इससे पहले कि काठमांडू में सम्पन्न दक्षेस शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच जो कुछ भी अघटित घटा , उस पर देश की संसद और आवाम दोनों चिंतन करें देश के बुद्धिजीवियों और कूटनीतिज्ञों को भी इस संदर्भ में अपना मंतव्य प्रस्तुत करना चाहिए। क्या इस शिखर सम्मेलन का सार तत्व यही अज्ञानता और अहंकार की पराकाष्ठा है।क्या सारा दोष पाकिस्तान के मत्थे मढ़ देने से दुनिया हमें 'हंस' और उसे कौआ समझ लेगी ? वैसे भी नवाज भाई जान या पाकिस्तान के लिए इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है। परवेज मुसर्रफ भी आगरा में अटलजी को चूना लगाकर ,मटन बिरयानी खाकर चला गया था।बातचीत की असफलता का ठीकरा आडवाणी के सर फोड़ गया था। नवाज शरीफ तो वेचारा वहाँ की फौज ,साम्प्रदायिक कटट्रपंथियों -कठमुल्लाओं और आईएसआई का गुलाम है। किन्तु नरेंद्र भाई मोदी तो ' भूतो न भविष्यति ' हैं न ! उन्हें सदैव स्मरण होना चाहिए कि वे एक ऐंसे मुल्क के प्रधानमंत्री हैं जो रूप -आकर ,गरिमा ,लोकतंत्र और आर्थिक -सामरिक प्रभुता में पाकिस्तान से १० गुना ताकतवर है। अकेले अडानी -अम्बानी ही पाकिस्तान को खरीदकर मोदी जी की जेब में डाल सकते हैं। चूँकि मोदी जी सिर्फ भाजपा के ,या सिर्फ पूँजीपतियों के ही नहीं , उन ३० % मतदाताओं के भी नहीं हैं जिनकी बदौलत संसद में ३८३ कमल खिले हैं। बल्कि मोदी जी तो १२५ करोड़ भारतीयों के महान गौरवशाली प्रधानमंत्री हैं। वे हमारे महा प्रतापी बेजोड़ - प्रचंड शक्तिशाली प्रधानमंत्री हैं। सवाल ये है कि इन्हें नवाज शरीफ या पाकिस्तान को राह पर लाने या रिश्ते ठीक करने से किसने रोका ? काठमांडू में रिश्ते मजबूत हुए या तार-तार ये तो वक्त ही बताएगा किन्तु कुछ आशंकाएं तो जरूर हैं जिनका समाधान दोनों मुल्कों की आवाम को चाहिए। दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों और सरकारों को मालूम है कि वे अपना पड़ोस कभी बदल नहीं सकेंगे। किन्तु वे अपनी सोच बदलकर रिश्तों की कड़ुआहट कम कर सकते हैं। इसलिए उनकी खिदमत में पेश है :-
रहीम बाबा कह गए हैं -
रूठे स्वजन मनाइये , जो रूठें सौ बार।
रहिमन पुनि-पुनि पोइए ,टूटे मुक्ता हार।। [भारत-पाक दोनों के लिए ]
कबीर बाबा कह गए हैं -
जब तूँ था तब मैं नहीं ,अब तूँ है मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सँकरी ,जा में दो न समाय।। [ नवाज शरीफ के लिए ]
आतंकवाद और दोस्ती दोनों एक साथ नहीं रह सकती . . . . . !
