भारत के ह्रदय प्रदेश -मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित दशवें विश्व हिंदी सम्मेलन' के शुभ अवसर पर 'भाइयो-बहिनों' की खूब चहल-पहल और धूम-धाम रही। इसके उद्धघाटन सत्र में ही सुधी जनों को पता चल गया कि आयोजकों की मंशा क्या है ? इस सम्मेलन में मोदी जी हैं ,शिवराज जी हैं और उनके अनेक गैर साहित्यिक भक्तगण भी हैं। यहाँ भाषा विमर्श और हिंदी साहित्य का तो अत-पता नहीं किन्तु इतना पक्का है कि साहित्यिक सरोकार पूरी तरह नदारद है। सभागार के बाहर जब किसी पत्रकार ने एक परिचित छुटभइये नेता से पूँछा कि इस साहित्यिक सम्मेलन में आप क्या कर रहे हैं ? तो उस 'पठ्ठे 'ने बहुत बढ़िया जबाब दिया - 'हम सम्मेलन में भाषा ही सीखने तो आये हैं'। इस जबाब से पत्रकार भले ही भौंचक्का रह गया हो किन्तु उस भाजपाई कार्यकर्ता ने बात बड़े पते की कही है। चूँकि सत्ता में आने के बाद कुछ भाजपाई नेताओं, सांसदों और साध्वियों की 'भाषा' वास्तव में देश के हित नहीं है। शायद इसीलिये इस सम्मेलन में छाँट -छाँटकर 'अपने वालों' को ही बुलाया गया है। बेहतर होता कि गिरिराज किशोरजी ,आदित्यनाथ जी ,तोगड़िया जी और साध्वी जी को भी बुलाया जाता तो उनकी भाषा का भी कुछ तो परिष्करण हो जाता !
दस सितंबर के रोज जिस वक्त देश और दुनिया के हिंदी जानमकार भोपाल सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में प्रधान मंत्री श्री मोदी जी के ज्ञानामृत से हिंदी भाषा का रसास्वादन कर रहे थे। ठीक उसी वक्त महू मिलटरी के 'वीर' जवान इंदौर के एक पुलिस थाने को ध्वस्त कर रहे थे। खैर ये तो एक अलग विमर्श का विषय है कि सेना याने मिलटरी वाले पुलिस वालों की धुनाई क्यों कर रहे थे? जिन्हे देश के दुश्मनों से लड़ने के लिए जनता के पसीने की कमाई से वेतन-भत्ते मिलते हैं , वे सीमाओं पर दुश्मन राष्ट्र को धूल चटाने के बजाय अपने ही घर में शेर क्यों हो रहे हैं !किन्तु इस घटना से यह ध्यानाकर्षण जरुरी है कि जो देश की सत्ता में हों उन नेताओं को देश चलाना भी आना चाहिए। केवल मीठी -मीठी बातों से ,जुमलेबाजी से या बहुमत से चुनाव जीत लेने से कोई बेहतरीन शासक नहीं हो जाता। यदि इंदौर ,भोपाल,दिल्ली सब जगह एक ही पार्टी का राज है तो यह घोर अराजकता और हा -हाकार क्यों मचा हुआ है ? जब नगर,प्रदेश और देश पर संघ परिवार वालों का ही राज है । तो उन्हें इस दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भारतेंदु हरिश्चंद की कोई वेदना याद है ? यदि वे हिंदी के विद्वान - साहित्यकार हैं तो ,तो क्या वे जानते हैं कि भारतेंदु जी ने जो क्या कहा था ? यदि नहीं जानते तो नोट करें - "हा ! हा ! भारत दुर्दशा देखीं न जाए !"
