भारत का 'हिन्दुत्वादी' सरकार का वर्तमान केंद्रीय गृह मंत्रालय नहीं जानता कि 'हिन्दू शब्द की परिभाषा 'क्या है ? मंत्रालय ने यह जबाब मध्यप्रदेश के नीमच के आरटीआई कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड़ को दिया है। गौड़ ने विगत जून -२०१५ में एक आरटीआई आवेदन केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेजा था। इसके मार्फ़त उन्होंने सिर्फ यह जानकारी माँगी थी कि 'भारतीय विधि ,संविधान ,कानून में हिन्दू शब्द की परिभाषा क्या है ?'हिन्दू किस धर्म ,सम्प्रदाय को मानता है और किस आधार पर उस 'हिन्दू' समाज को बहुसंख्यक वर्ग में शामिल किया गया है ? हिन्दू कहलाने की पात्रता व आधार क्या है ? यदि यह प्रश्न मुझसे पूंछा जाता तो में स्वामी विवेकानंद के शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन के भाषण की एक एक लाइन में ही उत्तर दे सकता हूँ।
स्वामी जी ने कहा है " जो असत्य से सत्य की ओर जाना चाहता है ,जो तमस से प्रकाश की ओर जाना चाहता है ,जो मृत्यु से अमरत्व की ओर जाना चाहता है और जो समस्त चराचर जीवों को भी ब्रह्मस्वरूप देखता है ,वह हिन्दू है " यदि गृह मंत्रालय में आरक्षण की वैशाखी वाले बैठे हैं ,यदि गृह मंत्रालय और सरकार में हिंदुत्व की रोटी खाने वाले आईएएस वैठे हों ,या व्यापम जैसे तौर तरीकों से नौकरी हथियाने वाले नौकरशाह बैठे होंगे तो देश का का बंटाढार होने से कोई नहीं सकता ! यदि ग्रह मंत्रालय के अधिकारी इस आरटीआई की फाइल को लेकर मोदी जी तक पहुंचते,तब शायद देश की जनता को एक ठो बढ़िया 'मन की बात ' इसी विषय पर सुनने को अवश्य मिल जाती। शायद आरटीआई कार्यकर्ता को संतुष्ट करने में मोदी जी जाते ।
दुनिया को लगता है कि इस हिन्दुत्ववादी सरकार में केवल दलित को कुत्ता बताने वाले हैं। वीफ के नाम पर निर्दोष की हत्या को जायज ठहराने वाले हैं। हिंदुत्व के नाम पर राम लला को युगों-युगों तक टाट में रखने की जुगाड़ वाले हैं। हिंदुत्व के नाम पर नरेंद्र दाभोलकर ,गोविन्द पानसरे ,एमएम कलबुर्गी जैसे तर्कवादियों की क्रूर नृशसंस हत्या पर चुप्पी धारण करने वाले हैं। किन्तु एक भी बन्दा या बंदी इस हिन्दुत्ववादी सरकार में या उसकी मात्र संश्था 'संघ' में नहीं है ,जो विवेकानंद की तरह ,नेहरू की तरह डॉ सर्व पल्ली राधाकृष्णन की तरह हिंदुत्व को परिभाषित कर सकने का माद्दा रखता हो।
गुरु गोलबलकर से लेकर मोहनराव भागवत तक की विद्वत्तापूर्ण परम्परा में हिन्दू शब्द अपरिभाषित क्यों है ? क्या बाकई संघ परिवार वाले केवल धर्मनिरपेक्षता को लहूलुहान करने , हिन्दुओं के वोट ध्रुवीकृत करने और राजनीतिक वयानबाजी करने के सूरमा ही हैं ? क्या उनके पास बाकई कोई एक भी चिंतक -विचारक नहीं है जो हिंदुत्व को परिभाषित कर सके ! यदि उनके पास कोई वैज्ञानिक जबाब हैं तो श्वेत पत्र जारी क्यों नहीं कर देते ? केवल विदेशी हमलावरों की दुखद यादों को कुरेदना ही हिंदुत्व नहीं है। बल्कि स्वामी विवेकानंद और स्वामी श्रद्धानन्द जी की तरह , लोक मान्य बालगंगाधर तिलक की तरह ,लाला लाजपतराय की तरह खुद के जीवन को तपोनिष्ठ बनाकर ही 'हिन्दू' शब्द की व्यख्या करने की क्षमता प्राप्त होती है। सत्ता सुख में मग्न हिन्दुत्वादी नेता यह याद रखें कि जिस हिंदुत्व की रोटी वे आज खा रहे हैं ,यदि उसकी परिभाषा भी उन्हें नहीं मालूम तो अगली बार हिन्दू बहुसंख्यक वोट उन्हें ही मिलेंगे यह जरुरी नहीं है !
गौड़ के आरटीआई आवेदन पर ३१ जुलाई -२०१५ को केंद्रीय गृह मंत्रालय के लोक सूचना अधिकारी ने इस संबंध में किसी भी प्रकार की जानकारी होने से इंकार कर दिया है। लोक सूचना अधिकारी ने सूचना पत्र में जबाब दिया कि गृह मंत्रालय के पास जानकारी उपलब्ध नहीं। है यह भी कहा गया है कि इस प्रकार की कोई जानकारी उसके किसी अनुभाग या शाखा में नहीं रखी ही नहीं जाती। गौड़ को यह जबाब विगत अगस्त के प्रथम सप्ताह में मिल चुका है। जब गौड़ ने प्रधान मंत्री कार्यालय व केंद्रीय कानून मंत्रालय को दोबारा आरटीआई आवेदन भेजा। तो प्रधानमंत्री कार्यालय और केंद्रीय कानून मंत्रालय ने पुनः गृह मंत्रालय को भेज दिया। जैसी कि आसा थी गृह मंत्रालय ने वही पका-पकाया पहले वाला नकारात्मक जबाब फिर गौड़ को भेज दिया है। जिसका तातपर्य यह है कि 'हमें नहीं पता कि हिन्दू शब्द का मतलब क्या है ?'
मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर में विगत तीन दिनों से 'अंतराष्ट्रीय धर्म-धम्म सम्मेलन' का बड़े पैमाने पर आयोजन चल रहा है। स्वयं मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहाँन और संघ के वरिष्ठ बौद्धिक भैयाजी जोशी इसके प्रमुख करता धर्ता हैं। इसमें सभी धर्म-मजहब के राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय महापंडित ,फादर ,मौलवी ,उलेमा और बौद्ध धर्म गुरु शिरकत कर रहे हैं। इनमें स्वामी सुखबोधानंद ,स्वामी अवधेशानन्द गिरी और श्री श्री जैसे तो हैं ही किन्तु अमरीका,जापान ,श्रीलंका तिब्बत और चीन से भी 'हिन्दू धर्म' के दिग्गज विद्वान पधारे हैं। इनमें से अधिकांस लोग हिन्दू धर्म पर बढियां-बढियां स्थापनाएं देते रहते हैं। इन्ही के दो चार वाक्य गृह मंत्रालय टीप सकता था। इससे पहले पूरे दो महीनों तक नासिक कुम्भ में भी तमाम शंकराचार्यों और अखाड़ों ने 'हिन्दू' धर्म को केंद्र में रखकर ही तो स्रारा तामझाम और आयोजन सम्पन्न किया है। कुछ उसी का सारांश ही आरटीआई के जबाब में गौड़ को अधिकृत टीप के साथ भेजा जा सकता था।
कुछ दिनों बाद उज्जैन में सिंहस्थ के बहाने फिर हिन्दू-हिंदुत्व का महिमागान होगा। कहने तातपर्य कि केंद्र में हिंदूवादी सरकार होने के वावजूद ,देश भर में मंदिरों -मठों में कथा कीर्तन ,यज्ञ व शोभा यात्राओं के जयकारे धूम मचाते रहते हैं ,चुनाव में बार-बार हिंदुत्व को भुनाने के वावजूद -हिन्दुत्वादी सरकार को हिन्दू शब्द की अधिकृत परिभाषा व्यक्त करने में पसीना क्यों आ रहा है ? यदि जिस विधा में वे पारंगत हैं यदि वही पक्ष ही अमानक है तो वे अन्तर्राष्टीय परिदृश्य पर हिंदुत्व का पक्ष पोषण कैसे करेंगे । क्या उन्हें मालूम है कि पोप फ्रांसिस इतने लोकप्रिय और सर्व स्वीकार्य क्यों हैं ? क्योंकि पोप फ्रांसिस दुनिया में घृणा के खिलाफ हैं। क्योंकि वे साम्यवादियों को भी पूरा सम्मान देते हैं। हमारे संघी भाई और भाजपा के कटटरवादी बयानवीर शिवसेना के संजय रावत से ही कुछ सीख लें। जो ढुलमुल बात नहीं कहते। जो कहते हैं डंके की चोट कहते हैं।
हिन्दू शब्द पर क़टटर हिन्दुओं को और धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं को एक धड़े पर नहीं रखा जा सकता। और ठीक इसी तरह हिन्दू और अन्य मजहबों के नजरिये को भी अलग-अलग इम्युनिटी नहीं दी जा सकती। प्राय देखा गया है कि पाकिस्तान, ईरान ,अफगानिस्तान ,सऊदी अरब ,जॉर्डन यूएई या दुनिया का कोई भी इस्लामिक राष्ट का नेता भले ही वह गद्दाफी , सद्दाम या यासिर अराफ़ात जैसा ही प्रोग्रेसिव या स्वयंभू कम्युनिस्ट ही क्यों ने हो. जब यूएन में भाषण करता है या किसी भी अन्य मुल्क में जाकर भाषण करता है तब मंच पर अपनी बात की शुरुआत कुछ इस ढंग से करता है -बिस्मिल्लाह रहमान रहीम ,,,,,,,,बड़ी नफासत और सुसंकृत शब्दावली में 'अल्लाह को याद' करने के बाद ही वे अपना विस्तृत मंतव्य ,,आमीन ,,,के साथ समाप्त करते हैं। जबकि भारत का कोई हिन्दू नेता यदि मंच से श्री गणेशाय नमः बोल दे या 'जय श्रीराम' या जय भोलेनाथ बोलकर यदि कहीं भाषण देने लग जाए तो गजब हो जाएगा। ये दोहरे मापदंड न केवल फौजी तानाशाहियों में ,न केवल बनाना छाप नकली डेमोक्रेसियों में बल्कि प्रगतिशील फलक पर भी विगत आधी शताब्दी से इस्तेमाल किये जा रहे हैं।
हिन्दू देवी देवताओं की नंगी तस्वीर बनाने वाला गैर हिन्दू कार्टूनिस्ट यदि मकबरे से भी उठकर आए जाए और यदि वह 'हिन्दू 'शब्द की लानत-मलानत करने लगे तो और उसका यह कृत्य प्रगतिशील हैं। यदि आपने उसकी हरकत पर जरा भी चूँ चपड़ की तो आप दकियानूसी और पोंगापंथी मान लिए जाएंगे। भारत में यदि किसी नेक काम की शुरुआत -शुभ कार्य से पहले 'श्रीगणेशाय नमः ' का उद्घोष किया गया तो गजब हो जाता है। दरसल में आजादी के बाद पूंजीवादी पार्टियों द्वारा गैर हिन्दुओं को साधने के चककर में यह नौबत आयी है। अब हालात ये हैं कि हिन्दुत्ववादी सरकार भी हिन्दू की परिभाषा देने में घबरा रही है। और श्री गणेशाय नमः तो अब सिर्फ शादी व्याह और पूजा पाठ तक ही सीमित कर दिया गया है। संस्कृत स्वस्तिवाचन या शांतिपाठ जैसी वैश्विक और उम्दा रचनाएं जो मूर्ख नहीं जानते वे भी इन्हे सम्प्रदायिकता के मन्त्र बताकर उनका मजाक उड़ा ने में गर्व महसूस करते हैं।