गोस्वामी तुलसीदास बाबा कह गए हैं -
दोउ को होहिं एक समय भुआला।
हँसहु ठठाय फुलावहु गाला।। [सिर्फ मोदी जी के लिए ]
अपना वैयक्तिक वर्चस्ववादी एजेंडा और भारत का राष्ट्रीय एजेंडा एक साथ मत चलाइये … ।
मोदी जी विगत १६ मई -२०१४ से पूर्व सिंह गर्जना कर रहे थे कि हम सत्ता में आयंगे तो पाकिस्तान को ,चीन को ठीक कर देंगे। जो भारत की ओर गलत निगाहें डालते रहते हैं हम उन्हें ठीक कर देंगे । हम आतंकियों को नेस्तनाबूद का र्देंगे। हम कालाधन वापिस लाएंगे और उन चोट्टों के नाम भी उजागर करेंगे। हम देश के गल्लाचोरों को -मुनाफाखोरों को ,रिश्वत खोरों को फाँसी पर चढ़ा देंगे। हम मनमोहनसिंह की तरह निष्क्रिय नहीं बनें रहेंगे ।इसी तरह सुशासन और विकाश के चुनावी उत्तेजक भाषण सुनकर भारत की युवा आवाम ने न केवल तालियाँ बजाई बल्कि ऐतिहासिक प्रचंड बहुमत देकर मोदी को सर्वशक्तिमान बना दिया। कालाधन का क्या हुआ पता नहीं ? महंगाई , बेकारी , हत्या ,बलात्कार कितने कम हुए पता नहीं। वर्तमान सत्तासीन नेतत्व के 'बोल बचन' से क्या हासिल हुआ वो तो सबको दिख रहा है. किन्तु पाकिस्तान और चीन कितने डरे पता नहीं। वर्तमान परिदृश्य में हालात इतने बुरे होंगे इसका भी किसी को अंदाजा नहीं रहा होगा । दो पडोसी प्रधानमंत्री एक दूसरे से नजरें ही नहीं मिलायंगे यह किसी ने शायद ही सोचा होगा ! शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ -तत्कालीन दोनों महाशक्तियों में भी इस कदर अबोला या संवादहीनता का दृश्य कभी देखने -सुनने में नहीं आया। इंदिराजी और मुजीब के नेतत्व में जब पाकिस्तान खंडित हुआ तो भी जुल्फीकार अली भुट्टो और इंदिराजी के मध्य ऐतिहासिक शिमला समझौता सम्पन्न हुआ। इस तरह का ३६ का आंकड़ा कभी नहीं देखा गया।
वेशक इस असहज स्थति के लिए पाकिस्तान तब भी ९९% कसूरवार हुआ करता था । किन्तु फिर भी बातचीत और मेल मिलाप को रोककर स्थति को इस मुकाम तक नहीं आने दिया गया। इस दौर के सत्तासीन नेता चुनावी भाषणों में बेल का दूध निकालने का वादा या दावा कर बैठे हैं । क्या भाजपा और संघ परिवार के इन नेताओं को नहीं मालूम था कि पाकिस्तान के अड़ियल रवैये के कारण ही १५ अगस्त - १९४७ से १६ मई -२०१४ तक ,यहाँ तक की अटलबिहारी की एनडीए सरकार के कार्यकाल तक भारत की यही नियति थी कि उसे पाकिस्तान के फौजी जनरलों से जूझना पड़ा। मोदी जी आप तो पाकिस्तान के चुने हुए नुमाइंदों से भी संगत नहीं बिठा पा रहे हो ! यदि आप का कथन है कि हम क्या करें ? पाकिस्तान ही गुनहगार है. तो यह कौन सा नया आविष्कार है ? पाकिस्तान में तो अब आंशिक जम्हूरियत भी है. किन्तु इससे पहले तो वहाँ अधिकांस फौजी निजाम ही रहा है । यदि यही बहाना करना था जो काठमांडू में किया तो डॉ मनमोहनसिंह ही क्या बुरे थे ? आपसे तो वे ही ठीक हैं क्योंकि लोग उनसे ईर्षा या द्वेष नहीं करते । वेशक उनकी आर्थिक नीतियाँ देश के मेहनतकशों के खिलाफ रहीं हैं किन्तु फिर भी वे बड़बोले लफ़्फ़ाज़ तो अबश्य नहीं हैं। डॉ मनमोहनसिंह के समक्ष दुनिया का हर राष्ट्र अध्यक्ष इज्जत से पेश आता है । वेशक डॉ मनमोहनसिंह की आर्थिक नीतियों से देश में भृष्टाचार बढ़ा और अमीरों की तरक्की ज्यादा हुई है। लेकिन मोदी जी तो इस आर्थिक नीति की पूँजीवादी कलाकारी में तो मनमोहन सिंह के भी उस्ताद निकले हैं . वेशक मोदी जी राजनयिक गाम्भीर्य और कूटनीति में महाफिस्सड्डी साबित हुए हैं । क्या यह उनकी उत्तरदायित्व हीनता नहीं है कि आज सबके सब पडोसी आँखें तरेर रहें हैं ? क्या इसलिए देश की आवाम ने 'मोदी-मोदी' का सिंहनाद किया था कि सबसे बोलचाल बंद कर दो ? क्या यह नितांत वैयक्तिक अहंकार की उद्घोषणा नहीं है ? क्या दो सनातन पड़ोसियों के प्रधानमंत्रियों द्वारा हाथ नहीं मिलाने या नजर नहीं मिलाने के लिए हम ख़ुशी का इजहार करें ?
