बुधवार, 27 मई 2015

राज्य सत्ता के व्यक्तिवादी निरंकुश निजाम में तीन प्रकार के 'स्टेक होल्डर्स ' हुआ करते हैं ।


  •  यदि ईमानदार  पड़ताल की जाए तो स्पष्ट परिलक्षित होगा कि शासन प्रणाली  चाहे जो भी हो किन्तु सामूहिक नेतत्व के अभाव में देवता भी मनमानी करने लगते हैं। प्रायः पाया गया है कि किसी भी प्रकार की राज्य सत्ता के व्यक्तिवादी निरंकुश  व् वर्चस्ववादी निजाम में तीन प्रकार के 'स्टेक होल्डर्स ' हुआ करते हैं । एक तो वे जो व्यवस्था में  समानता -न्याय -स्वतंत्रता  का प्रवेश वर्जित मानते हैं। ऐंसे क्रूर  शासक   प्रायः  विज्ञान के पैदायशी शत्रु हुआ करते हैं।  इन्हें  जनतंत्र, बहुलता ,तार्किकता  ,वैज्ञानिकता   और सकारात्मक परिवर्तनीयता से घोर चिढ है। इस कोटि के शासक - नेता, मंत्री ,अफसर इस भूतल  के तयशुदा  वैज्ञानिक विकाशवादी  सिद्धांत का कहकहरा भले ही न जानते हों किन्तु  होते  महाचालू   हैं।  ये आधुनिक  शासक इस पूँजीवादी लोकतंत्र में अपने आप को जनता  का  'जनसेवक'  भी  कहते  हैं। उनकी इस कृतिम विनम्रता में अपने देश की जनता को उल्लू बनाने का मनोरथ  साफ़  झलकता है। ऐसे 'जनसेवकों' की कीर्ति पताका दिग्दिगंत में फहराने और चुनाव में 'हर किस्म की मदद' के लिए इस पतनशील व्यवस्था में उन्हें भृष्ठतम् अधिकारी और कर्मचारी भी इफरात से मिल जाते हैं। वर्तमान में जो नेता भारत भाग्य विधाता बन बैठे है वे इसी श्रेणी में आते हैं। इससे पहले वाले भी इसी श्रेणी के थे  किन्तु उनका 'मौन ' इन 'बड़बोलों'  के सामने टिक नहीं सका।  

       वर्तमान  सत्तासीन  नेताओं की बीसों अंगुलिया घी में हैं। इस आधुनिक पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्र में इन  धनबली ,बाहुबली , भीड़ जुटाऊ , ढ़पोरशंखी ,अगम्भीर और चालू क्सिम के खतरनाक तत्वों को सत्ता में पहुँचने के भरपूर अवसर प्राप्त हैं। इसीलिये ऐंसे लोग अक्सर नेता ,सांसद, मंत्री  या प्रधानमंत्री बनकर "प्यादे से फर्जी ' हो जाया करते हैं। उच्च शिक्षित काइंयाँ  किस्म के भृष्ट आला अफसरों- 'लोकसेवकों' से कामकाजी ओपचारिक  इंटरेक्शन के दरम्यान  अल्पशिक्षित नेता अर्थात सत्ताशीन  'जनसेवक' को परमुखपेक्षी होना ही  पड़ता है। तब   स्वाभाविक है कि ये  मंत्रियों से ज्यादा पढ़े-लिखे तथा जानंकार अफसर  भृष्टाचार करने-कराने  में , बदमाशों   और नेताओं से  ज़रा ज्यादा ही  चतुर -चालाक  होते हैं।  इसीलिये इन भृष्ट अफसरों के बलबूते  पर ही यूपीए  , एनडीए या किसी अन्य खास नेता या पार्टी  की सफलता या असफलता  निर्भर हुआ करती  है ।

