देश में यदि सही राजनैतिक विकल्प नहीं है तो उसका निर्माण किया जाना चाहिए !
कुछ सुधि देशभक्तों का प्रश्न है कि जब कांग्रेस असफल रही है ,भाजपा भी अम्बानियों-अडानियों की सहचरी बन चुकी है ,'आप' वाले भी अधकचरे ही निकले हैं और जनता परिवार का तो कोई पता ठिकाना ही नहीं है तो देश की जनता के समक्ष सही राजनैतिक विकल्प क्या है ? इस सवाल का जबाब है कि देश में यदि सही राजनैतिक विकल्प नहीं है तो उसका निर्माण किया जाना चाहिए ! आधुनिकतम तकनीकि क्रांति की उत्तरोत्तर समुन्नत अवस्था के उत्तर आधुनिक दौर में प्रबुद्ध व्यक्ति एवं सभ्य- सजग-समाज अपने निजी और सामूहिक हितों को लेकर व्यग्र है। वह मन ही मन कसमसा भी रहा है।लेकिन संसदीय चुनावों में इस जन आक्रोश को उसकी संगठित ताकत के रूप में सहेज पाने की क्षमता अभी भी बहुत दूर है। इसीलिये जीर्ण-शीर्ण बीमार पूँजीवाद की भृस्ट फफूँद के रूप में समाज का शक्तिशाली - सम्पन्न वर्ग बड़ी चालाकी से बार-बार संसदीय लोकतंत्र पर काबिज हो जाता है।
निहित स्वार्थियों का बहुत बड़ा हिस्सा तो वर्तमान उपभोक्ता संस्कृति का प्रिय - भाजन पहले ही बन चुका है। नैतिक मूल्यों से विमुख यह अर्थलोलुप समाज ही उत्तर आधुनिक ओउद्द्योगिकरण के बरक्स इस नव उदार पूँजीवाद को शह दे रहा है। तमाम वेतनभोगी सरकारी अफसर -बाबू-चपरासी ,रेलवे तथा रक्षा समेत केंद्र सरकार के समस्त प्रतिष्ठानों के कर्मचारी , राज्य सरकारों के अधिकारी - कर्मचारी ,सार्वजनिक उपक्रमों - निगमों -मंडलों के करता-धर्ता और बैंकिंग क्षेत्र के अधिकारी - कर्मचारी , सभी अर्धशासकीय कर्मचारी,न्याय क्षेत्र के सभी सरकारी वकील -जज -रजिस्टार -लिपिक -दफ्तरी - पेशकार इत्यादि समस्त कारकून जब इस वर्तमान व्यवस्था में फीलगुड महसूस कर रहे हों तो वे किसी क्रांतिकारी संघर्ष में साथ क्यों देंगे ? यदि सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्र के अधिकारी -कर्मचारी रिश्वत लेना छोड़ दें ,भृष्ट नेताओं की दलाली करना छोड़ दें ,सर्वहारा के शांतिपूर्ण संघर्षों में पूँजीपतियों की अनैतिक चाकरी छोड़कर मजदूरों -किसानों का साथ दें तो ही देश का सही राजनैतिक विकल्प तैयार होगा। केवल क्रांतिकारी पार्टी का दफ़्तर खोल लेने से या कुछ मुठ्ठी भर कारखानों में भूंख हड़ताल -धरना करने से या दो-चार बुजुर्ग बहादुर साथियों के हाथ में लाल झंडा पकड़ा देने से विचारधारा का मान तो बढ़ेगा किन्तु देश में समाज में कोई असाधारण क्रांति कभी नहीं होने वाली।
सूखा -ओला -बाढ़ और कर्ज पीड़ित किसान आत्महत्या का इरादा छोड़कर जब एकजुट संघर्ष करेंगे तो विकल्प उभर कर सामने आएगा। जब निजी क्षेत्र के हाई -टेक- उच्च शिक्षित -पढ़े -लिखे युवा जब संगठित होकर अपने श्रम का सही मूल्य मांगेंगे तो देश में विकल्प उभरेगा। भारत के वामपंथ ने विगत ८० साल में देश के सर्वहारा के लिए खूब संघर्ष किये किन्तु जनता ने उसे अब तक नहीं पहचाना । जिस दिन भारत के आधुनिक युवाओं को यह भी मालूम हो जाएगा की शहीदे आजम भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने तत्तकालीन अंग्रेज सरकार के किस कदम से नाराज होकर असेम्ब्ली में बम फेंके थे ? उस दिन से ही देश में सही राजनैतिक विकल्प बनना शुरू हो जाएगा। लाला लाजपत राय पर लाठियाँ किसने और क्यों बरसाईं ? जिस दिन देश के आधुनिक युवा लूट और शोषण का रहस्य जान जाएंगे उस दिन नरेंद्र मोदी ,ममता , केजरीवाल या अण्णा हजारे उनके हीरो नहीं होंगे । तब शायद वे भगतसिंह ,कास्त्रो ,हो-चिन्ह-मिन्ह, लेनिन चेगुएवेरा ,मैक्सिम गोर्की ,मार्क्स -एंगेल्स और रोजालक्जमवर्ग को अपना आदर्श मानने लगेंगे । जब वे भारत के वामपंथ को अपना अमूल्य प्रतिदान देंगे तब सही विकल्प तैयार होगा। तमाम झंझावातों के बावजूद यदि भारत के वामपंथ ने अभी भी हार नहीं मानी तो यह देश के सर्वहारा वर्ग के लिए एक सुखद सूचना है।