वेशक यह सम्मेलन पूरी तरह से छुद्र राजनैतिक स्वार्थ -पूर्ति की भेंट ही चढ़ गया है । इस सम्मेलन का नेतत्व किसी स्वनामधन्य मूर्धन्य साहित्यकार ने नहीं बल्कि मध्यप्रदेश के 'महा हिंदी प्रेमी' मुख्य मंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने किया है । भारत के प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी ने हिंदी में भाषण देकर सम्मेलन का उद्घाटन किया। देश के अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों और खास तौर से मध्य प्रदेश के भाजपा कार्यकर्ताओं ने हिंदी के बहाने अपने नेताओं और सरकारों पर लग रहे भृष्टाचार के आरोपों और सरकार की घोर असफलताओं को छिपाने के लिए इस वैश्विक सम्मेलन का भरपूर इस्तेमाल किया है। हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय गौरव मिले यह कौन हिन्दीभाषी नहीं चाहता ? किन्तु जिस तरह से इस सम्मेलन में एक खास रंग और विचार को ही महत्व दिया गया, वह संदेहास्पद है। साधनों की अ -शुचिता और 'साध्य' के रूप आकार पर राजनीति का आवरण चढ़ाना - कोई भाषा या साहित्य का विमर्श नहीं हो सकता।
"हिंदी जगत : विस्तार एवं सम्भावनाएं " नामक इस 'दशवें विश्व हिंदी सम्मेलन' को इतनी बुरी तरह से व्यक्तिनिष्ठ और राजनैतिक कर दिया गया है कि हिंदी भाषा और उसका साहित्य तो इसमें सिरे से ही नदारद है। जनवादी -लोक साहित्य या आधुनिक साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के विमर्श पर बातें तो सब करते हैं ,किन्तु उसकी उपलब्धता की दूर -दूर तक का कहीं कोई चर्चा भी नहीं कर रहा ! न्यू कार्पोरेट इण्डिया , डिजिटल- इण्डिया ,'मेक इन इण्डिया ' मेड इन इण्डिया ' और ग्लोबल इण्डिया की खूब चर्चा है, किन्तु हिन्दी भाषी कमजोर वर्ग के युवाओं का मार्ग दर्शन करने वाला ,उन्हें रोजगार दिलाने वाला जनोन्मुखी भाषा - साहित्यि का विमर्श ही इस सम्मेलन में नदारद है। हिंदी साहित्य के तमाम बहुश्रुत , बहुपठित मूर्धन्य साहित्यकारों को आमंत्रित किया गया ,यह कोई बेजा बात नहीं ! यह तो सत्ता का स्वभाव है। किन्तु इसमें शिक्षाविदों,व्याकरणवेत्ताओं और भाषा विज्ञानियों को नहीं बुलाया जाना आश्चर्यजनक है।
केवल भाजपा और संघ के ही "खड़ाऊँ -उठाउओं ''और कागजी ढपोरशंखियों को ही भोपाल के 'लाल परेड मैदान' में 'भेला 'किया गया। देश - विदेश से जो वास्तविक हिन्दी प्रेमी इस सम्मेलन में शामिल हुए उनकी मंशा भले ही 'हिंदी-उत्थान' के ही अनुरूप रही हो । किन्तु इस सम्मेलन की सफलता इस अर्थ में तो अवश्य ही बेजोड़ है कि शिवराज जी पर मंडरा रहां व्यापम संकट ,डीमेंट संकट और मध्यप्रदेश में व्यपाप्त जन आक्रोश का संकट कुछ देर के लिए तो अवश्य टल गया लगता है। महँगी दालें ,महँगी प्याज तो साहित्य के एरिना में वैसे भी त्याज्य है। क्योंकि 'कला -कला के लिए ' और साहित्य -साहित्य के लिए ' मानने वाले जब जाजम पर मौजूद होंगे तो वे गरीबी -बेकारी को भाषा और साहित्य के विमर्श में जोड़ने के तरफदार कैसे हो सकते हैं ? शायद इसीलिये प्रदेश के किसानों मजदूरों वनवासियों की भाषायी बर्बादी पर इस दसवें विश्व हिन्दी सम्मेंलन में 'सुई पटक सन्नाटा छाया रहा ।
"जिस भजन में राम का नाम न हो उस भजन को गाना न चहिये "
