गुरुवार, 21 मई 2015

अम्बानी की जांच का आदेश देने वाला अभी तक सही सलामत है यही क्या कम है?

भले ही कांग्रेस और भाजपा दोनों  की विफलता से कोई तातकालिक पूँजीवादी राजनैतिक विकल्प  कभी-कभार  सत्ता में आ  जाए , भले ही किसी को दिल्ली में शीला  दीक्षित या  'आप' के केजरीवाल का शासन प्रशासन रास न आये , भले ही केंद्र में लोगों को एनडीए -यूपीए या 'मोदी सरकार' का शासन-प्रशासन  रास न आये , भले  ही  वर्तमान [कु] व्यवस्था  की बदौलत 'आँधियों के बेर'  जैसा अप्रत्याशित प्रचंड बहुमत सत्ता  में आने के बाद जनता की नजरों में बदनाम होते रहें  , भले ही विपक्ष और मीडिया इनकी  कितनी ही आलोचना  करता रहे ,भले ही काठ की हांडी बार-बार सत्ता के चूल्हे पर चढ़ती रहे , किन्तु जब तक देश  के इस उत्तर आधुनिक वर्गीय   समाज  में भृष्ट -लम्पट और घूसखोर नौकरशाही का बोलवाला है ,जब तक धनबल-बाहुबल -सम्प्रदायबल -जातिबल की निहित स्वार्थी मानसिकता  का वर्चस्व है; तब तक  केंद्र में या राज्यों में 'नसीबवालो 'को या 'आप' के जैसे अनाड़ी -उजबक  नेताओं को चुनावी सफलता मिलती रहेगी। लेकिन शासन -प्रशासन की सफलता के  सूत्र 'ब्युरोक्रेट्स' के हाथों में है ही सुशोभित होते रहेंगे  
                       दिल्ली जैसे आधे -अधूरे राज्य में  नीतिविहीन 'आप' की  सफलता का तो सवाल ही नहीं उठता । वेशक केजरीवाल जैसा  कोई व्यक्ति अथवा 'आप' जैसा कोई  दल यदि  तथाकथित क्रान्तिकारी परिवर्तन के निमित्त  भृष्टाचार विरोध के  इंकलाबी तेवर अपनाता  भी  है  तो  भी उससे इस सिस्टम की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने  वाला। प्रशासनिक मशीनरी और नजीब जंग जैसे  कार्पोरेट परस्त  हुक्मरानों  की नीयत पर  'आप' की  'था-था थैया' से  कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। चूँकि   व्यक्ति -समूह- कौम- दल और समाज के भीतर मौजूद  स्वार्थियों की ताकत अन्योन्याश्रर्तित है। समाज के वंचित वर्ग के  जायज हितों को साधने के लिए 'आप' के  केजरीवाल अनगढ़ तरीके अपना रहे हैं। तथाकथित 'आम आदमी' के स्वार्थों को साधने के मोह में 'आप' के नेता  लगातार  असफल  हो रहे हैं।  यदि खुदा -न -खास्ता वे कुछ बेहतर करना भी  चाहें तो भारतीय प्रशासनिक सेवा के घिसे हुए  चतुर चालाक अधिकारी और उनके 'आका'  व्यवस्था पोषको द्वारा उसे  असहाय बना दिया जाएगा।
                   दिल्ली में केजरीवाल के नेतत्व में 'आप' को मिले  प्रचंड बहुमत और मोदी जी के नेतत्व में एनडीए या भाजपा को भारत की लोक सभा में प्राप्त  प्रचंड बहुमत  के बरक्स दोनों में एक  चमत्कारिक समानता है। 'आप ' के  केजरीवाल जब  कुछ  भी करना चाहते हैं तो उनके नौसीखिएपन की  'बिल्ली' तत्काल  रास्ता काट जाती है '। केजरीवाल की राह में 'गतिअवरोधक '  निर्मित  वाले  भी चौतरफा बिघ्न संतोषियों से घिरे हैं। उधर  मोदी जी पर  भी  खुद उन्ही के एनडीए ,भाजपा और  'संघ परिवार'  के ही अधिकांस  दमित -कुंठित लोग  घात लगाए बैठे हैं।  कुछ तो अभी  सदाबहार राजनीती के अभ्यारण्य में सर्वाइव कर रहे हैं।  जिस तरह कांग्रेस को कांग्रेस ने मारा , जिस तरह  'आप' के सिरफिरे लोग ही 'आप'  के केजरीवाल  को सफल  नहीं  होने दे रहे हैं । उसी  तरह मोदी जी  को  भी  न केवल कांग्रेस से , न केवल शिवसेना से  , न केवल राजयसभा में संयुक्त विपक्ष से ही परेशानी  है। बल्कि उन्हें  भाजपा के ही अपने कतिपय वरिष्ठ नेताओं से  भी  वास्तविक  खतरा है। वे यदि वास्तव में  कुछ  अच्छा या बेहतर करना  भी चाहते  हैं  तो वह  केवल उनकी व्यक्तिगत चूकों से ही विफल नहीं होंगे ! बल्कि खुद एनडीए के अलायन्स  पार्टनर  [शिवसेना ,अकाली और मुफ़्ती जैसे ] व् भाजपा के अंदर छिपे मोदी विरोधियों  की कुंठित मानसिकता के कारण  भी  वे असफल होंगे।
