रविवार, 13 सितंबर 2015

कुछ लोग अपनी आजीविका के लिए ही हिंदी की चिंदी करते रहते हैं ।


 विगत १० से १२ सितमबर को भोपाल में सम्पन्न  'विश्व हिंदी सम्मेलन ' में हिंदी भाषा विमर्श पर भाषायी   प्राथमिकताओं के बरक्स तो  कोई चर्चा नहीं हुई।किन्तु  सत्तापक्ष के नेताओं और 'असोसिएट्स' के वीर रस से ओत -प्रोत हिंदी उदगार जरूर मुखरित हुए।  कुछ ने हिंदी  भाषा को तकनीकी ज्ञान से जोड़ने और कुछ ने हिंदी  माध्यम को 'राष्ट्रीय स्वाभिमान ,एकता अखंडता के लिए संजीवनी  मान लेने का पुराना  अरण्य रोदन  फिर दुहराया। जब जड़मति -हिंदी  विद्वानों ने सम्मेलन  का जिम्मा नेताओं को सौंप  दिया  तो साहित्य और भाषा दोनों की भी वही दुर्गति सुनिश्चित है, जो इन नेताओं ने भारतीय राजनीति की कर डाली है।

                     हिंदी में पढ़ने -लिखने वाले , हिंदी को राष्ट्रीय गौरव और एकता का प्रतीक  मानने वाले,हिंदी के वक्ता-श्रोता  - ज्ञाननिधि और  हिंदी के शुभ -चिंतक,  सरकारी और गैर सरकारी तौर पर हर साल हिंदी पखवाड़ा या हिंदी दिवस मनाते वक्त बार-बार यही रोना  रोते रहते हैं।  सभी हिंदी के शुभचिंतक कहा करते हैं कि हिंदी को देश और दुनिया में उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। आम  तौर पर  उनको  यह  शिकायत  भी हुआ करती है कि हिंदी में सृजित ,प्रकशित या छपा हुआ साहित्य खरीदकर पढ़ने वालों  की तादाद  में तेजी से कम हो  रही है। वे आसमान की ओर देखकर  पता नहीं किस से सवाल किया  करते  हैं कि- हिंदी -जो कि सारे विश्व में दूसरे नम्बर पर  बोली जाने वाली  विराट और वैश्विक भाषा है - इसके वावजूद हम उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा सूची में  अभी तक शामिल  नहीं करा पाये!
                                   विगत शताब्दी के अंतिम दशक में  सोवियत  क्रांति पराभव उपरान्त दुनिया के एक ध्रवीय[अमेरिकन ] हो जाने  से  भारत सहित सभी पूर्ववर्ती  गुलाम राष्ट्रों  को  मजबूरी में न केवल अपनी आर्थिक नीतियां बदलनी पड़ीं ,न केवल नव्य -उदारवादी वैश्वीकरण की -खुलेपन की  नीतियां अपनानी पड़ीं बल्कि देश में प्रगतिशील आंदोलन और तदनुसार सामाजिक -सांस्कृतिक और साहित्यिक चिन्तन पर भी नव्य -उदारवाद की जबरदस्त छाप  पडी। नए जमाने के उन्नत आधुनिक तकनीकी संसाधनों  को आयात करते समय  भाषाएँ विमर्श के केंद्र में नहीं थीं। किन्तु भूमंडलीकरण ,आधुनिकीकरण ,बाजारीकरण  के लिए जिन-जिन  चीजों   की महत्वपूर्ण  भूमिका थी ,उनमें भाषा का रोल अहम था। भारतीय बहुभाषावाद ने अंग्रेजी को इस डिजिटलाइजेशन का ,सूचना -संचार माध्यमों का अग्रगामी बना दिया।  इस विमर्श में हिंदी  भाषा और उसके साहित्य  का बहुत कम  प्रभाव  परिलक्षित हुआ ।

