मंगलवार, 15 सितंबर 2015

नीतीश ,लालू , कांग्रेस और सभी गैर भाजपाई मोर्चे बिहार में केवल हारी हुई पारी खेलने की ओपचारिकता निभा रहे हैं।


खबर है कि दिल्ली स्थित पीएमओ हाउस के निकटवर्ती पोस्ट आफिस में बिहार से भेजे गए 'डीएनए सेम्पल' लाखों की तादाद में पहुँच  रहे हैं। न तो पोस्ट आफिस वालों को और न ही पीएमओ आफिस वालों को  कुछ सूझ पड़  रहा है कि आखिर  इस 'बबाल' का किया क्या जाए ? मोदी सरकार यदि इस नीतीश प्रेरित  जन  -भावना संदेस की अवहेलना करती है तो 'निरंकुशता' ओर अहंकार का आरोप लगना स्वाभाविक है। यदि इस अशुभ और  विकराल डाक को  दस्तावेजीकृत किया जाता है तो यह स्वयं प्रधान मंत्री मोदी  की रुसवाई  होगी। याने  अब  ''उगलत बने न लीलत केरी। भई  गत साँप  छछूंदर केरी ।।" वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। क्या  यह  नसीब - वालों की  बदनसीबी का मंजर नहीं है ? क्या  यह चुनावी हथकंडों  की एक  बिहारी स्टाइल  मात्र नहीं  है?

 इन सवालों की पड़ताल करने वालों को  बिहार की विशिष्ट ऐतिहासिक ,भौगोलिक और सामाजिक  स्थिति की भी पड़ताल कर लेनी चाहिए। जिस  खाँटी बिहारीपन  का राज ठाकरे जैसे  'गैर बिहारी' टुच्चे नेता ,दुनिया भर के  गैर बिहारी छुद्र साहित्यकार एवं अधकचरे  पत्रकार भी  बड़े व्यंग्यात्मक लहजे में  चटखारे लेकर मजाक उड़ाया करते  हैं।  उस विमर्श के बरक्स वे यह भूल जाते हैं  कि बिहार की जन-मानसिकता और  राजनैतिक अवगुंठन केवल  बिहार का ही  चरित्र नहीं है।  बल्कि यह तो सम्पूर्ण  भारतीय राजनीती का खिलंडपन है।  जो बिहार का  डीएनए है वही दिल्ली का डीएनए है। वही पूरे उत्तर भारत का भी डीएनए है।  यह केवल मेरी कोरी वैयक्तिक अवधारणा नहीं है। बल्कि भारत रुपी कुएँ में  जो 'बिहारीपन' की ही भाँग  पड़ी हुई है उस को कोई भी सामान्य बुद्धि का नर-नारी समझबूझ सकता है।

अन्यथा  आसन्न विधान सभा  चुनावों में विहार का राजनैतिक परिदृश्य ही  इसे सावित  भी कर देगा। एक तरह से यह  चुनाव  न केवल बिहार  की बल्कि पूरे भारत  की दशा और दिशा दोनों तय करेगा। क्योंकि बिहार सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं है। बल्कि पूरा समूचा भारत और खास तौर  से भारत का हिन्दी भाषी क्षेत्र  तो मानों  बिहार का ही विस्तार है।मध्यप्रदेश ,यूपी,छग,राजस्थान,हरियाणा और झारखंड -सभी जगह कम-ज्यादा वही  दुर्दशा है। जो बिहार की  बताई जाती है। यदि कहीं न्यूनाधिक आर्थिक पिछड़ापन है ,तो कहीं मानसिक पिछड़ापन  भी है। यदि बिहार में आर्थिक -सामाजिक पिछड़ापन ज्यादा  है तो हरियाणा- यूपीवेस्ट  में मानसिक  पिछड़ापन ज्यादा है। उद्धरणार्थ  बिहार में  स्त्री-पुरुष अनुपात यदि हरियाणा से बेहतर ही है। किन्तु पंजाब,हरियाणा और यूपी वेस्ट में कन्या भ्रूण हत्या या 'हॉनर  किलिंग 'कुछ ज्यादा ही है। मध्यप्रदेश राजथान और यूपी  के सीमावर्ती  जिलों  में भी यही  दुखद स्थिति है। यहाँ न केवल मानसिक बल्कि आर्थिक -दोनों ही तरह का पिछड़ापन खदबदा रहा है। यहाँ  तो  सत्तारूढ़ नेताओं को समझ ही नहीं पड़  रहा है कि आर्थिक पिछड़ापन ज्यादा है या कि  सामाजिक पिछड़ापन ज्यादा है। मीडिया और साहित्यिक विमर्श केवल बिहार की चुनावी जीत-हार तक  ही सीमित  है। दरअसल यह इकतरफा प्रस्तुति ही बिहार के स्वाभिमान की भक्षक है।