यह किसी प्रगतिशील या क्रांतिकारी कवि के बोल-बचन नहीं हैं। बल्कि किसी भक्त कवि ने ही यह साहित्यिक काव्यात्मक निषेध व्यक्त किया है। यदि कोई भाषा और उसका साहित्य जनता के दुःख दर्द पर मौन है यदि शोषण उत्पीड़न के खिलाफ कोई शब्द ही इन सम्मेलन आयोजकों के पास पास नहीं है तो काहे का सम्मेलन और काहे की भाषा और काहे का साहित्य ? साहित्य समाज का दर्पण हो या न हो किन्तु अभिव्यक्ति की आजादी के लिए ,भाषा के विकास के लिए - शासकों का लोकतांत्रिक आचरण जरुरी है ! भाषा विमर्श में सहमति और सहिष्णुता जरुरी है । इस तरह के प्रस्ताव यदि प्रस्तुत विश्व हिंदी सम्मेलन में पारित किए जाते तो कोई और बात होती।
हिंदी -हिन्दू - हिन्दुस्तान ,ये शब्द भले ही आज 'भारत' राष्ट्र की पहचान बन चुके हैं ,किन्तु भारतीयता और राष्ट्रवाद का ढपोरशंख बजाकर देश के बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं का दोहन कर,सत्ता हस्तगत करने वाले वर्तमान तथाकथित 'हिन्दी प्रेमी शासकों' को स्मरण रखना चाहिए कि 'हिंदी -हिन्दू-हिन्दुस्तान ' जैसे शब्द तो यवन- अरबी-फारसी विद्वानों द्वारा ही गढ़े गए हैं। इन मुगलकालीन शब्दों का उदभव अन्य भारतीय भाषाओँ की तरह संस्कृत , पाली -प्राकृत इत्यादि भाषाओँ से नहीं हुआ है। ये संज्ञाएँ न तो संस्कृत भाषा के तत्सम् शब्द हैं ,न ही इनका जन्म द्रविड़ परिवार की भाषाओँ के धातुइ -विचक्षण से हुआ है। दरसल इन शब्दों के सृजन ,प्रचलन और लोकमान्यकरण की प्रक्रिया में उर्दू -फारसी लेखकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सिंध इण्ड , इण्डस ,हिन्द , हिन्दोस्ताँ ,हिंदवी से आगे वर्तमान 'हिन्दी ' तक की महायात्रा में सिर्फ विदेशी यायावरों की महती भूमिका रही है। इसलिए यह महा कृतघ्नता ही होगी कि जब इन शब्दों के विमर्श की बात हो तब उर्दू -फारसी के अवदान को और उस सचाई को भी नकार दिया जाए ,जिसे गंगा -जमुनी तहजीव कहते हैं।
वेशक संस्कृत वांग्मय ,पाली,प्राकृत ,द्रविण भाषा परिवार और अन्य भारतीय भाषाओँ की अपनी विशिष्ठ साहित्यिक -सांस्कृतिक समृद्धि दुनिया में वेमिशाल है। इन सभी का विस्तृत इतिहास और भूगोल है। आज जिस 'हिन्दी' भाषा ने भारत की तीन-चौथाई धरती पर अपना सिक्का जमा रखा है , वह आजादी के ६८ साल बाद भी देशी काले शासकों की क्रीत दासी मात्र है। गांधी जी ,टंडन जी , पंत जी और मदनमोहन मालवीय जैसे अनेक महामनाओं की बदौलत ,जिसे भारतीय संविधान में राजभाषा का दरजा तो प्राप्त है किन्तु आज भी वह देश के राज्यों में तीसरे-चौथे नंबर पर हेय दॄष्टि से देखी जाती है। राजभाषा के या हिंदी साहित्य के किसी भी नवीन -विमर्श में ,नूतन सरकारी आयोजन में ,अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के नाम पर सरकारी खजाना लूटा जाता है। जबकि हिन्दी की चिंदी ज्यों की त्यों बरक़रार रहती है। सरकारी दफ्तरों में,सार्वजनिक उपक्रमों में और विभिन्न सरकारी -अर्धसरकारी प्रतिष्ठानों में राजभाषा अधिकारी के नामपर जिन लोगों को नौकरी मिलती है ,जिनकी रोजी -रोटी चलती है वे हिंदी की चिंदी करने में सबसे आगे हैं। हिन्दी का प्रचार -प्रसार तो वे करने से रहे किन्तु खुद की दो-चार 'सस्ता-साहित्य' किस्म की दो चार किताबें छपवाकर ,दो -चार अपने बड़े साहब की बीबी की घटिया कवितायें छापकर , साल में एक बार हिन्दी सप्ताह ,या हिन्दी पखवाड़ा या हिन्दी की काव्य गोष्ठी आयोजित करवाकर वे हिंदी की सेवा करते हैं। खर्चों का बिल सरकारी खजाने के हवाले। रामजी की चिड़िया ,रामजी का खेत ,खाओ प्यारी चिड़िया भर-भर पेट। किसी भी हिंदी अधिकारी को एक लाख रुपया महीना से कम वेतन -भत्ते नहीं मिलते । कुछ तो विभाग में केवल पुस्तक पढ़ने या गप्प मारने के बाद भी बड़े नामचिन्ह हो जाते हैं। कुछ सेवा निवृत्ति उपरान्त हिंदी की दूकान खोलकर भी बैठ जाते हैं। उनसे यदि पूँछो कि उदभिज ,स्वेदज ,अण्डज और जरायुज इन चार हिंदी शब्दों का आपस में रिस्ता बताइये तो वे आएं-बाएं करने लगेंगे ! जबकि ये चारों शब्द भारतीय वांग्मय के मेरुदण्ड हैं। सम्मेलन में तो खास तौर से ' हिंदी-हिन्दू-हिंदुस्तान' वाली सोच -समझ के ही ग्यानी पहुंचे होंगे ! यदि वे कार्ल मार्क्स ,एंगेल्स ,हीगेल ,गैरी बाल्डी , रूसो , वाल्ट्येर या वड्सवर्थ को नहीं जानते हों तो कोई बात नहीं किन्तु उन्होंने महापंडित राहुल सांकृत्यायन या डॉ सर्व पल्ली राधाकृष्णन को या 'भारतीय दर्शन' को तो अवश्य ही पढ़ा होगा ! यदि वह भी नहीं पढ़ा तो आसाराम जैसे 'संत' को तो अवश्य ही सुना होगा। बस उसी अंदाज के हिंदी शब्दों को ही समझ बूझ लें तो बड़ी गनीमत और सम्मेलन सफल मान जाएगा।
यह सर्वज्ञात है कि किसी भी उत्तरआधुनिक विमर्श को,किसी भी प्रगतिशील विमर्श को , स्वाधीनता संग्राम के किसी भी विमर्श को पढ़िए उसमें जो भाषा -साहित्य है वही 'हिंदवी' ही भारत की असली राष्ट्रभाषा हो सकते है। और यह भाषा उर्दू-फ़ारसी शब्दों ,देशज शब्दों , जन संवेदी क्रांतिकारी आचरण से लवरेज है यदि इस पर कोई चर्चा नहीं की गयी तो फिर कहाँ पडेगा की -
उस भजन को गाना न चहिये ,जिस भजन में राम का नाम न हो ! अर्थात उस विमर्श में जाना न चईये जहाँ 'जनता की आवाज न सुनी जाती हो !
श्रीराम तिवारी
दस सितंबर के रोज जिस वक्त देश और दुनिया के हिंदी जानमकार भोपाल सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में प्रधान मंत्री श्री मोदी जी के ज्ञानामृत से हिंदी भाषा का रसास्वादन कर रहे थे। ठीक उसी वक्त महू मिलटरी के 'वीर' जवान इंदौर के एक पुलिस थाने को ध्वस्त कर रहे थे। खैर ये तो एक अलग विमर्श का विषय है कि सेना याने मिलटरी वाले पुलिस वालों की धुनाई क्यों कर रहे थे? जिन्हे देश के दुश्मनों से लड़ने के लिए जनता के पसीने की कमाई से वेतन-भत्ते मिलते हैं , वे सीमाओं पर दुश्मन राष्ट्र को धूल चटाने के बजाय अपने ही घर में शेर क्यों हो रहे हैं !किन्तु इस घटना से यह ध्यानाकर्षण जरुरी है कि जो देश की सत्ता में हों उन नेताओं को देश चलाना भी आना चाहिए। केवल मीठी -मीठी बातों से ,जुमलेबाजी से या बहुमत से चुनाव जीत लेने से कोई बेहतरीन शासक नहीं हो जाता। यदि इंदौर ,भोपाल,दिल्ली सब जगह एक ही पार्टी का राज है तो यह घोर अराजकता और हा -हाकार क्यों मचा हुआ है ? जब नगर,प्रदेश और देश पर संघ परिवार वालों का ही राज है । तो उन्हें इस दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भारतेंदु हरिश्चंद की कोई वेदना याद है ? यदि वे हिंदी के विद्वान - साहित्यकार हैं तो ,तो क्या वे जानते हैं कि भारतेंदु जी ने जो क्या कहा था ? यदि नहीं जानते तो नोट करें - "हा ! हा ! भारत दुर्दशा देखीं न जाए !"