जीवन संसाधनों में क्रांतिकारी परिवर्तनों ने, न केवल भारत ,न केवल हिंदी जगत बल्कि विश्व की अधिकांस नामचीन्ह भाषाओँ-उनके साहित्य -उनके पाठकों को घेर-घार कर कंप्यूटर रुपी  उन्नत तकनीकी  रुपी  जादुई डिब्बे   के सम्मुख  सम्मोहित  सा  कर दिया है । प्रिंट ही नहीं श्रव्य साधन भी अब कालातीत होने लगे हैं। अब तो केवल स्पर्श और आँखों के इशारों से  भी सब कुछ वैश्विक स्तर पर - मनो-मष्तिष्क तक पहुंचाने वाले  - सूचना संचार  सिस्टमईजाद हो चुके हैं। इतने सुगम और तात्कालिक संसाधनों  के  होते हुए अब  किस को फुरसत है कि कोई बृहद ग्रन्थ या  पुस्तक पढ़ने का दुस्साहस करे ? फिर चाहे वो गीता ,रामायण  कुरआन या बाइबिल  ही क्यों न हों ? चाहे वो हिंदी,इंग्लिश  की हो या संस्कृत की ही क्यों न हो ?चाहे वो सरलतम सर्वसुगम हिंदी में हो या किसी अन्य भाषा में आज किसको फुर्सत  है  कि  अधुनातन संचार साधन छोड़कर किताब  पढ़ने बैठे ? फिर भी सूचना सम्पर्क के लिए भाषायी  विमर्श  हमेशा प्रासंगिक रहा।

रोजमर्रा  की भागम-भाग और तेज रफ़्तार वाली  वर्तमान   तनावग्रस्त  दूषित जीवन शैली  में बहुत कम सौभागयशाली हैं- जो बंकिमचंद की 'आनंदमठ ' शरतचंद की 'साहब बीबी और गुलाम ' , रांगेय राघव की 'राई  और पर्वत', श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' , मेक्सिम  गोर्की  की  'माँ  ', प्रेमचंद की 'गोदान', निकोलाई आश्त्रोवस्की   की 'अग्नि दीक्षा' , रवींद्र नाथ टेगोर की 'गोरा' , महात्मा गांधी की 'मेरे सत्य के प्रति प्रयोग ', पंडित जवाहरलाल नेहरू की 'भारत एक खोज'  तथा  डॉ बाबा साहिब आंबेडकर की 'बुद्ध और उनका धम्म' पढ़ने सके  !  जबकि ये सभी कालातीत पुस्तकें आज भी भारत की  हर लाइब्रेरी में  उपलब्ध हैं।  इन सभी महापुरुषों की कालजयी रचनाएँ -खास  तौर से   हिंदी में  भी   बहुतायत  से  उपलब्ध हैं। अधिकांस आधुनिक युवाओं को तो इन पुस्तकों के नाम भी याद नहीं , कदाचित  वे   विजयदान  देथा  , सलमान रश्दी ,खुशवंतसिंघ ,राजेन्द्र यादव या अरुंधति रे को भले ही  जानते होंगे। किन्तु उन्होंने चेतन भगत या प्रवीण तिवारी को शायद ही  पढ़ा सूना होगा।  यदि जानते भी होंगे तो इसलिए नहीं कि इन लेखकों  का साहित्य   बहुत उच्चकोटि का है ,बल्कि इसलिए जानते  होंगे  कि ये लेखक कभी -न कभी गूगल सर्च,फेसबुक या ट्विटर पर भी अपनी पकड़ बनाये हुए हैं।
  यह सर्वमान्य सत्य है कि  गूगल या अन्य माध्यम से आप अधकचरी  सूचनाएँ तो  पा  सकते हैं, किन्तु ज्ञान तो अच्छी पुस्तकों से ही पाया जा  सकता है।आज के आधुनिक युवाओं  को पाठ्यक्रम से बाहर की  पुस्तकें पढ़ पाना  इस दौर में किसी तेरहवें  अजूबे से कम नहीं है।  उन्हें लगता है कि साहित्य  ,विचारधाराएं ,दर्शन  या  कविता -कहानी का  दौर अब नहीं रहा। उनके लिए तो समूचा प्रिंट माध्यम  ही अब  गुजरे  जमाने की चीज हो गया है। यह कटु  सत्य है कि चंद रिटायर्ड -टायर्ड और पेंसनशुदा - फुरसतियों के दम पर  ही अब सारा छपित साहित्य  टिका हुआ है।  ऐंसा प्रतीत होता है कि अब  हिंदी  का पाठक भी इन्ही में कहीं समाया हुआ है। भाषा  - साहित्य के इस युगीन धत्ताविधान  में यह पीढ़ीयों  के बीच मूल्यों का भी  क्षेपक है।  जो कमोवेश राजनैतिक इच्छाशक्ति से भी  इरादतन स्थापित है। इस संदर्भ में यह  वैश्विक  स्थिति है। भारत में और खास तौर  से हिंदी जगत में यह बेहद चिंतनीय अवश्था में है।

