जब अमेरिका स्थित फेसबुक कार्यक्रम में मोदी जी उपस्थित लोगों के सवालों के जबाब दे रहे थे ,तब मैं टीवी पर उस कार्यक्रम का लाइव टेलीकास्ट देख रहा था। अचानक एक व्यक्तिगत सवाल का जबाब देते हुए प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी को रोते हुए देखकर मुझे भी रोना आ गया। उनकी वह क्षणिक भावुकता नितांत सहज , स्वाभाविक और अप्रत्याशित थी। मोदी जी ये के आँसू वनावटी तो कतई नहीं थे।जैसा कि उनके धुर विरोधी राजनीतिक लोग प्रचारित रहे हैं । किन्तु जिस सवाल के जबाब में वे रो पड़े वह निश्चय ही इतना क्रूरतम या 'रोने योग्य ' नहीं था कि एक विराट देश का प्रधान मंत्री ही एक पराये देश की धरती पर जाकर अपनी माता की गरीबी को याद कर इस तरह आँसू बहाने लगे। मोदी जीजब तक प्रधान मंत्री हैं तब तकउन्हें यह याद रखना चाहिए कि उन के आँसू अब महज व्यक्तिगत नहीं रहे। वे अब उनके देश की राष्ट्रीय सम्पदा हैं ,उन्हें सिर्फ फेस बुक या जुकरवर्ग के सामने ही जाया नहीं किया जा सकता। मोदी जी आपके आँसू तो राष्ट्रीय सम्पदा हैं इन्हे यों जाया न करें !
यह सुप्रसिद्ध है कि आदि कवि की काव्य प्रेरणा भी 'क्रोंच बध 'की कारुणिक व्यथा से ही जन्मी थी। मोदी जी को रोता हुआ देखकर देश के करोड़ों लोगों को भी अपनी व्यक्तिगत दैन्यता और अभाव पर रोना आ सकता है। जब मोदी जी अपनी पारिवारिक गरीबी और माता के कठिन जीवन संघर्ष को रो-रोकर दुनिया के सामने पेश कर सकते हैं तो देश में करोड़ों सनातन सर्वहारा को भी अपनी बात कहने में कोई हिचक क्यों होनी चाहिए ? मोदी जी की गरीबी तो कब की मिट गयी। क्योंकि वे प्रधान मंत्री बन गए हैं । उनकी माता जी भी धन्य हो गईं । अब मोदी जी को अपने बचपन की गरीबी पर या माता के कष्टमय अतीत पर नहीं रोना चाहिए ! बल्कि देश में भूँखों मर रहे सूखा पीड़ित किसानों ,वेरोजगारी से पीड़ित युवाओं ,सिस्टम के अधः पतन से पीड़ित आवाम और भृष्ट सरकारी मशीनरी से पीड़ित देश के दुःख दर्द पर नरेंद्र मोदी को रोना आता तो कोई और बात होती ।
वैसे भी मोदी परिवार के लोगों ने ही कई बार उजागर किया है कि श्री नरेंद्र मोदी जी को अपने परिव्राजक [सन्यासी]जीवन में बर्षों तक अपने परिवार और माँ की याद नहीं आयी। वे जब गुजरात में मुख्यमंत्री बने थे तबसे ही माँ की खोज खबर लेने लगे हैं। पत्नी जशोदा बेन का तो उन्होंने कभी नामोल्लेख भी नहीं किया। शायद किशोर वय की गरीबी के दिनों का नॉस्टेलजिया ही मोदी जी को सत्ता रहा है। इसीलिये वे अमेरिका की उस महफ़िल में रो पड़े ,जो 'नमो-नमो' के जयकारे लगा रही थी। मोदी जी ने जब अपनी माताजी के संघर्ष का खुलासा पूरी दुनिया के सामने कर ही दिया है तो जनता क्यों चुप रहेगी ? देश के गरीबों को भी इससे प्रेरणा लेनी चाहिए। कम से कम मेरे जैसे सर्वहारा वर्ग के प्राणी तो फेसबुक फ्रेंड्स के समक्ष अपना पक्ष अवश्य ही पेश करेंगे। हालाँकि हमें तो बचपन से यही सिखाया गया है कि गरीबी उतनी बुरी चीज नहीं जितना कि नैतिक और चारित्रिक पतन।
