कल परशुराम जयंती के उपलक्ष्य पर शिवराज मामा ने मन्दिरों को सरकारी नियंत्रण (मैनेजमेंट) से मुक्त करने का फैसला किया। साथ ही ब्राहम्ण कंट्रोल बोर्ड भी बनाने की बात कही जो ब्राह्मण धर्म और संस्कृति को बचाने का काम करेंगे। इसके अलावा जमीन को अबसे पुजारी बेच सकेगा नाकि कलेक्टर और सभी पुजारियों को 5000 रुपये महीना भत्ता भी दिया जाएगा तथा पुजारी वेलफेयर फंड भी बनेगा।
1817 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सबसे पहले मन्दिरों पर कब्जा करना शुरू किया था। 1857 की क्रांति के बाद जब अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को टेकओवर किया तो 1863 में नया एक्ट बनाकर अंग्रेजो ने इसे अपने अधीन कर लिया। 1857 की क्रांति देखने के बाद अंग्रेजो ने समझ लिया था कि हिन्दू को कमजोर करना ही पड़ेगा और इसके लिये मैकॉले जो पहले अंग्रेजी शिक्षा पर काम कर हिन्दू शिक्षा पद्धति खत्म कर रहा था, उसे लॉ कमिश्नर बना ये काम भी दिया गया कि हिन्दू को तोड़ने को कानून बनाओ।
उसने सबसे पहले 1860 का इंडियन पीनल एक्ट बनाया जो IPC आज भी चलती है जिसमें 1935 का आयरिश पीनल कोड भी मिला दिया गया था। इसके बाद 1862 का पुलिस एक्ट आया जो भी आजतक चलता है जिसमें पुलिस सरकार की नौकर होती है और सरकारों के लिए काम करती है जनता के लिए नहीं।
और फिर 1863 में आया हिन्दुओ का रिलीजस एंडोमेंट एक्ट जिससे मन्दिरों पर नए सिरे से कब्जा शुरू हो गया जो 1817 से ही चल रहा था।
हमारे मन्दिर जो गुरुकुल, गौशाला, वेदशाला, विवाहशाला, योगशाला, व्यायामशाला, आयुर्वेदशाला, मंडी (बाजार), धर्म प्रचार प्रसार आदि का काम करते थे, वो सब बन्द हो गए। इसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा आ गयी और हम धर्म से विमुख होते चले गए। हमारी गायें कटनी शुरू हो गयी। हमारे शास्त्र बर्बाद होने लगे। हमारी चिकित्सा खत्म हो गयी। हमारे अखाड़े खत्म हो गए। हमारे बाजार (व्यवसाय) जहां से धन उत्पन्न होता था वो खत्म हो गया जिससे हमारा धर्म प्रचार प्रसार का कार्य भी रुक गया। यहां तक कि गरीबो के भोजन का प्रबंधन रुक गया और गरीब बेटियों के विवाह की व्यवस्था तक रुक गयी।
जब अंग्रेजो ने इसका लाभ देखा तो 1925 में अंग्रेजो ने सभी धर्मों का सरकारी नियंत्रण कर लिया लेकिन भारी विरोध होने पर 1927 में इसे वापिस ले लिया गया और सिर्फ मन्दिरों का कब्जा जारी रखा। यहां तक कि 1925 में अंग्रेजो ने सिक्खों के गुरुद्वारों का अधिकार SGPC को दे दिया जो उन्होंने 1920 में बनाई थी। वही SGPC जो आज भी गुरुद्वारे नियंत्रण करती है और खलिस्तानी पालती है जो कहते हैं कि ये इंडिया नहीं पंजाब है। आखिर इसी मकसद से तो उसे अंग्रेज बनाकर गए थे।
1947 के बाद नेहरू ने न सिर्फ इसे चालू रखा बल्कि राज्यो को और ज्यादा पावर दे दी। 1951 में पहली बार तमिलनाडु सरकार ने मन्दिरों पर कब्जा शुरू किया। उसके फंड और मेजमेंट में अपने लोग बिठा दिए जो कमिश्नर रैंक के थे। इसका विरोध होने पर कोर्ट ने जब इसपर रोक लगाने को कहा तो 1959 नया कानून लाया गया जिसमें कहा गया कि हम सिर्फ ये देखेंगे कि मन्दिरों को मिलने वाले फंड का दुरुपयोग न हो जबकि ऐसा कुछ नही हुआ और आज तो वहां नेताओ तक ने मैनेजमेंट के नाम पर मन्दिरों की हजारो एकड़ जमीन कब्जा रखी है और उसे व्यावसायिक रूप से चला पैसा बना रहे हैं।