दुनिया में शायद ही कोई मुल्क होगा जो अपनी राष्ट्र भाषा को उचित सम्मान दिलाने या उसे राष्ट्र भाषा के रूप में व्यवहृत करने के लिए इतना मजबूर या  अभिशप्त होगा  ,जितना कि  हिंदी  के लिए भारत  असहाय है ! भारत के अलावा  शायद ही   कोई  और राष्ट्र होगा जो अपनी राष्ट्रभाषा के उत्थान के लिए इतना पैसा पानी की तरह  बहाता  होगा।  भारत में लाखों राजभाषा अधिकारी हैं ,जो राज्य सरकारों के ,केंद्र सरकार  के  विभागों  में  सार्वजनिक उपक्रमों में  अंगद के पाँव की तरह जमे हुए हैं। इनसे राजभाषा को या देश को एक धेले  का सहयोग नहीं है। ये केवल दफ्तर में  बैठे -बैठे  भारी -भरकम वेतन-भत्ते पाते हैं ,कभी-कभार एक -आध अंग्रेजी सर्कुलर   का घटिया हिंदी अनुवाद करके खुद ही धन्य हो जाते  हैं। साल भर में एक बार सितंबर  माह में 'हिंदी पखवाड़ा 'या 'हिंदी सप्ताह' मनाते हैं। अपने बॉस को पुष्प गुच्छ भेंट करते हैं ,कुछ ऊपरी  खर्चा -पानी भी हासिल कर लेते हैं। रिटायरमेंट के बाद पेंसन इनका जन्म सिद्ध अधिकार है ही।  स्कूल ,कालेज ,विश्विद्द्यालयों के हिंदी शिक्षक  - प्रोफेसर और  कुछ  नामजद एनजीओ भी राष्ट्र भाषा -प्रचार -प्रसार के बहाने  कुछ लोग  अपनी आजीविका  के  लिए ही हिंदी की चिंदी करते रहते  हैं ।  हिंदी को देश में उचित सम्मान दिलाने या उसे संयुक राष्ट्र में सूची बद्ध कराने के किसी आंदोलन में उनकी कोई सार्थक भूमिका  नहीं होती । अपनी खुद की पुस्तकों के प्रकाशन में -  सरकारी पैसा याने जनता के पसीने की कमाई उड़ाने में  ही इनकी ज्यादा रूचि हुआ करती है ।

         वेशक   सोशल मीडिया -डिजिटल -साइबर -संचार क्रांति -फेस बुक और गूगल सर्च इंजन ने यह  दुनिया   बहुत छोटी  बना दी है। किन्तु इस  सूचना -संचार क्रांति ने  प्रिंट संसाधनों को -साहित्यिक विमर्श को  हासिये पर धकेल दिया है। छपी हुई  पुस्तक पढ़ना  तो अब भी गुजरे जमाने का ' सामंती' शगल  हो चुका  है। अब यदि  एसएमएस है तो टेलीग्राम  भेजने की जिद  तो केवल पुरातन यादगारों का व्यामोह मात्र  ही  है   ! एसएमएस भी अब पुराना चलन हो चूका है ,वॉट्सऐप ,ट्विटर और एफबी पर तत्काल सूचना भेजो और फिर एक नयी  जी - ६ तकनीकी का स्वागत  करो।  इस उत्तरआधुनिक  दुनिया  में जो भी है ,जिसका भी है,जहाँ भी है ,सब कुछ अब सभी को सहज ही उपलब्ध है।  शर्त केवल यह  है कि एक अदद  सर्विस प्रोवाइडर ,एक  सेलफोन कनेक्शन  , एक लेपटाप या एंड्रायड या ३-जी मोबाइल अवश्य  होना चाहिए। दूसरी ओर  किताब छपने ,उसके लिखने के   लिए   महीनों  की मशक्कत ,सर खपाने की फितरत और प्रकाशन की मशक्क़त  जरुरी है ! यदि कोई  नया   साहित्य्कार -लेखक  प्रकाशक नहीं मिलने की सूरत में  अपनी जेब ढीली करने के बाद पुस्तक को आकार  दे भी दे तो भी वह जनता से कैसे जुड़ पायेगा ? यदि  उसे  खरीददार नहीं मिल रहे हैं तो  मुफ्त में या गिफ्ट में देने की मशक्क़त और इस  दयनीय दुर्दशा के लिए क्या  लेखक  जिम्मेदार  है ?  यह पाठकों या क्रेताओं  का अक्षम्य अपराध भी नहीं   है।