यही वामपंथ की अतिरिक्त विशेषता भी है। मुठ्ठी भर तपोनिष्ठ कामरेड और बमुश्किल एक दर्जन सांसदों की हैसियत से प्रारम्भ हुए इस हरावल दस्ते के इरादे आज पहले से भी ज्यादा मजबूत हैं। अपने पवित्र संकल्प के लिए ,मानवता के उथ्थान के लिए 'कम्युनिस्ट' दुनिया के सर्वोत्तम इंसान हैं , वे इस पतित पूँजीवादी पतनशील व्यवस्था से देश की शोषित -पीड़ित आवाम को मुक्ति दिलाने के लिए कृत संकल्पित हैं। वे शोषण की ताकतों के आगे घुटने टेकने या हार मानने को कदापि तैयार नहीं है।
लेकिन क्रांति कोई मुठ्ठी भर लोगों के वश की बात नहीं है। इस मौजूदा भृष्ट निजाम को बदल सकें इसके लिए विराट नर मेदिनी का इंकलाबी भोर अपेक्षित हैं । वेशक दुनिया में वैज्ञानिक रूप से परिष्कृत साम्यवादी विचारधारा का कोई विकल्प नहीं है। इसी के कारण लाल झंडे की ताकत भी असीम है। किन्तु भारत में तो अभी साम्प्रदायिक और कार्पोरेट जगत के अच्छे दिनों का आगाज है। जब जनता की किसी जनवादी या सर्वहारा क्रांति की उम्मीद एक दिवा स्वप्न मात्र हो । तब सत्ता पक्ष को कोसने में ताकत लगाना बेमानी है। क्योंकि हर बार होता यह है कि नाचे कूँदे बांदरी हलुआ खाए मदारी। वामपंथी बुद्धिजीवी और किसान -मजदूरों के संघर्ष का प्रतिफल या तो यूपीए को मिलता है या एनडीए को मिल जाता है। -कभी कभी तो ज्योति वसु जैसे महानतम भारत रत्न [?] टापते रह जाते हैं और कोई 'उंघने वाला' ही प्रधान मंत्री बन जाता है। अभी भी भारतीय वामपंथ की साढ़े साती उतरी नहीं है। उसका अढ़ैया अभी भी चल रहा है।
देश के पूंजीपतियों और उनके चाटुकारों के मुताबिक़ रहती दुनिया तक भारत में किसी साम्यवादी क्रांति की कोई गुंजाइश नहीं है। जब ज्योति वसु बनने की हैसियत में थे तब जिस वजह से वे वंचित किये गए वो वजह आज मौजूद है। जब यूपीए वन के कामकाजी दौर में वामपंथी निर्णायक हैसियत में थे तब भी चूके। अब संघ के हमलों का प्रतिकार करने से यदि सत्ता परिवर्तन होना असम्भव है। संघ और मोदी जी पर निशाना साधने से आइन्दा भी वामपंथ को नहीं कांग्रेस को ही फायदा होगा। क्या बाकई कांग्रेस उतनी धर्मनिरपेक्ष है जितनी की प्रचारित की जाती रही है ? क्या बाकई मोदी जी उतने साम्प्रदायिक हैं कि उन्हें आईएस और तालिवान के समकक्ष खड़ा किया जाए ? इन सवालों को नजर अंदाज कर आइन्दा भारत के साम्यवादियों को अपनी ऊर्जा और ताकत व्यर्थ के दाँव पर नहीं लगाना चाहिए । जहाँ तक वोट बटोरने की बात है तो मोदी जी अवश्य ही साम्प्रदायिक कार्ड खेलते रहे हैं. किन्तु सत्ता में आने के बाद उनके आचरण से मुझे नहीं लगता कि वे रंचमात्र भी साम्प्रदायिक या हिन्दुत्वादी हैं ! झूंठ -मूंठ ही सही लेकिन जब मोदी जी हाथों में झाड़ू लेकर सड़कों पर निकले तो किस साम्प्रदायिकता का प्रदर्शन किया ? बंगाल ,केरल या त्रिपुरा में उन्होंने वामपंथ को नहीं कांग्रेस को जी भरकर कोसा तो फिर हम क्यों उनपर फोकट ही हलकान होते रहें ?