वेशक यह सम्मेलन पूरी तरह से छुद्र राजनैतिक स्वार्थ -पूर्ति की भेंट ही चढ़ गया है । इस सम्मेलन का नेतत्व किसी स्वनामधन्य मूर्धन्य साहित्यकार ने नहीं बल्कि मध्यप्रदेश के 'महा हिंदी प्रेमी' मुख्य मंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने किया है । भारत के प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी ने हिंदी में भाषण देकर सम्मेलन का उद्घाटन किया। देश के अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों और खास तौर से मध्य प्रदेश के भाजपा कार्यकर्ताओं ने हिंदी के बहाने अपने नेताओं और सरकारों पर लग रहे भृष्टाचार के आरोपों और सरकार की घोर असफलताओं को छिपाने के लिए इस वैश्विक सम्मेलन का भरपूर इस्तेमाल किया है। हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय गौरव मिले यह कौन हिन्दीभाषी नहीं चाहता ? किन्तु जिस तरह से इस सम्मेलन में एक खास रंग और विचार को ही महत्व दिया गया, वह संदेहास्पद है। साधनों की अ -शुचिता और 'साध्य' के रूप आकार पर राजनीति का आवरण चढ़ाना - कोई भाषा या साहित्य का विमर्श नहीं हो सकता।
"हिंदी जगत : विस्तार एवं सम्भावनाएं " नामक इस 'दशवें विश्व हिंदी सम्मेलन' को इतनी बुरी तरह से व्यक्तिनिष्ठ और राजनैतिक कर दिया गया है कि हिंदी भाषा और उसका साहित्य तो इसमें सिरे से ही नदारद है। जनवादी -लोक साहित्य या आधुनिक साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के विमर्श पर बातें तो सब करते हैं ,किन्तु उसकी उपलब्धता की दूर -दूर तक का कहीं कोई चर्चा भी नहीं कर रहा ! न्यू कार्पोरेट इण्डिया , डिजिटल- इण्डिया ,'मेक इन इण्डिया ' मेड इन इण्डिया ' और ग्लोबल इण्डिया की खूब चर्चा है, किन्तु हिन्दी भाषी कमजोर वर्ग के युवाओं का मार्ग दर्शन करने वाला ,उन्हें रोजगार दिलाने वाला जनोन्मुखी भाषा - साहित्यि का विमर्श ही इस सम्मेलन में नदारद है। हिंदी साहित्य के तमाम बहुश्रुत , बहुपठित मूर्धन्य साहित्यकारों को आमंत्रित किया गया ,यह कोई बेजा बात नहीं ! यह तो सत्ता का स्वभाव है। किन्तु इसमें शिक्षाविदों,व्याकरणवेत्ताओं और भाषा विज्ञानियों को नहीं बुलाया जाना आश्चर्यजनक है।
केवल भाजपा और संघ के ही "खड़ाऊँ -उठाउओं ''और कागजी ढपोरशंखियों को ही भोपाल के 'लाल परेड मैदान' में 'भेला 'किया गया। देश - विदेश से जो वास्तविक हिन्दी प्रेमी इस सम्मेलन में शामिल हुए उनकी मंशा भले ही 'हिंदी-उत्थान' के ही अनुरूप रही हो । किन्तु इस सम्मेलन की सफलता इस अर्थ में तो अवश्य ही बेजोड़ है कि शिवराज जी पर मंडरा रहां व्यापम संकट ,डीमेंट संकट और मध्यप्रदेश में व्यपाप्त जन आक्रोश का संकट कुछ देर के लिए तो अवश्य टल गया लगता है। महँगी दालें ,महँगी प्याज तो साहित्य के एरिना में वैसे भी त्याज्य है। क्योंकि 'कला -कला के लिए ' और साहित्य -साहित्य के लिए ' मानने वाले जब जाजम पर मौजूद होंगे तो वे गरीबी -बेकारी को भाषा और साहित्य के विमर्श में जोड़ने के तरफदार कैसे हो सकते हैं ? शायद इसीलिये प्रदेश के किसानों मजदूरों वनवासियों की भाषायी बर्बादी पर इस दसवें विश्व हिन्दी सम्मेंलन में 'सुई पटक सन्नाटा छाया रहा ।