मेरे पूज्य पिताजी पंडित तुलसीराम बेहद गरीब थे। मैं भी कुल मिलाकर मोदी जी के बचपन से तो गरीब ही हूँ । मेरे बच्चे तो और भी गरीब हैं। तो क्या मैं अपनी इस सनातन गरीबी पर दिन रात आंसू बहाता रहूँ ? नहीं ! कदापि नहीं ! पिताश्री का कहना था -धन गया तो कुछ न गया ! तन गया तो कुछ गया ! ! चरित्र गया तो सब कुछ गया !!! हमारे कुल की रीति है कि यदि किसी का चारित्रिक पतन देखो तो उसपर आँसू बहाओ ! गरीबी पर आँसू बहाने की जरुरत नहीं। क्योंकि यदि अमीर बनोगे तो किसी को धोखा देकर या लूटकर ही बनोगे। याने चरित्र को लुटाकर ही धन दौलत ओहदा हासिल किए जा सकता है। चरित्रवान व्यक्ति कभी धनवान नहीं हो सकता ! वेशक खुशहाल जीवन कोई बुरी बात नहीं और निपट गरीबी कोई गर्व की बात नहीं। किन्तु यह सब कुछ व्यक्ति के हाथ की बात नहीं है। देश ,काल , परिस्थितयां और व्यक्तिगत प्रयास इसके लिए उत्तरदायी हैं। मेरे एक गजियावादी मित्र मामूली सी सुपरवाइजर की नौकरी में थे। उन्होंने कभी कोई बेईमानि नहीं की किन्तु वे अचानक मालदार हो गये। हुआ यों कि उनके मामूली गरीब किसान पिता की कुछ जमीन किसी बिल्डर और इंडस्ट्रयलिस्ट को पसंद आ गयी और वे रातों रात करोड़पति हो गए। यह व्यक्तिगत गरीबी अमीरी तो परिवर्तनीय है किन्तु राष्ट्रीय गरीबी और राष्ट्रीय चरित्र अत्यंत चिंतनीय है। किसी देश का प्रधान मंत्री और राष्टाध्यक्ष का चरित्र उच्चतर है तो वह वंदनीय है। उसकी व्यक्तिगत गरीबी या अमीरी से देश की आवाम को क्या मतलब ? जिस गरीबी को मोदी जी इतना गंभीर या नकारात्मक समझते हैं कि भरी महफ़िल में रोना आ गया। उस गरीबी से तो सारा भारत बजबजा रहा है। क्या देश के मजदूर -किसान कामधाम छोड़कर सिर्फ रोने लग जाएँ ?
मेरे पिता ने गाँव के जंगल से लकड़ियाँ बीनकर -बैल गाड़ी जोतकर शहर की सड़कों पर फेरी लगाकर बेचीं हैं। उन्होंने दूसरों की मजूरी करके हम सब भाई -बहिनों को पाला-पोषा। तथाकथित मनुवादी ब्राह्मण कुल के जन्मना होते हुए भी हम सभी भाइयों ने उन जमीन्दारों और दवंगों के यहाँ मजूरी की है जो आज कल पिछड़े वर्ग में गिने जाते हैं। जो लोग पिछड़ा होने का नाटक कर -विगत ६५ साल से आरक्षण की मलाई चांट रहे हैं उन अमीरों के यहाँ 'बचपन' में मैंने स्वयं रोजनदारी से मजदूरी की है।तब कोई कैलाश सत्यार्थी हमें उबारने नहीं आया। शहर से बहुत दूर जंगलों से घिरे मेरे गाँव में आज भी मेरे भाइयों की आर्थिक स्थति उन नामधारी पिछ्ड़ों और दलितों से बदतर है।और वे प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के अच्छे दिनों का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।
