शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

सभी धर्म - मजहबों के प्रमुख कर्ता -धर्ता, पोप फ्रान्सिस से भी कुछ सीखें !

वैसे  मुझे  किसी भी धर्म-मजहब से कोई लगाव या दुराव नहीं है। बल्कि  मुझे तो सभी धर्मगुरु ,खलीफा और मठाधीश एक जैसे लुच्चे-लफंगे नजर आते हैं। किन्तु विगत दिनों जब कैथोलिक धर्मगुरु पोप  फ्रांसिस ने दुनिया के शोषित-पीड़ित  मजदूरों -किसानों की दुर्दशा पर  फिक्रमंदी जताई तो मेरे अंतर्मन में उनके प्रति असीम श्रद्धा का संचार हुआ । हालाँकि इससे पूर्व  पोप  जान पाल द्वतीय और अन्य कैथोलिक धर्मगुरुओं ने पोलेंड ,जर्मनी और पूर्व सोवियत संघ में  पूँजीवादी प्रतिक्रांतियों का जमकर साथ दिया है। किन्तु वर्तमान वेटिकन प्रमुख   सम्माननीय पोप फ्रान्सिस ने न केवल सर्वहारा वर्ग की बदहाली पर चिंता जाहिर की बल्कि स्वयं  क्यूबा जाकर ९३ वर्षीय भूतपूर्व राष्ट्रपति फिडेल कास्त्रो से  इस विमर्श बाबत मुलाकत  भी की। विगत ६० सालों में  शायद यह पहला अवसर होगा  कि जब किसी पोप या  वैश्विक धर्म गुरु  ने  किसी कम्युनिस्ट शासन वाले देश  में पदार्पण किया हो। पोप  फ्रांसिस ने क्यूबा में  फिडेल कास्त्रो के घर जाकर उनसे सौजन्य  भेंट की। दुनिया जानती है कि  कामरेड  चेगुवे वेरा के अनन्य साथी कामरेड फीदेल कास्त्रो  और उनके क्रांतिकारी शहीद  साथियों ने  लगातार ६० साल तक नापाक  नाटो एवं क्रूरतम अमरीकन  साम्राज्य वाद से जमकर लोहा लिया है। शीत  युद्ध के दौरान  कास्त्रो को  न केवल अमेरिकन सम्राज्य्वादी पूँजीवाद से बल्कि पूर्ववर्ती समस्त  पोप और धर्म गुरुओं  के कोप का भाजन बनना पड़ा है। अपितु  समस्त  विश्व धर्मांध  समुदाय की धार्मिक कटटरता का  भी सामना करना  पड़ा है ।

अब जबकि  फीदेल  कास्त्रो पदमुक्त होकर अपने  जीवन की  सांध्य वेला  में अवस्थित हैं। तब स्वयं महान पोप फ्रांसिस ने कास्त्रो से मिलकर  जो सौजन्यता दिखाई है वह वेमिशाल है। इस मुलाकत से  फिडेल  कास्त्रो का तो मान बढ़ा ही है किन्तु पोप  का  सम्मान तो  कई गुना बढ़ गया  है। पोप फ्रांसिस का बड़प्पन दुनिया के समस्त आस्तिकों-  नास्तिकों ,अनीश्वरवादियों - कम्युनिस्टों और  प्रगतिशील तबकों  की नजर परवान चढ़ा है  इसमें कोइ संदेह  नहीं। पोप फ्रांसिस का सिर्फ  यही एक अवदान  काबिल-ए -तारीफ़ नहीं  है। बल्कि इससे पहले भी वे वेनेजुएला ,तुर्की ,चिली , ब्राजील और कनाडा  अमेरिका  इत्यादि देशों में भी  खुलकर  वर्तमान  आक्रामक नव  - पूंजीवाद  व  साम्प्रदयिक कटटरवाद  की आलोचना कर चुके  है। उन्होंने विश्व सर्वहारा की घोर उपेक्षा के लिए  भूमंडलीकरण,उदारीकरण और  आवारा वित्त पूँजी के  भौंडे नग्न नर्तन पर भी अपना आक्रोश व्यक्त  किया है। वेशक पोप  कोई कम्युनिस्ट या क्रांतिकारी नहीं हैं। किन्तु जिस तरह पोप  फ्रांसिस ने  विश्व के निर्धन लोगों की चिंता व्यक्त की है। उससे आशा  की नयी किरण का संचार अवश्य हुआ है।

