मुलायमसिंह यादव न तो समाजवादी हैं और न ही लोहियावादी हैं, वे पिछड़ावर्ग के हितेषी भी नहीं हैं, और उन्हें किंचित 'परिवारवादी' भी नहीं कहा जा सकता । दसरल वे उत्तरप्रदेश में क्षेत्रीयतावादी 'नकारात्मक राजनीति' की खुरचन मात्र हैं। उन्हें सत्ता में लाने का श्रेय विश्वनाथ प्रतापसिंह , लालकृष्ण आडवाणी और नरसिम्हाराव को जाता है। वीपीसिंह ने नेता बनाया , आडवाणी की रथयात्रा ने मुलायम को हीरो बनाया और नरसिम्हाराव ने उन्हें परवान चढ़ाया। भाई-भतीजावाद,परिवारवाद,भृष्टाचार , सैफई वाली गुंडई , जातिवाद और सम्प्रदायवाद उनके चुनाव जिताऊ अश्त्र-शस्त्र रहे हैं।
भाई शिवपालयादव ,जिगरी दोस्त अमरसिंह और मुख्तार अंसारी जैसे लोग उनके पुराने राजदार रहे हैं। अब जबकि यूपी में विधान सभा चुनाव सिर पर हैं,तब मुलायम कुनबा आपसी जूतम पैजार में व्यस्त है।यक्ष प्रश्न यह है कि मुलायम सिंह यादव की भृष्ट विरासत पर उनका पुत्र अखिलेश यादव क्या ईमानदारी की बुलन्द और भव्य ईमारत खड़ी कर सकता है ? मेरा ख्याल है -नहीं ! क्योंकि अखिलेश यादव को कदाचित राजनैतिक पार्टी निर्माण और संगठन खड़ा करने का अनुभव नहीं है। जिस पार्टीके कारण वे यूपी के सीएम हैं उस सपाके निर्माण में भी अखिलेश का कोई योगदान नहीं है। वेशक वे यदि अपने पिता के संजाल से मुक्त होकर चन्द्र बाबु नायडू या जय ललिता की राह पकडते हैं ,तो उनके लिए संभावनाओं के द्वार खुल सकते हैं। लेकिन इसमें वक्त लगेगा।
बहरहाल यूपी की जनता शायद ही इस बार के चुनावों में सपा या मुलायम परिवार पर मेहरवान होगी !वेशक मुलायमसिंह का वंशज होना अखिलेश के लिए जितना लाभप्रद रहा है किन्तु उतना ही नुकसानदेह और कष्टप्रद भी है। यदि वे चाहें तो भी अपनी बल्दियत बदल भी नहीं सकते ! वे यह तो समझ गए होंगे कि 'नेताजी' का पुत्र होना किसी मुगल बादशाह के 'बलीअहद' [युवराज] से कम नहीं है। लेकिन इसमें गर्व की कोई बात भी नहीं है, क्योंकि मुगल खानदानके अधिकांस 'बलीअहद' अपने 'बाप' को 'निपटाकर' ही गद्दीनसीन होते रहे हैं।यह विचित्र संयोग है कि मुगल राजकुमार भी अपने सारे षड्यन्त्र इसी उत्तरप्रदेश याने तत्कालीन 'अबध '- लखनऊ, प्रयाग और आगरा में ही रचते रहे हैं। मुलायम परिवार का अंतरकलह हमें द्वापर युग की उस मिथकीय घटनापर यकीन कराता है ,जिसे 'यादवी महासंग्राम' भी कहा जाता है और जिसमें द्वारका के यादव आपस में लड़-मर गए थे।
भारतीय काल गणना अनुसार द्वापर युग के 'महाभारत' की गाथा और 'भागवद पुराण 'में वर्णित द्वारका-विनाश , के तथाकथित 'यादवी महासंग्राम' को मैं अब तक 'मिथ' इतिहास ही समझता रहा हूँ। किन्तु बिहारमें लालू परिवार और उत्तरप्रदेश में 'मुलायम-परिवार' का उत्थान -पतन देखकर यकीन होने लगाहै कि द्वापरयुग जरूर रहा होगा और 'यादवी महासंग्राम' भी अवश्य हुआ होगा।
सारा देश जानता है कि मुलायम परिवार की पार्टी 'सपा' का समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें भारत राष्ट्र की भी कोई चिंता नहीं। खुद मुलायमसिंह यादव और उनके अनुज शिवपाल यादव -कहीं से भी समाजवादी नहीं हैं। मुलायम के सुपुत्र अखिलेश यादव अवश्य पढ़े-लिखे हैं और सुलझे हुए युवा नेता भी लगते हैं.यदि वे अपने पिताकी कलंकित राजनीति त्यागकर अलग पार्टी बनालें या किसी से गठबंधन कर लें और यूपी की जनता उन्हें एक बार फिर से भरपूर समर्थन दे ,तो शायद अखिलेश यादव यूपी का और बेहतर नेतत्व कर सकते हैं और विकास भी कर सकते हैं। शायद तब वे 'समाजवाद' की ओर भी आगे बढ़ सकते हैं। श्रीराम तिवारी !
भाई शिवपालयादव ,जिगरी दोस्त अमरसिंह और मुख्तार अंसारी जैसे लोग उनके पुराने राजदार रहे हैं। अब जबकि यूपी में विधान सभा चुनाव सिर पर हैं,तब मुलायम कुनबा आपसी जूतम पैजार में व्यस्त है।यक्ष प्रश्न यह है कि मुलायम सिंह यादव की भृष्ट विरासत पर उनका पुत्र अखिलेश यादव क्या ईमानदारी की बुलन्द और भव्य ईमारत खड़ी कर सकता है ? मेरा ख्याल है -नहीं ! क्योंकि अखिलेश यादव को कदाचित राजनैतिक पार्टी निर्माण और संगठन खड़ा करने का अनुभव नहीं है। जिस पार्टीके कारण वे यूपी के सीएम हैं उस सपाके निर्माण में भी अखिलेश का कोई योगदान नहीं है। वेशक वे यदि अपने पिता के संजाल से मुक्त होकर चन्द्र बाबु नायडू या जय ललिता की राह पकडते हैं ,तो उनके लिए संभावनाओं के द्वार खुल सकते हैं। लेकिन इसमें वक्त लगेगा।
बहरहाल यूपी की जनता शायद ही इस बार के चुनावों में सपा या मुलायम परिवार पर मेहरवान होगी !वेशक मुलायमसिंह का वंशज होना अखिलेश के लिए जितना लाभप्रद रहा है किन्तु उतना ही नुकसानदेह और कष्टप्रद भी है। यदि वे चाहें तो भी अपनी बल्दियत बदल भी नहीं सकते ! वे यह तो समझ गए होंगे कि 'नेताजी' का पुत्र होना किसी मुगल बादशाह के 'बलीअहद' [युवराज] से कम नहीं है। लेकिन इसमें गर्व की कोई बात भी नहीं है, क्योंकि मुगल खानदानके अधिकांस 'बलीअहद' अपने 'बाप' को 'निपटाकर' ही गद्दीनसीन होते रहे हैं।यह विचित्र संयोग है कि मुगल राजकुमार भी अपने सारे षड्यन्त्र इसी उत्तरप्रदेश याने तत्कालीन 'अबध '- लखनऊ, प्रयाग और आगरा में ही रचते रहे हैं। मुलायम परिवार का अंतरकलह हमें द्वापर युग की उस मिथकीय घटनापर यकीन कराता है ,जिसे 'यादवी महासंग्राम' भी कहा जाता है और जिसमें द्वारका के यादव आपस में लड़-मर गए थे।
भारतीय काल गणना अनुसार द्वापर युग के 'महाभारत' की गाथा और 'भागवद पुराण 'में वर्णित द्वारका-विनाश , के तथाकथित 'यादवी महासंग्राम' को मैं अब तक 'मिथ' इतिहास ही समझता रहा हूँ। किन्तु बिहारमें लालू परिवार और उत्तरप्रदेश में 'मुलायम-परिवार' का उत्थान -पतन देखकर यकीन होने लगाहै कि द्वापरयुग जरूर रहा होगा और 'यादवी महासंग्राम' भी अवश्य हुआ होगा।
सारा देश जानता है कि मुलायम परिवार की पार्टी 'सपा' का समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें भारत राष्ट्र की भी कोई चिंता नहीं। खुद मुलायमसिंह यादव और उनके अनुज शिवपाल यादव -कहीं से भी समाजवादी नहीं हैं। मुलायम के सुपुत्र अखिलेश यादव अवश्य पढ़े-लिखे हैं और सुलझे हुए युवा नेता भी लगते हैं.यदि वे अपने पिताकी कलंकित राजनीति त्यागकर अलग पार्टी बनालें या किसी से गठबंधन कर लें और यूपी की जनता उन्हें एक बार फिर से भरपूर समर्थन दे ,तो शायद अखिलेश यादव यूपी का और बेहतर नेतत्व कर सकते हैं और विकास भी कर सकते हैं। शायद तब वे 'समाजवाद' की ओर भी आगे बढ़ सकते हैं। श्रीराम तिवारी !
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