वेशक  यह  मेरी व्यक्तिगत सैद्धांतिक स्थापना हो सकती है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि बिहार का 'डी एन ए 'और  सम्पूर्ण  हिंदी भाषी भारत का डी एन ए एक ही है। इसीलिये  बिहारियों को मोदी जी की किसी ऐंसी  बात का बुरा नहीं मानना चाहिए जो किसी के वैयक्तिक कटाक्ष हेतु कही गयी हो। नीतीश लालू के बरगलाने पर उन्हें अपना डीएनए भी  दिल्ली  नहीं भेजना चाहिए ।वैसे नीतीश ,लालू और कांग्रेस चाहे जितना नौटंकी कर लें किन्तु  बिहार में अब 'मंडल' रुपी   काठ की हांडी दुबारा नहीं चढ़ने वाली। कमंडल रुपी  साम्प्रदायिकता  केअच्छे दिन  आने वाले हैं। मोदी के  अश्वमेध का घोड़ा बिहार में रोकने की  क्षमता न तो  नीतीश में है और न लालू या  कांग्रेस  में है। उनके  'महागठबंधन' में  भी कोई दम नहीं है। चूँकि  इन सबके अपने-अपने  कलंकित इतिहास और विखंडित  भूगोल हैं। वे अपने-अपने दौर  में बिहार के हीरो नहीं बल्कि कूट  -खलनायक  ही रहे हैं।  किसी ने सच ही कहा  है कि एक अंगुली ओरों की ओर  उठाओगे तो चार तुम्हारी जानिब उठ जायंगी। बिहार में भाजपा और नरेंद्र मोदी के खिलाफ  कहने के लिए किसी के पास कुछ नहीं है।

 वेशक  कुछ  एनडीए नेता झूंठ और पाखंड की शै पर देश भर में हो हल्ला मचाये रहते हैं। किन्तु एनडीए के  अधिकांस बिहारी  चेहरे -रविशंकर प्रसाद  , सुशील  मोदी ,राजीवप्रताप रूढ़ि ,शाहनवाज  हुसेन,रामविलास पासवान और जीतनराम माझी का  व्यक्तित्व लालू  यादव से  बेहतर  नही  तो बदतर भी नहीं है। यदि ये  एनडीए नेता  नीतीश से बेहतर नहीं हैं तो भी वे   नीतीश से कमतर भी नहीं हैं। लेकिन जनता का अभिमत विखंडित होने से विहार में 'सत्यमेव जयते' की बात  वामपंथ के अलावा और कोई नहीं करता। चूँकि जागतिक  परिवर्तनशीलता  का सिद्धांत सिर्फ सकारात्मक रूप में ही लागू नहीं होता बल्कि नकारात्मक रूप में भी उसकी उतनी ही बखत है।और  वक्त आने पर बिहार की जनता अपना सर्वश्रेष्ठ निर्णय जरुर देगी। किन्तु अभी तो हाल-बेहाल हैं।  क्योंकि बिहार की जनता अभी तो  जातिवाद बनाम पूँजीवादी खोखले विकासवाद के बीच ही 'कन्फुजिया'   रही है।