"जिस भजन में राम का नाम न हो उस भजन को गाना न चहिये "
यह किसी प्रगतिशील या क्रांतिकारी कवि के बोल-बचन नहीं हैं। बल्कि किसी भक्त कवि ने ही यह साहित्यिक काव्यात्मक निषेध व्यक्त किया है। यदि कोई भाषा और उसका साहित्य जनता के दुःख दर्द पर मौन है यदि शोषण उत्पीड़न के खिलाफ कोई शब्द ही इन सम्मेलन आयोजकों के पास पास नहीं है तो काहे का सम्मेलन और काहे की भाषा और काहे का साहित्य ? साहित्य समाज का दर्पण हो या न हो किन्तु अभिव्यक्ति की आजादी के लिए ,भाषा के विकास के लिए - शासकों का लोकतांत्रिक आचरण जरुरी है ! भाषा विमर्श में सहमति और सहिष्णुता जरुरी है । इस तरह के प्रस्ताव यदि प्रस्तुत विश्व हिंदी सम्मेलन में पारित किए जाते तो कोई और बात होती।
हिंदी -हिन्दू - हिन्दुस्तान ,ये शब्द भले ही आज 'भारत' राष्ट्र की पहचान बन चुके हैं ,किन्तु भारतीयता और राष्ट्रवाद का ढपोरशंख बजाकर देश के बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं का दोहन कर,सत्ता हस्तगत करने वाले वर्तमान तथाकथित 'हिन्दी प्रेमी शासकों' को स्मरण रखना चाहिए कि 'हिंदी -हिन्दू-हिन्दुस्तान ' जैसे शब्द तो यवन- अरबी-फारसी विद्वानों द्वारा ही गढ़े गए हैं। इन मुगलकालीन शब्दों का उदभव अन्य भारतीय भाषाओँ की तरह संस्कृत , पाली -प्राकृत इत्यादि भाषाओँ से नहीं हुआ है। ये संज्ञाएँ न तो संस्कृत भाषा के तत्सम् शब्द हैं ,न ही इनका जन्म द्रविड़ परिवार की भाषाओँ के धातुइ -विचक्षण से हुआ है। दरसल इन शब्दों के सृजन ,प्रचलन और लोकमान्यकरण की प्रक्रिया में उर्दू -फारसी लेखकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सिंध इण्ड , इण्डस ,हिन्द , हिन्दोस्ताँ ,हिंदवी से आगे वर्तमान 'हिन्दी ' तक की महायात्रा में सिर्फ विदेशी यायावरों की महती भूमिका रही है। इसलिए यह महा कृतघ्नता ही होगी कि जब इन शब्दों के विमर्श की बात हो तब उर्दू -फारसी के अवदान को और उस सचाई को भी नकार दिया जाए ,जिसे गंगा -जमुनी तहजीव कहते हैं।
वेशक संस्कृत वांग्मय ,पाली,प्राकृत ,द्रविण भाषा परिवार और अन्य भारतीय भाषाओँ की अपनी विशिष्ठ साहित्यिक -सांस्कृतिक समृद्धि दुनिया में वेमिशाल है। इन सभी का विस्तृत इतिहास और भूगोल है। आज जिस 'हिन्दी' भाषा ने भारत की तीन-चौथाई धरती पर अपना सिक्का जमा रखा है , वह आजादी के ६८ साल बाद भी देशी काले शासकों की क्रीत दासी मात्र है। गांधी जी ,टंडन जी , पंत जी और मदनमोहन मालवीय जैसे अनेक महामनाओं की बदौलत ,जिसे