चूँकि मेरे पिता की हैसियत नहीं थी कि वे हम भाइयों को भी उच्च शिक्षा दिला सकें। इसलिए मेरे सभी बड़े भाई मिडिल पास होकर कास्तकारी और मजदूरी में खपकर अपना जीबन यापन करने लगे । लेकिन मैंने पिता से विद्रोह किया। घर छोड़ा और भागकर सागर पहुँच कर शहर में एक आयल मिल में तीन रुपया रोज की उजरती मजूरी की। रात पाली में काम किया। ट्यूशन पढ़ाया। अपने विद्यार्थी जीवन में ही मैं अपने छोटे भाइयों की भी फ़िक्र करने लगा। एक -एक कर अपने छोटे भाइयों को भी गाँव से ला-लाकर मैं उन्हें भी पढ़ने के लिए प्रेरित करने लगा । हम रात -पाली की मजूरी से लौटकर अपनी खोली में आकर अपने हाथों से ज्वार के दो टिक्क्ड़ [रोटियाँ ] सेक लिया करते थे। खोली वाले पटेल कक्का हमारी गरीबी देखकर नहीं बल्कि सात्विक ब्राह्मण के नाते खोली का किराया नहीं लेते थे। हमारे समकालीन और गाँव के एक गब्दू चमार भी शहर में आकर खिलान सिंह अहिरवार हो आ गये थे। वे आर्ट विषय लेकर यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे। वे वहां सरकारी छत्रावास में रहते थे। एक बार वे मुझे छात्रावास ले गए। वहाँ जाकर मैंने देखा कि हॉस्टल के एक कोने में बहुत सारे पके हुए चावलों का ढेर लगा हुआ है । मैंने पूँछा कि कितने बढियाँ चावल हैं ?और बर्तन के बजाय जमीन पर ही रख दिए हैं ? गब्दु उर्फ़ खिलान सिंह का जबाब था -ये तो जूँठन है। इतना तो रोज फिकता है। चूँकि मैंने सालों से चावल चखे ही नहीं थे। अतः मेरे मन में इस व्यवस्था के प्रति और अपनी दैन्य स्थति के प्रति घोर आक्रोश उतपन्न हुआ। किन्तु मैं मोदी जी की तरह रोया नहीं।
हालाँकि मुझे मेरिट स्कालरशिप तो मिलने लगी थी। किन्तु जाति से ब्राह्मण होने के नाते ,महा गरीब होते हुए भी मुझे तब विश्वविद्यालय के तत्कालीन नियमो के अनुसार पूरी फीस भरनी पड़ती थी । जबकि गाँव के ही सौ एकड़ जमीन के मालिक जमीन्दार ने अपने सदा ही थर्ड डिवीज़न पास होने वाले- जाहिल बेटे की फीस पता नही किस तिकड़म से माफ़ करवा ली ? यह रहस्य मुझे कभी नहीं सूझ पड़ा। बहुत बाद में मालूम पड़ा कि उनके रिस्तेदार यूनिवर्सिटी में किसी बड़े पद पर थे। खैर मैंने यह अन्याय भी झेल लिया। मोदी जी की तरह नहीं रोया। हालांकि तब तक मुझे अपनी बेहतरीन पढाई और साहित्यिक अभिरुचि में प्रसिद्धि मिलने लगी थी। सभी प्रोफेसर और सहपाठी मुझे सम्मान देने लगे थे। मैं धन से न सही अपनी योग्यता और कर्मठता से धनी तो अवश्य हो चला था। मेरे माता -पिता को मेरी इन तुच्छ सफलताओं की खबर जब गाँव में मिली तो यह सब सुनकर उन्हें जितना आनंद प्राप्त हुआ , उतना तो मोदी जी के पधान मंत्री बनने पर उनकी माता को भी नहीं हुआ होगा।