काश अन्य धर्म-मजहब के धर्मगुरु,मठाधीश ,खलीफा ,शंकराचार्य और  पंथ प्रमुख  भी पोप की  तरह  ही सोचते होते ! काश भारत के धर्मध्वज भी पोप  की तरह देश व दुनिया के  'दरिद्रनारायण ' की चिंता  करते और  उनके पक्ष में कोई  सिंहनाद  करते तो  आज  भारत की स्थति  इतनी क्रूर और खौपनाक  न होती। भारत में कतिपय अल्पसंख्यक वर्ग के धर्म गुरुओं  को देश की या देश के मेहनतकश वर्ग की नहीं बल्कि  'संथारा' संलेखना की चिंता है। किसी मजहब विशेष के धर्म गुरु  वैसे तो  हर बात पर 'फ़तवा' जारी कर देते हैं। किन्तु वे आवाम की मुश्किलों  पर चुप हैं। युवाओं की  गरीबी,बेकारी  पर ,आईएसआईएस ,अलकयदा ,आतंकवाद पर  ये कठमुल्ले  एक शब्द  भी नहीं बोलते। जेहाद के नाम पर दुनिया भर में चल रही  मारकाट की खबरों पर वे मुँह  में दही जमा ये  रहते हैं। देश की और किसानों की चिंता तो मानों उनकी मजहबी किताब में कुफ्र  ही है।

इसी तरह  भारत के बहुसंख्यक धर्म वाले गुरु  घंटाल  भी केवल अपने स्वार्थ संसार में लींन हैं। वे तो  अपने आपको  ईश्वर से भी  बड़ा बताते हैं।  तभी तो वे कहते  हैं ;-

गुरु बड़े गोविन्द से ,मन में देख विचार' अर्थात गुरु के सामने भगवांन की क्या औकात ?

तभी तो कोई 'महायोगी ' नमक मिर्च मशालों से लेकर  साबुन तेल तक बेच रहा है। कोई  शिर्डी के साईं  बाबा को ललकारता है। कोई महा घटिया  फिलिम बनाकर  खुद  ही हीरो बन जाता है। कोई मीडिया के मंच पर पब्लिक याने श्रोताओं-भक्तों के सामने हाथापाई  पर उतर आता  है। कोई  चालाक -धूर्त महिला राधे माँ बनकर ठगी में शामिल हो जाती है। कोई रेपकांड में मशहूर आसाराम हवालात में जमानत के लिए रो  रहा है। कोई पूंजीपतियों के अन्तःपुर में रंगरेलियाँ  मना  रहा है। कोई राजनीति  में नेता बनकर अल्पसंख्यकों पर  ही भोंक रहा है। कोई दवंग मठाधीश बनकर कालेधन को सफ़ेद करने में जुटा  है।  कोई मांसाहार-शाकाहार की फ़िक्र में दुबलाया हुआ  है। अधिंकाश भारतीय धर्मगुरु और पूँजीवादी दलों के नेता मिलकर  देश को  खोखला कर रहे हैं। इतना ही नहीं भारत में तो पोप  फ्रांसिस के अनुयायी भी  दूध के धुले नहीं हैं। वे भी केवल धर्मांतरण की फ़िक्र में  लगे रहते हैं। मेरा दावा है कि भारतीय ईसाई मिशनरीज वाले  कम से कम पोप  फ्रांसिस जितने ईमानदार  और गरीब परस्त तो अवश्य नहीं हैं। जब वे  स्वयं भी अपने ही धर्म गुरु के विचारों को सही प्रचार  अनुपालन नहीं करते तो दूसरों से उन्हें कोई उम्मीद क्यों रखनी चाहिये ?