                          इसके अलावा  ये 'संघ' वाले ,मंदिर- वाले  , जेहाद वाले ,साम्प्रदायिक उन्माद  वाले ,जातीय आरक्षण  वाले ,कार्पोरेटपूँजी वाले तथा अधोगामी -पतनशील  व्यवस्था वाले जब तक सलामत हैं  तब तक क्या केजरीवाल क्या मोदी जी बल्कि  'ब्रह्मा' भी इस देश की तकदीर नहीं बदल सकते। सुशासन और विकाश की कामना एक अहम सोच है किन्तु उसके अनुशीलन का रास्ता वह नहीं जिस पर मोदी जी ,केजरीवाल जी और नजीब जंग चल रहे हैं।  अच्छे दिन जब आएंगे -तब आएंगे किन्तु अभी तो इन सबने मिलकर दिल्ली कीजनता का कीमा बना दिया है।
                                   वेशक कांग्रेस और यूपीए की खामियों  को  गिनाकर , जनता के बीच सपनों के इंद्रजाल  का प्रायोजित दुष्प्रचार करके ये लोग सत्ता में आये  हैं। किन्तु मूल्यों की परवाह करने वाले कर्तव्यनिष्ठ वतन  परस्त- प्रशासनिक क्षमता  के अभाव में ,निस्वार्थ देशभक्त अधिकारिओं -कर्मचारियों के बिना ,ईमानदार जन - नेतत्व  के बिना, मजदूरों -किसानों को साथ लिए बिना कोई भी तीस मारखां इस देश की तस्वीर और तकदीर  नहीं बदल सकता। चूँकि  बाजारीकरण ,निजीकरण ,  कारपोरेटीकरण तथा साम्प्रदायिक उन्माद की बढ़त  के फलस्वरूप  इन  दिनों   जनता के बीच  क्रांतिकारी शब्दावली का चलन बंद हो चुका  है । आजकल सामूहिक हितों और राष्ट्र हितों की चर्चा का भी  घोर अभाव है। शोषित-पीड़ित  तबकों  में एकता और जागरूकता का घोर अभाव है। इसीलिये वैचारिक शून्यता को भरने के लिए साम्प्रदायिक या अंधश्रद्धा के अंधड़ मुँह  बाए खड़े हैं ।                              चूँकि संसद और विधान  सभाओं में याने  संसदीय प्रजातंत्र में  इन दिनों साफ़  सुथरे और क्रांतिकारी सोच के लोग  बहुत कम मात्रा में ही चुने जाते हैं। क्योंकि चुनावों में पैसा  अहमियत रखता है।  पैसे की ताकत से भले ही स्वयं पूँजीपति खुद ही सत्ता में न आ सकेँ ,किन्तु  जो  निर्वाचित  हुए हैं उन से अडानी या  अम्बानी  जैसे पूंजीपति अपनी भक्ति तो  करवा  ही सकते हैं। इन पूँजीपति  भक्तों से यह उम्मीद  कैसे की जा सकती है कि वे इंकलाबी हो जायेंगे ?  क्या ऐंसे नेता  किसानों -मजदूरों या  देश की आवाम के  पक्ष  में नीतियां और कार्यक्रम  बनाएंगे ? जो नजीब जंग कभी अम्बानी की तेल कम्पनी में नौकरी किया करते थे, जिन्हे कांग्रेस ने ही एक खास तबके का शख्स होने और  'निजाम' खानदान से ताल्लुक रखने की एवज में पहले तो  जामिया - मिलिया का वाइस  चांसलर  बनाया और बाद में मोदी सरकार ने भी 'अम्बानी' के निर्देश पर उनका ओहदा बरकरार रखा। वरना देश के तमाम राज्यपालों को बदलने के बाद ये लेफ्टिनेंट गवर्नर ही क्यों बच  गए ?  ये  नजीव जंग अपनी एलजी की कुर्सी की खातिर अब यदि  मोदी भक्ति में लीन नहीं हैं  और यदि केजरीवाल को नाकों चने चबवा रहे हैं तो  उनकी 'राज भक्ति' में किसे शक है ?  ऐंसे नजीब जंग  उस केजरीवाल को सरकार कैसे चलाने दे सकते हैं, जिसने पिछ्ली बार अपने -४९ दिवसीय कार्यकाल में  मोदी जी के भामाशाह मुकेश  अम्बानी  के भृष्टाचार  को उजागर किया था। अम्बानी की जांच का आदेश देने वाला  अभी तक सही सलामत है यही क्या कम है?

                                श्रीराम तिवारी         

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