गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

बहुसांस्कृतिक भारतीय लोकतंत्र को अंधराष्ट्रवाद की जरूरत नहीं !


 गुलाम भारत में और उससे भी पूर्व के सामंतकालीन पुरातनपंथी  भारत में  हजारों स्वतन्त्र राजा-महाराजा हुआ करते थे। उनकी अपनी-अपनी  पृथक  सेनाएं हुआ करतीं थीं और अपनी-अपनी पृथक मुद्राएं भी हुआ करतीं थीं. पृथक रीति-रिवाज और शासन पद्धतियाँ हुआ करती थीं। ये  निरंकुश राजे-राजवाड़े  अपने ऐशो आराम के लिए राज्य विस्तार के निमित्त आपस में लगातार युद्ध करते रहते थे। इस सामंती  दौर में देशभक्ति' शब्द का जन्म ही नहीं हुआ था। तब राजा को साक्षात्  'विष्णु'; का अवतार माना जाता था ,इसीलिये उस कालखण्ड के इतिहास में  'राजभक्ति' 'राजधर्म' और राजयोग जैसे शब्दों की पर्याप्त भरमार अवश्य रही  है । किन्तु वैसी उद्दाम देशभक्ति [Nationality] का उल्लेख कहीं नहीं मिलता, जैसी की 'संघ परिवार' चाहता है । स्वाधीनता संग्राम के जिन मूल्यों ने भारतीय गंगा जमनी  तहजीव को जन्म दिया। जिसके परिणास्वरूप वर्तमान बहुभाषा,बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक भारतीय लोकतंत्र अस्तित्व में आया उस अनेकता में एकता वाले विराट भारतीय लोकतंत्र को  'अंधराष्ट्रवाद' की जरूरत नहीं है !

बड़े आश्चर्य की बात है कि वैदिक मन्त्रदृष्टा ऋषियों ने  हजारों साल पहले इस जम्बूद्वीप बनाम  भरतखण्ड अर्थात भारतवर्ष बनाम आर्यावर्त में  'अन्तराष्टीयतावाद' का सिद्धांत प्रस्तुत किया था। उपनिषद का यह कथन दृष्टव्य है:-

 सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे संतु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुखभाग्वेत।

 या


 अयम निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम ,उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम।


 चन्द्रगुप्त मोर्य के कार्यकाल में  इस भूभाग पर जब यूनानी और पर्सियन आक्रमण हुए तब पहली बार आचार्य चाणक्य द्वारा  'राष्ट्र' और 'राष्ट्रभक्ति' शब्द का प्रयोग किया गया । दरसल 'राष्ट्रभक्ति' शब्द  का जन्म 'राष्ट्रराज्य' की स्थापना के निमित्त ही हुआ है। भारतीय उपमहाद्वीप के लिए  'देशभक्ति' मूल रूप से एक पाश्चात्य धारणा है।

जार्ज वर्नाड शा ने कहा है ''देशभक्ति मूल रूप से एक  कबीलाई अवधारणा ही है कि कोई राष्ट्र इसलिए इस दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि 'आप' वहाँ  पैदा हुए हैं !'' यूरोपीयन इकोनॉमिक कम्युनिटीज 'या यूरो के रचनाकारों ने 'नेशन'को विराट करने की जो परिल्पना प्रस्तुत की है ,वह भारतीय उपनिषद सिद्धान्त 'वसुधैव कुटुम्बकम'से प्रेरित है। किन्तु बड़े दुःख की बात है कि इस सिद्धांतके वैध उत्तराधिकारी -भारतीय  उपमहाद्वीप के दो राष्ट्रों के दिग्भर्मित लोग ,भारत और पाकिस्तान के वासिंदे  इन दिनों अपनी 'वसुधैव कुटुम्बकम 'वाली साख को ताक पर रखकर  नेशनलिज्म'का पाश्चात्य पहाड़ा  सीख रहे हैं और वे अन्तराष्टीयतावाद ,विश्व बंधुत्व जैसे शब्दों को सुनना ही नहीं चाहते। श्रीराम तिवारी !

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