 विगत दिनों विख्यात न्यूज चैनल आईबीएन-7  पर  एक हिन्दू साधु और एक  साध्वी के मध्य  हुई हाथापाई और गाली-गलौज की खबर भी  अन्तर्राष्ट्रीय फलक तक जा  पहुँची  है ।  न्यूज चैनल पर  तथाकथित साध्वी  'राधे माँ ' और विगत डेड साल से जेल में बंद आसाराम एंड सन्स जैसे ढोंगी बाबाओं के चाल - चरित्र-चेहरे का लब्बो-लुआब यह है   कि  उनके  अंध समर्थक  तर्क बुद्धि  की भाषा नहीं समझते।  वे अपनी पाखंडजनित आस्था को नंगा होते देख कर आक्रामक  हो  रहे हैं। दरअसल वे साधुपथ  या साध्वीपथ छोड़कर अपनी असल  व  घोर सांसारिक औकात पर आ रहे  हैं। आईबीएन-7  के उस कार्यक्रम में गनीमत ये रही  विमर्श  में कोई  प्रगतिशील वामपंथी विचारक  या भौतिकवादी  नास्तिक  दर्शनशास्त्री  मौजूद नहीं था। परिचर्चा में केवल स्वनाम धन्य  हिन्दू -धर्मावलम्बी 'आस्तिक'  साधु -संत और  कुछ सामाजिक  कार्यकर्ता ही उपस्थ्ति थे। ये सभी चीख-चीख कर आपस में केवल  कुकरहाव किये जा रहे थे। उसकी  चरम परिणीति हाथापाई के रूप में अधिकांस दर्शकों ने खुद देखी है। दरसल  यह दुखद दृश्य हिंदुत्व रुपी हांडी का एक चावल मात्र है। वर्ना  पूरा का पूरा धर्मांधी पाखंडी वैश्विक डोबरा  खदबदा रहा है।

आपस में गुथ्थम गुथ्था होने वाले  ये  'हिन्दू' धर्मांध अंधश्रद्धालु  यह स्वीकारना  ही नहीं चाहते कि उनके गुरु घंटाल -स्वयंभू  धार्मिक मठाधीश किस कदर अध :पतन को प्राप्त हो रहे हैं ? वे नहीं जानते कि उनकी  धार्मिक अंधश्रद्धा व साम्प्रदयिक  संगठनों को जब राजनीति  के  पर लग जाते हैं तब फासिज्म का जन्म होता है। धर्म-मजहब को जब राजनीति में  इस्तेमाल किया जाने लगता है ,और लोकतान्त्रिक -धर्मनिरपेक्ष जन समूह द्वारा  जब इस पर  आपत्ति ली जाती है, तो अपने वचाव में ये  हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक संगठन अन्य अल्पसंख्यक या विधर्मी संगठनों के आचरण उदाहरण पेश करने लगते हैं। उनकी ओर से  एक प्रतिप्रश्न  हमेशा उठाया जाता  है. कि  क्या हिन्दुत्ववादी भी उतने ही हिंसक या खूंखार हैं जितने हिंसक और खूँखार  इस्लामिक चरमपंथी हैं ? क्या  हिन्दुओं का आपसी पंथिक  संघर्ष या जातीय द्वन्द शिया -सुन्नी  के जितना भयावह है ? सचेत हिन्दूओं का  दावा है कि सच का सामना करने की समर्थता - सहनशीलता व मानवीयता  जितनी   हिन्दुओं  में  है, उतनी दुनिया की किसी और कौम में नहीं है। वैश्विक पटल पर  ईसाइजगत  और इस्लामिक जगत  का  साम्राज्य्वादी विस्तार तो वैसे भी मशहूर है। ईसाई बहुल राष्ट्रों में चर्च और पोप  को  राजकीय सम्मान दिया जाता है। दुनिया के सभी मुस्लिम बहुल देश इस्लामी क़ानून शरीयत से संचलित  हो रहे हैं। उनके धर्म गुरुओं का सम्मान और उनकी राजनैतिक ताकत के जलवे  देखकर तो  किसी भी हिन्दू को अपने 'हिंदुत्व' की दुर्दशा पर तरस आ सकता है।  इसीलिये हिटलर या हेडगेवार से प्रेरित होकर नहीं बल्कि ईसाईयत और इस्लामिक साम्राज्य्वाद से प्रेरित होकर  इन दिनों  भारत के अधिकांस  हिन्दु भी राजनैतिक शक्ति बनने की ओर  अग्रसर हैं।

 एक साथ अनेक उत्तर मिलेंगे कि  इस्लामिक जेहादी' तो इनसे भी हजारों गुना वीभत्स और नृशंस आदमखोर हैं। अभी -अभी  भारत में जिन्दा पकड़ा गया आतंकी  नावेद  और याकूब मेमन -कसाब जैसे  पाकिस्तान प्रेरित आतंकियों ने सावित कर दिया है कि  वे इस्लाम का ककहरा भी नहीं जानते हैं । बल्कि उनकी गरीबी ,निरक्षरता का बेजा फायदा उठाकर ,उन्हें मजहबी अफीम खिलाकर , 'मानव बम' बनाकर भारत में  जबरन मरने -मारने के लिए धकेल दिया जाता है ।  पेशावर ,लाहौर  और पख्तुनरवा में सैकड़ों पाकिस्तानी मुस्लिम बच्चों के हत्यारे सिर्फ भारत के  हिन्दुओं के ही कातिल नहीं हैं। बल्कि वे सम्पूर्ण मानवता के दुश्मन हैं। इनकी तुलना दुनिया के किसी भी अन्य साम्प्रदायिक संगठन से करना सरासर बेईमानी है।

  आम तौर  पर अधिकांस मजहबी  या  सच्चे धार्मिक  मनुष्य बड़े भावुक और धर्मभीरु हुआ करते हैं। उन्हें  मानसिक रूप से इस कदर गुलाम बना दिया जाता है कि अपने 'गॉडफादर' या गुरु के इशारों पर अपना सर्वस्व लुटाने के लिए तैयार रहना चाहिए । फिदायीन हमले  इस हाराकीरी की सबसे बड़ी मिसाल हैं। पेशावर स्थित  आर्मी स्कूल के बच्चों के हत्यारे, लाखों सीरियाई शरणार्थी सहित - बालक अलायन के हत्यारे, किस मजहब और किस  कुर्बानी का  प्रतिनिधित्व कर रहे हैं ?  जब उनके उस्तादों  को देश समाज और धर्म से कोई लेना देना नहीं है तो उनके प्रति यह अंधश्रद्धा  और मजहबी पाखंड क्यों ? यह प्रवृत्ति  केवल 'हिन्दू -मुस्लिम मठाधीशों ' तक ही सीमित नहीं है। बल्कि सारा संसार जानता है कि आईएसआईएस ,तालिवान और अलकायदा वाले  तो हिन्दू अंध श्रद्दालुओं से भी  हजारों गुना कट्टर और हिंसक सावित हो रहे  हैं। हिन्दू धार्मिक साधु -साध्वियां  तो महज तूँ -तड़ाक  या हाथापाई  तक ही सीमित  रहते हैं। जबकि  इस्लामिक आतंकी -जेहादी  तो इनसे  बहुत आगे हैं। वे तो मजहबी 'असहमति' के लिए निर्दोषों का नर संहार करने ,पत्रकारों और मीडिया वालों की मुण्डियाँ  काटकर  एफबी पर सेल्फ़ी पोस्ट करने  के लिए दुनिया  भर में  कुख्यात हैं। वे आतंकी  रोज-रोज  जिन लोगों की  भी  हत्याएँ कर  रहे हैं उन में नास्तिकों  ,काफिरों   की कोई खास गिनती नहीं है। बल्कि इन  संगठित फिदायीन-जेहादियों -आतंकियों के हाथों ज्यादातर निर्दोष मुस्लिम  ही मारे जा रहे हैं ।

जो  खूंखार आतंकी - सीरिया , इराक ,अफगानिस्तान,  फिलिस्तीन , लेबनान ,सूडान ,अल्जीरिया,पाकिस्तान और यमन  में  ईसाईयों , गैर सुन्नी मुसलमानों -शियाओं , कुर्दों,यज़ीदियों व अहमदी  मुसलामनों  को  ही चुन-चुन  कर मार रहे हैं। क्या इन  वैश्विक  हत्यारों  की बराबरी का कोई और घातक संगठन दुनिया में है ?भारत के  मुठ्ठी भर कटटरपंथी  हिन्दू सिर्फ अपने घर याने  भारत में ही शेर हैं । सिर्फ  वीर रस की कविता पढ़नेवाले - शुद्ध  शाकाहारी संगठन' आरएसएस की तुलना  उस आईएसआईएस या अलकायदा से कैसे की जा सकती है जो पल भर  में अमेरिका की वर्ल्ड ट्रेड बिल्डिंग को धराशायी कर सकते हैं। जो लोग पाकिस्तान के परमाणु बम्ब और  इराक का पेट्रोल हथियाने की फिराक में हैं,जिनकी  ताकत के सामने  अमरीका और नाटो देश भी बौने सावित हो रहे हैं। जिनकी  शै पर  भारत के कश्मीर में आईएस  और पाकिस्तान के झंडे फहराये जा रहे हों ,जिनकी नापाक  हरकतों पर  भारत विरोधी मन ही मन गदगदायमान हो रहे हों। उन हाफिज सईद,दाऊद ,जिस-ए -मोहम्मद वालो या   अकबरुद्दीन और  असदउद्दीन ओवेसी  जैसे साम्प्रदायिक तत्वों की तुलना  मोहनराव भागवत जैसे निरीह प्राणी से  करना  कदापि न्याय संगत नहीं है। यह तो मानों आदमखोर चीतों से हिरण की तुलना करने जैसा है।

प्रत्येक  वैज्ञानिक तर्कवादी को अपनी प्रगतिशीलता पर पुनः चिंतन कर लेना चाहिए। बराबरी पर कभी कभार जब कोई उन्हें ज्यादा कुरेदता है तो वे आक्रामक हो जाते हैं।अन्यथा  अधिकांस हिन्दू सहिष्णु और 'अहिंसावादी' ही हैं। आरएसएस  तो केवल हिंदुत्व के नामपर भाजपा को सत्ता में बिठाने  का महज सामाजिक  -सांस्कृतिक उपादान मात्र  ही है।  वैसे तो संघ  देशभक्ति की बात करता है। किन्तु जब 'हिन्दुत्ववादी ही देश को लूट रहे हों  , नदियों को बर्बाद कर रहे हों तब  'संघ' की बोलती बंद  क्यों रहती है ?  इसीलिये लोगों को लगता है कि संघ तो  खुद ही प्रतिक्रयावादी है । संघ की  हिन्दू बाबाओं या हिन्दू धर्मावलम्बी -धर्मभीरु  प्रतिक्रयावादी जनता पर कोई पकड़ नहीं है।जो जितनी ज्यादा धर्मान्धता की अफीम बेच सकता है वो संघ को उतना ही अपरम प्रिय है। यह स्थति भारत राष्ट्र के पक्ष में कदापि नहीं है।  होता है कि  संघ के लोग वैज्ञानिक तर्कवाद से पृथक केवल कोरे अंध  राष्ट्रवादी मात्र हैं।

       वाराणसी के गंगा घाट पर गणेश प्रतिमा विसर्जन की जिद कर रहे साधु -महात्मा जब आक्रामक हो उठे तो पुलिस को उन पर लाठी चार्ज करना पड़ा। यह सर्व विदित है कि गंगा में हर किस्म के प्रदूषण  को रोकने के उद्देश्य से इलाहाबाद  हाई  कोर्ट ने प्रतिमा विसर्जन पर रोक लगा रखी  है।गंगा की दुर्दशा देखकर विदेशी श्रद्धालु और सैलानी  तो दुखी हो रहे हैं। किन्तु  गंगा मैया की जय बोलने वाले तथाकथित  हिन्दू धर्मावलंबी गंगा को गटर गंगा बनाने  में जुटे हैं। जब भी कोई सरकार ,कोर्ट या प्रगतिशील वैज्ञानिकतवादी निवेदन करता है कि  नदियों को बचाओ तो गंगा को बर्बाद करने वाले और आक्रामक ढंग से गंगा की ऐंसी- तैंसी  करने में जुट जाते हैं। यह महज गंगा विमर्श ही नहीं है। दरसल यही  आधुनिक अवैज्ञानिक हिंदुत्व का असली चेहरा है। उत्तर भारत की अधिकांस नदी-नाले ,कुएँ  बावड़ी ,ताल-सरोवर ५० % तो औद्योगिक प्रदूषण की भेंट  चढ़ गए बाकी ५० % को धर्म-मजहब के पाखंडियों ने बर्बाद कर दिया है। न केवल इतना ही बल्कि  यज्ञ -हवन इत्यादि में लाखों क्विंटल अनाज घी-तेल -लकड़ी स्वाहा  करने वाले 'धर्मध्वज' अपने इस दुष्कर्म को वैज्ञानिकता से जोड़ने के लिए  टीवी पर  धार्मिक चैनलों के माध्यम से   महाप्रदूषण पैदा कर रहे हैं।