भारत में आकर अंग्रेजी राज ने अपनी वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति दी। लेकिन उनसे पहले तुर्कों,अरबों ,मंगोलों और फारसियों ने अपनी मजहबी शिक्षा को शासन-प्रशासन की भाषा बनाकर देश को गुलाम बना लिया था। चूँकि भारत की अपनी खुद की अर्वाचीन पध्ध्तियां थीं लेकिन संस्कृत भाषा की किलष्टता और उसकी व्यवहारिक अनुपयोगिता ने भाषा के साथ साथ शिक्षा स्वास्थ्य और राजनीति का भी ब्राह्मणीकरण कर डाला। सामाजिक संकीर्णता ने संस्कृत और हिंदी को सत्यनारायण की कथा ,आरती और पूजा पाठ की भाषा तक सीमित कर दिया । जबकि उर्दू ,अंग्रेजी, फ्रेंच, रशियन ,चीनी त्यादि भाषाओँ को प्रगतिशीलता का अवतार मान लिया गया। क्योंकि ये भाषाएँ राष्ट्रवाद,डेमोक्रेसी साम्यवाद - क्रांति और समाजवाद जैसे आधुनिक पवित्र शब्दों से लबरेज थीं। इन्ही भाषाओँ के माध्यम से भारत ने साइंस ,टेक्लानाजी और ब्रिटिश समेत दुनिया के नए संविधान पढ़े और आत्मसात किये। बड़े ही विस्मय की बात है कि इन्ही भाषाओँ ने भारत को -हिंदी -हिन्दू हिन्दुस्तान की पहचान से महरूम किया। हमें आदत सी हो गयी है कि यदि हमने संस्कृत में बोल दिया तो प्रगतिशील नहीं रह पाएंगे।
सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि भारत में सदियों से जो 'ग' गणेश का पढ़ाया जाता था वो भी पता नहीं किस गधे ने ग' गधे का कर दिया ? वेशक भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है ,इस पर हर भारतीय को बड़ा गर्व भी है। किन्तु 'ग' गणेश से इतनी एलर्जी क्यों ? क्या अरबी ,फारसी पढ़ने वाले बच्चे जब 'बिस्मिलाह रहमान रहीम ,,,,से शुरुआत करते हैं तो वे गलत करते हैं ? क्या कभी किसी संस्कृत भाषा के विद्वान ने या साहित्यकार ने गैर हिन्दुओं के साम्प्रदायिक आचरण पर कभी कोई नकारात्मक गंभीर टिप्पणी नहीं की है ? फिर केवल भारत की पुरातन देवनागरीऔर उसकी संस्कृत या हिन्दी भाषा पर ही भाषायी कंगाली और वैचारिक दरिद्रता का संकट क्यों थोपा गया ? तथाकथित हिंदूवादी सरकार के शाशन-प्रशासन की -हिन्दू ,हिन्दुस्तान कहने में जुबान क्यों लड़खड़ा रही है। आरटीआई का जबाब देने से क्या धर्मनिरपेक्षता गल जाएगी।
वैसे तो भारोपीय परिवार की भारतीय शाखा आदि वैदिक 'संस्कृत' भाषा के धातु शब्दों के यौगिक शब्दों की व्यत्पत्तियों के वैज्ञानिक 'अक्षर विज्ञान' पर बहुत शोध कार्य हुए हैं। किन्तु आदि कवि से लेकर पाणिनि तक और अरबी -फारसी -अंग्रेजी के आगमन के उपरान्त तक की शब्द यात्रा में संस्कृत व्याकरणवेत्ताओं ने देवनागरी के भाषायी सम्मान ,शब्दिक शुद्धता और उसकी वैज्ञानिकता को निरंतर अक्षुण और वैश्विक बनाये रखा। किन्तु उपमहाद्वीप पर हुए आक्रमणों के फलस्वरूप देवनागरी लिपि और संस्कृत व्याकरण के विकास का मार्ग अवरुद्ध होता चल गया । खड़ी हिंदी की अनगढ़ यात्रा में निर्मित किये गए कतिपय कुछ साहित्यिक ठाँव भी धत्ताविधान की भेंट चढ़ते गए।
कुछ सवाल तो अभी भी 'अबूझ' बने हुए हैं। दरसल आजादी के बाद जो दुर्गति 'हिन्दुस्तान' शब्द की हुई है कमोवेश हिन्दू समाज व हिन्दी भाषा भी कुछ इसी तरह के मतिभृम के शिकार रहे हैं । हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान तीनों ही क्रूर कालचक्र के द्वारा लगातार लतियाये जाते रहे हैं। विदेशी आक्रमणों के उपरांत आयातित संस्कृति ,सभ्यताओं और भौतिक उन्नति ने भारतीय समाज के प्रबुद्ध वर्ग को सदियों पहले ही इतना सम्मोहित कर दिया कि उन्हें अपने माता -पिता को प्रणाम करने में शर्म आने लगी।और गुड मॉर्निंग ,गुड इवनिंग प्रगतिशील और आधुनिक होता चला गया।
यदि मैं सुबह उठकर सोशल मीडिया पर हिन्दू धर्म ,हिन्दू समाज और हिन्दी भाषा को दो-चार गालियां जड़ दूँ तो में प्रगतिशील कहलाऊंगा। यदि मैंने लिख दिया -त्वमेव माता च पिता त्वमेव.......... या ,,,,,,, एकम सद विप्रा बहुधा बदन्ति ,,,,या अहिंसा परमो धर्म :,,,,तो मैं साम्प्रदायिक और अप्रगतिशील कहलाऊंगा।हिन्दू मूल्यों ,हिंदी भाषा साहित्य और हिन्दुस्तान पर लिखना याने तलवार की धार पर चलने जैसा है। अब यदि देश का बहुमत प्रगतिशीलता को 'छद्म धर्मनिरपेक्षता में आंकने लगा है तो इसकी जिम्मेदारी उनकी है जो शीत युद्ध पूर्व के 'सोवियत शिविर' से बाहर ही नहीं आना चाहते। राष्ट्रीय अस्मिता की पैरवी तो दूर की बात बल्कि उसके आंसू पोंछना भी अब गुनाह हो चला है। किसी भी तरह के भारतीय अवयवों को छूना याने संकीर्णतावादी हो जाना है वैज्ञानिकता और प्रगतिशीलता के लिए भारतीय सभ्यता ,संस्कृति का लतमर्दन जरुरी है । हिन्दी ,हिन्दू हिन्दुस्तान-जिसने जितना ज्यादा इन शब्दों को लतियाया और हेय बनाया वो उतना ही बड़ा प्रगतिशील कहलाया। स्वार्थों की बलिवेदी पर बार-बार केवल भारतीय मूल्यों और भारतीय हुतात्माओं को ही अग्नि परीक्षा देनी पडी है। इसका सबसे बड़ा कसूर उनका है जिन्होंने इन शब्दों की अभिरक्षा के नामपर उनका हो दोहन किया है।