भारतीय संविधान में राजभाषा का दरजा तो प्राप्त है किन्तु आज भी वह देश के राज्यों में तीसरे-चौथे नंबर पर हेय दॄष्टि से देखी जाती है। राजभाषा के या हिंदी साहित्य के किसी भी नवीन -विमर्श में ,नूतन सरकारी आयोजन में ,अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के नाम पर सरकारी खजाना लूटा जाता है। जबकि हिन्दी की चिंदी ज्यों की त्यों बरक़रार रहती है। सरकारी दफ्तरों में,सार्वजनिक उपक्रमों में और विभिन्न सरकारी -अर्धसरकारी प्रतिष्ठानों में राजभाषा अधिकारी के नामपर जिन लोगों को नौकरी मिलती है ,जिनकी रोजी -रोटी चलती है वे हिंदी की चिंदी करने में सबसे आगे हैं। हिन्दी का प्रचार -प्रसार तो वे करने से रहे किन्तु खुद की दो-चार 'सस्ता-साहित्य' किस्म की दो चार किताबें छपवाकर ,दो -चार अपने बड़े साहब की बीबी की घटिया कवितायें छापकर , साल में एक बार हिन्दी सप्ताह ,या हिन्दी पखवाड़ा या हिन्दी की काव्य गोष्ठी आयोजित करवाकर वे हिंदी की सेवा करते हैं। खर्चों का बिल सरकारी खजाने के हवाले। रामजी की चिड़िया ,रामजी का खेत ,खाओ प्यारी चिड़िया भर-भर पेट। किसी भी हिंदी अधिकारी को एक लाख रुपया महीना से कम वेतन -भत्ते नहीं मिलते । कुछ तो विभाग में केवल पुस्तक पढ़ने या गप्प मारने के बाद भी बड़े नामचिन्ह हो जाते हैं। कुछ सेवा निवृत्ति उपरान्त हिंदी की दूकान खोलकर भी बैठ जाते हैं। उनसे यदि पूँछो कि उदभिज ,स्वेदज ,अण्डज और जरायुज इन चार हिंदी शब्दों का आपस में रिस्ता बताइये तो वे आएं-बाएं करने लगेंगे ! जबकि ये चारों शब्द भारतीय वांग्मय के मेरुदण्ड हैं। सम्मेलन में तो खास तौर से ' हिंदी-हिन्दू-हिंदुस्तान' वाली सोच -समझ के ही ग्यानी पहुंचे होंगे ! यदि वे कार्ल मार्क्स ,एंगेल्स ,हीगेल ,गैरी बाल्डी , रूसो , वाल्ट्येर या वड्सवर्थ को नहीं जानते हों तो कोई बात नहीं किन्तु उन्होंने महापंडित राहुल सांकृत्यायन या डॉ सर्व पल्ली राधाकृष्णन को या 'भारतीय दर्शन' को तो अवश्य ही पढ़ा होगा ! यदि वह भी नहीं पढ़ा तो आसाराम जैसे 'संत' को तो अवश्य ही सुना होगा। बस उसी अंदाज के हिंदी शब्दों को ही समझ बूझ लें तो बड़ी गनीमत और सम्मेलन सफल मान जाएगा।
यह सर्वज्ञात है कि किसी भी उत्तरआधुनिक विमर्श को,किसी भी प्रगतिशील विमर्श को , स्वाधीनता संग्राम के किसी भी विमर्श को पढ़िए उसमें जो भाषा -साहित्य है वही 'हिंदवी' ही भारत की असली राष्ट्रभाषा हो सकते है। और यह भाषा उर्दू-फ़ारसी शब्दों ,देशज शब्दों , जन संवेदी क्रांतिकारी आचरण से लवरेज है यदि इस पर कोई चर्चा नहीं की गयी तो फिर कहाँ पडेगा की -
उस भजन को गाना न चहिये ,जिस भजन में राम का नाम न हो ! अर्थात उस विमर्श में जाना न चईये जहाँ 'जनता की आवाज न सुनी जाती हो !
श्रीराम तिवारी
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