मातृभूमि को लज्जित करती ,रिश्वत की सूर्पनखा देखो।
खूब जलाये अब तक हमने ,नकली राक्षस कुल देखो।।
चारों ओर झुण्ड असुरों के ,लूट रहे हैं वतन -अमन ,
आतंकवाद के खुम्भकरण को ,अठ्ठहास करते देखो ।।
हे राम के भोले भक्तो ! अब तक तुमने किसे जलाया ?
असली रावण तो डगर-डगर , छुट्टा सींग मारते देखो ।
कालचक्र के हवनकुंड में स्वाहा हुए अनेकों जनगण ,
भूंख गरीबी महँगाई की ,बदन बढ़ाती सुरसा देखो।
जब नर बन जाते नारायण ,भू भार हरण करने को ,
उनको ही अवतार उन्हें ही,अमर शहीद मानों देखो।
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मर मिट कर हो पाता दाना , महा विटप तरुणाई में।
निहित स्वार्थी बहुरूपिये क्या ,सिंह बने बनराई में ।।
बाँधा जिसने सप्तसिंधु को ,नर-वानर संयोजन से ,
पुरषोत्तम की मर्यादा भूले ,स्वार्थ की अंगड़ाई में।।
युध्दभूमि पर जिनके पग में नहीं सारथि रथ पद त्राण ,
अश्त्र-शस्त्र से ज्यादा ताकत ,कूटनीति चतुराई में।
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मानव जब दानव वन जाये, दीन हीन का लहू बहाए ।
लोकतंत्र की जन वैदेही ,क्रूर निशाचर हर ले जाए ।।
नैतिकता भूलुंठित प्रतिहत ,कटे पंख के वृद्ध जटायु ,
मरघट की ज्वाला को पागल ,मायावी लंका ले जाए।
मक्कारी का मेघनाद तो ,स्वार्थ की सत्ता का साधन ,
अंधी श्रद्धा निपट निश्चरी , नीति-नियति उस न भाये।
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श्रीराम तिवारी
खूब जलाये अब तक हमने ,नकली राक्षस कुल देखो।।
चारों ओर झुण्ड असुरों के ,लूट रहे हैं वतन -अमन ,
आतंकवाद के खुम्भकरण को ,अठ्ठहास करते देखो ।।
हे राम के भोले भक्तो ! अब तक तुमने किसे जलाया ?
असली रावण तो डगर-डगर , छुट्टा सींग मारते देखो ।
कालचक्र के हवनकुंड में स्वाहा हुए अनेकों जनगण ,
भूंख गरीबी महँगाई की ,बदन बढ़ाती सुरसा देखो।
जब नर बन जाते नारायण ,भू भार हरण करने को ,
उनको ही अवतार उन्हें ही,अमर शहीद मानों देखो।
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मर मिट कर हो पाता दाना , महा विटप तरुणाई में।
निहित स्वार्थी बहुरूपिये क्या ,सिंह बने बनराई में ।।
बाँधा जिसने सप्तसिंधु को ,नर-वानर संयोजन से ,
पुरषोत्तम की मर्यादा भूले ,स्वार्थ की अंगड़ाई में।।
युध्दभूमि पर जिनके पग में नहीं सारथि रथ पद त्राण ,
अश्त्र-शस्त्र से ज्यादा ताकत ,कूटनीति चतुराई में।
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मानव जब दानव वन जाये, दीन हीन का लहू बहाए ।
लोकतंत्र की जन वैदेही ,क्रूर निशाचर हर ले जाए ।।
नैतिकता भूलुंठित प्रतिहत ,कटे पंख के वृद्ध जटायु ,
मरघट की ज्वाला को पागल ,मायावी लंका ले जाए।
मक्कारी का मेघनाद तो ,स्वार्थ की सत्ता का साधन ,
अंधी श्रद्धा निपट निश्चरी , नीति-नियति उस न भाये।
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श्रीराम तिवारी
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