सदियों से भारतीय उपमहाद्वीप के वाशिंदे 'ग' गणेश का लिखते -पढ़ते आ रहे हैं। न केवल प्राकृत -संस्कृत विद्यापीठों और गुरुकुलों में बल्कि ईसा की दूसरी शताब्दी के बाद से ही केरल ,मलावर पांडिचेरी गोवा के चर्चों में पढाई जा रही यूरोपीय भाषाओँ के साथ-साथ संस्कृत और स्थानीय भारतीय भाषाओँ को भी न्यूनतम भाषा ज्ञान के रूप अनुवाद के निमित्त पढ़ाया जाने लगा था।तब भी 'ग' गणेश ही पढ़ाया जा रहा था। ९ वीं शताब्दी के बाद भारत में बने तमाम मदरसों - इस्लामिक मजहबी संस्थानों में भी अरबी-फ़ारसी -तुर्की के साथ -साथ भारत की संस्कृत ,प्राकृत और स्थानीय बोलियों-भाषाओँ से शिक्षिण -प्रशिक्षण प्रारम्भ हो चूका था। तब भी फर्क सिर्फ इतना था कि ईसाई लोग अपनी योरोपीय भाषाओं को साइंस ,तकनीकी के साथ अपनी संस्कृति और विधा के अनुरूप परोस रहे थे। वे संस्कृत सहित तमाम भारतीय भाषाओं कोसीख रहे थे और ज्ञान बर्धन कर रहे थे । जबकि अरबी-फारसी के केंद्र सिर्फ राजनीति और इस्लाम को केंद्रित कर अपने भाषा ज्ञान बर्धन में तल्लीन थे। इधर भारतीय ब्राह्मण परम्परा की शिक्षा में या तो केवल यज्ञ हो रहे थे या शादी व्याह। इसलिए वे गुलाम होने को अभिशप्त थे। वे महज 'पंडिताऊ' प्रवचनों, आध्यात्मिक भाष्यों को संस्कृत से 'लोक भाषा ' में अनूदित कर 'स्वान्तः सुखाय' में मस्त थे। कोरे धर्मोपदेश ही उनकी बाचालता के साधन रह गए थे।
जिस तरह प्राचीन यूनानियों और रोमन्स ने इंडस ,इंडिका ,इंडिया ,इंडिक्श को अपनी ततकालीन साहित्य युति में प्रयुक्त किया उसी तरह मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के यायावर व्यापारियों और आक्रमणकारी कबीलों ने भी ततकालीन भारतवर्ष को कभी सिंध>हिन्द >हिन्दसा >हिन्दोस्ताँ >हिंदवी > हिंदी >हिन्दुस्तान शब्द व्युतपत्ति और विकास के इतिहास को प्रतिध्वनित किया है । इतिहास कार और भाषा विज्ञानी अच्छी तरह जानते हैं कि यह शब्द विपर्यय यात्रा विदेशी हमलावरों -व्यपारियों और इस्लामिक धर्म -प्रचारकों द्वारा ततकालीन आर्यावर्त -भारतवर्ष अथवा भारतीय उपमहाद्वीप के लिए ही प्रतिध्वनित होती रही है। जिसे बाद में अंग्रेजों ने 'इण्डिया' और आजादी के बाद संविधान निर्माताओं ने 'भारत' नाम दिया है।
उपरोक्त में से 'हिंदवी' शब्द उस कौम के निमित्त प्रयुक्त किया गया है जो 'हिन्द' का निवासी हो। संघ वाले यदि हिन्दू शब्द की सावरकर वाली व्यख्या को सही मानते हैं अर्थात 'हिन्दू' वह जो 'हिन्द' का निवासी हो। जैसे की वर्तमान भारत में रहने वाला नागरिक भारतीय कहलाता है। उसी तरह ततकालीन अखंड भारत का या हिन्दुस्तान ' का रहने वाला हर शख्स 'हिन्दू' ही था। जिस तरह रूस में रहने वाले कजाख या उक्रेनी पहले रसियन ही कहलाते थे। अब चूँकि वे अलग राष्ट्र हैं ,इसलिए उनकी पहचान कजाकिस्तानी या उक्रेनी हो गयी। इसी तरह अब पाकिस्तान ,बांग्ला देश बन गए हैं तो कोई भी 'हिन्दू' नहीं रहा। कोई भारतीय हो गया। कोई पाकिस्तानी हो गया। कोई बांग्ला देशी हो गया। हालाँकि पूर्व में वे सभी जाति के, सभी रूप रंग के लोग सिंधु या हिन्दू या 'हिंदवी' ही हुआ करते थे। इसीलिये तो मरहूम अल्लामा इकबाल ने भी डंके की चोट पर कहा था : - हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा,,,, सारे जहाँ से अच्छा ,,,,,,,हिन्दोस्ताँ हमारा।