जब नितांत कोरा और मूल्य विहीन तथाकथित सभ्रांत मध्यवित्त वर्ग कदाचित समष्टिगत और सचेतन रूप से संसदीय प्रजातंत्र में प्रचार-प्रसार वाली तड़क-भड़क संस्कृति का अनुगमन करने में अग्रगण्य है। पूँजीवादी शासकवर्ग के प्रति यदा -कदा इस वर्ग की तात्कालिक असहमति या नाराजगी केवल उसके निहित स्वार्थों के बँटवारे तक ही सीमित है। इस वर्ग क आचरण तो बाजारबाद के खिलाडियों की 'चियर्स गर्ल्स' जैसा ही है। चैतन्यता या सामूहिक हितसाधन पर कोई सार्थक विमर्श कराने के बजाय सिर्फ व्यवस्थागत दोषों को उजागर करने में जुटा हुआ है। हमें सोचना ही होगा कि व्यवस्था से असहमत या आक्रान्त लोगों का रोष सत्तापक्ष पर दनादन निरंतर विषवमन वावजूद बेअसर क्यों सावित हो रहा है ? वामपंथ के संघर्ष और प्रगतिशील तबकों के संघर्ष से उतपन्न जनाक्रोश का प्रतिफल वामपंथ की संसदीय ताकत में इजाफा करने में असफल क्यों हो जाता है ? वामपंथ का पुण्यफल कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों को क्यों मिल जाता है ?
यह बक्त की पुकार है , युग की मांग है कि विवेकीजन सिर्फ अपने निजी स्वार्थ के लिए ही नहीं अपितु - राष्ट्रीय ,सामाजिक ,आर्थिक, साहित्यिक , दार्शनिक, आध्यात्मिक और शांति-सद्भाव इत्यादि सरोकारों के प्रति भी सजग रहें । हालाँकि जनवादी - प्रगतिशील मंचों से अवश्य इन विषयों पर परिचर्चाएँ-संगोष्ठियां आयोजित की जाती रहीं हैं. किन्तु यह समझ से परे है कि कांग्रेस -भाजपा और तीसरा मोर्चा सबको २२ पसेरी धान की तरह तौलकर सीपीएम की विशाखापटनम कांग्रेस ने अपने आप को पुनः शुध्दतावादी ही साबित किया है। इस कांग्रेस ने उपरोक सवालों को अनुत्तरित ही छोड़ दिया है। जन -हितकारी सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ती के निमित्त लिए गए निर्णयों को कार्यान्वित करने के प्रयत्न यदि मोदी सरकार करती है तो उसका सम्मान क्यों नहीं किया जाना चाहिए? क्या केंद्र के सहयोग के बिना सीपीएम की त्रिपुरा सरकार कुछ कर पाएगी ? आइन्दा यदि बंगाल या केरल में वामपंथ की वापिसी होती है तो क्या केंद्र से उसके रिश्ते केजरीवाल की तर्ज पर होंगे ?
श्रीराम तिवारी
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