             आजादी के बाद इन  ६८ सालों में  देश का कुछ  तो विकास अवश्य हुआ है । लेकिन  जो कुछ भी अच्छा  -बुरा  हुआ उसके भागीदार  हम सब है।  उसका कुछ  श्रेय संघर्षशील जनता को  भी है की उसने शासन-प्रशासन पर निरंतर दबाव बनाये रखा। यह जन-दबाव अभी भी जारी है। वर्तमान मोदी सरकार का एक वर्ष  केवल विदेश  यात्राओं और 'मन की बातों' में ही  गुजर गया ।  इस प्रतिगामी स्थति के लिए सिर्फ मोदी जी या एनडीए को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जब भारत की तुलना दुनिया  के तमाम  विकसित  देशों  -यूरोप,अमेरिका, जापान या चीन से होती है तो हर  सुधि देशभक्त भारतीय का चिंतित होना स्वाभाविक है। लेकिन यह यक्ष प्रश्न  बाजिब है कि आखिर क्या वजह है कि  भारत से बाद में आजादी पाने वाले चीन  , ताइवान ,सिंगापुर ,मलेशिया और वियतनाम मीलों आगे निकल गए।  यदि भारतीय संसदीय लोकतंत्र में  कोई खोट नहीं तो फिर इस राष्ट्रीय पिछड़ेपन  का जिम्मेदार कौन है ? वेशक मंत्री और सरकारें तो  इसके लिए जबाबदेह हैं  ही , किन्तु  इन अपढ़  , अयोग्य ,भृष्ट नेताओं को सत्ता में चुनने वाली तो जनता ही  है ! इसीलिये चाहे मनमोहन सरकार हो चाहे मोदी सरकार हो विकाश  नहीं होने की जिम्मेदारी  मतदाताओं की भी है !

जिन्हे कांग्रेस की असलियत मालूम है ,उसके शीर्ष नेताओं की शैक्षणिक योग्यता मालूम है ,उनकी भूलें और उनके कदाचरण मालूम हैं  वे कांग्रेस से  नफरत करने यह जायज है । लेकिन उन्हें मोदी जी के भाषणों पर ताली बजाने का  कोई हक नहीं।क्योंकि इस 'मोदी सरकार' और उस यूपीए सरकार में फर्क सिर्फ 'बोतल' का है वरना शराब तो  वही है।  
                       भारत के वर्तमान  संसदीय लोकतंत्र में नेताओं' की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय न होने से कोई भी ऐरा-गैर नथ्थुखेरा चुनाव में खड़ा हो जाता है। चुनाव जीत भी जाता है। मंत्री भी बन जाता है। कुछ तो मुख्य मंत्री और प्रधानमंत्री  भी बन जाते हैं। व्यापम काण्ड जैसे अपवित्र साधनों द्वारा, नकली डिग्री जुगाड़ने वाले यदि मंत्री ,अफसर-बाबू , डाक्टर,इंजीनियर जिस देश में होंगे , वहां का  विकास  सिंगापुर या आस्ट्रलिया   जैसा तो दूर की बात  चीन जैसा भी कैसे सम्भव होगा ?  वेशक  विकास सिर्फ उनका होगा जो इस सिस्टम के स्टेक होल्डर्स होंगे ।  जो अम्बानी, अडानी  के कद के होंगे।  कभी -कभार  कुछ राजनेताओं और अफसरों का भी विकास सम्भव है। कुछ पार्टी कार्यकर्ताओं और बिलडर्स का विकाश भी अपेक्षित है।
           हालाँकि  नेताओं  की भूल-चूक पर तो जनता उन्हें चुनाव में हराकर हिसाब बराबर आकर लेती है। किन्तु   'सरकारी सेवकों' अर्थात नौकरशाही का बाल भी बांका नहीं कर सकती। यदि किसी ने कुछ चूँ -चपड़ की भी तो 'शासकीय कार्य में बाधा'  पहुंचाने के बहाने जेल में डालने का विकल्प खुला है। वर्तमान मोदी सरकार ने  भी जब  उसी  यूपीए वाली सनातन भृष्ट अफसरशाही पर अपने मंत्रियों से ज्यादा भरोसा किया है तो किसका विकास और  कैसा विकास ?  जब उन्होंने एक भी भृष्ट अधिकारी को जेल नहीं भेजा , किसी भी धूर्त नेता और अफसर   पर कोई नकेल नहीं कसी तो कैसा विकास और किसका विकास ?
                  केवल ताश के पत्ते फेंटकर उनकी पोजीशन  बदलने या टाइम पर आओ-टाइम पर जाओ का नारा लगाने से स्किलनेस या कार्यदक्षता में तीब्रगामी बदलाव सम्भव नहीं है ।  गलत ट्रेक पर कितना भी तेज दौड़ो , परिणाम शून्य ही होगा ! जब  आर्थिक नीतियां वही 'मनमोहनी' यूपीए वाली हैं और अफ़सरशाही भी वही परम  महाभृष्ट है  ,तो कैसा विकास -किसका विकास ? 