भारत में इन दिनों तथाकथित हिंद्त्ववादी सत्ता में हैं। महाराष्ट्र में तो तीन-तीन खूंखार हिन्दुत्ववादी नेता और दल हैं। वे अपने आपको कटटर हिन्दुत्ववादी सिद्ध करने के लिए एक दूसरे को ही नीचे दिखाने पर तुले हैं। कोई किसी का भी मुँह काला कर रहा हैं। कोई पाकिस्तानी कलाकारों और साहित्यकारों पर गुर्रा रहा है। कोई भाजपा के वरिष्ठों को अपमानित करने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं। साथ ही एक दूसरे को लतियाना और चेहरे पर कालिख पोतने में भी वे बड़े माहिर हैं। वे क्रिकेट की पिच खोदने ,पिक्चरों को बाधित करने ,गौ मांस विक्रय या भक्षण पर बड़े -बड़े सूरमा और वयान वीर हैं। लेकिन उन्हें हिन्दू शब्द का अर्थ मालूम नहीं। यदि कदाचित उन्हें विवेकपूर्ण ज्ञान होता तो वे इस विषय पर पुस्तकें लिखते। किन्तु अभी तो वे हिन्दू शब्द की परिभाषा के लिए प्रतीक्षित आरटीआई का जबाब देने की क्षमता भी अर्जित नहीं कर सके हैं । दरअसल भाजपा ,शिवसेना और संघ परिवार को हिन्दू,हिन्दी ,हिंदुत्व और हिन्दुस्तान शब्दों पता ही नहीं। उन्हें अडानियों,अम्बानियों के कारोबार से मतलब है। हिंदुत्व तो वोट के लिए एक जरिया भर है।
श्रीराम तिवारी
स्वामी जी ने कहा है " जो असत्य से सत्य की ओर जाना चाहता है ,जो तमस से प्रकाश की ओर जाना चाहता है ,जो मृत्यु से अमरत्व की ओर जाना चाहता है और जो समस्त चराचर जीवों को भी ब्रह्मस्वरूप देखता है ,वह हिन्दू है " यदि गृह मंत्रालय में आरक्षण की वैशाखी वाले बैठे हैं ,यदि गृह मंत्रालय और सरकार में हिंदुत्व की रोटी खाने वाले आईएएस वैठे हों ,या व्यापम जैसे तौर तरीकों से नौकरी हथियाने वाले नौकरशाह बैठे होंगे तो देश का का बंटाढार होने से कोई नहीं सकता ! यदि ग्रह मंत्रालय के अधिकारी इस आरटीआई की फाइल को लेकर मोदी जी तक पहुंचते,तब शायद देश की जनता को एक ठो बढ़िया 'मन की बात ' इसी विषय पर सुनने को अवश्य मिल जाती। शायद आरटीआई कार्यकर्ता को संतुष्ट करने में मोदी जी जाते ।
दुनिया को लगता है कि इस हिन्दुत्ववादी सरकार में केवल दलित को कुत्ता बताने वाले हैं। वीफ के नाम पर निर्दोष की हत्या को जायज ठहराने वाले हैं। हिंदुत्व के नाम पर राम लला को युगों-युगों तक टाट में रखने की जुगाड़ वाले हैं। हिंदुत्व के नाम पर नरेंद्र दाभोलकर ,गोविन्द पानसरे ,एमएम कलबुर्गी जैसे तर्कवादियों की क्रूर नृशसंस हत्या पर चुप्पी धारण करने वाले हैं। किन्तु एक भी बन्दा या बंदी इस हिन्दुत्ववादी सरकार में या उसकी मात्र संश्था 'संघ' में नहीं है ,जो विवेकानंद की तरह ,नेहरू की तरह डॉ सर्व पल्ली राधाकृष्णन की तरह हिंदुत्व को परिभाषित कर सकने का माद्दा रखता हो।
गुरु गोलबलकर से लेकर मोहनराव भागवत तक की विद्वत्तापूर्ण परम्परा में हिन्दू शब्द अपरिभाषित क्यों है ? क्या बाकई संघ परिवार वाले केवल धर्मनिरपेक्षता को लहूलुहान करने , हिन्दुओं के वोट ध्रुवीकृत करने और राजनीतिक वयानबाजी करने के सूरमा ही हैं ? क्या उनके पास बाकई कोई एक भी चिंतक -विचारक नहीं है जो हिंदुत्व को परिभाषित कर सके ! यदि उनके पास कोई वैज्ञानिक जबाब हैं तो श्वेत पत्र जारी क्यों नहीं कर देते ? केवल विदेशी हमलावरों की दुखद यादों को कुरेदना ही हिंदुत्व नहीं है। बल्कि स्वामी विवेकानंद और स्वामी श्रद्धानन्द जी की तरह , लोक मान्य बालगंगाधर तिलक की तरह ,लाला लाजपतराय की तरह खुद के जीवन को तपोनिष्ठ बनाकर ही 'हिन्दू' शब्द की व्यख्या करने की क्षमता प्राप्त होती है। सत्ता सुख में मग्न हिन्दुत्वादी नेता यह याद रखें कि जिस हिंदुत्व की रोटी वे आज खा रहे हैं ,यदि उसकी परिभाषा भी उन्हें नहीं मालूम तो अगली बार हिन्दू बहुसंख्यक वोट उन्हें ही मिलेंगे यह जरुरी नहीं है !
गौड़ के आरटीआई आवेदन पर ३१ जुलाई -२०१५ को केंद्रीय गृह मंत्रालय के लोक सूचना अधिकारी ने इस संबंध में किसी भी प्रकार की जानकारी होने से इंकार कर दिया है। लोक सूचना अधिकारी ने सूचना पत्र में जबाब दिया कि गृह मंत्रालय के पास जानकारी उपलब्ध नहीं। है यह भी कहा गया है कि इस प्रकार की कोई जानकारी उसके किसी अनुभाग या शाखा में नहीं रखी ही नहीं जाती। गौड़ को यह जबाब विगत अगस्त के प्रथम सप्ताह में मिल चुका है। जब गौड़ ने प्रधान मंत्री कार्यालय व केंद्रीय कानून मंत्रालय को दोबारा आरटीआई आवेदन भेजा। तो प्रधानमंत्री कार्यालय और केंद्रीय कानून मंत्रालय ने पुनः गृह मंत्रालय को भेज दिया। जैसी कि आसा थी गृह मंत्रालय ने वही पका-पकाया पहले वाला नकारात्मक जबाब फिर गौड़ को भेज दिया है। जिसका तातपर्य यह है कि 'हमें नहीं पता कि हिन्दू शब्द का मतलब क्या है ?'
मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर में विगत तीन दिनों से 'अंतराष्ट्रीय धर्म-धम्म सम्मेलन' का बड़े पैमाने पर आयोजन चल रहा है। स्वयं मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहाँन और संघ के वरिष्ठ बौद्धिक भैयाजी जोशी इसके प्रमुख करता धर्ता हैं। इसमें सभी धर्म-मजहब के राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय महापंडित ,फादर ,मौलवी ,उलेमा और बौद्ध धर्म गुरु शिरकत कर रहे हैं। इनमें स्वामी सुखबोधानंद ,स्वामी अवधेशानन्द गिरी और श्री श्री जैसे तो हैं ही किन्तु अमरीका,जापान ,श्रीलंका तिब्बत और चीन से भी 'हिन्दू धर्म' के दिग्गज विद्वान पधारे हैं। इनमें से अधिकांस लोग हिन्दू धर्म पर बढियां-बढियां स्थापनाएं देते रहते हैं। इन्ही के दो चार वाक्य गृह मंत्रालय टीप सकता था। इससे पहले पूरे दो महीनों तक नासिक कुम्भ में भी तमाम शंकराचार्यों और अखाड़ों ने 'हिन्दू' धर्म को केंद्र में रखकर ही तो स्रारा तामझाम और आयोजन सम्पन्न किया है। कुछ उसी का सारांश ही आरटीआई के जबाब में गौड़ को अधिकृत टीप के साथ भेजा जा सकता था।
कुछ दिनों बाद उज्जैन में सिंहस्थ के बहाने फिर हिन्दू-हिंदुत्व का महिमागान होगा। कहने तातपर्य कि केंद्र में हिंदूवादी सरकार होने के वावजूद ,देश भर में मंदिरों -मठों में कथा कीर्तन ,यज्ञ व शोभा यात्राओं के जयकारे धूम मचाते रहते हैं ,चुनाव में बार-बार हिंदुत्व को भुनाने के वावजूद -हिन्दुत्वादी सरकार को हिन्दू शब्द की अधिकृत परिभाषा व्यक्त करने में पसीना क्यों आ रहा है ? यदि जिस विधा में वे पारंगत हैं यदि वही पक्ष ही अमानक है तो वे अन्तर्राष्टीय परिदृश्य पर हिंदुत्व का पक्ष पोषण कैसे करेंगे । क्या उन्हें मालूम है कि पोप फ्रांसिस इतने लोकप्रिय और सर्व स्वीकार्य क्यों हैं ? क्योंकि पोप फ्रांसिस दुनिया में घृणा के खिलाफ हैं। क्योंकि वे साम्यवादियों को भी पूरा सम्मान देते हैं। हमारे संघी भाई और भाजपा के कटटरवादी बयानवीर शिवसेना के संजय रावत से ही कुछ सीख लें। जो ढुलमुल बात नहीं कहते। जो कहते हैं डंके की चोट कहते हैं।
हिन्दू शब्द पर क़टटर हिन्दुओं को और धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं को एक धड़े पर नहीं रखा जा सकता। और ठीक इसी तरह हिन्दू और अन्य मजहबों के नजरिये को भी अलग-अलग इम्युनिटी नहीं दी जा सकती। प्राय देखा गया है कि पाकिस्तान, ईरान ,अफगानिस्तान ,सऊदी अरब ,जॉर्डन यूएई या दुनिया का कोई भी इस्लामिक राष्ट का नेता भले ही वह गद्दाफी , सद्दाम या यासिर अराफ़ात जैसा ही प्रोग्रेसिव या स्वयंभू कम्युनिस्ट ही क्यों ने हो. जब यूएन में भाषण करता है या किसी भी अन्य मुल्क में जाकर भाषण करता है तब मंच पर अपनी बात की शुरुआत कुछ इस ढंग से करता है -बिस्मिल्लाह रहमान रहीम ,,,,,,,,बड़ी नफासत और सुसंकृत शब्दावली में 'अल्लाह को याद' करने के बाद ही वे अपना विस्तृत मंतव्य ,,आमीन ,,,के साथ समाप्त करते हैं। जबकि भारत का कोई हिन्दू नेता यदि मंच से श्री गणेशाय नमः बोल दे या 'जय श्रीराम' या जय भोलेनाथ बोलकर यदि कहीं भाषण देने लग जाए तो गजब हो जाएगा। ये दोहरे मापदंड न केवल फौजी तानाशाहियों में ,न केवल बनाना छाप नकली डेमोक्रेसियों में बल्कि प्रगतिशील फलक पर भी विगत आधी शताब्दी से इस्तेमाल किये जा रहे हैं।
हिन्दू देवी देवताओं की नंगी तस्वीर बनाने वाला गैर हिन्दू कार्टूनिस्ट यदि मकबरे से भी उठकर आए जाए और यदि वह 'हिन्दू 'शब्द की लानत-मलानत करने लगे तो और उसका यह कृत्य प्रगतिशील हैं। यदि आपने उसकी हरकत पर जरा भी चूँ चपड़ की तो आप दकियानूसी और पोंगापंथी मान लिए जाएंगे। भारत में यदि किसी नेक काम की शुरुआत -शुभ कार्य से पहले 'श्रीगणेशाय नमः ' का उद्घोष किया गया तो गजब हो जाता है। दरसल में आजादी के बाद पूंजीवादी पार्टियों द्वारा गैर हिन्दुओं को साधने के चककर में यह नौबत आयी है। अब हालात ये हैं कि हिन्दुत्ववादी सरकार भी हिन्दू की परिभाषा देने में घबरा रही है। और श्री गणेशाय नमः तो अब सिर्फ शादी व्याह और पूजा पाठ तक ही सीमित कर दिया गया है। संस्कृत स्वस्तिवाचन या शांतिपाठ जैसी वैश्विक और उम्दा रचनाएं जो मूर्ख नहीं जानते वे भी इन्हे सम्प्रदायिकता के मन्त्र बताकर उनका मजाक उड़ा ने में गर्व महसूस करते हैं।