यदि इस दक्षेश सम्मलेन का यही एजेंडा था तो देश को विश्वाश में क्यों नहीं लिया गया ? क्या यह केंद्रीय मंत्रिमंडल और भाजपा का पारित प्रस्ताव था ? क्या यह मोदी की तात्कालिक बाध्यता थी ? वेशक तात्कालिक बाध्यता के लिए नवाज शरीफ १०० % कसूरवार हो सकते हैं. किन्तु तब तो मोदीजी और उनकी पार्टी को सारे देश से उस झूँठ के लिए ,उस दम्भ और बड़बोलेपन के लिए , माफ़ी मांगनी चाहिए , जिसमे उन्होंने पाकिस्तान को सबक सिखाने का वादा किया है । क्या पाकिस्तान को नसीहत मिल गयी है ? क्या दाऊद मिल गया है ?क्या मुंबई बम कांड के दोषी फांसी पर चढ़ चुके हैं ? क्या पाकिस्तान अब पाक-साफ़ हो गया है ? यदि नहीं तो ,काठमांडू में जो हुआ क्या वह देश की आवाम को मंजूर है ? यदि हाँ तो यह आशा की जानी चाहिुए कि आइन्दा किसी आतंकी बारदात ,सीमाओं पर गोलीबारी या देश के अंदर सम्प्रदायिक बल्बे में पाकिस्तान का कोई उल्लेख नहीं होना चाहिए। यदि यह संभव नहीं तो स्वीकार कीजिये कि भारत पाकिस्तान के संबंधों को सामान्य बनाने में आप असफल रहे हैं। आपसे बेहतर नीतियाँ नेहरू,इंदिरा या अटलजी के पास थीं। इन्होने डींगे नहीं हाँकी कुछ करके ही दिखाया है।
श्रीराम तिवारी
रहीम बाबा कह गए हैं -
रूठे स्वजन मनाइये , जो रूठें सौ बार।
रहिमन पुनि-पुनि पोइए ,टूटे मुक्ता हार।। [भारत-पाक दोनों के लिए ]
कबीर बाबा कह गए हैं -
जब तूँ था तब मैं नहीं ,अब तूँ है मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सँकरी ,जा में दो न समाय।। [ नवाज शरीफ के लिए ]
आतंकवाद और दोस्ती दोनों एक साथ नहीं रह सकती . . . . . !
गोस्वामी तुलसीदास बाबा कह गए हैं -
दोउ को होहिं एक समय भुआला।
हँसहु ठठाय फुलावहु गाला।। [सिर्फ मोदी जी के लिए ]
अपना वैयक्तिक वर्चस्ववादी एजेंडा और भारत का राष्ट्रीय एजेंडा एक साथ मत चलाइये … ।
मोदी जी विगत १६ मई -२०१४ से पूर्व सिंह गर्जना कर रहे थे कि हम सत्ता में आयंगे तो पाकिस्तान को ,चीन को ठीक कर देंगे। जो भारत की ओर गलत निगाहें डालते रहते हैं हम उन्हें ठीक कर देंगे । हम आतंकियों को नेस्तनाबूद का र्देंगे। हम कालाधन वापिस लाएंगे और उन चोट्टों के नाम भी उजागर करेंगे। हम देश के गल्लाचोरों को -मुनाफाखोरों को ,रिश्वत खोरों को फाँसी पर चढ़ा देंगे। हम मनमोहनसिंह की तरह निष्क्रिय नहीं बनें रहेंगे ।इसी तरह सुशासन और विकाश के चुनावी उत्तेजक भाषण सुनकर भारत की युवा आवाम ने न केवल तालियाँ बजाई बल्कि ऐतिहासिक प्रचंड बहुमत देकर मोदी को सर्वशक्तिमान बना दिया। कालाधन का क्या हुआ पता नहीं ? महंगाई , बेकारी , हत्या ,बलात्कार कितने कम हुए पता नहीं। वर्तमान सत्तासीन नेतत्व के 'बोल बचन' से क्या हासिल हुआ वो तो सबको दिख रहा है. किन्तु पाकिस्तान और चीन कितने डरे पता नहीं। वर्तमान परिदृश्य में हालात इतने बुरे होंगे इसका भी किसी को अंदाजा नहीं रहा होगा । दो पडोसी प्रधानमंत्री एक दूसरे से नजरें ही नहीं मिलायंगे यह किसी ने शायद ही सोचा होगा ! शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ -तत्कालीन दोनों महाशक्तियों में भी इस कदर अबोला या संवादहीनता का दृश्य कभी देखने -सुनने में नहीं आया। इंदिराजी और मुजीब के नेतत्व में जब पाकिस्तान खंडित हुआ तो भी जुल्फीकार अली भुट्टो और इंदिराजी के मध्य ऐतिहासिक शिमला समझौता सम्पन्न हुआ। इस तरह का ३६ का आंकड़ा कभी नहीं देखा गया।
