शनिवार, 10 अक्टूबर 2015

भारतीय दर्शन, इतिहास,पुराण ,मिथ या वाङ्ग्मय- सभी में गौ माँस का निषेध है !




 बिहार विधान सभा चुनाव् प्रचार में व्यस्त सभी पूँजीवादी पार्टियों का 'अभद्र' नेतत्व लगभग अपनी नंगई पर उत्तर आया । खेद की बात है कि बिहार में  सत्तारूढ़ महागठबंधन के बदजुबान नेताओं के 'बंदरिया नाच ' पर उनके अंध समर्थक तमाशबीनों की तरह फोकट में तालियाँ  बजाते रहे । इन दम्भी  और असत्याचरणी नेताओं का बौद्धिक स्खलन ही  उनकी प्रशासनिक अक्षमता  का सटीक उदाहरण है। बिहार की चौतरफा बर्बादी ही  इनके थोथे तथा उथले ज्ञान की  गवाही दे रही  है। इनका  नितांत झूँठा सांस्कृतिक इतिहास बोध किसी भी तरह मान्य नहीं किया जा सकता। जो नेता जाति को अपने स्वार्थ का हथियार बनाकर आरक्षण की मलाई खाते  रहे हों ,जो  फासिज्म का डर  दिखाकर सांस्कृतिक  बहुलता की  दुहाई देते रहे हों , जो वर्षों तक बिहार की सत्ता पर काबिज रहे हों ,जिन्होंने बिहार में जंगलराज का जमकर विकास किया हो,उनके प्रति जनता  के दिलों में यदि अभी भी कोई  हमदर्दी  है तो यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।

  विचारधारा विहीन ,उजबक और  निहित स्वार्थी नेता अपना जनाधार खिसकता देख निहायत  टुच्चई पर उतर आया करते हैं। वे जनता से ठिलवई करने लगते हैं। वे  जातीय आरक्षण  की धार को सामाजिक संघर्ष की  शान पर चढ़ाकर रावण जैसा अठ्ठहास  करने लग जाते हैं। वे गौमांस जैसे विषयों को  विमर्श के केंद्र में रखकर जनता को बरगलाने  में जुटे जाते  हैं।  लेकिन यह सिर्फ  यूपी -बिहार का ही  दुर्भाग्य नहीं है।  बल्कि सम्पूर्ण भारतीय उप महाद्धीप ही  प्रकारांतर से इस रोग से ग्रस्त  है। इसीलिए वास्तविक जनतंत्र अभी भी इस महाद्धीप  में कहीं भी नहीं है। भारत में भी आदर्श लोकतंत्र कहाँ है ? बिहार तो अभी जनतांत्रिक आचरण से  मीलों दूर है।

 बिहार को जंगलराज में बदलने  के लिए जिम्मेदार नेता न केवल विकृत मानसिकता वाले हैं बल्कि वे आरक्षण की जूँठन पर बौराये हुए हैं। ये लोग अपने राजनीतिक  स्वार्थ को स्थायी रूप से देश पर थोपे रखना  चाहते हैं।ये  सामाजिक संघर्ष की ज्वाला भड़काने पर भी  आमदा हैं। संघ -भाजपा या एनडीए की आंधी  को रोकने  के लिए कोई 'कॉमन मिनिमम प्रोग्राम ' पेश करने के बजाय ,नीतीश ने  भृष्ट लालू और बदनाम  कांग्रेस की वैशाखी  पर ज्यादा भरोसा किया है। नीतीश  यदि प्रारम्भ से ही एनडीए के चककर में न पड़ते और  बिहार  विकास की कोई नई  वैकल्पिक नीति  प्रस्तुत करते ,भूमि सुधार क़ानून लागु करते  और माझी को बीच में न लाते तो वे भारत के दूसरे ज्योति वसु  हो सकते थे।  जदयू वाले यदि  बिहार राज्य की  प्रति वयक्ति औसत आय  की बृद्धि पर कोई  सार्थक बहस करते और भाजपा - नरेंद्र मोदी की घोर  पूँजीवाद  परस्त  आर्थिक नीति पर ईमानदारी  से  आक्रमण करते तो  शायद उन्हें  'महागठबंधन' की नौबत ही न आती। महज  अल्पसंख्यक वोटों की खातिर  केवल अंध मोदी विरोध में रतौंध्याये हुए महा बदनाम लालू , रघुवंश और उनके ढिंढोरची चमचे अपनी बिहारी खुन्नस से बाज नहीं आ रहे हैं। अपनी नादानी और अज्ञानता  का ठीकरा  'भारतीय संस्कृति'  के सिर पर  फोड़े  जा  रहे हैं।  इसी बहाने वे उन मूल्यों पर  भी हमला किये जा रहे हैं जो भारत भूमि को  एक  जीवंत 'राष्ट्र'  बनाये रखने की ठोस गारंटी  है। महागठबंधन के अर्ध शिक्षित -बदनाम नेता  और पार्टियाँ  नरेंद्र  मोदी की कुख्यात पूँजीवाद परस्त  नीतियों पर  तो  रंचमात्र हमला नहीं करते !बल्कि 'महागठबंधन' के लालू-नीतीश और राहुल जैसे नेता ऐंसे पाहुने हैं जो  साँप को मारने के बजाय बाँबीँ ही  कूटे जा रहे हैं।