                  जो  सच्चे राष्ट्रवादी  हुआ करते हैं । वे साम्प्रदायिकता और  जातीयतावाद के जहर को कभी बर्दास्त नहीं कर सकते । क्योंकि  वे  जानते हैं कि राष्ट्रीय एकता -अखंडता के लिए  -कौमी एकता  जरूरी है।  इसलिए वे धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता के सिद्धांत का अनुशीलन करते हैं। सच्चे वतन  परस्त वो नहीं जो अपनी अस्मिता को देशी -विदेशी पूंजपतियों के हाथों बेच रहे हैं। जो लोग धर्म-मजहब ,जाति  के आधार पर जनता को विभाजित कर वोट हथियाते हैं वे सत्ता भले ही हासिल कर लें  किन्तु  वे  सच्चे राष्ट्रवादी नहीं हो सकते।  इसी तरह जिसे अपने  देश की नदियों की ,पहाड़ों की , झीलों की, वायुमण्डल की  और जिसे  अपने राष्ट्र के स्वास्थ्य की चिंता नहीं वो सच्चा धर्म गुरु हो ही नहीं सकता। एक तरफ तो कुछ हिन्दुत्ववादी नेता और उनके सत्तासीन मंत्री अपने वयानों से देश के अल्पसंख्यकों पर निशाना साधते रहते हैं।

 यह कौन वेवकूफ नहीं  जानता कि औरंगजेब बड़ा बदमाश और घटिया बादशाह था। कार्ल मार्क्स ने तो यह सिद्धांत पेश किया है कि  पूरा-का पूरा सामन्तकालीन युग  ही मानवता का हत्यारा था। वे तो यह भी कहते हैं कि  अतीत का इतिहास केवल राजाओं-रानियों के युध्दों-ऐयासियों की दास्ताँ है। आम आदमी का इतिहास तो  नदारद  ही है। यह तो पूँजीवादी क्रांति  का कमाल है कि   दुनिया को क्रूर राजाओं और बादशाहों से छुटकरा मिला। किन्तु पूंजीवाद के  आगमन से दुनिया के मेहनतकशों को अभी भी आजादी नहीं मिली। उसे क्या औरंगजेब और क्या कलाम सब एक जैसे हैं। औरंगजेब रोड को अब्दुल कलाम रोड कहने से  किसी वेरोजगार युवा को काम नहीं मिलने वाला। किसी भूंखे को रोटी और प्यासे को पानी नहीं मिलने वाला। वेशक ' कलाम साहब  बहुत महान  थे। किन्तु किसी मंत्री का यह कहना कि 'एक   मुसलमान होते हुए भी  कलाम साहब बड़े राष्ट्रवादी थे '। बहुत ही शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है। इसीतरह मोदी जी ने भी एक बार बँगला देश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की तारीफ में खा था " आप एक  महिला होते हुए भी बहुत बहादुर हैं "  जो लोग धर्म-जात  से ऊपर  केवल अपने वतन को ही मानने का  दावा करते होने वे अपनी इन स्थापनाओं पर पुनः चिंतन  करें। उनकी सुविधा के लिए  मैं बता दूँ कि देशभक्ति का ठेका  किसी खास धर्म-मजहब ने नहीं ले रखा है। इसी तरह वीरता और बहादुरी भी केवल पुरुषों की बपौती नहीं है। पोप  फ्रांसिस की तरह कोई और धर्मावलबी भी सोच सकता है।

       लेकिन संदेह है कि  पोप  फ्रांसिस के सामने ये  जुमलेबाज,फतवेबाज और आरक्षणबाज शायद नहीं   टिक सकेंगे  ? शुचिता ,सहिष्णुता और क्षम्यता में तो कदापि नहीं !


श्रीराम तिवारी

                                        


 

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