भारत में आकर अंग्रेजी राज ने अपनी वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति दी। लेकिन उनसे पहले तुर्कों,अरबों ,मंगोलों और फारसियों ने अपनी मजहबी शिक्षा को शासन-प्रशासन की भाषा बनाकर देश को गुलाम बना लिया था। चूँकि भारत की अपनी खुद की अर्वाचीन पध्ध्तियां थीं लेकिन संस्कृत भाषा की किलष्टता और उसकी व्यवहारिक अनुपयोगिता ने भाषा के साथ साथ शिक्षा स्वास्थ्य और राजनीति का भी ब्राह्मणीकरण कर डाला। सामाजिक संकीर्णता ने संस्कृत और हिंदी को सत्यनारायण की कथा ,आरती और पूजा पाठ की भाषा तक सीमित कर दिया । जबकि उर्दू ,अंग्रेजी, फ्रेंच, रशियन ,चीनी त्यादि भाषाओँ को प्रगतिशीलता का अवतार मान लिया गया। क्योंकि ये भाषाएँ राष्ट्रवाद,डेमोक्रेसी साम्यवाद - क्रांति और समाजवाद जैसे आधुनिक पवित्र शब्दों से लबरेज थीं। इन्ही भाषाओँ के माध्यम से भारत ने साइंस ,टेक्लानाजी और ब्रिटिश समेत दुनिया के नए संविधान पढ़े और आत्मसात किये। बड़े ही विस्मय की बात है कि इन्ही भाषाओँ ने भारत को -हिंदी -हिन्दू हिन्दुस्तान की पहचान से महरूम किया। हमें आदत सी हो गयी है कि यदि हमने संस्कृत में बोल दिया तो प्रगतिशील नहीं रह पाएंगे।
सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि भारत में सदियों से जो 'ग' गणेश का पढ़ाया जाता था वो भी पता नहीं किस गधे ने ग' गधे का कर दिया ? वेशक भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है ,इस पर हर भारतीय को बड़ा गर्व भी है। किन्तु 'ग' गणेश से इतनी एलर्जी क्यों ? क्या अरबी ,फारसी पढ़ने वाले बच्चे जब 'बिस्मिलाह रहमान रहीम ,,,,से शुरुआत करते हैं तो वे गलत करते हैं ? क्या कभी किसी संस्कृत भाषा के विद्वान ने या साहित्यकार ने गैर हिन्दुओं के साम्प्रदायिक आचरण पर कभी कोई नकारात्मक गंभीर टिप्पणी नहीं की है ? फिर केवल भारत की पुरातन देवनागरीऔर उसकी संस्कृत या हिन्दी भाषा पर ही भाषायी कंगाली और वैचारिक दरिद्रता का संकट क्यों थोपा गया ? तथाकथित हिंदूवादी सरकार के शाशन-प्रशासन की -हिन्दू ,हिन्दुस्तान कहने में जुबान क्यों लड़खड़ा रही है। आरटीआई का जबाब देने से क्या धर्मनिरपेक्षता गल जाएगी।
वैसे तो भारोपीय परिवार की भारतीय शाखा आदि वैदिक 'संस्कृत' भाषा के धातु शब्दों के यौगिक शब्दों की व्यत्पत्तियों के वैज्ञानिक 'अक्षर विज्ञान' पर बहुत शोध कार्य हुए हैं। किन्तु आदि कवि से लेकर पाणिनि तक और अरबी -फारसी -अंग्रेजी के आगमन के उपरान्त तक की शब्द यात्रा में संस्कृत व्याकरणवेत्ताओं ने देवनागरी के भाषायी सम्मान ,शब्दिक शुद्धता और उसकी वैज्ञानिकता को निरंतर अक्षुण और वैश्विक बनाये रखा। किन्तु उपमहाद्वीप पर हुए आक्रमणों के फलस्वरूप देवनागरी लिपि और संस्कृत व्याकरण के विकास का मार्ग अवरुद्ध होता चल गया । खड़ी हिंदी की अनगढ़ यात्रा में निर्मित किये गए कतिपय कुछ साहित्यिक ठाँव भी धत्ताविधान की भेंट चढ़ते गए।
कुछ सवाल तो अभी भी 'अबूझ' बने हुए हैं। दरसल आजादी के बाद जो दुर्गति 'हिन्दुस्तान' शब्द की हुई है कमोवेश हिन्दू समाज व हिन्दी भाषा भी कुछ इसी तरह के मतिभृम के शिकार रहे हैं । हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान तीनों ही क्रूर कालचक्र के द्वारा लगातार लतियाये जाते रहे हैं। विदेशी आक्रमणों के उपरांत आयातित संस्कृति ,सभ्यताओं और भौतिक उन्नति ने भारतीय समाज के प्रबुद्ध वर्ग को सदियों पहले ही इतना सम्मोहित कर दिया कि उन्हें अपने माता -पिता को प्रणाम करने में शर्म आने लगी।और गुड मॉर्निंग ,गुड इवनिंग प्रगतिशील और आधुनिक होता चला गया।
यदि मैं सुबह उठकर सोशल मीडिया पर हिन्दू धर्म ,हिन्दू समाज और हिन्दी भाषा को दो-चार गालियां जड़ दूँ तो में प्रगतिशील कहलाऊंगा। यदि मैंने लिख दिया -त्वमेव माता च पिता त्वमेव.......... या ,,,,,,, एकम सद विप्रा बहुधा बदन्ति ,,,,या अहिंसा परमो धर्म :,,,,तो मैं साम्प्रदायिक और अप्रगतिशील कहलाऊंगा।हिन्दू मूल्यों ,हिंदी भाषा साहित्य और हिन्दुस्तान पर लिखना याने तलवार की धार पर चलने जैसा है। अब यदि देश का बहुमत प्रगतिशीलता को 'छद्म धर्मनिरपेक्षता में आंकने लगा है तो इसकी जिम्मेदारी उनकी है जो शीत युद्ध पूर्व के 'सोवियत शिविर' से बाहर ही नहीं आना चाहते। राष्ट्रीय अस्मिता की पैरवी तो दूर की बात बल्कि उसके आंसू पोंछना भी अब गुनाह हो चला है। किसी भी तरह के भारतीय अवयवों को छूना याने संकीर्णतावादी हो जाना है वैज्ञानिकता और प्रगतिशीलता के लिए भारतीय सभ्यता ,संस्कृति का लतमर्दन जरुरी है । हिन्दी ,हिन्दू हिन्दुस्तान-जिसने जितना ज्यादा इन शब्दों को लतियाया और हेय बनाया वो उतना ही बड़ा प्रगतिशील कहलाया। स्वार्थों की बलिवेदी पर बार-बार केवल भारतीय मूल्यों और भारतीय हुतात्माओं को ही अग्नि परीक्षा देनी पडी है। इसका सबसे बड़ा कसूर उनका है जिन्होंने इन शब्दों की अभिरक्षा के नामपर उनका हो दोहन किया है।
