बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

तस्लीमा नसरीन को १६ वीं सदी छोड़कर २१ वीं में आ जाना चाहिए !

 यद्द्पि तस्लीमा नसरीन अपने मादरे -वतन 'बांग्ला देश ' में वहाँ  के अल्पसंख्यक हिन्दुओं -ईसाइयों  के सामूहिक कत्लेआम की गवाह रहीं हैं।उन्होंने नस्लीय और मजहबी उन्मादियों के हिंसक हमलों को भी अनेक बार भुगता है।ऐंसा लगता है की उन्होंने  भारतीय उपमहाद्वीप में  हिन्दुओं की दुर्दशा को बहुत नजदीकी से देखा है। इसीलिये नियति ने उन्हें इस्लामिक आतंक  का  कट्टर आलोचक बना दिया  है। लेकिन  इस विमर्श में उनका जस्टिफिकेशन  निहायत ही  खतरनाक और प्रतिक्रियावादी है। क्या वे यह  कहना चाहतीं हैं कि ईंट का जबाब पत्थर से  दिया जाए  ?

याने  जिस तरह पाकिस्तान व बांग्ला देश के इस्लामिक कटट्रपंथियों ने वहाँ के अल्पसंख्यक  हिन्दू समाज को चुन-चुनकर खत्म  कर दिया है ,ठीक उसी तरह  भारतीय बहुसंख्यक  हिन्दू समाज  भी हिंसक आचरण करने का हकदार है ? यदि तस्लीमा  ने भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत  पढ़े होते ,यदि  उन्होंने  गौतम , गांधी ,महावीर, नानक ,अम्बेडकर  के  उच्चतम सिद्धांत  रंच मात्र भी पढ़े होते तो वे इस तरह की भोंडी- उथली परिकल्पना पेश नहीं करतीं। सम्मान वापिसी वाले साहित्यकर हिन्दुविरोधी या मुस्लिम समर्थक नहीं हैं।  वे तो भारतीय सम्विधान और उसकी मूल अवधारणा की रक्षा के लिए कृत संकल्पित हैं। यह 'सम्मान वापिसी ' तो  क्रांतिकारी साहित्यकारों का एक  'सत्याग्रह' शस्त्र मात्र  है। तस्लीमा इस ऊंचाई पर अभी तक तो नहीं पहुँची।
वास्तव में उनकी  हालत उस मूर्ख अंगरक्षक जैसी है जो सोते हुए राजा की गर्दन पर बैठी मख्खी भगाने के लिए तलवार चला देता है। मख्खी उड़कर भाग जाती है। राजा मारा जाता है। तस्लीमा जैसे शुभ चिंतक  या मित्र  जिनके पास   हों उन्हें दुश्मनों की जरुरत नहीं।

 हालाँकि  वे एक तरह से एक विशुद्ध  साहित्यक  हस्ती के रूप में ,सरसरी तौर  पर  बँगला देश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं की पैरोकार और पक्षकार  रहीं  हैं। तो ठीक है न !  भारतीय साहित्यकार  और खास तौर  से उच्च मान  - सम्मान  प्राप्त बुद्धिजीवी  भी  कर रहे हैं। वे  तस्लीमा से गए गुजरे नहीं  हैं। कलि बुर्गी  ,पानसरे दावोल्कर और बेक़सूर निरीह लोगों  की हत्या के जिम्मेदार लोग यदि खुले आम राष्ट्र के संविधान को चुनौती दे रहे हों ,  यदि राज्य सरकारें  लोगों के जानमाल की हिफाजत  में असफल  हों  तो केंद्र सरकार की ड्यूटी क्या  बनती है , यह तो  पढ़ा लिखा साहित्य समाज  ही  बताएगा न !  जब  विचार अभिव्यक्ति  के प्रचेता  साहित्यिक लोग   निरंकुश धर्मांध हत्यारों  के हाथों मारे जा रहे हों तो क्या  शेष भारतीय साहित्यकारों को सत्ता की आरती उतारते  रहना  चाहिए ?  क्या बाकई   देश में  दमित-शोषित , गरीब और अल्पसंख्यक वर्ग पर अत्याचार   नहीं हो रहे ?  क्या वो अपने घर की बैठकर  सम्मान पदक  को निहारता रहे ?    

