तानाशाह स्वयम्भू नहीं होते ,मूर्ख समाज द्वारा पैदा होते हैं !
परिवार में ,कुटुंब -कबीले में ,समाज में या मुल्क में किसी व्यक्ति विशेष के शौर्य ,अवदान और उदात्त चरित्र के कारण उस व्यक्ति को 'अवतार' अधिनायक या 'हीरो'मानने की परम्परा दुनिया में पुरातनकाल से रही है। लेकिन भारत में अजीब स्थिति है। यहाँ तो बिना किये धरे ही ,बिना त्याग बलिदान वाले लोग, अपनी चालकी ,धूर्तता और बदमाशी से 'हीरो' या अधिनायक बनते देखे गए हैं। वास्तविक हीरो ,बलिदानी या नायक इतिहास के हासिये से भी गायब कर दिए जाते हैं। जैसे कि मध्यप्रदेश के व्यापम सिस्टम के चलते हजारों वास्तविक 'नायक' वेरोजगार हैं या मनरेगा की मजदूरी कर रहे हैं। जबकि नकली अभ्यर्थी और बदमाश- मुन्नाभाई लोग अफसर- बाबू बनकर सत्ता से ऐसे चिपक गए कि देखकर गोह भी लाज जाए।
यही स्थिति पूँजीवादी -दक्षिणपंथी राजनीति की है। यही स्थिति जातीय -सामाजिकआन्दोलनों की और धार्मिक आयोजनों की भी है। यही स्थिति स्वाधीनता सेनानियों की है। यही स्थिति मीसा बंदियों की है।हर क्षेत्र में चालाक और काइयाँ किस्म के लोग लाइन तोड़कर जबरन घुस जाते हैं। यही 'दवंग'लोग विद्या विनय सम्पन्न बेहतरीन युवा शक्ति को कुंद करदेते हैं। कुछ तो उन्हें धकियाकर किनारे लगा देतेहैं, खुद ही व्यवस्था के 'महावत' बन जातेहैं। बड़ेखेद की बात है कि समाज के कुछ उत्साही लोग इन बदमाशों को ही हीरो मान लेते हैं। कुछ तो कालांतर में अवतार भी मान लिए जाते हैं। इन नकली 'हीरोज' के कारण ,नकली अवतारों के कारण ही अतीतके झगडे कभी पीछा नहीं छोड़ते। जिन अवतारों ,पीर पैगम्बरों के कारण तमाम आधुनिक पीढ़ियाँ आपस में लड़ती -झगड़ती रहें उन पर सवाल उठाना भी गुनाह माना जाता है। भारत-पाकिस्तान के बीच जो अनवरत वैमनस्य चल रहा है, और तमाम देशों में जो सामाजिक ,जातीय संघर्ष जारी है ,भारतमें आरक्षण वादियों और अनारक्षणवादियों के बीच जो हो रहा है ,वह सब इसी अतीत की काली छाया का परिणाम है। अचेत और साधारणजन भी इस स्थिति के लिए पर्याप्त जिम्मेदार हैं , वे इन नकली नायकों' की जय-जय कार करने में व्यर्थ ही अपनी ऊर्जा व्यय करते रहते हैं। बेईमान-बदमाश -नायकों के पीछे जय-जयकार करने वाले लोग उन बगल बच्चों की तरह होते हैं जो हाथी के पीछे -पीछे ताली बजाकर अपना मनोरंजन कर लेते हैं। इतिहास साक्षी ही कि जनता की गफलत के कारण ही अक्सर चालाक लोग लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच जाते हैं। तानाशाह यहीं से पनपता है और अधिनायकवाद यहीं से जन्म लेता है।
