चैत्र गावे चेतुवा ,वैशाख गावे बनिया ,
जेठ गावे रोहिणी ,अगनि बरसावे है।
भवन सुलभ जिन्हें शीतल वातानुकूल ,
बृष को तरणि तेज उन्हें न सतावे है।।
नंगे पैर धरती पै भूँखा प्यासा मजदूर ,
पसीना बहाये थोरी छाँव को ललावे है।
अंधड़ चलत उत झोपड़ी उड़त जात ,
बंगले से ध्वनि इत टीवी की आवे है।।
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बोनी की बेला में जो देर करे मानसून ,
निर्धन किसान मन शोक उपजावे है ।।
आज भी न बरसे कारे कारे बदरा ,
आषाढ़ के दिन सब सूखे बीते जावे हैं ।
अरब की खाड़ी से न आगे बढ़ा मानसून ,
बनिया बक्काल दाम दुगने बढ़ावे है।
वक्त पै बरस जाएँ कारे-कारे बदरा ,
दादुरों की धुनि पै धरनि हरषावे है।।
कारी घटा घिर आये ,खेतों में बरस जाए ,
सारंग की धुनि संग सारंग भी गावै है।
बोनी की बेला में जो देर करे मानसून ,
निर्धन किसान मन शोक उपजावे है ।।
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बन बाग़ खेत मैढ़ चारों ओर हरियाली ,
उद्भिज गगन अमिय झलकावै है।
पिहुँ -पिहुँ बोले पापी पेड़ों पै पपीहरा ,
चिर-बिरहन मन उमंग जगावै है।।
जलधि मिलन चलीं इतराती सरिताएँ,
गजगामिनी मानों पिया घर जावै है।
झूम-झूम वर्षें गरज गहन घन ,
झूलनों पै गोरी मेघ मल्हार गावै है।।
.... अपने प्रथम काव्य संग्रह [अनामिका ] से उद्धृत ;-श्रीराम तिवारी
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