 ये  बिहारी नेता उस लडंखु सास की तरह हैं जो अपनी  बहु  से तर्क या बहस में तो जीत नहीं पाती किन्तु  अपनी बहु को 'विधवा 'होने का श्राप अवश्य  देती रहती  है। ऐंसी  कुटिल सास  गुस्से में यह भूल जाती है कि  अपनी बहु को विधवा  रूप में देखने  की कुत्सित लालसा में वह सास अपने ही  बेटे की मौत का इन्तजार कर रही होती है। क्रोधांध सास अपनी बहु को नुक्सान पहुंचाने के बजाय  अपने बेटे को ही निपटाने पर तुल जाती है। जबकि बहु को  शाप देने वाली लडंखु सास  का कर्तव्य था कि अपने बेटे को दीर्घायु होने का वरदान देने के लिए वह  बहु को   सौभाग्यवती होने का आशीवाद देती ।खाँटी बिहारी  एवं पिछड़े वर्ग के  नेता लोग अब नरेंद्र मोदी रुपी नयी बहु को टोंचने की घटिया फिराक में हैं। वे  भाजपा और नरेंद्र मोदी  की दिवालिया आर्थिक नीति पर  कोई सवाल दागने के बजाय 'गौ मान्स' भक्षण या  जाति -आरक्षण के व्यंग बाण छोड़ने में जुटे हैं। उनका यह कदाचरण   कदापि शोभनीय नहीं  है। क्योंकि उनकी इस  नापाक हरकत से नरेंद्र मोदी को तो कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि भारत राष्ट्र की पूँजी 'एकता  में अनेकता' को ही खतरा है।

 जो नेता १५ साल तक बिहार प्रदेश का मुख्यमंत्री रहा हो , वो यदि अपने बच्चों को हाई  स्कूल तक की  शिक्षा भी नहीं दिलवा  सके अपने बच्चों की जन्म तारीख भी सही नहीं बता पाये, ऐंसे  मंदमति के साथ खडे होकर नीतीश बाबू  सही निर्णय कैसे ले पाएंगे  ? वैसे भी  महागठबंधन के बदनाम नेताओं को बार-बार सत्ता क्यों दी जाने चाहिये ?जिसको  इतिहास और मिथ का भी  अंतर बोध  मालूम न हो ,जिसे भारतीय   मूल्यों का ज्ञान ही न हो, जिसे  राष्ट्रीय  सांस्कृतिक चेतना  और विकासक्रम  का  रंचमात्र ज्ञान न हो , उसे और उसके साथियों को  बिहार जैसे ऐतिहासिक  सूबे  का क्षत्रप  दोबारा-तिबारा  क्यों बनाया जाए ? वेशक संघ -एनडीए और भाजपा की नीतियां पूँजीवाद  परस्त हैं। वेशक  श्री  नरेंद्र मोदीजी  के व्यक्तित्व में  भी कुछ इसी तरह की अनेक  बौद्धिक और वैचारिक खामियों हैं। किन्तु  फिर भी उनकी  व्यक्तिगत प्रचार शैली  का और धनबल का ही आलम है की उनके पक्ष में  प्रचंड  लहर का कुछ असर तो बिहार में जरूर है। जिस से घबराकर  लालू ,रघुवंश जैसे नेता संघ  के बहाने  भारत की अस्मिता पर ही  हमले किये जा रहे हैं।

 भाजपा के गिरिराजसिंह जैसे 'बड़बोलुओं'को चिढ़ाने के बहाने लालू ,रघुवंश जैसे लोग अपने अधकचरे ज्ञान का कूड़ा करकट  देश के  समग्र मीडिया पर उड़ेल रहे हैं। उनका यह कृत्य न तो देशभक्तिपूर्ण  है. और न वैज्ञानिक -  प्रगतिशीलता के दायरे में आता  है।  कोई बाजिब  वैज्ञानिक तथ्यान्वेषण भी उनके पास नहीं है। नेताओं के इस अनैतिक कदाचरण की सभी को निंदा करनी चाहिए।जिसमें लालूयादव  कहते हैं कि 'सभी हिन्दू गोमांस'  खाते   हैं। रघुवंश प्रसाद कहते हैं कि 'ऋषि मुनि भी गो मांस खाते  थे। ऋषि कपूर  कहते हैं की मैं 'बीफ' खाता हूँ। केंद्रीय मंत्री किरण रिजूजी कहते हैं कि  मैं  गौमांस खाता हूँ। ये बयान  किन  कारणों से दिए गए हैं ? इनके  दूरगामी  निहतार्थ क्या हैं ? इस पर भारतीय जन -मानस  के बहुत बड़ा तबके  को कोई लेना देना नहीं है। सिर्फ दो-चार हिन्दुत्ववादी नेताओं  और सौ-पचास सोशल मीडिया वालों को ही इस विमर्श से  कुछ  मौसमी अभिरुचि हो सकती है। ऋषि कपूर या किरण रिजूजी जैसे लोग यदि  गौमांस  भक्षी हैं ,तो यह उनका मौलिक अधिकार है। वे कुछ भी खाते -पीते  रहें इससे  भारतीय संविधान की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता।  किन्तु लालू ,रघुवंश  जैसे जन -नेता जब ये बयान देंगे तो उन  वोटर्स को उनके बारे में अवश्य सोचना पडेगा।  जिन  को अपने  'शाकाहारी होने पर नाज है वे लालू,नीतीश या रघुवंशप्रसाद को वोट क्यों देंगे ? सबको अपनी अस्मिता और संस्कृति की रक्षा का अधिकार है।  जो  लोग गाय या किसी भी पशु का मांस नहीं खाते और व्यर्थ ही जिनके पूर्वज बदनाम किये जा  रहे हों ,उन्हें शिद्द्त से लालू ,रघुवंश जैसे नालायकों का प्रतिकार करना चाहिए  ।

 संविधान  ने सभी  को समान  अधिकार दिया है कि  कोई क्या खाए ,क्या न खाए। क्या पहिने ,क्या न पहिने। इस पर किसी अन्य को कोई एतराज नहीं होना चाहिए। विविधता और बहुलतावादी संस्कृति केवल आरक्षित  या अल्पसंख्यक वर्गों के लिए ही नहीं है। बल्कि बहुसंख्यक वर्ग के लिए भी उतना ही बराबरी का सम्मान सुरक्षित  मिलना चाहिए।यदि कोई  नेता या आम आदमी बहुसंख्यक वर्ग पर झूंठा इल्जाम लगाये,अपमानित करे तो अपने आत्म सम्मान की रक्षार्थ बहुसंख्यक  वर्ग को भी अपना प्रतिवाद प्रस्तुत करने का हक है।देश का कोई भी नेता या पार्टी 'बहुसनख्यक' हिन्दू समाज  की अवहेलना या अपमान नहीं कर सकता। वोट के लिए जो नेता और पार्टी हिंदुत्व का झंडा थामे हुए  हैं ,वे भी याद रखें कि अभी तो शिवसेना के लोग ही भाजपा वालों का चेहरा काला  कर रहे हैं। आइन्दा यदि राजनीति  की हांडी के लिए हिंदुत्व या हिन्दू धर्म  को ईधन बनाया गया तो चूल्हा ही बिखर जाएगा। वे यह भी याद रखें कि  रहिमन हांडी काठ की चढ़े न दूजी बार !

    जब  लालू जी ने कहा  कि 'सभी हिन्दू मांस खाते हैं ' तो भाजपा और संघ वालों की बोलती बंद क्यों हो गयी ? जबकि मेरे जैसे 'धर्मनिरपेक्षतावादी' की  भी  इच्छा हुई  कि गौ मांस भक्षण का समर्थन करने वालों  को १०० जूते  मारूं। यद्यपि  मैं विहिप या आरएसएस से प्रेरित धर्मांध हिन्दू नहीं हूँ। शिव सेना और 'सनातन सभा जैसे हत्यारे - लुंगाडा संगठनों  से भी मेरा कोई सरोकार नहीं है। मैं भाजपा और  मोदी जी की नीतियों के  विरोध में लगभग १० हजार पेज लिख चूका हूँ। वामपंथ के अलावा किसी और के समर्थन  का तो सवाल ही नहीं है। फिर भी मैं गाय समेत अन्य पशुओं की हत्या का पक्षधर नहीं हूँ। कार्ल मार्क्स ने 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' या 'दास केपिटल' में कहीं नहीं लिखा कि गौ मांस खाने वाला बड़ा क्रांतिकारी होता है। जब  मैंने  कभी सपने में भी गौ मांस या  'अंडा'  नहीं खाया। मेरे कुटुंब परिवार  में  भी दूर-दूर तक  किसी ने कभी भी गौ मांस तो क्या अनजाने में  गाय को पैर भी नहीं लगने दिया। यदि लग जाये तो 'राम-राम'  कहते हुए गाय से माफी मांग ली जाती है।

