मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही देश में यत्र-तत्र सामाजिक असहिष्णुता ,अंधश्रद्धा और पाखंडवाद प्रेरित हिंसक घटनाएँ बढ़ती ही जा रहीं हैं । इस दौर के निजाम और नीतियों से असहमत साहित्यकारों ,लेखकों कवियों, बुद्धिजीवियों पर कट्टरपंथी संगठनों द्वारा जान लेवा हमले किये जा रहे हैं । चूँकि शासन-प्रशासन और अकादमिक संस्थान इस हिंसक प्रवृत्ति पर कोई कारगर कदम नहीं उठा सके ,अतएव देश के चुनिंदा नामचीन लेखक ,कवि और साहित्यकार अपने सम्मान पदक और पदवियाँ लौटाने लगे हैं। हालाँकि नामवरसिंह ,चंद्रकांत देवताले जैसे मूर्धन्य आलोचक-कवि -साहित्यकार अभी सम्मान पदक आदि लौटाने के पक्ष में नहीं हैं। ये लोग अभिव्यक्ति पर बढ़ते हमले और कट्टरपंथ के बढ़ते हिंसक स्वभाव पर चिंतित तो हैं किन्तु साहित्य अकादमी या अन्य मंचों द्वारा दिए गए सम्मान की वापिसी को उचित नहीं मानते।वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व अन्य लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए साहित्य की ताकत को पर्याप्त मानते हैं और इसके प्रयोग किये जाने के पक्ष में हैं। मुझे भी नामवरसिंह और चंद्रकांत देवताले का नजरिया पसंद आया।
विगत दिनों देश भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और खाने-पीने ,पहिनने ओढ़ने की आजादी पर जो हमले हुए हैं। इन हमलों में कुछ चुनिंदा प्रगतिशील सामाजिक कार्यकर्ताओं और साहित्यकारों की निर्मम हत्याओं हुईं हैं। कुछ निर्दोष अल्पसंख्यक और कमजोर वर्गों के लोगों को भी उन्मादी भीड़ द्वारा हलाक किया गया है। इस तरह की अनवरत हिंसक घटनाओं से 'बौद्धिक जगत' में खलबली मची है। देश के संवेदनशील लोगों में भी बहुत बैचेनी है ।दादरी में एक मुस्लिम परिवार के तथाकथित बीफ खाने की बात पर हिंसक हमले के बाद तो देश के न केवल वामपंथी बुद्धिजीवी और साहित्यकार बल्कि मध्यममार्गी उदारवादी जमातों में भी आक्रोश का स्वर गूँजने लगा है। बद हालात के मद्दे नजर अधिकांस बौद्धिक प्रतिभाओं ने अपने आक्रोश को भी अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया है। साहित्य अकादमी सम्मान पत्र,पदक और तमगे वापिस किये जा रहे हैं। किन्तु सत्ता प्रतिष्ठान के सोपान पर बैठे बाचाल शुक इस कलंक कथा पर मौन हैं।
इन घटनाओं पर वर्तमान सत्तारूढ़ नेतत्व ने चतुराई पूर्ण चुप्पी साध रखी है। जबकि अभिव्यक्ति का खतरा उनके घर तक भी जा पहुंचा है। जो लोग खुद इस दक्षिणपंथी असहिष्णुता रुपी खतरे के सृजनहार हैं। उन लोगों में से ही एक -भाजपा के संस्थापकों में से एक -संघ प्रशिक्षित और अटल-आडवाणी के परम सहयोगी रहे श्री सुधींद्र कुलकर्णी जी जब सोमवार को मुंबई शहर के एक बौद्धिक कार्यक्रम में अपना 'काला मुँह ' लिए हुए देखे गए। तो न केवल भारत बल्कि पाकिस्तान के मीडिया पर सिर्फ उन्ही का जलवा था। चूँकि कुलकर्णी जी पाकिस्तानी पूर्व विदेशमंत्री कसूरी की पुस्तक के विमोचन के लिए अपना मंच देकर उस पर सुशोभित हो रहे थे। सरसरी तौर पर मीडिया को और कलमघिस्सू अबूझ पत्रकारों को यह सब शिवसेना और भाजपा का अंदरुनी झगड़ा लगता है। किन्तु कुछ विवेकशील लोगों को इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खतरा और संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के हनन का मामला स्पष्ट दिख रहा है।
