गुजरात में १२ साल पहले घटित गोधरा काण्ड के बाद - राष्ट्रव्यापी प्रचलन में आया -'गुजरात गौरव ' मेरे जैसे मंदमतियों के पल्ले कभी नहीं पड़ा। आजादी के बाद से अभी तक तो राष्ट्र चिंतकों या सुधीजनों ने केवल 'भारत- स्वाभिमान',राष्ट्र गौरव या 'भारत-भारती' जैसे 'शब्द युतियों ' को ही हृदयगम्य करने का दुस्साहस किया है । किन्तु गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों की काली छाया में एक और 'शब्द युति ' ने धीरे-धीर रूप और आकार धारण किया है ,इसे ही 'गुजरात -गौरव' कहा गया है । आरम्भ में 'गुजरात-गौरव' यात्रायें गुजरात तक ही सीमित थीं । इन यात्राओं के बहाने - नकली लाल किले से पूर्व प्रधानमंत्रियों का खूब उपहास किया गया। कालान्तर में यह 'गुजरात-गौरव ' यात्रा भारत दिग्विजय करते हुए दिल्ली के असली लाल किले पर जाकर अपनी अंतिम चरम अवस्था को प्राप्त हुई है । सुना है कि इन दिनों केंद्र सरकार के कामकाज में , शासन-प्रशासन की नीतियों में ,अफसरशाही में और भाजपा पार्टी के संगठन एवं उसके कार्यक्रमों में इस 'गुजरात गौरव' का ही बोलबाला है। इस क्षेत्रीयतावाद के बिषाणु से 'राष्ट्रवाद' का मनोरथ पूर्ण कैसे होगा ?
इससे पहले स्वामी दयानंद सरस्वती, दादाभाई नौरोजी,भीखाजी कामा,महादेव देसाई ,के एम मुंशी ,अमृतलाल नागर इत्यादि देशभक्त गुजरातियों ने भी कभी अपने गुजराती गौरव का प्रतिदान नहीं चाहा। राजा राममोहन राय ,केशव चंद सेन , स्वामी विवेकानंद और रजनी पामदत्त जैसे बंगालियों ने भी कभी अपना बंगाली पन नहीं झाड़ा। बल्कि इन महान विभूतियों ने तो सारे संसार में 'भारत गौरव' गाथा का गुणगान और उसी का ही महिमामंडन किया है। मोहनदास करमचंद गांधी ,सरदार वल्ल्भ भाई पटेल , सुभाष चन्द्र बोस और शहीद भगत सिंह जैसे अमर क्रांतिकारी भी आजीवन 'भारत गौरव' का ही निर्माण करते रहे हैं। उन्होंने कभी स्वप्न में भी 'गुजरात गौरव' ,'बंगाल गौरव' या पंजाब गौरव का जिक्र नहीं किया। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक तो महाराष्ट्र और 'भारत' की सीमाओं से भी आगे जाकर वैश्विक अवधरणा के लिए जाने जाते हैं। महाकवि सुब्रमण्यम भारती ने द्रविड़ प्रदेश का नहीं बल्कि सम्पूर्ण अखंड भारत के अमरत्व का बखान किया है।
यहां तक कि 'हिन्दू पद पादशाही के सर्जक छत्रपति शिवाजी का नारा भी 'मराठा स्वराज्य' तक कभी सीमित नहीं रहा. बल्कि वे तो 'हिंदवी स्वराज्य ' याने सम्पूर्ण भारत के स्वप्न दृष्टा थे। राष्ट्रीय स्खलन और वोट की कुत्सित राजनीति ने शिवसेना अगप ,हजपा,गोंगपा,झमुमो,मुस्लिम लीग, आरपीआई ,तृणमूल,बीजद,अकाली,मक्कालीपट्टम ,डीएमके,एडीएमके, इत्यादि के अपने -अपने दड़वे बना डाले हैं। यदि 'संघ' की मंशा और भाजपा का एजेंडा इन क्षेत्रीय दलों से मुक्त खुद के बलबूते सम्पूर्ण भारत में कांग्रेस की जगह लेने की है य़दि संघ परिवार और उसके 'प्रथम पुरुष' मोदी जी का नारा 'एकला चालो रे' का है ,तो पीएम ओ में गुजराती गौरव की अड़ी क्यों ? ,मनसा -वाचा -कर्मणा में यह असंगति क्यों ?चीनी राष्ट्रपति ली जिन पिंग को गुजराती खमण या ढोकला पसंद है यह उन्होंने कब कहा था ?उन्हें जम्मू श्रीनगर ,अमृतसर या अरुणाचल प्रदेश भी तो घुमाया जा सकता था।
भाजपा के अवैतनिक कोषाध्यक्ष गुजराती भामाशाह याने -अडानी,अम्बानी ही क्यों ?क्या टाटा-बिरला ,महिंद्रा,किर्लोस्कर,मित्तल,अजीम प्रेमजी और बांगुर अब गए गुजरे हो गए या कि उन पर भरोसा इसलिए नहीं ,क्योंकि वे 'गुजराती ' धन्नासेठ नहीं नहीं हैं ? हो सकता है की वे अपना और नेताओं का कालाधन सफ़ेद करने में कभी कांग्रेस के बगलगीर रहे हों ! लेकिन यह आरोप तो तो रिलायंस या अम्बानी -अडानी परिवारों के साथ भी जुड़ा रहा है. सत्ता रूढ़ नेतत्व का इस तरह से पूँजीपति वर्ग से दोस्ताना और उनके 'लाभों' का हितचिंतक होना -भारत में या दुनिया में और कोई मिसाल नहीं मिलेगी। यदा-कदा हाथ में झाड़ू उठा लेने ,विकाश का हाँका लगा देने ,विरोधियों को धमका देने ,आतंकियों को उकसा देने अथवा काले धन पर वयानबाजी करने से भारत का भला नहीं होने वाला।
वर्तमान नेतत्व के उथले मिजाज और अधकचरी -अदार्शनिक भाव -भंगिमा से लगता है कि देश की बागडोर मजबूत हाथों में नहीं दी गई। राष्ट्रीय स्वाभिमान -सर्वसमावेशी चेतना और धीर-वीर -गंभीर व्यक्तित्व के सामूहिक नेतत्व का नितात्न्त आभाव है। इनकी नीति और नियत दोनों ही कुछ इस तरह की अम्बानी -अडानी या देश के मुनाफाखोरों की बल्ले-बल्ले हो रही है। इन जमाखोरों-गल्लाचोरों,मुनाफाखोरों से गलबइयाँ डालकर चलने वाले नेता अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों से आगे नहीं सोच सकते। इंदिराजी,राजीव जी ,नरसिम्हाराव, अटलजी या डॉ मनमोहनसिंग जैसे पूर्ववर्तियों ने जितना किया जैसा भी किया वो उतना बुरा नहीं था ,जितना कि अब होने जा रहा है। भले ही वर्तमान नेता बातें बड़ी-बड़ी कर लें किन्तु कटु सत्य यही है कि 'थोथा चना बाजे घना '!
श्रीराम तिवारी
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