           वैसे तो भारतीय नौकरशाही में अंग्रेजी अफसरों के रौबदाब वाली ठसक के सभी 'गुणसूत्र विद्यमान हैं।  किन्तु अंग्रजों का अनुशासन ,अंग्रजों जैसी पब्लिकनिष्ठा ,राष्ट्रनिष्ठा और ईमानदारी का भारत की जड़वत -  नौकरशाही में घोर अभाव  है।  कुछ अपवादों को छोड़कर भारत की नौकरशाही नितात्न्त  सत्ता परमुखापेक्षी है।कुछ  लोग रिश्वत देकर या आरक्षण की वैशाखी के बलबूते  अफसरी पा जाते हैं। वे सिर्फ  'काम के ना काज के ,दुश्मन अनाज के' हो कर रह जाते हैं। कोई भी सरकार हो ,कितना ही दवंग और डायनामिक प्रधानमंत्री हो  , यदि वह इस अफसरशाही को नाथ  भी ले  तो भी देश का भला वह कदापि नहीं कर सकता। क्योंकि यह मलिन  अफसरशाही देश का भला करने के लिए नहीं बल्कि अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए 'सेवाओं' में आयी है।उसकी चमड़ी भले ही भारतीय हो किन्तु मष्तिष्क में 'अंग्रेजियत' का करेंट दौड़ रहा है।

                   दूसरे खतरनाक प्रवृत्तिवाले 'स्टेक होल्डर्स' वे  हुआ करते हैं जो प्रत्यक्षतः  शासक नहीं दीखते । किन्तु  शासक बदलवाने या सत्ता परिवर्तन में इनकी परोक्ष भूमिका हुआ करती है। शासन -प्रशासन बदल  जाने पर भी  वे अपनी सम्पदा और अपने निजी वैभव को अक्षुण  रखने के निमित्त  अनैतिक  उपायों का उपयोग करने में नहीं सकुचाते। हालाँकि ये लक्ष्मीपति  स्वयं तो कोई उत्पादक कार्य नहीं करते, किन्तु अपने बुद्धि चातुर्य से  अवसर का लाभ उठाकर राष्ट्र की  प्राकृतिक सम्पदा का  सर्वाधिक दोहन भी यही लोग किया करते हैं। ये लोग सीधे सीधे शासन-प्रशासन नहीं संभालते बल्कि व्यवस्था को खरीदकर अपनी जेब में रखते हैं। ये  कार्पोरेट पूँजी के देशी-विदेशी  धन्नासेठभी  हो सकते हैं।  ये  शराब माफिया ,ड्रग माफिया ,कॉल माफिया ,निर्माण माफिया  और व्यापम माफिया  जैसे कुछ  भी हो सकते हैं।
                तीसरे खतर्नाक  प्रवृत्ति वाले 'स्टेक होल्डर्स' वे हैं जो धर्म -मजहब रुपी अफीम की खेती करवाते हैं। किन्तु  जिन्ना  की तरह वे स्वयं उसका सेवन नहीं करते।  सुना है कि मुस्लिम लीग के नेता और पाकिस्तान के सह  - संस्थापक कायदे आजम मिस्टर  जिन्ना न मस्जिद  जाते थे और न नमाज पढ़ते थे।  वे अंग्रेजी शराब और अंग्रेजी चुरुट पिया करते थे। इसी तरह हिन्दुत्वादी कतारों में  जैचंद व् गोडसे जैसे  सैकड़ों शख्स होंगे जो मर्यादा पुरषोत्तम  नहीं होंगे। जो सत्य हरिश्चंद्र नहीं होंगे। जो  "धृति क्षमा दमोअस्तेयं ,शुचतेंद्रिय  निग्रह।  विद्या बुद्धि च अक्रोधम ' का अनुशीलन नहीं करते होंगे। ये तत्व किसी भी शासन प्रणाली में राहु-केतु' की तरह दुखदायी  है। इनकी  तादाद सीरिया ,पाकिस्तान ,सूडान ,यमन ,अफ़ग़निस्तान में ही बेहिसाब नहीं है  बल्कि   इनकी तादाद  अमेरिका रूस चीन और भारत में भी बेशुमार  है।