भारत की वर्तमान छल-छदम और सामाजिक विद्वेष की राजनीति से बदतर ,दुनिया में अन्य कोई राजनैतिक व्यवस्था नहीं है। वैसे तो इस पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था का विस्तार विश्वव्यापी है किन्तु जिस तरह भारत के गरीब मतदाताओं के वोट पाने के लिए नेता -नेत्रियाँ अनैतिक पाखण्ड करते हैं ,जिस तरह अपनी वंशानुगत योग्यता को जब-तब आम सभाओं में पेश करते रहते हैं। यह विशेष राजनैतिक योग्यता दुनिया में शायद ही कहीं अन्यत्र मिलेगी ! यहाँ चाय बेचने से लेकर ,भैंसें चराने वाले तक ,रंगदारी बसूलने से लेकर खुँखार डकैतों की गैंग में शामिल होने वाले तक विधान सभाओं में और लोक सभा में पहुँचते रहे हैं। यहाँ पैदायशी दलित-पिछड़े होने से लेकर धर्म-मजहब का ठेकेदार होने तक और जात -खाप से लेकर अपराध जगत का बाप होने तक की तमाम नैसर्गिक योग्यता प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।आजादी के तुरन्त बाद मुबई से लेकर दुबई तक और झुमरी तलैया से लेकर दिल्ली तक राजनीति में अपराधियों का बहुत वर्चस्व रहा है। सिर्फ लाल डेंगा जैसे अलगाववादी ही नहीं बल्कि रतन खत्री ,हाजी मस्तान,दाऊद,छोटा शकील ,बड़ा राजन ,अलां घोड़ेवाला ,फलां दारूवाला और ढिकां सट्टा वाला जैसे 'देशद्रोही' ही भारत की राजनीति संचालित करते आ रहे हैं। धरती पकड़ अपराधियों- दवंगों के आगे अधिकांस सज्जन नेता,ईमानदार पुलिस अफसर और कानून के रखवाले भी अपराध जगत की गटरगंगा में डुबकी लगाते रहे हैं। फिल्म वाले - निर्माता,निर्देशक ,फायनेंसर ,हीरो, हीरोइन और वितरक तो इस अपराध जगत में टूल्स की तरह इस्तेमाल होते रहे हैं। वैसे तो राजनीति की पूरी की पूरी हांडी ही काली है किन्तु यूपी, बिहार, महाराष्ट्र ,आंध्र,कर्नाटक ,पंजाब के अधिकांस राजनेता इस अपराध जगत में ज्यादा कुख्यात रहे हैं। तानशाह पैदा नहीं होते अपितु जनता द्वारा पैदा किये जाते हैं।
भारत में 'बहुजन समाज' के वोट हड़पने के लिए ,दलित-पिछड़ेपन के जातीय विमर्श को बड़ी चालाकी और धूतता से हमेशा जिन्दा रखा जाता है। कुछ नेता-नेत्रियाँ न तोआर्थिक नीति जनते हैं, न विकासवाद जानते हैं ,न उन्हें 'राष्ट्रवाद' से कोई मतलब है वे तो केवल सत्ता सुख के लिए अपनी जातीय वैशाखी पर अहोभाव से खड़े हैं। उनके तथाकथित नॉन ट्रान्सफरेबिल वोटर्स भी बड़े खब्ती, कूढ़मगज और भेड़िया धसान होते हैं। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद,एकता -अखण्डता और देश के सर्वांगणींण वैज्ञानिक विकास से कोई लेना देना नहीं। उन्हें सिर्फ अपने नेता -नेत्री की चिंता है जो उन्हें 'आरक्षण' की वैशाखी पकड़ाए रखने का वादा करता/करती है !
कुछ दलितवादी नेताने बहुजन समाजको वर्ग चेतना [Educate,Agitate,Orgenize] से लेस करने के,उन्हें जात -एससी/एसटी के रूप में पर्मेनेंट वोटों का भंडार बना डाला है। उन्होंने शोषित-दलित उत्थानके बहाने जातीयता की राजनीति को अपनी निजी जागीर बना डाला है। जातीयतावादी नेताओं द्वारा जाती को राजनीति का केंद्र बना लेने से भारतीय समाज में विध्वंशक जातीय संघर्ष की नौबत आ गयी है । सत्ता के भूंखे जातिवादी-मजहबपरस्त नेताओं ने दमनकारी जातीयताके खिलाफ संघर्ष छेड़ने के बजाय उसे सत्ता प्राप्ति का राजनैतिक अवलम्बन बना लिया गया है। इन हालात में भारत जैसे देश में किसी सकारात्मक क्रांति की या किसी कल्याणकारी पुरुत्थान की कोई समभावना नहीं है।
अतएव कभी कभी तो लगता है कि वर्तमान जातीय-मजहबी नेताओं के चोंचलों से तो 'यूटोपियाई पूँजीवाद'ही बेहतर है !कमसेकम पूँजीवदी -विज्ञानवादी व्यवस्था में 'दान-पूण्य'धर्म-कर्म का आदर्श आचरण तो जीवित है। खबर है कि भारत के प्रख्यात हीरा व्यापारी सावजी ढोलकिया ७ हजार करोड़ की सम्पत्ति के मालिक हैं। उन्होंने गत वर्ष अपने कर्मचारियों को दीवाली पर तोहफे में फ्लेट और कारें दीं थीं। जबकि इन्ही ढोलकिया जी ने अपने एकलौते बेटे को खुद के बलबूते पर अपनी हैसियत निर्माण के लिए घर से खाली हाथ निकाल दिया था। उन्होंने अपने बेटे को पाथेय के रूप में केवल स्वावलंबी होने का मन्त्र दिया था। उनका बेटा अभी भी कोचीन की किसी कम्पनी में ४ हजार रुपया मासिक की प्रायवेट नौकरी कर रहा है। उसे यह नौकरी हासिल करने के लिए भी तकरीबन ६० बार झूँठ बोलना पड़ा। और कई दिन तक एक टाइम अधपेट भोजन पर ही रहना पड़ा । क्योंकि पिता ने घर से चलते वक्त उसे जो ७०० रूपये दिए थे,उन्हें खर्च करने की मनाही थी। वे रूपये उसके पास अभी भी सुरक्षित हैं और पिताजी ने यही आदेश दिया था की यह पैसा खर्च मत करना ! खुद कमाओ और खर्च करो ! 'स्वावलंबी बनो '! यदि सावजी ढोलकिया जैसे पूँजीपति इस देश के नेता बन जाएँ और प्रधानमंत्री बना दिए जाएँ
तो भारत के गरीब किसान-मजदूर और सर्वहारा को भी शायद इससे कोई इतराज नहीं होगा। यदि ढोलकिया जैसे राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के हाथों में देश की सत्ता देदी जाए तो शायद यह देश ज्यादा सुरक्षित होगा ,ज्यादा गतिशील और विकासमान हो सकता है !
श्रीराम तिवारी
यही स्थिति पूँजीवादी -दक्षिणपंथी राजनीति की है। यही स्थिति जातीय -सामाजिकआन्दोलनों की और धार्मिक आयोजनों की भी है। यही स्थिति स्वाधीनता सेनानियों की है। यही स्थिति मीसा बंदियों की है।हर क्षेत्र में चालाक और काइयाँ किस्म के लोग लाइन तोड़कर जबरन घुस जाते हैं। यही 'दवंग'लोग विद्या विनय सम्पन्न बेहतरीन युवा शक्ति को कुंद करदेते हैं। कुछ तो उन्हें धकियाकर किनारे लगा देतेहैं, खुद ही व्यवस्था के 'महावत' बन जातेहैं। बड़ेखेद की बात है कि समाज के कुछ उत्साही लोग इन बदमाशों को ही हीरो मान लेते हैं। कुछ तो कालांतर में अवतार भी मान लिए जाते हैं। इन नकली 'हीरोज' के कारण ,नकली अवतारों के कारण ही अतीतके झगडे कभी पीछा नहीं छोड़ते। जिन अवतारों ,पीर पैगम्बरों के कारण तमाम आधुनिक पीढ़ियाँ आपस में लड़ती -झगड़ती रहें उन पर सवाल उठाना भी गुनाह माना जाता है। भारत-पाकिस्तान के बीच जो अनवरत वैमनस्य चल रहा है, और तमाम देशों में जो सामाजिक ,जातीय संघर्ष