यह  तो  हिंदी भाषा का  संकट है। न कि  साहित्यिक संकट है !  ये तो  आधुनिक युग की  नए ज़माने की  ऐतिहासिक आवश्यकता और कारुणिक सच्चाई है।  चूँकि समस्त वैज्ञानिक आविष्कारों और  सूचना एवं संचार क्रांति का उद्भव गैर हिंदी भाषी  देशों में हुआ है तथा   हिंदी  में अभी इन उपदानों के संसधानों  का सही  - निर्णायक मॉडल उपलब्ध नहीं है, इसलिएअभी तो फिर भी  किताबें  प्रासंगिक  बनी  हुई हैं। लेकिन हिंदी का प्रचार  - प्रसार ,हिंदी साहित्य  में विचारधारात्मक लेखन ,हिंदी सम्मेलनों की धूम-धाम  ,पत्र  - पत्रिकाओं के प्रकाशनों का दौर जारी  है। हिंदी इस देश के आम आदमी की भाषा है। हिंदी 'स्लैम डॉग  मिलयेनर्स ' जैसी फिल्मों के मार्फ़त पैसा कमाने की भाषा है। हिंदी गरीबों -मजदूरों और शोषित-पीड़ित जनों की भाषा है।  हिंदी  हिन्दुस्तान के सर्वहारा वर्ग की भाषा  है। लेकिन  हिंदी में अब इन वंचित वर्गों और सर्वहाराओं  की उनकी मांग के अनुकूल नहीं   लिखा जा रहा है।  बल्कि बाजार की ताकतों के अनुकूल,मलाईदार क्रीमी लेयर के अनुकूल महज तकनीकी,उबाऊ  और कामकाजी साहित्य का  ज्यादा सृजन- प्रकाशन  हो रहा है । इसीलिये हिंदी जगत में वांछित पाठकों की संख्या न  केवल तेजी से गिरी है अपितु  शौकिया किस्म के फ़ालतू लोगों  तक  ही सीमित रह गई है।
        आजादी के बाद संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ततसम  शब्दावली के चलन पर जोर देने ,अन्य भारतीय  भाषाओँ के  आवश्यक और वांछित शब्दों से परहेज करने , अनुवाद  की काम चलाऊ  मशीनी आदत से चिपके रहने , रेल को तीव्रगति लौह पथगामिनी और सिगरेट को धूम्रवलय श्वेत दण्डिका जैसे अनुवाद ने अधुनातन सूचना एवं संचार क्रांति के साधनों के प्रयोग पर हिंदी  भाषी जनता  के साथ अन्याय किया है। दूसरी ओर अंग्रेजी भाषा के     वैज्ञानिक संशाधन सर्व सुलभ होने से वह वैश्विक महारानी बनी  हुई है। हिंदी भाषा के फॉन्ट ,अप्लिकेशन  तथा वर्णों  का तकनीकी  अनुप्रयोग   सहज ही उपलब्ध न होने या कठिन होने  से  न केवल छप्य पाठकों की संख्या  घटी है  बल्कि हिंदी में लिखने वालों का सम्मान और  स्तर  भी घटा है । न केवल तकनीकी कठनाइयों  हिंदी में मुँह  बाए खड़ी हैं  बल्कि  आधुनिक युवाओं को आजीविका के संसाधन और अवसर  भी  हिंदी में उतने  सहज   नहीं रहे।  जितने आंग्ल भाषा में उपलब्ध हैं। इसीलिये  भारत  में ही नहीं विश्व में भी हिंदी के पाठक कम होते जा रहे हैं। हालाँकि  हिंदी बोलने वाले और समझने वाले बढ़ रहे हैं।  