         उपरोक्त इन तीनों श्रेणियों में जो  मनुष्य नहीं आते, वे शेष बचे  हुए नर-नारी इस धरती के मूल्यबर्धित  असेट्स [सम्पदा ]  मात्र है। वे पाने -अपने राष्ट्रों की 'वेल्थ आफ नेशन' मात्र हैं। वे सिर्फ  रॉ मेटेरियल [कच्चा माल] मात्र हैं। वे सिर्फ आम आदमी  भर हैं। वे  मतदाता या वोटर  मात्र हैं। उन्हें आप  पब्लिक भी कह सकते हैं.
जिस देश की यह पब्लिंक जाग जाती है तो उपरोक्त शासकों का विकल्प सामने आता है।  पब्लिक अर्थात आवाम  अर्थात जनता  जनार्दन के जागने और नवनिर्माण की हुंकार भरने की क्रिया को ही क्रांति कहते हैं।    

 पूँजीवादी  समाज व्यवस्था  का  शासक वर्ग उपरोक्त तीनों श्रेणियों  के भौतिक और  रासायनिक समीकरणों से परिभषाशित किया जा सकता है। इस शासक वर्ग के डीएनए में साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा जनता को भरमाने या आपस में लड़ाने के लिए किये गए निरंतर दु ष्प्रचार  के प्रभाव  को  सत्ता प्राप्ति के निहित स्वार्थ में स्पष्ट देखा जा सकता है।  इसमें छिपे अर्ध पूंजीवादी /अर्धसामन्ती तत्वों को  किसी भी प्रकार के वैज्ञानिक सोच-विचार  से नफरत  रहती है।  इनके  स्वार्थ अपराधियों से भी अनायास जुड़ जाते हैं। जो  चोरी  -डकैती  -लूट  - शोषण और पाप की कमाई से धन दौलत  के जखीरे भरते रहते हैं।   किसी भी क्रांतिकारी परिवर्तन या  क्रांति के नाम से ही इनकी  नींद उड़ जाती है। इनमें से  जिन्हे अपने देश का कुछ भी अच्छा नहीं दीखता। जिनकी जुबान अपनी असफलताओं पर लड़खड़ाने के बजाय और ज्यादा आक्रामक और ढ़पोरशंखी हो जाए ,जिसकी जुबान अपने अपराधों पर  लड़खड़ाये ,जिनमे  नक्सलवाद या माओवाद के खिलाफ स्पष्ट बोलने का माद्दा न हो ,जिन्हें अपने  देश  का इतिहास ,संस्कृति और पुरातन मूल्यों  का बेसिक ज्ञान भी न हो ,जिन्हे अतीत के क्रांतिकारी मूल्यों में  भी  में  सिर्फ  शोषण  का इतिहास ही दीखता हो ,वे  चाहे जितने प्रगीतिशील हों किन्तु यायावर हिंसक  आक्रान्ताओं  के आचरण में यदि उन्हें  सौजन्यता दिखती है तो  वेन केवल साम्प्रदायिकता बल्कि  भारत को  भी  ठीक से कदापि नहीं समझ सकते।  इसीलिये  भारत के बहुसंख्यक वर्ग को अनावश्यक  ही साम्प्रदायिक सिद्ध कर देना  न तो न्याय संगत है और न देशभक्तिपूर्ण है।आक्रान्ताओं को भले ही माफ़ कर दिया जाए , किन्तु देश को गुलाम बनाने वालों की दूषित मानसिकता को कभी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये  !  आक्रमणकारियों के वीभत्स और जघन्य अपराधों पर पर्दा डालना धर्मनिपेक्षता नहीं है। अपितु यह भौंडी  दासत्व -मानसिकता ही कही जाएगी।