जारी है ,भारतमें आरक्षण वादियों और अनारक्षणवादियों के बीच जो हो रहा है ,वह सब इसी अतीत की काली छाया का परिणाम है। अचेत और साधारणजन भी इस स्थिति के लिए पर्याप्त जिम्मेदार हैं , वे इन नकली नायकों' की जय-जय कार करने में व्यर्थ ही अपनी ऊर्जा व्यय करते रहते हैं। बेईमान-बदमाश -नायकों के पीछे जय-जयकार करने वाले लोग उन बगल बच्चों की तरह होते हैं जो हाथी के पीछे -पीछे ताली बजाकर अपना मनोरंजन कर लेते हैं। इतिहास साक्षी ही कि जनता की गफलत के कारण ही अक्सर चालाक लोग लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच जाते हैं। तानाशाह यहीं से पनपता है और अधिनायकवाद यहीं से जन्म लेता है।
भारत की वर्तमान छल-छदम और सामाजिक विद्वेष की राजनीति से बदतर ,दुनिया में अन्य कोई राजनैतिक व्यवस्था नहीं है। वैसे तो इस पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था का विस्तार विश्वव्यापी है किन्तु जिस तरह भारत के गरीब मतदाताओं के वोट पाने के लिए नेता -नेत्रियाँ अनैतिक पाखण्ड करते हैं ,जिस तरह अपनी वंशानुगत योग्यता को जब-तब आम सभाओं में पेश करते रहते हैं। यह विशेष राजनैतिक योग्यता दुनिया में शायद ही कहीं अन्यत्र मिलेगी ! यहाँ चाय बेचने से लेकर ,भैंसें चराने वाले तक ,रंगदारी बसूलने से लेकर खुँखार डकैतों की गैंग में शामिल होने वाले तक विधान सभाओं में और लोक सभा में पहुँचते रहे हैं। यहाँ पैदायशी दलित-पिछड़े होने से लेकर धर्म-मजहब का ठेकेदार होने तक और जात -खाप से लेकर अपराध जगत का बाप होने तक की तमाम नैसर्गिक योग्यता प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।आजादी के तुरन्त बाद मुबई से लेकर दुबई तक और झुमरी तलैया से लेकर दिल्ली तक राजनीति में अपराधियों का बहुत वर्चस्व रहा है। सिर्फ लाल डेंगा जैसे अलगाववादी ही नहीं बल्कि रतन खत्री ,हाजी मस्तान,दाऊद,छोटा शकील ,बड़ा राजन ,अलां घोड़ेवाला ,फलां दारूवाला और ढिकां सट्टा वाला जैसे 'देशद्रोही' ही भारत की राजनीति संचालित करते आ रहे हैं। धरती पकड़ अपराधियों- दवंगों के आगे अधिकांस सज्जन नेता,ईमानदार पुलिस अफसर और कानून के रखवाले भी अपराध जगत की गटरगंगा में डुबकी लगाते रहे हैं। फिल्म वाले - निर्माता,निर्देशक ,फायनेंसर ,हीरो, हीरोइन और वितरक तो इस अपराध जगत में टूल्स की तरह इस्तेमाल होते रहे हैं। वैसे तो राजनीति की पूरी की पूरी हांडी ही काली है किन्तु यूपी, बिहार, महाराष्ट्र ,आंध्र,कर्नाटक ,पंजाब के अधिकांस राजनेता इस अपराध जगत में ज्यादा कुख्यात रहे हैं। तानशाह पैदा नहीं होते अपितु जनता द्वारा पैदा किये जाते हैं।
भारत में 'बहुजन समाज' के वोट हड़पने के लिए ,दलित-पिछड़ेपन के जातीय विमर्श को बड़ी चालाकी और धूतता से हमेशा जिन्दा रखा जाता है। कुछ नेता-नेत्रियाँ न तोआर्थिक नीति जनते हैं, न विकासवाद जानते हैं ,न उन्हें 'राष्ट्रवाद' से कोई मतलब है वे तो केवल सत्ता सुख के लिए अपनी जातीय वैशाखी पर अहोभाव से खड़े हैं। उनके तथाकथित नॉन ट्रान्सफरेबिल वोटर्स भी बड़े खब्ती, कूढ़मगज और भेड़िया धसान होते हैं। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद,एकता -अखण्डता और देश के सर्वांगणींण वैज्ञानिक विकास से कोई लेना देना नहीं। उन्हें सिर्फ अपने नेता -नेत्री की चिंता है जो उन्हें 'आरक्षण' की वैशाखी पकड़ाए रखने का वादा करता/करती है !