 तस्लीमा  को  लगता होगा कि इस तरह के  धमाकेदार  वाहियात बयान से  वे न केवल  भारत का नमक  अदा कर सकेंगी ,अपितु  इस्लामिक कट्टरपंथ को भी आइना दिखाने में कामयाब होंगी । इस तरह की खोखली और  तोतली बातों से नसरीन  बच्चों को बहला सकतीं। क्या नसरीन का  यही  बौद्धिक  स्तर है कि  वे विराट भारतीय लोकतंत्र के  उदार और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की तुलना   पाकिस्तान -बांगला देश की कटटरपंथी अनुदार -बहशी  फौजी  व्यवस्थाओं से   करना चाहती हैं ? जहाँ केवल   दिखावे मात्र का लोकतंत्र है। बँगला देश और पाकिस्तान के कटटरपंथी यदि आदमखोर नरभक्षी हैं तो क्या हम भारत के लोग भी वही करें ?  भारत ने बुद्ध ,महावीर,गांधी और मौलाना आजाद के उसूलों को चुना है। वेशक   पाकिस्तान और बांग्ला देश  के उग्रवादियों ने  घृणा का मार्ग चुना होगा।  इसीलिये वे उसके शिकार हैं। वे भारत  के लिए  न तो तुलना के योग्य हैं और न ही   इतने ऊँचे कद के हैं कि  उन्हें भारतीय साहित्यकरों के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया जाए। भारतीय साहित्यकार ,लेखक और  बुद्धिजीवी  राष्ट्रीय स्वाधीनता  संग्राम के मूल्यों  और भारत की गंगा -जमुनी तहजीव के बरक्स ही सृजन करता  है।  भारतीय साहित्यकारों को तस्लीमा से नसीहत की जरुरत नहीं है।

आजादी के बाद जब -जब पाकिस्तान या उनके एसोसिएट मजहबी  कटटरपंथी वर्ग ने भारतीय मुसलमानों को बरगलाने ,फुसलाने की कोशिश की या उनके लिए मगरमच्छ के आंसू बहाये ,तब-तब भारत के अधिकांस मुस्लिम धर्म गुरुओं,उलेमाओं ने शिद्द्त से केवल उन्हें फटकार लगाईं ,बल्कि इस्लाम की सही व्याख्या करते हुए अपनी राष्ट्रनिष्ठा और काबिलियत का प्रमाण पेश किया है। यदि कुछ राजनीतिक दल या व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए इधर-उधर अल्पसंख्यक वर्ग को उकसाता है या भरमाता है तो वो  'मदरसा वाला जमाना  भी अब  लद  चुका  है।  मुस्लिम युवा भी अब हाई  हो चुके हैं। वे भी  समझने लगे  हैं कि  धर्म-मजहब -इबादत को राजनीति में घुसेड़ना  एक किस्म की बेईमानी है। यदि कुछ  बेरोजगार युवा प्रलोभन में आकर नावेद या कसाब बन जाए  भी तो यह बाजारबाद और पूँजीवादी  विफलता के अवश्यम्भावी परिणाम हैं। यह वैश्विक चेतना का संकट भी हो सकता  है।  भारतीय साहित्यकार यदि  भारत समेत   वैश्विक आतंकवाद और निरंकुश सत्ता प्रतिष्ठान को सभ्य तरीके से आइना दिखा रहे हैं ,तो इसमें तस्लीमा  की समस्या क्या है  ? दरसल नसरीन को १६ वीं सदी  छोड़कर २१ वीं में आ जाना  चाहिए

तस्लीमा के  बयान से जाहिर होता है की  वे डॉ भीमराव अम्बेडकर  को भी चुनौती दे रहीं हैं। उन्हें लगता है कि    उन्होंने बहुत बड़ा तीर  मारा है। पाकिस्तान में सैकड़ों पत्रकार ,लेखक  बुद्धिजीवी हिन्दुओं की आवाज उठाते-उठाते वेचारे खुद ही उठ गए। और जब खुद  तस्लीमा  जी भी  बँगला देश  में हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों पर दुनिया भर में अपना विरोध दर्ज कराती रहीं हैं  तो भारत  के  साहित्यकर  से उस पुनीत कर्तव्य की उम्मीद क्यों नहीं की जानी चाहिए ?  क्या भारत में बढ़ती जा रही दरिंदगी , कटटरता पर साहित्यकारों को मुशीका लगा लेना चाहिए ? क्या सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान , शहादत हसन  मुन्टो ,इस्मत चुगताई ,सरदार जाफरी ,राही मासूम रजा ख्वाजा अहमद अब्बास मुस्लिम होते हुए भी हिन्दुओं के हमदर्द  नहीं थे ? अब यदि  तस्लीमा जी  ने भी यदि हिन्दुओं  के पक्ष में बयान दिया है तो यह  कोई नयी बात नहीं है। 

 वेशक  सम्मान वापिसी 'आंदोलन की आलोचना कर तस्लीमा ने एक  उपकार  तो अवश्य ही इस लेखक विरादरी पर किया है। अभी तक तो  अभिव्यक्ति के  खतरे और असहिष्णुता का दायरा केवल भारत ही था  लेकिन  तस्लीमा नसरीन  ने न केवल उसका दायरा  बढ़ाया है बल्कि विमर्श में ताजगी भर दी है। अब ये बात जुदा  है कि तस्लीमा की बात को हवा में उड़ा दिया जाता है या उसकी तार्किक समीक्षा की जाने की जरुरत है !
यह सच है कि  भारत -पाकिस्तान की जुड़वा आजादी के  पूर्व ही  जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान  की माँग अंग्रजों  के समक्ष  रखी तो  सिंध ,बलुचस्तान, पख्तुनिस्तान और सीमान्त क्षेत्रों में अहिंसक हिन्दुओं  और  कांग्रेसियों  को चुन-चुन कर मार दिया गया। अधिकांस गरीब और मजबूर हिन्दू कत्ल कर दिए गए। पश्चिमी  पंजाब में कुछ मुस्लिम और सिख भी लड़ मरे। पाकिस्तान में  हिन्दुओं पर अत्याचार तो  आज तक नहीं रुके। उन्होंने तो कश्मीरियों के हाथों  बन्दुक थमा दी और कश्मीर से लाखों हिन्दू पलायन कर गए या वहीं मारकर दफन कर दिए गए। लेकिन बात जब  भारतीय मूल्यों की  होगी तो धर्मनिरपेक्षता ,समानता ,लोकतंत्र उसके प्रमुख  स्तम्भ होंगे। पाकिस्तान फौज तो खुद उनके बच्चों की रक्षा भी उन्ही के देश में नहीं कर सकी तो वे पाकिस्तान की क्या खाक रक्षा कर सकेंगे ?  भारत से लड़ने की उनकी क्षमता तो १९७१ और १९६५ में वे देख ही चुके हैं। बांग्ला देश  के गुमराह फौजी भी इसी तरह मुँह  की खा चुके हैं। भारत में भी बहुसंख्यक वर्ग को उन्मादी भीड़ बनाकर सामूहिक नर संहार  करने के कई उदाहरण हैं।  यदि साहित्यकारों की पैनी नजर उस धर्मान्धता और हिंसक प्रवृत्ति पर  है तो  यह तो भारत के लिए अमूल्य वरदान है। 

स्वामी विवेकानंद  से  किसी ने  शिकागो के विश्व धर्म  सम्मेलन में  पूंछ लिया कि  "स्वामी जी जब आपके  देश भारत  में आप जैसे  महानतम ज्ञानी  और महात्मा लोग  हैं  तब  आपका देश  गुलाम क्यों  बना हुआ है ? " प्रश्न सुनकर स्वामीजी न केवल आहत हुए ,बल्कि गंभीर हो गए। उन्होंने तब तो प्रश्न कर्ता का  उत्तर नहीं दिया किन्तु अगले रोज उन्होंने विश्व धर्म मंच से सिंह गर्जना करते हुए -उसी सवाल का सार्वजानिक रूप से  ऐतिहासिक जबाब पेश किया। मेरे प्रस्तुत  आलेख में स्वामी जी के  पूरे  भाषण को उदधृत  करना सम्भव नहीं।  फिर भी जो लोग विस्तार से जानना चाहें वे स्वामी जी के शिकागो धर्म महा सभा के भाषणों को अवश्य पढ़ें।  जिनका सार संक्षेप यह है कि ' भारत  में ज्ञान की कोई कमी नहीं है। खास  तौर  से हिन्दू दर्शन को जानने - समझने वालों को  दुनिया के अन्य  किसी ध्रर्म प्रवर्तक से  कोई धर्म  अध्यात्म ,राजनीति ,आयुर्वेद या सभ्यता संस्कृति  का ज्ञान  सीखने  की कोई जरुरत  नहीं है। अध्यात्म  से परिपूर्ण भारत में दुनिया के लोग जा-जा कर  धर्म -प्रचारक भेजते हैं। फिर  वे हथियार और असलाह भेजकर गुलाम बना लेते हैं ". भारत को  ज्ञान नहीं  स्वाधीनता चाहिए ,रोटी चाहिए ,उसका स्वाभिमान वापिस चाहिए "

ऐंसा   लगता है कि तस्लीमा नसरीन ने अपने ही भाषायी सहोदर स्वामी जी को ठीक से नहीं पढ़ा। यदि पढ़ा होता तो वे  प्रगतिशील भारतीय साहित्यकारों का इस  प्रकार अवमूल्यन  नहीं करतीं। अव्वल तो भारतीय साहित्य कारों को किसी से ज्ञान उधार लेने की जरूरत ही नहीं है। दूसरी बात  उनका यह आकलन गलत है कि
साहित्यकार सिर्फ प्रोमुस्लिम ही हैं। तस्लीमा पर भी  कट्टरपंथी इस्लामिक मूवमेंट की ओर  से प्रोहिंदु होने  के  आरोप  लगे हैं तो इसमें  गलत क्या  है ? यदि  तस्लीमा सही तो  भारतीय साहित्यकारों का आचरण गलत  कैसे हो सकता है ?

बांग्ला देश से निष्काषित और  इस्लामिक कट्टरवाद से आजीवन संघर्ष  करने वाली बहादुर बांग्ला लेखिका  तस्लीमा नसरीन  से अधिकांस भारतीयों और खास तौर  से हिन्दुओं को हमदर्दी रही हैं।  शायद उनके पाठक मुसलमान कम हिन्दू ज्यादा  ही होंगे। उनकी 'लज्जा' जैसी कुछ किताबें तो  मैंने  भी  पढ़ी हैं । अब  खबर है कि तस्लीमा ने   भारतीय लेखकों -चिंतकों   -साहित्यकारों  की खूब   खिचाई  की  है। इन साहित्यकारों की  धर्मनिरपेक्षता  को  विशुद्ध हिन्दू विरोधी और इस्लाम परस्त बताकर  तस्लीमा नसरीन ने  अपनी शोहरत को बुलंदियों पर मुकाम दिया है। उन्हें और उनके प्रशंषकों को बधाइयाँ !    श्रीराम तिवारी

                    

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