                  चाहे कोई राष्ट्रवाद का ,समाजवाद का या साम्यवाद का कितना ही जाबांज झंडावरदार क्यों न हो ,बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता  और हिंसक प्रवृत्ति का अल्पसंख्यक आतंकवाद  दोनों  ही यदि प्रकारांतर से   देश  के पूँजीपतियों  और साम्प्रदायिक तत्वों को सत्ता में  बिठाने का  साधन बनते हैं , इस पूँजीवादी  नव्य  - उदारवादी दौर  में इस लोकतांत्रिक कॉकटेल को अलोकप्रिय  कैसे बनाया जा सकता है ? वेशक  इसे  लोकतंत्र  और  धर्मनिरपेक्षता से भी  पदच्युत नहीं  किया जा  सकता । इस दौर में  भारत के  श्रेष्ठियों और  साम्प्रदायिक   तत्वों को यदि 'नमो' जैसा  'प्रतिभाशाली  रोनाल्ड रीगन  मिल गया है तो  भले ही भारत  अमेरिका न बन पाये किन्तु सऊदी अरब भी वह  बनने वाला नहीं है। मोदी सरकार  चाहे  भी तो  भारत को पाकिस्तान जैसा 'आतंकी मुल्क  नहीं बना सकती !इसलिए भारत में साम्प्रदायिकता के विमर्श में राजनैतिक स्वार्थ से परे  सामाजिक  स्वार्थ का भाव अर्थात 'कबीर ' वाला भाव  ही सफल होगा। अभिप्राय यह है कि दोनों ओर  के साम्प्रदायिक तत्व यदि देश और समाज को दूषित कर रहे हों तो दोनों ही खराब हैं. किन्तु  प्रगतिशीलता के नाम पर हमला सिर्फ बहुसंख्यक पर या सिर्फ अल्पसंख्यक पर यदि  किया जा रहा है तो यह यूनिफार्म लेवल प्लेइंग फींद कैसे कहा जा सकता है ?
           राष्ट्रीय   स्वयं सेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों के खिलाफ तो देश के आदिसंख्य हिन्दू भी हैं। भले ही वे  भयवश कुछ नहीं बोलते।  किन्तु वे 'संघ' की राजनीति  को धीरे-धीरे समझ रहे हैं। लेकिन तमाम  धर्मनिरपेक्ष  ताकतों का दायित्व  यह नहीं कि  केवल शांतिप्रिय हिन्दुओं की या बहुसंख्यक वर्ग की लानत-मलानत करते रहें।  जो प्रगति शील -जनवादी लोग साम्प्रदायिकता पर लिखते बोलते हैं ,उसके दुष्परिणामों पर जनता को आगाह करते हैं वे स्वीकार्य हैं किन्तु जो लोग इधर-उधर अल्पसंख्यकों के बीच जाकर बहुसंख्यकों को गरियाते हैं वे  वास्तव में  न्याय नहीं करते।  यह उनकी नासमझी या राजनैतिक स्वार्थ को सकता है।