फिर दक्षिण के राज्यो से शुरू होकर ये अन्य राज्यो में भी शुरू हो गया। वहां भी नेताओं का ऐसा ही कब्जाऊ खेल चल रहा है।
आज देश के अंदर 9 लाख मन्दिरों में से 4 लाख मन्दिर सरकारी नियंत्रण में हैं। अधिकतर मन्दिर दक्षिण के ही हैं क्योंकि जब 1863 में मैकॉले ने इसे बनाया तो उसने पाया था कि नार्थ के मंदिर तो सब मुगलों ने तहस नहस कर दिए लेकिन दक्षिण के मंदिर अभी भी बचे हैं जहां से धन संपदा बहुत मिल सकती है।
आज भारत मे 35 कानून अलग अलग राज्यों में हैं जो मन्दिरों पर नियंत्रण करते हैं। सालाना 1 लाख करोड़ का कलेक्शन मन्दिरों से सरकार को होता है जिससे सरकार फिर अन्य काम (सड़क वगैहरा) से लेकर मौलानाओ पादरियों की सैलरी तक दे रही है।
इसके उलट मस्जिद चर्च गुरद्वारे आज भी फ्री हैं। वहां भी भले ही कब्जा है लेकिन वो उन लोगो के ही अपनो का है, सरकार का नहीं। न सरकार उनसे कोई कलेक्शन लेती है जैसा मन्दिरों से लिया जाता है।
संविधान कहता है कि भारत की संस्कृति (हिन्द) की रक्षा होगी जबकि आजादी के बाद भी हुआ इसका उल्टा और हमारे मन्दिर जो गुरुकुल, गौशाला, वेदशाला, विवाहशाला, योगशाला, व्यायामशाला, आयुर्वेदशाला, मंडी (बाजार), धर्म प्रचार प्रसार आदि का काम करते थे, वो फिर से शुरु नही हो सके। जो 1 लाख करोड़ सरकार लेती है वो पैसा इन कामो में लगाया जा सकता था।
हालांकि कोर्ट में इसकी सुनवाई चल रही है लेकिन तमिलनाडु सरकार ही विरोध करने आ गयी जो देश की सबसे पहली कब्जा करने वाली सरकार थी और आज उनके नेता मन्दिरों की जमीनों पर बैठे हैं।
हालांकि कोर्ट से भी क्या उम्मीद करनी कि वो संविधान का पालन करते हुए हिन्दू संस्कृति की पुनर्स्थापना कराने में मदद करेगा क्योंकि ये तो हिन्दू संस्कृति को बर्बाद करने के नए नए तरीके जो ला रहा है जैसे वो नल्ला मैरिज (सेम सेक्स मैरिज)।
आज केंद्र से ज्यादा पॉवर राज्यो के पास चले गयी है। केंद्र अगर कानून खत्म भी कर दे तो राज्यो के अपने कानून हैं जिनमे केंद्र दखल नही दे सकता। दूसरा जब राज्य के नेता ही मन्दिरों पर कब्जा किये हैं और राज्य राजस्व खा अपनी सेक्युलर राजनीति कर रहे हैं तो कितने राज्य इसे मानेंगे ये भी सवाल है।
इसके बाद दूसरा सवाल ये है कि मंदिर मुक्त होने के बाद उनका संचालन कौन करेगा? क्या जो पुजारी वहां होंगे उनको कोई भी सरकार मैनेज नही कर सकती? या अपने लोग वहां नही बिठा सकती? इसके अलावा ये भी कि जैसे वक्फ या चर्च के नाम पर कुछ चुनिंदा लोग ही सारी जमीन खा रखे हैं और आम मुस्लिम ईसाई का भला ये आजतक न कर सके, ऐसा ही हिन्दुओ के साथ तो नही होगा? जबकि हिन्दू सोच रहा है कि इससे पुराना समय लौट आएगा जैसा ऊपर बताया था।
और फिर कहीं हिन्दू भी मुस्लिमो और ईसाइयो की तरह इन कब्जा वालो का गुलाम तो नही बनेगा जो हिन्दुओ को कंट्रोल करेंगे और नेता इन कब्जे वालों को हिन्दुओ के वोट के लिए जैसा मुस्लिम वोट या ईसाई वोट के लिए होता है और मुस्लिम-ईसाई अपने आका। (फलाना मौलाना, फलाना पादरी) के कहने पर देता है, ऐसा ही हिन्दुओ का कोई रहनुमा तो नही बन जायेगा?