नरेंद्र मोदी जी की माताजी ने मेहनत -मजूरी करके अपने बच्चों को पाला पोषा और मोदी जी को रोटी दी होगी।उनकी यह महानता युगों-युगों तक बखानी जायगी। किन्तु मैंने जो ११ साल की उम्र में ही घर छोड़ दिया और फिर माँ के हाथ की रोटी कभी नसीब नहीं हुई। उलटे मेने खुद १६ साल की उम्र से कमाकर अपनी माँ को कुछ न कुछ देना शुरू कर दिया उसका कोई जिक्र इतिहास में अंहिं होने वाला। हालाँकि मेरी माताजी शतायु होकर ही दिवंगत हुईं। किन्तु उनकी जिंदगी गाँव में गायों -ढोरों की सेवा में या घर के अन्य सदस्यों की सेवा में ही बीत गयी। मेरी माँ को यह भी नहीं मालूम था कि मैं कहाँ रहता हूँ ? क्या खाता हूँ ? कौनसी कक्षा में पढता हूँ। छोटे भाइयों को क्या खिलाता हूँ ? कहाँ से खर्च जुटाता हूँ ? सड़क किनारे लेम्प पोस्ट के उजाले में पढाई करने वाले ,रोज पैदल ही सात किलोमीटर की दूरी तय कर ऊँची पहाड़ी पर स्थित सागर विश्वविद्यालय में एक रेगुलर छात्र के रूप में जैसे- तैंसे अपनी स्नातकीय पढ़ाई पूरी करने वाले को कभी रोना नहीं आया।
चूँकि आज से ४५ साल पहले साइंस में स्नातक की डिग्री बहुत मायने रखती थी। चूँकि में साइंस इंजीनियरिंग विषय के हर दर्जे में फर्स्ट डिवीजन उत्तीर्ण हुआ था। अतः न केवल मुझे मेरिट स्कॉलरशिप मिली अपितु मेरे लिए फिर जीवन में कभी भूंख का सामना नहीं करना पड़ा। तब मुझे राज्य सरकार के वन विभाग में और केंद्र सरकार के टेलीकॉम विभाग में पर्याप्त अवसर उपलब्ध थे । ४० साल की शानदार सर्विस लाइफ में कभी किसी को अपने कद का नहीं पाया। क्योंकि पिताश्री के उस आदर्श का हमेशा अक्षरसः पालन किया जिसमें उन्होंने कहा था कि "चरित्र है तो सब कुछ है " 'पैसा तो हाथ का मैल है ' शोषण -उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने के लिए शानदार संगठन मिला। उसके उच्च पद तक पहुँचने में ढेरों बाधाएं आई किन्तु किन्तु मोदी जी की तरह रोया कभी नहीं ! जीवन संग्राम के संघर्ष की इकलोती मिसाल सिर्फ मोदी जी की माताजी ही नहीं हैं ,बल्कि पूरा भारत और पूरा संसार ही एक रंगमंच है।
वैसे तो यह मुझे यह जानकर बहुत फक्र होता है कि नरेंद्र मोदी जी हिंदी के बड़े मुरीद हैं। किन्तु अफ़सोस इस बात का है कि उन्होंने हिंदी का यह दोहा कभी -कहीं पढ़ा -सुना ही नहीं कि "तुलसी पर घर जायके ,दुख्ख न कहिये रोय "। सिर्फ तुलसी ही नहीं बल्कि हिन्दी के महानतम नीति कवि अब्दुल रहीम खान-ए -खाना ने तो इस 'आत्मरोदन 'की बार-बार मनाही की है। उनकी एक बानगी पेश है ;-
"रहिमन अँसुआ नयन ढरि ,जिय दुःख प्रगट करेय। जाहि निकारो ह्रदय से ,कस ने भेद कहि देय।। "
या
" रहिमन निज मन की व्यथा ,मन ही रखिये गोय। सुन इठलैहैं लोग सब ,बाँट न लैंहें कोय।। "
मोदी जी , आपकी माँ ने बहुत -दुःख कष्ट उठाया और लोगों के बर्तन मांजकर ,कपड़े धोकर आपको और आपके भाई -बहिनों को पाला। आप भारत के प्रधान मंत्री बन गए। इसमें रोने की बात क्या है ? आप को तो इस पर गर्व होना चाहिए। आप फक्र से अपना '५६'इंच का सीना तानकर सिर्फ भारत के ५० करोड़ सर्वहारा के समक्ष ही नहीं बल्कि विश्व सर्वहारा के समक्ष भी अपनी इस नेकनामी पर गर्वान्वित हो सकते हैं। भारत की उस गरीब जनता के लिए प्रधान मंत्री