जिस परिवार का कोई व्यक्ति मानसिक रूप से विक्षिप्त हो ,प्रतिहिंसा की मनोदशा से जिसका चित्त अशांत रहता हो, जो हर किसीसे अकारण बैरभाव रखनेका आदि हो ऐसे व्यक्तिसे न केवल उसके परिवार को खतरा है बल्कि उस देश-समाज को, गाँव -नगर को और गली-मोहल्ले को भी खतरा है। इसी तरह जिन लोगोंके मनमें अन्य धर्म-मजहब वालों के प्रति ,पडोसी मुल्कों के प्रति स्थाई बैरभाव हो ,जिनके शब्दों में अपने ही हमवतन लोगों के लिए घृणा हो और 'असहमत' बुद्धिजीवियों के लिए गालियाँ हों ,जिनके निहित स्वार्थ में किसी खास राजनैतिक दल या नेता विशेष के प्रति अंधभक्ति का दिखावा हो ,ऐंसा व्यक्ति भारतीय संविधान और लोकतंत्र का सम्मान कैसे कर सकता है ?भले ही वह आपने आपको 'बड़ा' 'राष्ट्रवादी' घोषित करदे किन्तु देशभक्त वह कदापि नहीं हो सकता।
इसी तरह मजहबी आस्था और धार्मिक विश्वाश भी 'राष्ट्रवाद' की तरह मूल रूप से एक अमूर्तन अवधारणा ही है। किसी व्यक्ति विशेष के लिए उसका धर्म-मजहब इसलिए दुनिया में श्रेष्ठ है क्योंकि वह उस खास धर्म-मजहब वाले परिवार या समाजमें जन्मा है अथवा उसे देश -काल -परिस्थितियों ने धर्मान्तरित होनेको बाध्य किया है। उदाहरण के लिए मैं स्वयम जन्मना 'ब्राह्मण कुल' से हूँ,इसलिए मेरे पास हिन्दू धर्म और ब्राह्मण जातिपर गर्व करनेका आधार हो सकता है। लेकिन इसी हिन्दू धर्म के 'पुनर्जन्म' सिद्धांतानुसार कदाचित मैं यदि जैन,सिख,ईसाई,यहूदी अथवा मुसलमान परिवार में जन्म लेता हूँ तो स्वाभाविकहै कि उस स्थितिमें मुझे वे धर्म-मजहब ही प्रिय होंगे ,जिनमें मेरा जन्म हुआ होगा ! गीता के अमृत सन्देश का सार भी यही है कि प्राणिमात्र के जीवन -मृत्यु का चक्र देश-काल की सीमाओं से मुक्त और कर्म स्पर्हा से आबद्ध होकर अनवरत चलता रहता है। भारत,पाकिस्तान,चीन या कोई और देशमें जन्मना तो मनुष्य की मानवीय आकांक्षाओं से बहुत परेहैं। राष्ट्रोंका पार्थक्य तो पृथक सभ्यताओं का प्रतीक मात्र हैं। इसीलिये तमाम हिन्दू दर्शनशास्त्रों ने और प्राच्य वाङ्ग्मय ने भी 'सबै भूमि गोपाल की '' का उद्घोष किया है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' इस दर्शन का शाश्वत नारा है। मानव सभ्यता के राजनैतिक विकास की प्रक्रिया में सभी राष्ट्रों का सीमांकन एक 'सहनीय' आवश्यक बुराई मात्र है।अर्थात राष्ट्रवाद का गुणानुवाद एक नैतिक बाध्यता है।
जिस किसी व्यक्ति की सामाजिक ,जातीय धार्मिक और राष्ट्रीय चेतना सिख गुरुओं की बाणी ''मानुष की जात सबै एकहु पहिचानवै ''के स्तर की है ,जिस किसी ने उपनिषद मन्त्रदृष्टा ऋषियों के ''एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति' को हृदयगम्य किया है , जिसने बुद्ध महावीरके अमरसन्देश 'सम्यक दर्शन' के स्तर को छूआ है, और जिस बन्दे ने दकियानूसी घटिया अंधराष्ट्रवाद से ऊपर उठकर 'सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद'' के उच्चतर सोपानको पायाहै ऐसा व्यक्ति ही सच्चा राष्ट्रवादी हो सकता है। ऐसा व्यक्ति न केवल अपने देश का सर्वश्रेष्ठ नागरिक होगा ,बल्कि मानव मात्र का सच्चा बंधु भी वही होगा। मानवीय मूल्यों का सच्चा संवाहक भी वही हो सकता है। श्रीराम तिवारी !