 मेरी आकांक्षा  है कि बिहार  विधान सभा  के  आगामी चुनावों में बिहार की जनता वामपंथ का समर्थन करे। और वामपंथ की ही विजय हो। वहाँ मजदूरों,गरीबों और किसानों का राज कायम हो ! किन्तु मेरे चाहने मात्र से इस दौर की हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता। सिर्फ मेरी आकांक्षा से बिहार का  इतिहास  तो  निश्चय ही बदलने वाला नहीं है। होना तो यह चाहिए कि अपने वोट की ताकत से  बिहार की जनता राज्य  में व्याप्त घोर  अराजकता ,जातीयतावाद और साम्प्रदायिकता  को परास्त करे  !वहाँ व्याप्त भृष्टाचार,बाहुबल और पूँजीवाद को परास्त करे।  विहार में  नीतीश,लालू और  कांग्रेस का अवसर  वादी महागठबंधन परास्त हो ! वहाँ  भाजपा  पासवान,माझी और कुशवाहा का मौका परस्त गठबंधन- एनडीए भी परास्त हो ! किन्तु  मेरे चाहने मात्र से क्या होगा ? मुलायमसिंह यादव ने  तीसरा मोर्चा खोल दिया है। चौथा  मोर्चा अपना  लाल झंडा लेकर  बिहार  की मेहनतकश आवाम को एकजुट करता हुआ नजर आ रहा है।  बिहार में भाजपा को छोड़कर बाकी अन्य सभी   मोर्चों के वोटर एक ही 'खाप' के हैं। इसलिए यह स्पष्ट है कि  बिहार में अबकी बार !  केवल मोदी सरकार ही बनेगी।

कहा  जा सकता है कि बिहार में तो वही होगा  जो मंजूरे   'बिहारी' होगा । वैसे बिहारी याने बांके बिहारी भी होता है ,और उसी को  मतलब   प्रकारांतर से खुदा भी होता है। अर्थात बिहार में तो वही होगा जो 'मंजूरे खुदा  होगा  '। आमीन !यह भी   कहा जाता  है कि 'खुदा  मेहरवान तो  गधा पहलवान ' खुदा का तथाकथित  'सबसे नेक बन्दा' असदउद्दीन ओवेसी भी  आजकल बिहार के सीमांचल में अपनी कूट  राजनैतिक जाजम  बिछाने में जुटा हुआ है।  इसलिए बहुत संभव है कि अब  बिहार के चुनाव भी कश्मीर  की  साम्प्रदायिक तर्ज पर ही  धुर्वीकृत   होते चले जाएँ । इस  इकतरफा  'साम्प्रदायिक' धुर्वीकरणके आधार पर और बहुत  समभावना है की बिहार के चुनाव  वहाँ के  परम्परागत  जातीय  रन कौशल से अवश्य प्रभावित होंगे ।  किन्तु जो लोग साम्प्रदायिक और जातीय  अलगाव की नयी चिंगारी को हवा देकर जीत हासिल करना चाहते हैं , वे भारतीय अस्मिता से खिलवाड़ कर रहे  हैं। मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्ग के  टैक्टिकल वोट जब  थोक में ओवेसी की  एमआईएम अर्थात -आल इण्डिया मजलिस-ए -इत्तेहादुल मुसलमीन  के  खाते में जमा होंगे तो भले ही उनके उम्मीदवार ४-६ ही जीतें किन्तु तब  मंडल वालों का जातीय मिजाज गड़बड़ा  जाएगा।

