रविवार, 31 मई 2015

असली बारहमासा [घनाक्षरी छंद]-श्रीराम तिवारी

 


        चैत्र गावे चेतुवा ,वैशाख गावे बनिया ,

       जेठ गावे रोहिणी ,अगनि  बरसावे  है।

      भवन सुलभ जिन्हें  शीतल  वातानुकूल ,

      बृष  को तरणि तेज उन्हें न सतावे है।।

      नंगे पैर धरती पै भूँखा प्यासा मजदूर ,

      पसीना बहाये  थोरी  छाँव को ललावे है।

      अंधड़  चलत उत   झोपड़ी उड़त जात ,

      बंगले से  ध्वनि इत  टीवी की आवे है।।


,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,=======,,,,,,,,,,,,,,



बोनी की बेला में जो देर करे मानसून ,

 निर्धन किसान मन शोक उपजावे है ।।

आज  भी न बरसे  कारे कारे  बदरा ,

 आषाढ़ के दिन सब सूखे बीते जावे हैं ।

अरब की खाड़ी से न आगे  बढ़ा मानसून ,

 बनिया बक्काल दाम दुगने  बढ़ावे  है।

वक्त पै  बरस  जाएँ कारे-कारे  बदरा ,

दादुरों की धुनि पै धरनि  हरषावे  है।।

कारी घटा घिर आये ,खेतों में बरस जाए ,

सारंग की धुनि संग सारंग भी गावै  है।

बोनी की बेला में जो देर करे मानसून ,

 निर्धन किसान मन शोक उपजावे है ।।

___________***********_________

बन बाग़ खेत मैढ़ चारों ओर हरियाली ,

उद्भिज गगन अमिय झलकावै  है।

पिहुँ -पिहुँ  बोले पापी पेड़ों पै  पपीहरा ,

चिर-बिरहन मन उमंग जगावै है।।

जलधि मिलन चलीं इतराती सरिताएँ,

गजगामिनी मानों पिया घर जावै है।

झूम-झूम वर्षें  गरज गहन घन ,

झूलनों  पै गोरी मेघ मल्हार गावै  है।।

         ....  अपने प्रथम काव्य संग्रह [अनामिका ] से  उद्धृत ;-श्रीराम तिवारी 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें