सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

हर मुश्किल दौर में जो कुछ बलिदान करने की क्षमता रखते हैं , हीरो भी वही हुआ करते हैं।

देश के सत्तारूढ़ नेतत्व  को अचानक इल्हाम हुआ है कि साहित्यकारों के 'विरोध  प्रदर्शन' से दुनिया भर में  भारत  की साख घटी  है।बकौल बैंकैया नायडू - 'छोटी -मोटी -घटनाओं' के बहाने सरकार के समक्ष अपना विरोध प्रकट करने वाले साहित्यकारों के 'सम्मान वापिसी' प्रचार से दुनिया में भारत की  बहुत बेइज्जती हो रही है। बयोबृद्ध  खब्ती,डेढ़  पसली के कलिबुर्गी  ,पानसरे ,दाबोलकर जैसे रेशनलिस्ट चिंतकों , बुद्धिजीवियों  और  विचारकों की  हत्याओं पर इतना  हंगामा क्यों बरपा है ?दादरी में भीड़ द्वारा मार दिया गया अख्लाख़ क्या  इतना बड़ा आदमी था  कि उसके लिए ये नामचिन्ह -बड़े बड़े साहित्यकार हलकान  होते रहें  ? सम्मान पदक और उपाधियाँ लौटाने लग जाएँ । वेंकैया जी को  और उनके आकाओं को विदित हो कि  जिसके पास जो होगा  वही  तो लौटाएगा न  ! दरसल जिनके पास सम्मान है वे सम्मान लौटा रहे हैं। जिनके पास  नस्लीय गालियाँ  हैं ,मजहबी  घृणा है ,वे  वही लौटा  रहे हैं।

बार-बार कहा जा रहा है कि  कश्मीरी पंडित मारे जा रहे थे तब साहित्यकार कहाँ थे ? जब  १९८४ के सिख कौम  विरोधी दंगों में देश धधक रहा था तब साहित्यकार कहाँ थे ? इन सवालों को हवा में उछालकर वे यह भूल जाते हैं कि  इतिहास के किसी भी  कठिन दौर में  साहित्यकार की कलम नहीं रुकी। गड़े-मुर्दे उखाड़कर अंततोगत्वा संघ श्रीमुख से वह चीज बाहर आ ही जाती है , जो इस परिवार के अंदर पूरे उफान पर  है। उनकी इस प्रतिक्रिया से सिद्ध हो गया कि साहित्यकारों  ने साम्प्रदायिक और असहिष्णुता की सत्ता के मर्म  को  गंभीर चोट पहुँचाई  है। जेटली जी ,वेंकैया जी ,राकेश सिन्हा जी ,संबित पात्रा  जी ,सुधांशु जी समेत तमाम सत्ता के चारणों -भाटों ने  मीडिया  के माध्यम  से जो अनवरत  स्पष्टीकरण - सफाई अभियान  चला रखा है ,उसमें 'भारत की बदनामी' जुमला शतक बना चुका है। उससे  देश की आवाम को भी अब एहसास होने लगा है कि मुठ्ठी भर  साहित्यकारों के इस प्रतिरोध से देश की बदनामी तो नहीं हुई ,किन्तु मोदी सरकार की बदनामी जरूर  हो रही है। यकीन न हो तो 'रा' वालों से तस्दीक करलें।

यद्द्पि साहित्यिक विरादरी  भी पूरी की पूरी  विप्लवी या  शहीद भगतसिंह  के उसूलों वाली  नहीं है। यहाँ  भी  कुछ जाति  विमर्श वादी हैं ,कुछ पूँजी विमर्शवादी हैं  कुछ केवल स्त्री विमर्शवादी हैं। बचे खुचे बाकी सब  पूरे सौ फीसदी दक्षिणपंथी प्रतिक्रयावादी हैं। अब यदि दस- बीस साहित्यकार अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं तो यह उनका सहज सैद्धांतिक स्वभाव और दायित्व है। वैसे भी  हर मुश्किल दौर में जो कुछ बलिदान करने की क्षमता रखते हैं , हीरो भी वही  हुआ करते हैं। इस विषम दौर में भारत के असली हीरो वही  हैं जो सत्ता को आइना दिखा रहे हैं।

दरसल भारतीय सत्ताधारी नेतत्व और उसके पिछलग्गू  जो सोच रहे हैं,बात वैसी नहीं है। सच्चे देशभक्तों को  यह जानकर ख़ुशी होगी कि साहित्यकारों के इस फैसले से भारत की  'साहित्यिक  बौद्धिक चेतना' को  नए पंख लग गए हैं। साहित्यकारों ने अनायास ही  भारत को विश्व के उच्चतर सोपान पर खड़ा कर दिया है। भारत में लेखकों  साहित्यकारों ,विचारकों  चिंतकों की संख्या करोड़ों में होगी । किन्तु भारतीय गंगाजमुनी तहजीव   की  रक्षा के  वास्ते , धर्मनिरपेक्ष मूल्यों  की हिफाजत के वास्ते और लोकतान्त्रिक गणराज्य की मूल अवधारणा के वास्ते -सम्मान पदक लौटाने वाले जावाँज -भारत के ये ४० सितारे  सारे संसार में भारतीय 'बौद्धिक चेतना' की  दिव्यतम छटा  बिखेर रहे हैं।

वेशक साहित्यकारों के  इस अवदान से भारत का और भारतीय साहित्य का तो दुनिया में मान बढ़ा है। किन्तु संघ परिवार और मोदी सरकार की साख तेजी से गिर रही है। अपने बचाव में संघ और भाजपा  के प्रवक्ता गण  साहित्यकारों को कांग्रेस की माँद  में  जबरन धकेलने की कोशिश  कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि  इन परम  कूड़मगज बौद्धिकों ने सिर्फ गुरु  गोलवलकर का 'विचार नवनीत' ही पढ़ा है।  वास्तविक साहित्यकारों की शायद ही कोई पुस्तक इन्होने नहीं पढ़ी। काली बुर्गी  दाभोलकर या पानसरे तो बहुत दूर की बात है इन्होने तो शायद कभी   मुनव्वर राणा  और राजेश जोशी  को भी  नहीं पढ़ा। अन्यथा वे साहित्यकारों पर कांग्रेसी होने का  आरोप नहीं  लगाते। यदि  संघ परिवार में कोई साहित्य का ककहरा भी  जानता है तो बताये कि मुनव्वर राणा  और राजेश जोशी की  किस रचना  में संघ' प्रवक्ताओं ने  कांग्रेसवाद पढ़ लिया ?  कृपया सूचित करें। ताकि इनके बारे में हम भी अपनी धारणा  दुरुस्त कर सकें।    

श्रीराम तिवारी

                                 

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