श्री मोदी जी क्या सन्देश देना चाहते हैं ? क्या दूसरों के घरों में काम करने वाली अन्य लाखों महिलाएं अपने बेटे को प्रधान मंत्री बनवा सकतीं हैं ? जो महिलायें ओरों के यहाँ बर्तन मांजती हैं ,कपड़े धोती हैं ,साफ़-सफाई का काम करती हैं ,दाई-आया और मजदूरी का काम करती हैं, जमीन्दारों के खेतों में काम करतीं हैं यदि वे सिलिकन वेली मोदी जी को इसी बात पर रोता देखतीं तो शायद मोदी जी हिन्दुओं के २५ अवताराहो जाते। किन्तु उन्होंने तो केवल अपनी माँ के दुखों को याद कर आंसू बहाये इसलिए मुझे उनके रुदन पर दुःख नहीं बल्कि उन लोगों पर तरस आया जो उनकी जुमलेबाजी और भाषणबाजी के कायल हैं। सिलिकॉन वेली में माइ क्रो सॉफ्ट ,गूगल,फेसबुक और एपल के प्रमुख सीईओ के समक्ष इस तरह आंसू बहाने से 'मेक इन इण्डिया ,डिजिटल इण्डिया और स्वर्णिम इण्डिया नहीं होगा। बल्कि यदि देश का प्रधान मंत्री किसी गधे को भी नबा डोज तो भी भारत उतना ही तरक्की करेगा जितनी होती नजर आ रही है। भारत का आप्त वाक्य 'राष्ट्रीय नारा है। इस देश का भगवान ही मालिक है। इसीलिये घर-घर में तीज त्यौहार और उत्सव की धूम है। किसान मरें-मजदूर मरें। महिलाएं बर्तन मांजें ,कपड़े धोयं यह सिलसिला रुकने वाला नहीं। मोदी जी की माता धन्य हैं ,सौभाग्यशाली हैं कि उनका बेटा प्रधान मंत्री बन गया। लेकिन दुनिया में ऐंसा कहाँ सबका नसीब है ?
अपनी अमेरिकी यात्रा [सितमबर-२०१५] के दौरान मोदी जी न फिर वही सब दुहराया जो वे विगत १६ महीने से हर विदेश यात्रा में करते-कहते आ रहे हैं। अपने हर दौरे में मोदी जी के भाषण में दो चार जुमले बेटी-दामाद के द्वारा किये गए तथाकथित भयानक भृष्टाचार पर होते हैं। लोग पूँछते हैं कि आप बार -बार अमेरिका -चीन-जापान जाकर जो कथित भृष्टाचार दुनिया भर को बता रहे हो ,उसके दोषियों को सजा क्यों नहीं दिलाते ? उन्हें जेल क्यों नहीं भेजते?
मोदी जी एक साँस में कहते हैं कि - हम भारत के लोग जगद्गुरु हैं ,हम दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेटिक कंट्री हैं ,हम मंगल पर पहुँच गए हैं ,हमने पीएसएलवी-६ छोड़ दिया है । हम खाद्यान्न में निर्भर हैं। हम मानव श्रम - संसाधन और दूसरी साँस में मोदी जी का वही 'राग कटोरा' शुरू हो जाता है कि मेरे भारत के ढाई लाख गाँव में ऑप्टिकल फाइबर नहीं डला। हमें आपकी पूँजी चाहिए। जबकि आपको मालूम है कि भारत के गाँव तो छोड़िये बड़े-बड़े शहरों में गंदा पानी पीकर लोग डेंगू-मलेरिया और चिकनगुनिया के शिकार हो रहे हैं। सिर्फ जुमलों और भाषणों से नहीं ,या आँसू बहाने से नहीं बल्कि कार्पोरेट सेक्टर ,साम्प्रदायिक विचार त्यागकर और मजदूर-किसान परक नीतियाँ लागू करके ही उन तमाम माता-बहिनों के आंसू पोछे जा सकते हैं। जो मोदी जी की माताजी की तरह ही दुःख कष्ट उठा रही हैं।
श्रीराम तिवारी
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