कुछ दलितवादी नेताने बहुजन समाजको वर्ग चेतना [Educate,Agitate,Orgenize] से लेस करने के,उन्हें जात -एससी/एसटी के रूप में पर्मेनेंट वोटों का भंडार बना डाला है। उन्होंने शोषित-दलित उत्थानके बहाने जातीयता की राजनीति को अपनी निजी जागीर बना डाला है। जातीयतावादी नेताओं द्वारा जाती को राजनीति का केंद्र बना लेने से भारतीय समाज में विध्वंशक जातीय संघर्ष की नौबत आ गयी है । सत्ता के भूंखे जातिवादी-मजहबपरस्त नेताओं ने दमनकारी जातीयताके खिलाफ संघर्ष छेड़ने के बजाय उसे सत्ता प्राप्ति का राजनैतिक अवलम्बन बना लिया गया है। इन हालात में भारत जैसे देश में किसी सकारात्मक क्रांति की या किसी कल्याणकारी पुरुत्थान की कोई समभावना नहीं है।
अतएव कभी कभी तो लगता है कि वर्तमान जातीय-मजहबी नेताओं के चोंचलों से तो 'यूटोपियाई पूँजीवाद'ही बेहतर है !कमसेकम पूँजीवदी -विज्ञानवादी व्यवस्था में 'दान-पूण्य'धर्म-कर्म का आदर्श आचरण तो जीवित है। खबर है कि भारत के प्रख्यात हीरा व्यापारी सावजी ढोलकिया ७ हजार करोड़ की सम्पत्ति के मालिक हैं। उन्होंने गत वर्ष अपने कर्मचारियों को दीवाली पर तोहफे में फ्लेट और कारें दीं थीं। जबकि इन्ही ढोलकिया जी ने अपने एकलौते बेटे को खुद के बलबूते पर अपनी हैसियत निर्माण के लिए घर से खाली हाथ निकाल दिया था। उन्होंने अपने बेटे को पाथेय के रूप में केवल स्वावलंबी होने का मन्त्र दिया था। उनका बेटा अभी भी कोचीन की किसी कम्पनी में ४ हजार रुपया मासिक की प्रायवेट नौकरी कर रहा है। उसे यह नौकरी हासिल करने के लिए भी तकरीबन ६० बार झूँठ बोलना पड़ा। और कई दिन तक एक टाइम अधपेट भोजन पर ही रहना पड़ा । क्योंकि पिता ने घर से चलते वक्त उसे जो ७०० रूपये दिए थे,उन्हें खर्च करने की मनाही थी। वे रूपये उसके पास अभी भी सुरक्षित हैं और पिताजी ने यही आदेश दिया था की यह पैसा खर्च मत करना ! खुद कमाओ और खर्च करो ! 'स्वावलंबी बनो '! यदि सावजी ढोलकिया जैसे पूँजीपति इस देश के नेता बन जाएँ और प्रधानमंत्री बना दिए जाएँ
तो भारत के गरीब किसान-मजदूर और सर्वहारा को भी शायद इससे कोई इतराज नहीं होगा। यदि ढोलकिया जैसे राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के हाथों में देश की सत्ता देदी जाए तो शायद यह देश ज्यादा सुरक्षित होगा ,ज्यादा गतिशील और विकासमान हो सकता है !
श्रीराम तिवारी
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