सदियों से भारतीय उपमहाद्वीप के वाशिंदे 'ग' गणेश का लिखते -पढ़ते आ रहे हैं। न केवल प्राकृत -संस्कृत विद्यापीठों और गुरुकुलों में बल्कि ईसा की दूसरी शताब्दी के बाद से ही केरल ,मलावर पांडिचेरी गोवा के चर्चों में पढाई जा रही यूरोपीय भाषाओँ के साथ-साथ संस्कृत और स्थानीय भारतीय भाषाओँ को भी न्यूनतम भाषा ज्ञान के रूप अनुवाद के निमित्त पढ़ाया जाने लगा था।तब भी 'ग' गणेश ही पढ़ाया जा रहा था। ९ वीं शताब्दी के बाद भारत में बने तमाम मदरसों - इस्लामिक मजहबी संस्थानों में भी अरबी-फ़ारसी -तुर्की के साथ -साथ भारत की संस्कृत ,प्राकृत और स्थानीय बोलियों-भाषाओँ से शिक्षिण -प्रशिक्षण प्रारम्भ हो चूका था। तब भी फर्क सिर्फ इतना था कि ईसाई लोग अपनी योरोपीय भाषाओं को साइंस ,तकनीकी के साथ अपनी संस्कृति और विधा के अनुरूप परोस रहे थे। वे संस्कृत सहित तमाम भारतीय भाषाओं कोसीख रहे थे और ज्ञान बर्धन कर रहे थे । जबकि अरबी-फारसी के केंद्र सिर्फ राजनीति और इस्लाम को केंद्रित कर अपने भाषा ज्ञान बर्धन में तल्लीन थे। इधर भारतीय ब्राह्मण परम्परा की शिक्षा में या तो केवल यज्ञ हो रहे थे या शादी व्याह। इसलिए वे गुलाम होने को अभिशप्त थे। वे महज 'पंडिताऊ' प्रवचनों, आध्यात्मिक भाष्यों को संस्कृत से 'लोक भाषा ' में अनूदित कर 'स्वान्तः सुखाय' में मस्त थे। कोरे धर्मोपदेश ही उनकी बाचालता के साधन रह गए थे।
जिस तरह प्राचीन यूनानियों और रोमन्स ने इंडस ,इंडिका ,इंडिया ,इंडिक्श को अपनी ततकालीन साहित्य युति में प्रयुक्त किया उसी तरह मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के यायावर व्यापारियों और आक्रमणकारी कबीलों ने भी ततकालीन भारतवर्ष को कभी सिंध>हिन्द >हिन्दसा >हिन्दोस्ताँ >हिंदवी > हिंदी >हिन्दुस्तान शब्द व्युतपत्ति और विकास के इतिहास को प्रतिध्वनित किया है । इतिहास कार और भाषा विज्ञानी अच्छी तरह जानते हैं कि यह शब्द विपर्यय यात्रा विदेशी हमलावरों -व्यपारियों और इस्लामिक धर्म -प्रचारकों द्वारा ततकालीन आर्यावर्त -भारतवर्ष अथवा भारतीय उपमहाद्वीप के लिए ही प्रतिध्वनित होती रही है। जिसे बाद में अंग्रेजों ने 'इण्डिया' और आजादी के बाद संविधान निर्माताओं ने 'भारत' नाम दिया है।
उपरोक्त में से 'हिंदवी' शब्द उस कौम के निमित्त प्रयुक्त किया गया है जो 'हिन्द' का निवासी हो। संघ वाले यदि हिन्दू शब्द की सावरकर वाली व्यख्या को सही मानते हैं अर्थात 'हिन्दू' वह जो 'हिन्द' का निवासी हो। जैसे की वर्तमान भारत में रहने वाला नागरिक भारतीय कहलाता है। उसी तरह ततकालीन अखंड भारत का या हिन्दुस्तान ' का रहने वाला हर शख्स 'हिन्दू' ही था। जिस तरह रूस में रहने वाले कजाख या उक्रेनी पहले रसियन ही कहलाते थे। अब चूँकि वे अलग राष्ट्र हैं ,इसलिए उनकी पहचान कजाकिस्तानी या उक्रेनी हो गयी। इसी तरह अब पाकिस्तान ,बांग्ला देश बन गए हैं तो कोई भी 'हिन्दू' नहीं रहा। कोई भारतीय हो गया। कोई पाकिस्तानी हो गया। कोई बांग्ला देशी हो गया। हालाँकि पूर्व में वे सभी जाति के, सभी रूप रंग के लोग सिंधु या हिन्दू या 'हिंदवी' ही हुआ करते थे। इसीलिये तो मरहूम अल्लामा इकबाल ने भी डंके की चोट पर कहा था : - हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा,,,, सारे जहाँ से अच्छा ,,,,,,,हिन्दोस्ताँ हमारा।
भारत में इन दिनों तथाकथित हिंद्त्ववादी सत्ता में हैं। महाराष्ट्र में तो तीन-तीन खूंखार हिन्दुत्ववादी नेता और दल हैं। वे अपने आपको कटटर हिन्दुत्ववादी सिद्ध करने के लिए एक दूसरे को ही नीचे दिखाने पर तुले हैं। कोई किसी का भी मुँह काला कर रहा हैं। कोई पाकिस्तानी कलाकारों और साहित्यकारों पर गुर्रा रहा है। कोई भाजपा के वरिष्ठों को अपमानित करने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं। साथ ही एक दूसरे को लतियाना और चेहरे पर कालिख पोतने में भी वे बड़े माहिर हैं। वे क्रिकेट की पिच खोदने ,पिक्चरों को बाधित करने ,गौ मांस विक्रय या भक्षण पर बड़े -बड़े सूरमा और वयान वीर हैं। लेकिन उन्हें हिन्दू शब्द का अर्थ मालूम नहीं। यदि कदाचित उन्हें विवेकपूर्ण ज्ञान होता तो वे इस विषय पर पुस्तकें लिखते। किन्तु अभी तो वे हिन्दू शब्द की परिभाषा के लिए प्रतीक्षित आरटीआई का जबाब देने की क्षमता भी अर्जित नहीं कर सके हैं । दरअसल भाजपा ,शिवसेना और संघ परिवार को हिन्दू,हिन्दी ,हिंदुत्व और हिन्दुस्तान शब्दों पता ही नहीं। उन्हें अडानियों,अम्बानियों के कारोबार से मतलब है। हिंदुत्व तो वोट के लिए एक जरिया भर है।
श्रीराम तिवारी
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