इसी तरह मजहबी आस्था और धार्मिक विश्वाश भी 'राष्ट्रवाद' की तरह मूल रूप से एक अमूर्तन अवधारणा ही है। किसी व्यक्ति विशेष के लिए उसका धर्म-मजहब इसलिए दुनिया में श्रेष्ठ है क्योंकि वह उस खास धर्म-मजहब वाले परिवार या समाजमें जन्मा है अथवा उसे देश -काल -परिस्थितियों ने धर्मान्तरित होनेको बाध्य किया है। उदाहरण के लिए मैं स्वयम जन्मना 'ब्राह्मण कुल' से हूँ,इसलिए मेरे पास हिन्दू धर्म और ब्राह्मण जातिपर गर्व करनेका आधार हो सकता है। लेकिन इसी हिन्दू धर्म के 'पुनर्जन्म' सिद्धांतानुसार कदाचित मैं यदि जैन,सिख,ईसाई,यहूदी अथवा मुसलमान परिवार में जन्म लेता हूँ तो स्वाभाविकहै कि उस स्थितिमें मुझे वे धर्म-मजहब ही प्रिय होंगे ,जिनमें मेरा जन्म हुआ होगा ! गीता के अमृत सन्देश का सार भी यही है कि प्राणिमात्र के जीवन -मृत्यु का चक्र देश-काल की सीमाओं से मुक्त और कर्म स्पर्हा से आबद्ध होकर अनवरत चलता रहता है। भारत,पाकिस्तान,चीन या कोई और देशमें जन्मना तो मनुष्य की मानवीय आकांक्षाओं से बहुत परेहैं। राष्ट्रोंका पार्थक्य तो पृथक सभ्यताओं का प्रतीक मात्र हैं। इसीलिये तमाम हिन्दू दर्शनशास्त्रों ने और प्राच्य वाङ्ग्मय ने भी 'सबै भूमि गोपाल की '' का उद्घोष किया है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' इस दर्शन का शाश्वत नारा है। मानव सभ्यता के राजनैतिक विकास की प्रक्रिया में सभी राष्ट्रों का सीमांकन एक 'सहनीय' आवश्यक बुराई मात्र है।अर्थात राष्ट्रवाद का गुणानुवाद एक नैतिक बाध्यता है।
जिस किसी व्यक्ति की सामाजिक ,जातीय धार्मिक और राष्ट्रीय चेतना सिख गुरुओं की बाणी ''मानुष की जात सबै एकहु पहिचानवै ''के स्तर की है ,जिस किसी ने उपनिषद मन्त्रदृष्टा ऋषियों के ''एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति' को हृदयगम्य किया है , जिसने बुद्ध महावीरके अमरसन्देश 'सम्यक दर्शन' के स्तर को छूआ है, और जिस बन्दे ने दकियानूसी घटिया अंधराष्ट्रवाद से ऊपर उठकर 'सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद'' के उच्चतर सोपानको पायाहै ऐसा व्यक्ति ही सच्चा राष्ट्रवादी हो सकता है। ऐसा व्यक्ति न केवल अपने देश का सर्वश्रेष्ठ नागरिक होगा ,बल्कि मानव मात्र का सच्चा बंधु भी वही होगा। मानवीय मूल्यों का सच्चा संवाहक भी वही हो सकता है। श्रीराम तिवारी !
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