                     कश्मीर में बाढ़  आती है या कोई विपदा आती है तो देश का प्रगतिशील तबका एक स्वर में कश्मीरी जनता के लिए उठ खड़ा होता है। यह अच्छी बात है। केंद्र सरकार से सहायता का आह्वान करता है।व्यवस्था पर नजर रखता है।  किन्तु जब  कश्मीरी[अल्पसंख्यकों]पंडितों  की घर वापिसी की बात आती है और  मुस्लिम[बहुसंख्यक]अलगाववादी पथ्थर फेंकते हैं या पाकिस्तानी झंडे लहराते हैं और  कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में घसने से रोकते हैं तो उन अलगाव वादीयों की आलोचना करने में कोताही या कंजूसी क्यों ?  क्या यह वास्तविक  वैज्ञानिक प्रगतिशीलता है ? यदि यह क्रांतिकारी आचरण  का आवश्यक  गुण है तो फिर बहुसंख्यक समाज की भावनाओं का क्या होगा ? संसदीय लोकतंत्र में वे समाजवादियों ,साम्यवादियों और लोकतंत्रवादियों  को छोड़कर मोदी जैसे 'निरंकुश' नेता के आकर्षक व्यक्तित्व के साथ  क्यों नहीं जाएंगे ?

 हाफिज सईद ,लखवी ,गिलानी और उनके जैसे लाखों की करनी पर कुछ न कहना और केवल मोदी -मोदी रटते रहने या  दो-चार हिन्दू साध्वियों या लम्पट हिन्दुत्ववादियों पर हो हल्ला करने से कोई धर्मनिरपेक्षता परवान  नहीं  चढ़ने वाली।साम्प्रदायिकता  और [अ]धार्मिक पाखंड की  आलोचना तो  कबीर  ओए नानक की मानिंद होना चाहिए।   जिन्होंने हमेशा एक ही सांस में पाखंडी हिन्दू और ढोंगी मुसलमान को भी नसीहत दी है।
पश्चिम के सभ्य और संगठित मानव समाज  ने जब से 'क़ानून का राज्य' या लोकतंत्र का अमृत फल चखा है , जबसे उसने बंधुता ,समानता और स्वतंत्रता का सिद्धांत अंगीकृत किया है ,जबसे उसने आर्थिक -सामाजिक और राजनैतिक परिभाषाओं को वैज्ञानिकता की कसौटी  से परिष्कृत किया है ,जबसे उसने  सोशल डेमोक्रेसी  समाजवाद , साम्यवाद ,धर्मनिरपेक्षता ,लोकतंत्र और जनतांत्रिक क्रांतियों  के  झंडे गाड़े हैं जबसे उसने भौतिक  वैज्ञानिक अर्थशास्त्र और मानवीय  दर्शन का प्रतिपादन किया है तभी से पश्चिम के तमाम राष्ट्रों ने ,वहाँ की तमाम पिछड़ी  कौमों  ने  कितनी चमत्कारिक तरक्की की है यह किसी से छिपा नहीं है।  न केवल अमेरिका  ने , न केवल कनाडा ने , न केवल आस्ट्रेलिया ने  या पश्चिम के  यूरोपियन देशों ने बल्कि  पूर्व के  भी अनेक राष्ट्रों  - वियतनाम , थाईलैंड ,मलेशिया ,सिंगापूर ,जापान ,कोरिया और  चीन ने चहुमुंखी विकास के चौतरफा झंडे गाड़ रखे हैं। हमारे प्रधानमंत्री  श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी विगत एक बर्ष से अपने अतीत के नॉस्टेलजिया-व्यामोह का शव अपने कंधे पर लादकर  सारी दुनिया में दर -दर भटक रहे हैं। क्या इसी मांगनहारी  योग्यता के  दम पर भारत को वैश्विक शक्ति बनाया जाएगा ? विगत चुनावों में भारत की जनता से वादा किया गया था कि हम कालाधन वापिस लायेंगे।  हर गरीब के खाते में  लाखों रूपये [पता नहीं कितने] जमा कर  दिए जावेंगे।  हम कश्मीर से आतंक को मार  भगाएंगे।  हम धारा  -३७० हटाएंगे। हम बेघर कश्मीरी पंडितों को ससम्मान वापिसी कराएंगे। हम किसानों का भला करेंगे। हम मजदूरों का भला करेंगे। हम राम लला  का भव्य मंदिर बनाएंगे। हम  भृष्टाचार खत्म कर देंगे। हम  पाकिस्तान  में पल रहे  भारत विरोधी आतंकियों को  खत्म कर देंगे। हम हाफिज सईद ,दाऊद और लखवी को दंड देंगे। हम चीन से अपनी जमीन वापिस  छीन लेंगे।