वेशक इस असहज स्थति के लिए पाकिस्तान तब भी ९९% कसूरवार हुआ करता था । किन्तु फिर भी बातचीत और मेल मिलाप को रोककर स्थति को इस मुकाम तक नहीं आने दिया गया। इस दौर के सत्तासीन नेता चुनावी भाषणों में बेल का दूध निकालने का वादा या दावा कर बैठे हैं । क्या भाजपा और संघ परिवार के इन नेताओं को नहीं मालूम था कि पाकिस्तान के अड़ियल रवैये के कारण ही १५ अगस्त - १९४७ से १६ मई -२०१४ तक ,यहाँ तक की अटलबिहारी की एनडीए सरकार के कार्यकाल तक भारत की यही नियति थी कि उसे पाकिस्तान के फौजी जनरलों से जूझना पड़ा। मोदी जी आप तो पाकिस्तान के चुने हुए नुमाइंदों से भी संगत नहीं बिठा पा रहे हो ! यदि आप का कथन है कि हम क्या करें ? पाकिस्तान ही गुनहगार है. तो यह कौन सा नया आविष्कार है ? पाकिस्तान में तो अब आंशिक जम्हूरियत भी है. किन्तु इससे पहले तो वहाँ अधिकांस फौजी निजाम ही रहा है । यदि यही बहाना करना था जो काठमांडू में किया तो डॉ मनमोहनसिंह ही क्या बुरे थे ? आपसे तो वे ही ठीक हैं क्योंकि लोग उनसे ईर्षा या द्वेष नहीं करते । वेशक उनकी आर्थिक नीतियाँ देश के मेहनतकशों के खिलाफ रहीं हैं किन्तु फिर भी वे बड़बोले लफ़्फ़ाज़ तो अबश्य नहीं हैं। डॉ मनमोहनसिंह के समक्ष दुनिया का हर राष्ट्र अध्यक्ष इज्जत से पेश आता है । वेशक डॉ मनमोहनसिंह की आर्थिक नीतियों से देश में भृष्टाचार बढ़ा और अमीरों की तरक्की ज्यादा हुई है। लेकिन मोदी जी तो इस आर्थिक नीति की पूँजीवादी कलाकारी में तो मनमोहन सिंह के भी उस्ताद निकले हैं . वेशक मोदी जी राजनयिक गाम्भीर्य और कूटनीति में महाफिस्सड्डी साबित हुए हैं । क्या यह उनकी उत्तरदायित्व हीनता नहीं है कि आज सबके सब पडोसी आँखें तरेर रहें हैं ? क्या इसलिए देश की आवाम ने 'मोदी-मोदी' का सिंहनाद किया था कि सबसे बोलचाल बंद कर दो ? क्या यह नितांत वैयक्तिक अहंकार की उद्घोषणा नहीं है ? क्या दो सनातन पड़ोसियों के प्रधानमंत्रियों द्वारा हाथ नहीं मिलाने या नजर नहीं मिलाने के लिए हम ख़ुशी का इजहार करें ?
यदि इस दक्षेश सम्मलेन का यही एजेंडा था तो देश को विश्वाश में क्यों नहीं लिया गया ? क्या यह केंद्रीय मंत्रिमंडल और भाजपा का पारित प्रस्ताव था ? क्या यह मोदी की तात्कालिक बाध्यता थी ? वेशक तात्कालिक बाध्यता के लिए नवाज शरीफ १०० % कसूरवार हो सकते हैं. किन्तु तब तो मोदीजी और उनकी पार्टी को सारे देश से उस झूँठ के लिए ,उस दम्भ और बड़बोलेपन के लिए , माफ़ी मांगनी चाहिए , जिसमे उन्होंने पाकिस्तान को सबक सिखाने का वादा किया है । क्या पाकिस्तान को नसीहत मिल गयी है ? क्या दाऊद मिल गया है ?क्या मुंबई बम कांड के दोषी फांसी पर चढ़ चुके हैं ? क्या पाकिस्तान अब पाक-साफ़ हो गया है ? यदि नहीं तो ,काठमांडू में जो हुआ क्या वह देश की आवाम को मंजूर है ? यदि हाँ तो यह आशा की जानी चाहिुए कि आइन्दा किसी आतंकी बारदात ,सीमाओं पर गोलीबारी या देश के अंदर सम्प्रदायिक बल्बे में पाकिस्तान का कोई उल्लेख नहीं होना चाहिए। यदि यह संभव नहीं तो स्वीकार कीजिये कि भारत पाकिस्तान के संबंधों को सामान्य बनाने में आप असफल रहे हैं। आपसे बेहतर नीतियाँ नेहरू,इंदिरा या अटलजी के पास थीं। इन्होने डींगे नहीं हाँकी कुछ करके ही दिखाया है।
श्रीराम तिवारी
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