 भले ही एमआईएम को आधा दर्जन सीट भी न मिलें किन्तु  तब  भी वे पूरे बिहार की राजनीति के बहुसंख्यक  वर्ग को हिन्दुत्ववादियों के हवाले  तो कर  ही चुके होंगे। तब   बहुसंख्यक वर्ग का  यह ध्रवीकरण  भाजपा और एनडीए को स्पष्ट बहुमत से जिताने का एक  प्रमुख   कारण क्यों नहीं बनेगा ?  यदि कोई कोर कसर रह भी जाएगी  तो मोदी जी के  'मन की बातों' और   उनकी सवा लाख करोड़ की  बिहार -विकास योजनाएं अपना असर अवश्य  दिखाएंगी।  उनके  लोकलुभावन नारे भी तो  गुंजायमान हो रहे हैं। मोदी जी की हर आम सभा   बता रही है कि एनडीए की जीत  पक्की है। इसके अलावा यह भी सम्भावना है कि बिहार में लालू-नीतीश के समर्थक एक दूसरे से 'भीतरघात' अवश्य करेंगे । वैसे भी  कांग्रेस ,नीतीश ,लालू के केम्प में मुलायम सिंह  यादव ने असंतोष का  स्यापा पढ़ना शुरू कर दिया है।ये सभी सिम्टम्स बता रहे हैं कि बिहार में  'महागठबंधन'की तबियत  ठीक नहीं है।

                                      चूँकि भाजपाई नेता हर चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। कुछ तो सफ़ेद झूंठ भी बोलते हैं।  चूँकि उनकी आर्थिक नीतियाँ  पूंजीवाद परस्त हैं। अतः यह बहुत संभव था कि  दिल्ली राज्य में जिस तरह 'आप' के केजरीवाल को सफलता मिली, वैसीसफलता  बिहार में  नीतीश -लालू को  मिलती और वे  सुर्खरू हो जाते। किन्तु  जीतनराम,और पासवान जैसे जातीवादी नेताओं ने ,लालू के महाबदनाम व्यक्तित्व को  और कांग्रेस की अत्यंत  खस्ताहालत को -उनके महागठबंधन की महा पराजय के लिए  सुनिश्चित  कर दिया है। अब यह तय हो चुका है  कि  बिहार में भाजपा का नेता ही मुख्यमंत्री बनेगा। भले ही भाजपा  के नेता अपने घोषित एजेंडे को ' जुमलों' में बदलने  से बदनाम  हो गये हों । भले ही वे 'सबका साथ सबका विकास ' केवल  राम लला ' के भरोसे छोड़ते रहें। किन्तु यह तय है कि  बिहार की विखडित मानसिकता पर नरेंद्र  मोदी  का जादू तो  चल चुका   है। और उनकी पकड़ मजबूत होती जा रही है। नीतीश ,लालू , कांग्रेस  और सभी गैर भाजपाई मोर्चे बिहार में केवल   हारी हुई पारी खेलने की ओपचारिकता निभा रहे हैं। वैसे भी कांग्रेस ने ४० साल  ,लालू  के राजद ने १५ साल और नीतीश  के जदयू ने १० साल बिहार पर शासन  कर लिया है। अब केवल वामपंथ और भाजपा ही शेष बचे हैं। जिन्हे अभी तक मौका नहीं मिला है । चूँकि इस्लामिक  आतंकियों ने भारत के हिन्दुओं को गहरी चोट पहुंचाई है ,इसलिए अभी तो वे 'संघम शरणम गच्छामि' हो रहे हैं।

भारत में  ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में इन दिनों आम आदमी ,गरीब जनता के बुरे दिन चल रहे हैं।  शीत युध्द की समाप्ति के बाद दुनिया सिर्फ एक ध्रुवीय हो गयी है । पहले अमेरिका और सोविएत संघ  दो ध्रुव थे। दोनों महा शक्तियों के नेतत्व में दुनिया दो खमों में बटी हुयी थी । सोवियत  संघ  को परास्त करने के लिए अमरीका ने  जिन इस्लामिक आतंकियों को अफ़ग़निस्ताना , ईराक,पाकिस्तान,सऊदी अरब और  मध्यपूर्व में पाला  था  वे सभी  अब अमेरिका के लिए 'भस्मासुर' बन गए हैं। सोवियत पराभव के बाद पूँजीबाद  बनाम समाजवाद के स्थान पर इस्लामिक जेहाद बनाम अमेरिका हो गया।  सभ्यताओं के इस संघर्ष  का असर भारत पर भी पड़ा है।  भारत के हिन्दू-मुस्लिम -मजदूर -किसान एकजुट होकर क्रांति के सपने देखते रह गए और उन्हें पता ही नहीं चला कि  इस्लामिक जेहाद के बहाने बहुसंख्यक हिंदुत्वाद को भी राजनीति  में सफलता मिल गयी। अब  भारत में गऱीबों की लड़ाई या पूंजीवाद बनाम समाजवाद की लड़ाई  थम गयी है। अब ओवेसी,बनाम मोदी ,इस्लामिक अल्पसंख्यकवाद बनाम हिन्दू बहुसंख्यकवाद का राजनैतिक प्रहसन जारी है।  इन हालत में जबकि बहुसंख्यक हिन्दुतवाद के साथ उग्र पूँजीवाद  का भी गठजोड़ है तो स्पष्ट है कि  बिहार में ही नहीं  बल्कि अन्य राज्यों में भी आइन्दा एनडीए को ही सफलता मिलने वाली है।