   चीन से मोदी जी अभी तक क्या हासिल कर पाये ये तो वे ही जाने किन्तु मोदी सरकार के कार्यकाल में चीन ने भारत का बहुत नुक्सान किया है। पाकिस्तान को अभी तक अमेरिकीद्वारा दी जाती रही  मदद का मीजान भारत से संतुलन बनाकर या अपने वैश्विक हित  साधकर  किया जाता रहा है। जबसे भारत में 'नसीबवालो' की सरकार  बनी है  ,चीन ने लगातार रुसवा ही  किया है। जब फ़रवरी में शी  जिनपिंग भारत आये थे तो चीन सेना ने ठीक उसी समय लद्दाख और शियाचिन्ह में सीमा का अतिक्रमण किया था। आज जबकि मोदीजी चीन में इधर उधर मत्था टेकते फिर रहे हैं तब चीन के मीडिया ने और उसके कूटनीतिक हलकों ने भारत की गर्दन[कश्मीर] को ही उड़ा  दिया। उधर अरुणचल प्रदेश का नक्शा भी  चीन के औपचारिक विमर्श से गायब है। केवल चीन के पक्ष में व्यापार  मानसरोवर तीर्थ  यात्रा ' का अलटर्नेट रुट पर  सैद्धांतिक सहमति के अलावा मोदी जी को चीन से कुछ नहीं मिलने वाला।

र पूंजीवाद की विजय के उपरान्त पूर्व के  देशों में  भी यह प्रवृत्ति भी परवान चढ़ती  रही है कि  साम्राज्यवाद से मुक्ति मिले। कोई किसी का हक न मारे। कोई किसी का शोषण न करे। कोई किसी पर अत्याचार न करे। वेशक पुरातन  भारतीय उपमहादीप  में भी इन उच्चतर मानवीय मूल्यों की चर्चा अवश्य होती रही है कि ;-

            सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामया।  या  अयं  निजः  परोवेति गणना लघुचेतसाम् ,उदार चरितानाम्  तू वसुधैव कुटुम्बक।   इत्यादि … इत्यादि।

 लेकिन  भारत के  ये तमाम पवित्र  उद्घोष ,सात्विक मानवीय मूल्य  धर्मग्रंथों के भोजपत्रों में ही सिमिट कर रहे गए। सामंतों ,राजाओं ,जमींदारों ,श्रेष्ठियों और राज्याश्रय प्राप्त धर्म -मजहब के मठाधीशों ने आम जनता को  कभी भी अपना इतिहास खुद लिखने का मौका ही नहीं दिया। बाज मरतबा  कृष्ण ,बूद्ध ,महावीर जैसे सामंतपुत्रों या 'असंतुष्ट' राजकुमारों  ने अवश्य ही तत्कालीन व्यवस्था पर चोट  कीथी।  किन्तु वे न तो आवाम  को सामंतवाद के शिकंजे से मुक्त  करा  पाये। न ही वे भारत राष्ट्र का निर्माण करा पाये। उलटे उन्होंने 'आर्य धर्म' पर चोट करके ततकालीन आवाम को -जो जरूरत से ज्यादा अहिंसा  का पाठ  पढ़ाया- उसीकी बदौलत भारतीय  उपमहादीप की बहुसांस्कृतिक जनता को  सदियों की गुलामी  भोगनी पडी। पददलित अंधश्रद्धालु दासत्वबोध से पीड़ित आवाम इसी खास वजह से  आर्यावर्त में कभी  कोई क्रांतिकारी मिशाल कायम नहीं सकी।

                                        श्रीराम तिवारी
               

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