कुलकर्णी का कृष्णमुख किये जाने की घटना से यह तो प्रमाणित हो गया कि भारतीय लोकतंत्र की नैया डांवाडोल हो रही है। यह भी जाहिर हो गया कि भारत-पाकिस्तान मैत्री कायम करने का सपना केवल 'कामरेड' या कांग्रेस का ही विजन नहीं रहा। बल्कि संघ के भी कुछ लोग दवे सुर में भारत-पाक मैत्री राग गाने लगे हैं। शायद वे भी चाहते हैं कि भारत-पाक में बढ़ती दूरियाँ कुछ तो कम हों।इसीलिये कालिख पोते जाने के बहाने सुधींद्र जैसे बुजुर्ग 'संघी 'भाई भी नाखून कटाकर शहीदों में शामिल हो गए हैं । इससे पहले इन्द्रेसकुमार भी अपने तई कुछ इसी तरह की जुगाड़ करते रहे हैं । भाजपा और संघियों को इस बात की बधाई कि उनके कुनबे में कोई तो 'मर्द' निकला । शिवसेना की गुंडई के सामने न झकते हुए,कालिख पुते चेहरे से ही कुलकर्णी ने कसूरी की किताब को विमोचित करके न केवल शिवसेना बल्कि पाकिस्तान में बैठे आतंकियों को भी जता दिया कि अभी तो लोकतंत्र और सहिष्णुता ही सिरमौर है। कुलकर्णी की यह पवित्र जिद उनके 'रामराज्य ' की स्थापना में काम आये न आये किन्तु 'भारत -पाकिस्तान' मैत्री के बहुत काम आएंगी । बधाई-शुभकामनायें !
कुलकर्णी कृष्णमुख कलंक कथा की बदनामी का ठीकरा शिवसेना के माथे भले ही फूटा हो, किन्तु अब यह सिद्ध हो चुका है कि भारत -पाकिस्तान मैत्री के समर्थक सिर्फ वामपंथी बुद्धिजीवी या मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के हरावल दस्ते ही नहीं बल्कि अब तो भाजपा और संघ परिवार में भी कुछ 'चिंतक' पैदा हो चुके हैं। हालाँकि उनके इस क्रांतिकारी बदलाव के तथ्य का संज्ञान लेवा उधर के ठस दिमागों में कोई नहीं है। पाकिस्तान में भी उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। दरअसल यह सर्वहारा अंतरराष्टीयताबाद का फंडा मूलतः वामपंथी मार्क्सवादी बुध्दिजीवियों के दिमाग की उपज है।यह कठिन अग्निपथ है,जिसपर चलकर फैज-अहमद -फैज होना पड़ता है। जीएम सईद होना पड़ता है । आसफा जहांगीर होना पड़ता है। कभी-कभी वेदप्रताप वैदिक और हामिद मीर भी होना पड़ता है। अंतर्राष्टीय सीमाओं की जमीनी हकीकत और भारतीय उपमहाद्वीप के समानधर्मी डीएनए के वावजूद यदि दोनों ओर से गोले बरस रहे हैं,तो हर वह शख्स जिसके सीने में इंसानियत का जज्वा है वो सुधींद्र कुलकर्णी होकर तो गौरवान्वित ही होगा । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह 'संघी' हैं। माओ ने कहा था '' बिल्ली काली हो या सफेद यदि चूहे मारती है तो हमारे काम की है " यदि कुलकर्णी -कसूरी ने भारत -पाक की तनातनी कम करने के लिए कोई मंतव्य रचा है ,तो महज एक पत्थर ही उछाला है। तो पुस्तक विमोचन के बहाने भी वह इस दिशा में उनका एक सराहनीय योगदान है।
देश और दुनिया में बढ़ रही अंधाधुंध साम्प्रदायिक कटटरता ,अंध श्रद्धा ,अंध राष्ट्रवाद और असहिष्णुता न केवल भारत के लिए घातक है ,बल्कि पाकिस्तान के लिए तो और भी ज्यादा खतरनाक है। भारत तथा पाकिस्तान के मजदूर-किसान और वामपंथी बुध्दिजीवी इन खतरनाक प्रवृत्तियों के खिलाफ बहादुरी से अपना गरिमामय आक्रोश व्यक्त करते आ रहे हैं। कुर्बानियाँ भी दे रहे हैं। जबकि भारत -पाकिस्तान के कटरपंथियों ने हमेशा केवल रायता ही ढोला है। भारतीय उपमहाद्वीप का अधिकांस जड़तावादी समाज अभी भी १६ वीं शताब्दी में