  जिन आतंकियों ने दुनिया भर में जेहाद छेड़  रखा है ,जो  पेट्रोल के लिए अरब देशों पर अपनी दादागिरी दिखा रहे हैं ,वे इस्लाम के किसी जेहाद का काम नहीं कर रहे बल्कि वे जाने -अनजाने सम्राज्य्वाद  और पूँजीवाद का ही भला कर रहे  हैं।  दुनिया भर में सूचना संचर क्रांति के विस्तार और पाकिस्तान की बदनीयत ने भारत के हिन्दुओं को कटटरवाद की ओर  धकेल दिया है। इसलिए कुछ मुठ्ठी  भर संगठित क्षेत्र के लोग ही अब संघर्ष के मैदान में   शेष बचे हैं। इसलिए  न  केवल बिहार में  ,न  केवल  भारत में बल्कि पूरी दुनिया में ही अभी वामपंथ के दिन अच्छे नहीं हैं । पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों की असफलताओं ,वामपंथ की वैकल्पिक नीतियों का जनता तक नहीं पहुँच पाना तथा  इस्लामिक आतंकवाद की  अंतर्राष्टीय घटनाओं ने भी  भारत  के अधिकांस हिन्दुओं को  जबरन 'संघम शरणम गच्छामि' बना दिया है। अधिकांस एनआरआई को तो मोदीजी  का मुरीद बना दिया है। इसलिए  बिहार में अबकी बार -मोदी सरकार  ही बनेगी । बहुत संभव है कि सुशील मोदी  ही बिहार के  मुख्य मंत्री बन जाएँ। वैसे कुछ लोग शाहनवाज हुसेन  को भी पसंद करते हैं।  इसके अलावा पासवान ,माझी और अन्य भी कतार में हैं। ये सभी  नीतीश , लालू से कुछ कमतर नहीं  हैं।  चूँकि कोई भी दूध का धुला नहीं है ,इसलिए मुख्यमंत्री कोई भी बने  लेकिन यह तय है कि बनेगा वही जो 'मंजूरे -मोदी' होगा।

हालाँकि  मैं तो  भाजपा और संघ का विरोधी हूँ। और चाहता हूँ कि  वामपंथ  ही देश में और बिहार में शासन करे। किन्तु अभी बिहार और सम्पूर्ण भारत को वामपंथ या सर्वहारा वर्ग के  लिए बहुत संघर्ष करना होगा। अभी देश का  कार्पोरेट सेक्टर ,बुर्जुवा वर्ग ,भारतीय एनआरआई एकजुट होकर 'नमो-नमो' में मस्त है। अभी तो मोदी जी के अच्छे दिन चल रहे हैं।  अभी तो भारत का मध्यमवर्ग ,पूंजीपतिवर्ग और असंगठित सर्वहारा वर्ग भी  'आर एस एस' के गीत गए  रहे हैं। सभी मोदी जी के तरफदार  हो रहे हैं।  अभी जमाना मेहनतकशों का नहीं है। अभी तो बारी उनकी है जिनको राजनीति के प्रारब्ध ने -धर्म और बाजार के लिए  पाला पोषा है।

                              श्रीराम  तिवारी

 

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