इसलिए सवाल तो सरकारी नियंत्रण से मुक्ति के बाद भी हैं कि इनसब पर तब कौन नजर रखेगा?
या फिर ये बेहतर है कि सभी धर्मों के मंदिर मस्जिद चर्च गुरद्वारे पर सरकार कब्जा कर दे और इनका मैनेजमेंट वही देखें, सिर्फ अकेले मन्दिरों का नहीं। और 35 की जगह भी सिर्फ 1 कानून हो जो पूरे देश मे लागू हो। अवैध कब्जा भी वापिस छीन लिया जाए और एक्सपर्ट कमेटी बिठा दी जाए जो अपने अपने धार्मिक स्थलों की निगरानी करेगी कि क्या बेचना है, क्या खरीदना है, कब्जा नही होने देना है और रख रखाव कैसे करना है।
साथ ही सभी से सरकार अपने लिए 5 या 10% राजस्व लेती रहे जो फिर वो धर्म मजहब पर न खर्च करे क्योंकि बाकी का राजस्व का पैसा सब अपने अपने धर्म-मजहबो पर खर्च खुद कर लेंगे जिसमे धर्मस्थल के रख रखाव, नया धर्म स्थल, त्योहार मनाने आदि का खर्चा, सैलरी आदि आ ही जायेगी, जिसके लिए भी अपने अपने धर्म-मजहब वाले एक विशेष समिति बनाएं जो धर्म-मजहब का क्या क्या कार्य करना है उसके दिशा निर्देश तय करें।
लेकिन इसमें एक अड़ंगा आएगा कि फिर न मस्जिद-चर्च वाले अपने पैसो से हिन्दुओ का धर्मान्तरण करा पाएंगे और न हिन्दू उन पैसो से घर वापसी क्योंकि धर्मान्तरण कानून (जो अलग से आएगा) सबपर रोक लगा देगा कि पैसो के बल पर धर्मान्तरण-घरवापसी अपराध है। हालांकि बाकी के काम जो ऊपर बताए थे वो हो सकेंगे, फिर वो धर्म प्रचार भी क्यों न हो क्योंकि प्रचार करना अपराध नही है, लालच या डराना अपराध है।
लेकिन इन सबके लिए भी केंद्र, राज्य, कोर्ट और गैर हिन्दू मजहब वाले एक साथ आने चाहिए, जो होने से रहा क्योंकि बहुतों का बहुत कुछ छीन जाएगा। 1925 में अंग्रेजो को तक विरोध झेलना पड़ा। ऊपर से धर्मान्तरण, कब्जा, राजनीतिक पावर, नेतागिरी जैसी चीजों की भी बलि देनी होगी।
अब यदि ये बलि देने की इच्छा हो तो फिर ये मसला राज्यों से होते हुए केंद्र और सुप्रीम कोर्ट तक आ सकता है।
वरना उल्टा भी चलें तो कोर्ट में केस पड़ा ही है, कोर्ट केंद्र से जवाब मांगेगा, फिर केंद्र राज्यो को भी पार्टी बनाने को कहेगा, राज्य भी यदि माने तो फिर यदि फैसला वो आया जिसकी बात हो रही है तो फिर इन गैर हिन्दू कब्जाधारियों को भी सड़क पर मैनेज करना पड़ेगा क्योंकि प्यार से तो ये भी मानेंगे नहीं और भीड़तंत्र की शक्ति जरूर दिखाएंगे।
बाकी, आप क्या सोचते हैं?
अखंड भारत सनातन संस्कृति
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