देश में हिंदी को सरल बोधगम्य आजीविका-  परक  और जन-भाषा  के रूप में प्रतिष्ठित किये जाने की  राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव  में और हिंदी की  वैश्विक  मार्केटिंग नहीं हो पाने से राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर , मेगा -साय-साय या बुकर पुरस्कार भी उन्हें  ही  मिला करते हैं  जो हिंदी को हेय  दृष्टि  से देखते  रहे हैं। अंततोगत्वा फिर भी हिंदी ही देश  की राजरानी  और पहचान भाषा  बनी रहेगी । चाहे वालीवुड हो ,चाहे  खुदरा व्यापार हो ,चाहे बाबाओं-स्वामियों का भक्ति वाद हो  ,चाहे कुम्भ मेला हो , चाहे कोई साधना  का  केंद्र हो  ,चाहे रामदेव हों ,नरेंद्र मोदी हों ,राहुल गांधी -मुलायम  हों ,केजरीवाल -अण्णा  हजारे हों ,लालू,नीतीश या वामपंथी हों ,चाहे मुख्य धारा का मीडिया हो  ,इनमें से वही सफल  हुआ है ,जो हिंदी ठीक से बोल सकता है। अधिकांस  पूँजीपतियों ने  भी हिंदी के  माध्यम से ही बाजार में   सफलताएं  अर्जित कीं हैं। इन सभी के प्राण पखेरू हिंदी में  ही  वसते  हैं।  इसलिए यह कोई  खास  विषय नहीं की हिंदी साहित्य  के  पाठकों की संख्या घट  रही है या बढ़ रही है।
                                  वास्तव में हिंदी जगत में कहानी,कविता ,भक्ति काव्य  ,रीतिकाव्य  ,सौन्दर्यकाव्य   , रस सिंगार ,अश्लीलता  के नए -नए अवतार फ़िल्मी साहित्य और कला  का  तो  बोलबाला   है।  कहीं -कहीं जनवादी - राष्ट्रवादी -प्रगतिशील और जनोन्मुखी साहित्यिक सृजन  की  अनुगूंज भी सुनाई   देती है। किन्तु  समष्टिगत रूप में तात्कालिक दौर  की   समस्याओं  और जीवन मूल्यों  के  वौद्धिक विमर्श पर हिंदी समाज  में  सुई पटक  सन्नाटा ही है।  इस साहित्यिक  सूखे में  जिज्ञासु या ज्ञान-पिपासु  पाठकों  की कमी होना स्वाभाविक है। मांग और पूर्ती का सिद्धांत केवल अर्थशाश्त्र का विषय नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में भी  यह सिद्धांत सर्वकालिक  , सार्वभौमिक और समीचीन है।
                       लेखकों और जनता के बीच संवादहीनता का दौर है ,अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर देश और समाज की वास्तविक आकांक्षाओं के  अनुरूप  क्रांतिकारी  साहित्य अर्थात व्यवस्था परिवर्तन के निमित्त रेडिकल - सृजन  शायद आवाम की या सुधी पाठकों की माँग  भले ही न   हो। किन्तु देश और कौम के  लिए यह साहित्यिक कड़वी दवा नितांत आवश्यक है।   हिंदी के पाठकों की संख्या  बढे ,हिंदी में प्रतियोगी परीक्षाएं हों, हिंदी में कानूनी कामकाज हो ,हिंदी में साइंस और टेक्नॉलॉजी  सुगम-सरल साहित्य हो ,इस बाबत थोड़ी सी   जिम्मेदारी  यदि  साहित्य्कारों की है तो कुछ थोड़ी सी हिंदी के जानकारों याने -सुधी पाठकों की भी है।
                                            
       
            राष्ट्रभाषा -हिंदी  दिवस पर अनन्य शुभकामनाओं के साथ ,

  
               क्रांतिकारी   अभिवादन सहित ,

                    श्रीराम तिवारी  

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