जब लालू कहता है कि  सभी 'हिन्दू गौ मांस खाते हैं ' तो मुझे अच्छा नही लगा। मेरे दो अहम  सवाल  हैं।  पहला सवाल यह  है कि जब  इस २१ वीं सदी  के मेरे जैसे  अधुनातन प्रगतिशील भी  गौ  मांस  नही खाते बल्कि  अंडा भी नहीं खाते। तो हमारे परम 'देवतुल्य' पूर्वज [ऋषि-मुनि] गौ मांस भक्षी क्यों रहे  होंगे ?  वैसे भी किसके पूर्वज क्या खाते  थे? यह जान  लेना  तो अब विज्ञान के बाएं हाथ का काम हो गया है। किन्तु यह जाहिर करना उस का काम  नहीं जो  खुद चारा खोर हैं। दूसरा सवाल  यह है कि  लालू-रघुवंश और अन्य  गोमांस भक्षण समर्थकों ने  किस  तरह के भारतीय भारतीय दर्शन ,इतिहास,पुराण ,मिथ या  वांग्मय का सांगोपांग अध्यन  किया है ?यह   उन्होंने  कहाँ पढ़ लिया कि  उनके पूर्वज [श्रीकृष्ण] मांसाहारी थे ? क्या वामनों का पूर्वज सुदामा गौ मांस भक्षी था। क्या वह श्रीकृष्ण से मिलने जब द्वारका गया तो 'गौ मांस' ले गया था ? मैंने तो यही पढ़ा है कि  वह गरीब ब्राह्मण पड़ोस से मुठ्ठी भर चावल माँग  कर ले गया था।  ये बात भी काबिल-ए  गौर है कि श्रीकृष्ण के वंशज इस २१ वीं शताब्दी में भी आरक्षण की बैशाखी पर चल रहे हैं। जबकि  सुदामा के वंशज [राकेश शर्मा]जैसे अंतरिक्ष  वैज्ञानिक बिना किसी आरक्षण के  ही अंतरिक्ष की  यात्रा कर चुके हैं। कई भिखमंगे वामन तो आज भी भृगु ऋषि की तरह 'लक्ष्मीपति'  को लात मारने की तमन्ना रखते हैं।

भारतीय  सभ्यता ,संस्कृति,इतिहास और दर्शन की कुछ पुस्तकें मैंने  भी पढ़ी हैं। लेकिन मुझे  हर जगह यही लिखा मिला  कि "जियो और जीने दो '!  प्रत्येक भारतीय धर्म  ग्रन्थ  में -गाय ,गंगा ,हिमालय समुद्र,सूर्य और धरती को देवतुल्य माना गया  है।  बीस बिस्वे के श्रेष्ठ ब्राह्मण  कुल में जन्मना होते हुए भी मैंने  स्वयं मनु स्मृति ,पौराणिक आख्यायकाओं और अन्य मिथकीय  ब्राह्मण ग्रंथों  में उल्लेखित अवैज्ञानिक अवधारणों की खुलकर  आलोचना की है।  धार्मिक पाखंडवाद और अंधश्रद्धा के बरक्स मैं अपने  नाते-रिश्ते  कुटुंब -परिवार के सैकड़ों सपरिजनों  के मध्य में  सम्भतः  एकमात्र ' विद्रोही ' हूँ। जबकि बाकी अधिकांस घोर परम्परावादी, शुद्ध  कर्मकांडी  और  यज्ञोपवीतधारी  हैं।  मैं जीवन भर उन लोगों के साथ सरकारी सेवाओं में रहा ,जिनके यहाँ  मांस-मदिरा  के खानपान का  खानदानी रिवाज  था। उन्होंने मुझे अपने साथ मिलाने की खूब कोशिशें की , किन्तु  फिर भी मैं उनका अनुयायी न बन सका। आग्रह करने वाले भी उसी वर्ग के  हुआ करते थे  जो  इन दिनों दूसरों पर तोहमत लगाकर अपने कदाचरण को जस्टीफाइड कर रहे  हैं। ठीक लालू और रघुवंशप्रसाद की तरह।  वेशक देश और दुनिया में ऐंसी कोई जात या मजहब नहीं है , जिसमें कुछ लोग मांसाहारी न हों ! किन्तु 'सब हिन्दू गौ मांस खाते हैं ' ऋषि मुनि भी गौ मांस खाते  थे ' इस तरह के घटिया  और झूंठे बयान  कदापि स्वीकार्य  नहीं  हैं  !   ,,,,,,,,   श्रीराम तिवारी ,,,,,,,,,!

                                                                                           

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