ही जी रहा है। चूँकि भारत के दक्षिणपंथी साहित्यकार और पाकिस्तान के भारत विरोधी लेखक और बुद्धिजीवी भी यथास्थतिवादी तथा सत्ता के चारण -भाट ही हैं। ये लोग न तो व्यवस्थाओं की कोई आलोचना कर सकते हैं और न वे समाज विज्ञानी हो सकते हैं। वे तो वैज्ञानिक और तर्कवादी लोक चेतना का ककहरा भी नहीं जानते । उन्हें केवल अतीतकालीन काल्पनिक स्वर्णिम इतिहास का नास्ट्रेजिया ही सुहा रहा है। इसीलिये जब पाकिस्तान में जनतंत्रवादियों को पीटा जाता है ,पत्रकारों और सोशल वर्कर्स को मारा जाता है तब भारत के लोग चुप रहते हैं। जब भारत में सुधींद्र कुलकर्णी का मुँह काला किया जाता है तो पाकिस्तान में पत्ता भी नहीं हिलता। सभी एक दूसरे का मुँह तक रहे होते हैं ।
सवाल यह नहीं है कि किसने किसका मुँह काला किया ? सवाल ये होना चाहिए कि क्यों किया ? क्या किसी पुस्तक का विमोचन सिर्फ इसलिए अपराध है की लेखक पड़ोसी राष्ट्र का पूर्व विदेश मंत्री रहा है ? वेशक हर दौर में पाकिस्तान के हर निजाम ने भारत को बार-बार बिच्छू बनकर काटा है। जब उसने अपना 'बिच्छू स्वभाव' नहीं छोड़ा तो भारत को अपना बन्धुतावादी सात्विक साधु चरित क्यों छोड़ना चाहिए ? क्या दोनों मुल्कों के बीच बढ़ रही गलतफहमी दूर करना गुनाह है ? क्या सुधीन्द्र कुलकर्णी ने कोई देशद्रोह का काम किया है ? कि आव देखा न ताव और उनका मुँह काला कर दिया। उनकी स्थति पर संघपरिवार' और सत्ता के गलियारों में जो 'सुई पटक सन्नाटा छाया रहा ' वह बेहद शर्मनाक है। जबकि वामपंथी लेखक बुद्धिजीवी और साहित्यकारों ने ततकाल उसका संज्ञान लेकर अपना आक्रोश दिखाया।
सवाल यह नहीं है कि किसने किसका मुँह काला किया ? सवाल ये होना चाहिए कि क्यों किया ? क्या किसी पुस्तक का विमोचन सिर्फ इसलिए अपराध है की लेखक पड़ोसी राष्ट्र का पूर्व विदेश मंत्री रहा है ? वेशक हर दौर में पाकिस्तान के हर निजाम ने भारत को बार-बार बिच्छू बनकर काटा है। जब उसने अपना 'बिच्छू स्वभाव' नहीं छोड़ा तो भारत को अपना बन्धुतावादी सात्विक साधु चरित क्यों छोड़ना चाहिए ? क्या दोनों मुल्कों के बीच बढ़ रही गलतफहमी दूर करना गुनाह है ? क्या सुधीन्द्र कुलकर्णी ने कोई देशद्रोह का काम किया है ? कि आव देखा न ताव और उनका मुँह काला कर दिया। उनकी स्थति पर संघपरिवार' और सत्ता के गलियारों में जो 'सुई पटक सन्नाटा छाया रहा ' वह बेहद शर्मनाक है। जबकि वामपंथी लेखक बुद्धिजीवी और साहित्यकारों ने ततकाल उसका संज्ञान लेकर अपना आक्रोश दिखाया।
मेरा तो गजेन्द्र मोक्ष वाली मोदी सरकार को यह सुझाव है की विज्ञानवादी ,अन्तर्राष्टीयतावादी- बौद्धिक सृजन के क्षेत्र में भी आरक्षण दिया जाना चाहिए। ताकि वे भी सम्मान पदक प्राप्त कर सकें। चूँकि वामपंथी और वैज्ञानिक विचारधारा के बुद्धिजीवी -साहित्यकार अपनी योग्यता और संघर्ष की कसौटी पर खरे उतरने के बाद ही यह सब सम्मान और उपाधियाँ पाते रहे हैं। वे इस मुश्किल दौर में अपने-अपने पदक और सम्मान पत्र लौटकर अपनी शानदार ऐतिहासिक और क्रांतिकारी भूमिका का बखूबी निर्वाह कर रहे हैं। संघ प्रशिक्षित बौद्धिकों को चाहिए कि वे अंगुली कटाकर शहीद होने के बजाय ,सफ़दर हाशमी, नरेंद्र दाभोलकर ,गोविन्द पानसरे या कालीबुरगी होकर दिखाएँ। श्रीराम तिवारी
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