैं ! अब जबकि सोवियत संघ ही नहीं रहा ,और बचे-खुचे 'रूसी फेडरेशन ' ने न केवल इजरायल से बल्कि यूरोप और अमेरिका से भी बेहतरीन द्विपक्षीय संबंध कायम कर लिए हैं। साहित्यिक विमर्श में , उनके लेखन कर्म में ,उनके राजधर्म में यहूदियों -इजऱायलियों का प्रतिकार कब का समाप्त हो चुका है । किन्तु भारत के महान प्रगतिशील' साथी अभी भी इजरायल को 'पाप का घड़ा' ही मानते हैं। इस्लामिक संसार में दुधमुहे बच्चों ,बूढ़ों और औरतों पर जो कहर ढाया जा रहा है,क्या बाकई आरएसएस भी वह सब कर रहा है ? यदि नहीं तो यह नाजायज तुलना क्यों ?
इसी तरह जब कोई आतंकी मुंबई , उधमपुर या कश्मीर में हिंसक कार्यवाही करता है, तो हमारे अत्यंत प्रगतिशील साथी अपना मुँह बंद रखते हैं। इतना ही नहीं जब किसी अफजल गुरु या याकूब - आतंकी को फांसी की सजा होती है तो वे उसके पक्ष में भी आवाज उठाने लगते हैं। किन्तु जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश मदरसों में राष्ट्रीय झंडा फहराने का निर्णय देते हैं,और मदरसे वाले उसे ठुकरा देते हैं तब और जब उपराष्ट्रपति महोदय तिरंगे झंडे को सलामी देने से इंकार करते हैंतब और जब कोई 'खास अल्पसंख्यक वर्ग राष्ट्रगीत गायन से इंकार करता है तब ये 'असली' क्रांतिकारी साथी बजाय उसे नसीहत देने के आरएसएस पर टूट पड़ते हैं। कुछ लोग तो आरएसएस और आईएसएस की तुलना ही करने लगते हैं। ये तो सभी जानते हैं कि आरएसएस ने प्रचंड राष्ट्रवाद की हमेशा पैरवी की है और उसके लिए कोई विशेष काम कम 'बड़बोलापन' और ढ़पोरशंखी दुष्प्रचार जयादा किया है। उन्होंने वोट के लिए हिन्दुत्ववादी प्रचार-प्रसार अवश्य किया है ,किन्तु हिन्दू समाज के हित में कोई काम नहीं किया ! आरएसएस की खूबी है कि वह हमेशा सत्ता के साथ रहा है। चाहे अंग्रेज हों ,चाहे कांग्रेस हो या अभी भाजपा हो -सभी के सामने 'संघ' ने सदाशयता का प्रदर्शन किया है। वे तोप तमंचा लेकर कभी भी किसी से नहीं लड़े। वे लड़ना भी नहीं चाहते। वे केवल लाठी चलाना पथसंचलन करना और चुनाव में वोटों की जुगाड़ करने वाले अघोषित राजनैतिक कार्यकर्ता हैं। क्या बाकई आरएसएस और आईएसएस की तुलना जायज है ? यदि आरएसएस का कोई बन्दा कसाब ,नावेद या याकूब की तरह ,सीरिया ,इराक ,लेबनान या पाकिस्तान में कभी किसी नरसंहार में शामिल हुआ पाया जाएगा तो गजब हो जाएगा।
मैं सबसे पहले उनकी निंदा करूंगा। किन्तु केवल एक नाथूराम गोडसे के कारण जिसने किसी कम्युनिस्ट को नहीं मारा। कम्युनिस्टों को तो लालुओं,पप्पुओं, तृणमूलियों और कांग्रेसियों ने ही मारा है। गोडसे ने तो 'बिड़लाओं ,बजाजों और बनियों के बापू अर्थात 'महात्माजी' को ही ढेर किया था। उससे प्रगतिशीलों को क्या परेशानी है ? यदि आरएसएस किसी किस्म की घातक चेष्टा का जिम्मेदार होगा तो देश की जनता ही तय करेगी कि आरएसएस ने आईएसएस की बराबरी की है या नहीं ! यदि वे नाजी हो जाते हैं ,यदि वे फासिस्ट हो जाते हैं तो क्या भारत की जनता उन्हें सिर पर बिठाएगी ?
हो सकता है कि कुछ प्रगतिशीलों को ये निर्णय प्रतिगामी और साम्प्रदायिकता से संबध्द लगे । किन्तु वे जिस प्रगतिशीलता का परिचय देते हैं उसे तो तब लकवा मार जाता है जब आजीवन संघर्ष में जुटे खुद उनके बच्चे भी क्रांति और समाजवाद से घृणा करने लगते हैं। जमाने की तरक्की देखकर उनका भी मन करता है कि उन्हें कमसेकम एक बक्त का खाना तो नसीब हो। कामरेडों के बच्चे जब देखते हैं कि जातीय आरक्षण की ताकत पर , भृष्टाचार के पैसे की ताकत से लाखों भारतीय युवा - विदेशों में मजे कर रहे हैं । जबकि अधिकांस वामपंथी क्रांतिकारी अभिभावकों के बच्चे केवल नारे-लगाने में अपना बचपन स्वाहा करते रहते हैं। उनके अभिभावक को विधायक या पार्षद के चुनाव में हारते हुए देखकर वेचारे 'कामरेड पुत्र ' या पुत्रियाँ घोर निराशा के शिकार हो जाते हैं। आजीविका के लिए निजी क्षेत्र के मालिकान के यहाँ चाकरी करने के लिए विवश हो रहे हैं। समाज की ओर से सवाल उठने लगते हैं कि जब क्रांतिकारी लोग खुद का घर ठीक नहीं रख सकते ,खुद की आजीविका निर्धारित नहीं कर सकते ,जो अपने परिवार का पालन -पोषण भी ठीक से नहीं कर सकते वे एक बहुत बड़े अभियान में सफल कैसे हो सकते हैं ? जो पारिवारिक दायित्व से मुक्त हों उनपर तो जनता को और भी भरोसा नहीं रहता क्योंकि ऐंसे लोग तो समाज का मतलब भी ठीक से नहीं जानते तो 'समाजवाद' को ख़ाक समझेंगे ?
श्रीराम तिवारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें