भारत के बहुसंख्यक 'अहिंसक 'समाज की अनदेखी और अल्पसंख्यकवाद के लगातार कुपोषण से न केवल भारत रुपी यह पुरातन राष्ट्र रुग् छत-विक्षत हो रहा है । बल्कि वामपंथी धर्मनिरपेक्ष ताकतें भी कमजोर होती जा रही हैं। कतिपय नौसिखिये तथाकथित प्रगतिशील स्वनामधन्य वामपंथियों ने अपनी वैचारिक संकीर्णता से बहुसंख्यक हिन्दू समाज को पूरी तरह साम्प्रदायिक तत्वों के हवाले करदिया है। इसीलिये इस दौर में अधिकांस हिन्दू केवल मोदी -मोदी किये जा रहे हैं।भले ही मंदिर न बने ,धारा -३७० न हटे ,समान नागरिक संहिता लागू न हो ,कश्मीरी पंडित मारे -मारे ही फिरते रहें किन्तु अभी १०-१५ साल तक तो एनडीए के अच्छे दिन ही बने रहेंगे क्योंकि कांग्रेस के पाप क्षरण के लिए इतना वक्त तो अवश्य ही चाहिए। जनता परिवार या तीसरा मोर्चा तो २१ चूहों को तराजू के एक पलड़े पर तौलने जैसा ही है। वे सत्ता में न ही आएं तो ही इस देश की भलाई है।
इस स्थति में वाम पंथ को अपनी उस जड़ता से मुक्त होना ही होगा जिसके चलते उसे बंगाल में कंगाल होना पड़ रहा है। उसे केरल में बदनाम कांग्रेस से भी पराजित होना पड़ रहा है। कांग्रेस ने चतुराई से अधिकांस अल्पसंख्यकों- ईसाइयों,मुसलमानों को अपने पक्ष में कर रखा है। उधर हिन्दुओं का पेटेंट तो अभी भी'संघ' ही है। जिसने 'नमो' नाम का सिक्का चला रखा है। बंगाल - केरल में ही नहीं बल्कि पूरे देश में वामपंथ को अपनी वापिसी के लिए न केवल अल्पसंख्यक बल्कि बहुसंख्यक वर्ग के मजदूरों -किसानों के समर्थन को भी जुटाने की कोई खास पहल करनी ही होगी । क्योंकि भारत एक धर्म-मजहब प्रधान देश है ,और जातीयता भी यहाँ एक वास्तविक सच्चाई है, अतएव यदि जरुरत पड़े तो सभी वर्गों और समाजों के शोषित पीड़ित-किसान -मजदूरों को उनकी जातीय और धार्मिक भावना का सम्मान किया जाना चाहिये। उनकी मजहबी व जातीय पहचान बनाये रखने के आग्रह पर वामपंथ द्वारा कटटर रवैया अख्तयार नहीं किया जा सकता है।
चूँकि आरएसएस और ओवेसी जैसे लोग कम्युनिस्टों को धर्म विरिुद्ध या समाज विरुद्ध प्रचारित करते रहते हैं। इसलिए उन स्वनामधन्य वाम पंथियों को चाहिए कि आरएसएस और आईएसएस को एक ही तराजू पर तौलने की कसम नहीं खाएं । कतिपय वामपंथियों के इस हठधर्मी व्यवहार से बहुसंख्यक हिन्दू जो गरीब भी है वह आईएसएस के कहने पर गोधरा में तो जल-मरने या अयोध्या में मस्जिद तोड़ने के दौरान बेमौत मरने को भी तैयार है। जबकि वामपंथ के क्रांतिकारी आंदोलन में नारे-लगाने की भी उसे फुर्सत नहीं है। साम्प्रदायिकता की आग से यदि कोई गरीब हिन्दू ज़िंदा बच भी गया तो वह 'हर-हर मोदी -घर-घर मोदी 'के नारे लगाकर भाजपा को और उसके व्यापम वालों को सत्ता बिठाने के लिए सब कुछ कर ने के लिए तैयार है।
वामपंथ ने विगत ७० सालों में अल्पसंख्यकों की लड़ाई ही ज्यादा लड़ी है । यदि यह अन्याय देखकर अधिकांस हिन्दू आरएसएस के दड़वे में चले गये और अधिकांस अल्पसंख्यक - खास तौर से अधिकांस मुसलमान यदि कांग्रेस ,ममता, मुलायम ,माया, मुफ्ती या ओवेसी की ओर चले गए और उस वामपंथ को मझधार में छोड़ गए ,जिसने अपना सर्वस्व सबके लिए अर्पण किया है तो इस दुरावस्था पर पुनर्विचार करने में क्या बुराई है ?वामपंथी पार्टियों के अधिवेशनों में ,प्लेनंस में या उनकी विभिन्न स्तरीय मीटिंग्स में जो तय होता है वह विगत शताब्दी की शीतयुद्धकालीन धुंध से आगे देख सकने की क्षमता से रहित है। यही वजह है कि वामपंथ की अग्रिम कतारों में भी यह मान लिया गया है कि प्रत्येक हिन्दू प्रतीक ,नाम,रूप और उसका ग्रन्थ ही साम्प्रदायिकता से परिपूर्ण है। बाकी सभी धर्म मजहब चूँकि अल्पसंख्यक हैं इसलिए वे सहज ही प्रगतिशील हैं। भले ही वे वे पंजाब में ,कश्मीर में ,महारष्ट्र में और सिंगूर में केवल वामपंथी कार्यकर्ताओं को ही चुन-चुनकर मारते रहे हों ।
पता नहीं उन्हें किसने कब यह तय कर दिया कि 'जय श्रीराम ' कहना पाप है। ये तो 'आरएसएस का नारा है। यदि कोई हिन्दू या नास्तिक भी 'जय जगन्नाथ ' कहता है तो ये संकीर्णतावादी फतवा जारी आकर देंगे कि ये तो साम्प्रदायिकता है। यदि मैने कहा कि 'ईद मुबारक ' तो मेरी धर्मनिरपेक्षता पर किसी को कोई संदेह नहीं । किन्तु यदि मैंने कहा 'हर-हर महादेव' तो गजब हो जाएगा। मुझे प्रगतिशीलता के मंच से उठाकर हिन्दुत्तवादी खारे महासागर में उठाकर फेंक दिया जाएगा। किसी पुरातनपंथी दकियानूसी खाप की तरह ही आजकल प्रगतिशील -जनवादी लोग भी धर्मनिरपेक्षता और छुआछूत का पैमाना तय करने लगे हैं।यही वजह है कि जब कांग्रेस या भाजपा रैली होती है तो लाखों लोग जुट जाते हैं. किन्तु वामपंथ के आंदोलन में दस-बीस जून -पुराने या रिटायर कर्मचारी ही खड़े दीखते हैं। इसकी वजह क्या हो सकती है ? वामपंथी तो बड़े ईमानदार और जनहितकारी ही होते हैं। फिर जनता उनके आह्वान की या उन्हें चुनने में अनदेखी क्यों करती है ?इसका एक उत्तर तो मुझे कुछ उदारवादी हिन्दू बुजुर्गों ने ही दिया। उनके सुझाव का सार की 'जिसका पेट जितना बड़ा उसको उतना खाने को मिले '। चूँकि हिन्दू बहुसंख्यक हैं वे चाहते हैं कि कम उन्हें अल्पसंख्यकों जितना तवज्जो तो चाहिए।
मेरा सवाल है कि यदि ईद मुबारक धर्मनिरपेक्ष है तो 'जय जगन्नाथ' साम्प्रदायिक कैसे हो सकता है ?जब देश और दुनिया में ईद मनाई जा रही थी और पुरी -अहमदावाद में जगन्नाथ यात्राएं जारी थीं तो मैंने दोनों का इस्तकबाल किया। दुनिया भर के मुसलमानों ने एक दूसरे के गले लगकर ईद मुबारक कहा ! हिन्दुओं ने भी तहे दिल से मुसलमानों को 'ईद मुबारक कहा । न केवल समाजवादियों ने ,वामपंथियों ने इस बार तो 'संघियों' ने भी 'ईद मुबारक कहा। भाजपा और संघ ने ,कांग्रेस ने तो इफ्तार पार्टी भी दी। जबकि कश्मीर में पत्थरबाजी के साथ एवं इराक- यमन में अनेक बेकसूरों की गर्दने रेतने के बाद कटटरवादी युवाओं ने ईद की मुबारकवाद दी। मैंने भी हर साल की तरह इस बार भी मुसलमान भाइयों को ईद की मुबारकबाद दी ! इसके साथ ही श्रद्धालु - हिन्दुओं को भी 'जय जगन्नाथ 'का सन्देश भी पोस्ट कर दिया।यहाँ तक तो सब ठीक ठाक रहा। लेकिन एक शुद्ध प्रगतिशील मित्र को मेरी इस 'हरकत' पर एतराज है।उन्हें मेरे 'जय जगन्नाथ 'लिखने मात्र में ही साम्प्रदायिकता की 'बू' आ रही है तो बोलने का आलम क्या होगा ?
चूँकि इस बार ईद के दिन ही पुरी [ओडीसा ] और अहमदाबाद[गुजरात] में भगवान यात्रा का 'पर्व भी था। अतः मैंने एफबी पर " हिन्दू -मुस्लिम सभी को एक साथ "सुप्रभातम …… जय जगन्नाथ … ईद मुबारक ' का संदेश पोस्ट किया था। वैसे तो मेरा सदैव यही प्रयास रहा है कि धर्म-मजहब और तीर्थाटन के गोरखधंधे से ही पर्याप्त दूरी बनी रहे। इसीलिए मैंने कभी दीवाली नहीं मनाई। होली को तो मैं हुड़दंगियों का त्यौहार ही मानता हूँ। लेकिन त्योहारों पर जो मानते हैं उन्हें शुभकामना संदेश जरुर देता हैं। हिन्दू -मुस्लिम दोनों को एक साथ शुभकामना सन्देश का मेरा यह अभिनव प्रयोग अधिकांस मित्रों और संबंधीजनों को पसंद आया। किन्तु मेरे एक प्रगतिशील मित्र को सिर्फ 'ईद मुबारक ' ही पसंद आया। उन्हें मेरा 'जय जगन्नाथ ' लिखना पसंद नहीं आया और फेस बुक पर उन्होंने मेरी क्लाश भी ले डाली।
वैसे भी मुझे स्वास्थगत कारणों से धुल ,धुंआँ ,अगरबत्ती ,धुप ,हवन ,लोभान व तमाम धार्मिक आडंबरों से ,धर्मांध भीड़ से -धार्मिक तीज त्योहारों से बहुत कोफ़्त हुआ करती है। यदा-कदा यूनियन के अखिल भारतीय अधिवेशनों में शिरकत के दौरान जब कभी उत्तर -दक्षिण ,पूर्व पश्चिम जाना हुआ तो तीर्थों को दूर से ही नमन - किया। मैंने कभी भी गंगा ,यमुना ,नर्मदा ,कावेरी या गोदावरी जैसी तथाकथित परम पवित्र नदियों में स्नानं तो क्या हाथ भी नहीं धोये। रामेश्वरम ,तिरुमला -काशीविश्वनाथ ,प्रशांति -निलियम ,सोमनाथ , जगन्नाथ- पूरी में हफ्तों रहते हुए भी किसी मंदिर या मस्जिद की ओर नजर उठाकर भी नहीं देखा। उज्जैन - महाकालेश्वर और ओंकारेश्वर के परमेश्वरम् तो इंदौर से ६० किलोमीटर की दूरी पर हैं। किन्तु मैं कभी उनके निकट भी नहीं गया। कभी कहीं एक आध बार उलझा भी तो अजंता-एलोरा या एलिफेंटा के पुरातत्वीय अवशेषों के वैज्ञानिक नजरिये से ही इन 'तीर्थों' को देखा होगा। मैंने कभी किसी को उसकी धार्मिक आस्था या जीवन शैली पर भी कोई एतराज नहीं किया। लेकिन स्वयं पूरी कोशिश रही कि जितना भी सम्भव हो अंधश्रद्धा और पाखंड से दूर रहा जाये।मैं यगोपवीत धारण नहीं करता क्योंकि उसकी सार्थकता और उपयोगिता कभी भी मेरे पल्ले ही नहीं पडी। मेरी चोटी -शिखा भी गायब है । इस सबके वावजूद मैंने कभी किसी अन्य व्यक्ति के जनेऊ पहनने या चोटी रखने पर उसका उपहास नहीं किया । इसीलिये मेरे सैकड़ों मित्र हैं जो किसी भी विचारधारा- सम्प्रदाय के होते हुए भी - मुझे एक वामपंथी जानते हुए भी -ना पसंद नहीं करते । यही क्या कम है ?
बंगाल और केरल में वामपंथ की लगातार चकाचक धुलाई के बाद मुझे लगा कि वहां के राजनैतिक परिदृश्य में वामपंथ की खामियों का भी संधान करूँ। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि बहुसंख्यक हिन्दू भाजपा की ओर जा रहे हैं। अल्पसंख्यकों को वाम से ज्यादा ममता पर भरोसा है। दोनों ही समुदायों ने वाम पंथ की धर्मनिरपेक्षता को नकार दिया है । पश्चिम बंगाल और केरल में ही नहीं बल्कि पूरे देश में वामपंथ ने विगत ७० साल से अल्पसंख्यक वर्गों की रक्षा के लिए हजारों कुर्बानियां दी हैं। किन्तु अब ये हालत हैं की बहुसंख्यक तो भाजपा के साथ हो लिए और अल्पसंख्यक ममता,मुलायम ,लालू या नीतीश के साथ हो लिए वाम को तो "दोई दीन से गए पांड़े !" इतने पर भी हमने यदि आत्मालोचना से मुँह चुराया तो यह दुनिया की महानतम विचारधारा के प्रति हमारी अवैज्ञानिक विवेचना ही हो सकती है।
श्रीराम तिवारी
इस स्थति में वाम पंथ को अपनी उस जड़ता से मुक्त होना ही होगा जिसके चलते उसे बंगाल में कंगाल होना पड़ रहा है। उसे केरल में बदनाम कांग्रेस से भी पराजित होना पड़ रहा है। कांग्रेस ने चतुराई से अधिकांस अल्पसंख्यकों- ईसाइयों,मुसलमानों को अपने पक्ष में कर रखा है। उधर हिन्दुओं का पेटेंट तो अभी भी'संघ' ही है। जिसने 'नमो' नाम का सिक्का चला रखा है। बंगाल - केरल में ही नहीं बल्कि पूरे देश में वामपंथ को अपनी वापिसी के लिए न केवल अल्पसंख्यक बल्कि बहुसंख्यक वर्ग के मजदूरों -किसानों के समर्थन को भी जुटाने की कोई खास पहल करनी ही होगी । क्योंकि भारत एक धर्म-मजहब प्रधान देश है ,और जातीयता भी यहाँ एक वास्तविक सच्चाई है, अतएव यदि जरुरत पड़े तो सभी वर्गों और समाजों के शोषित पीड़ित-किसान -मजदूरों को उनकी जातीय और धार्मिक भावना का सम्मान किया जाना चाहिये। उनकी मजहबी व जातीय पहचान बनाये रखने के आग्रह पर वामपंथ द्वारा कटटर रवैया अख्तयार नहीं किया जा सकता है।
चूँकि आरएसएस और ओवेसी जैसे लोग कम्युनिस्टों को धर्म विरिुद्ध या समाज विरुद्ध प्रचारित करते रहते हैं। इसलिए उन स्वनामधन्य वाम पंथियों को चाहिए कि आरएसएस और आईएसएस को एक ही तराजू पर तौलने की कसम नहीं खाएं । कतिपय वामपंथियों के इस हठधर्मी व्यवहार से बहुसंख्यक हिन्दू जो गरीब भी है वह आईएसएस के कहने पर गोधरा में तो जल-मरने या अयोध्या में मस्जिद तोड़ने के दौरान बेमौत मरने को भी तैयार है। जबकि वामपंथ के क्रांतिकारी आंदोलन में नारे-लगाने की भी उसे फुर्सत नहीं है। साम्प्रदायिकता की आग से यदि कोई गरीब हिन्दू ज़िंदा बच भी गया तो वह 'हर-हर मोदी -घर-घर मोदी 'के नारे लगाकर भाजपा को और उसके व्यापम वालों को सत्ता बिठाने के लिए सब कुछ कर ने के लिए तैयार है।
वामपंथ ने विगत ७० सालों में अल्पसंख्यकों की लड़ाई ही ज्यादा लड़ी है । यदि यह अन्याय देखकर अधिकांस हिन्दू आरएसएस के दड़वे में चले गये और अधिकांस अल्पसंख्यक - खास तौर से अधिकांस मुसलमान यदि कांग्रेस ,ममता, मुलायम ,माया, मुफ्ती या ओवेसी की ओर चले गए और उस वामपंथ को मझधार में छोड़ गए ,जिसने अपना सर्वस्व सबके लिए अर्पण किया है तो इस दुरावस्था पर पुनर्विचार करने में क्या बुराई है ?वामपंथी पार्टियों के अधिवेशनों में ,प्लेनंस में या उनकी विभिन्न स्तरीय मीटिंग्स में जो तय होता है वह विगत शताब्दी की शीतयुद्धकालीन धुंध से आगे देख सकने की क्षमता से रहित है। यही वजह है कि वामपंथ की अग्रिम कतारों में भी यह मान लिया गया है कि प्रत्येक हिन्दू प्रतीक ,नाम,रूप और उसका ग्रन्थ ही साम्प्रदायिकता से परिपूर्ण है। बाकी सभी धर्म मजहब चूँकि अल्पसंख्यक हैं इसलिए वे सहज ही प्रगतिशील हैं। भले ही वे वे पंजाब में ,कश्मीर में ,महारष्ट्र में और सिंगूर में केवल वामपंथी कार्यकर्ताओं को ही चुन-चुनकर मारते रहे हों ।
पता नहीं उन्हें किसने कब यह तय कर दिया कि 'जय श्रीराम ' कहना पाप है। ये तो 'आरएसएस का नारा है। यदि कोई हिन्दू या नास्तिक भी 'जय जगन्नाथ ' कहता है तो ये संकीर्णतावादी फतवा जारी आकर देंगे कि ये तो साम्प्रदायिकता है। यदि मैने कहा कि 'ईद मुबारक ' तो मेरी धर्मनिरपेक्षता पर किसी को कोई संदेह नहीं । किन्तु यदि मैंने कहा 'हर-हर महादेव' तो गजब हो जाएगा। मुझे प्रगतिशीलता के मंच से उठाकर हिन्दुत्तवादी खारे महासागर में उठाकर फेंक दिया जाएगा। किसी पुरातनपंथी दकियानूसी खाप की तरह ही आजकल प्रगतिशील -जनवादी लोग भी धर्मनिरपेक्षता और छुआछूत का पैमाना तय करने लगे हैं।यही वजह है कि जब कांग्रेस या भाजपा रैली होती है तो लाखों लोग जुट जाते हैं. किन्तु वामपंथ के आंदोलन में दस-बीस जून -पुराने या रिटायर कर्मचारी ही खड़े दीखते हैं। इसकी वजह क्या हो सकती है ? वामपंथी तो बड़े ईमानदार और जनहितकारी ही होते हैं। फिर जनता उनके आह्वान की या उन्हें चुनने में अनदेखी क्यों करती है ?इसका एक उत्तर तो मुझे कुछ उदारवादी हिन्दू बुजुर्गों ने ही दिया। उनके सुझाव का सार की 'जिसका पेट जितना बड़ा उसको उतना खाने को मिले '। चूँकि हिन्दू बहुसंख्यक हैं वे चाहते हैं कि कम उन्हें अल्पसंख्यकों जितना तवज्जो तो चाहिए।
मेरा सवाल है कि यदि ईद मुबारक धर्मनिरपेक्ष है तो 'जय जगन्नाथ' साम्प्रदायिक कैसे हो सकता है ?जब देश और दुनिया में ईद मनाई जा रही थी और पुरी -अहमदावाद में जगन्नाथ यात्राएं जारी थीं तो मैंने दोनों का इस्तकबाल किया। दुनिया भर के मुसलमानों ने एक दूसरे के गले लगकर ईद मुबारक कहा ! हिन्दुओं ने भी तहे दिल से मुसलमानों को 'ईद मुबारक कहा । न केवल समाजवादियों ने ,वामपंथियों ने इस बार तो 'संघियों' ने भी 'ईद मुबारक कहा। भाजपा और संघ ने ,कांग्रेस ने तो इफ्तार पार्टी भी दी। जबकि कश्मीर में पत्थरबाजी के साथ एवं इराक- यमन में अनेक बेकसूरों की गर्दने रेतने के बाद कटटरवादी युवाओं ने ईद की मुबारकवाद दी। मैंने भी हर साल की तरह इस बार भी मुसलमान भाइयों को ईद की मुबारकबाद दी ! इसके साथ ही श्रद्धालु - हिन्दुओं को भी 'जय जगन्नाथ 'का सन्देश भी पोस्ट कर दिया।यहाँ तक तो सब ठीक ठाक रहा। लेकिन एक शुद्ध प्रगतिशील मित्र को मेरी इस 'हरकत' पर एतराज है।उन्हें मेरे 'जय जगन्नाथ 'लिखने मात्र में ही साम्प्रदायिकता की 'बू' आ रही है तो बोलने का आलम क्या होगा ?
चूँकि इस बार ईद के दिन ही पुरी [ओडीसा ] और अहमदाबाद[गुजरात] में भगवान यात्रा का 'पर्व भी था। अतः मैंने एफबी पर " हिन्दू -मुस्लिम सभी को एक साथ "सुप्रभातम …… जय जगन्नाथ … ईद मुबारक ' का संदेश पोस्ट किया था। वैसे तो मेरा सदैव यही प्रयास रहा है कि धर्म-मजहब और तीर्थाटन के गोरखधंधे से ही पर्याप्त दूरी बनी रहे। इसीलिए मैंने कभी दीवाली नहीं मनाई। होली को तो मैं हुड़दंगियों का त्यौहार ही मानता हूँ। लेकिन त्योहारों पर जो मानते हैं उन्हें शुभकामना संदेश जरुर देता हैं। हिन्दू -मुस्लिम दोनों को एक साथ शुभकामना सन्देश का मेरा यह अभिनव प्रयोग अधिकांस मित्रों और संबंधीजनों को पसंद आया। किन्तु मेरे एक प्रगतिशील मित्र को सिर्फ 'ईद मुबारक ' ही पसंद आया। उन्हें मेरा 'जय जगन्नाथ ' लिखना पसंद नहीं आया और फेस बुक पर उन्होंने मेरी क्लाश भी ले डाली।
वैसे भी मुझे स्वास्थगत कारणों से धुल ,धुंआँ ,अगरबत्ती ,धुप ,हवन ,लोभान व तमाम धार्मिक आडंबरों से ,धर्मांध भीड़ से -धार्मिक तीज त्योहारों से बहुत कोफ़्त हुआ करती है। यदा-कदा यूनियन के अखिल भारतीय अधिवेशनों में शिरकत के दौरान जब कभी उत्तर -दक्षिण ,पूर्व पश्चिम जाना हुआ तो तीर्थों को दूर से ही नमन - किया। मैंने कभी भी गंगा ,यमुना ,नर्मदा ,कावेरी या गोदावरी जैसी तथाकथित परम पवित्र नदियों में स्नानं तो क्या हाथ भी नहीं धोये। रामेश्वरम ,तिरुमला -काशीविश्वनाथ ,प्रशांति -निलियम ,सोमनाथ , जगन्नाथ- पूरी में हफ्तों रहते हुए भी किसी मंदिर या मस्जिद की ओर नजर उठाकर भी नहीं देखा। उज्जैन - महाकालेश्वर और ओंकारेश्वर के परमेश्वरम् तो इंदौर से ६० किलोमीटर की दूरी पर हैं। किन्तु मैं कभी उनके निकट भी नहीं गया। कभी कहीं एक आध बार उलझा भी तो अजंता-एलोरा या एलिफेंटा के पुरातत्वीय अवशेषों के वैज्ञानिक नजरिये से ही इन 'तीर्थों' को देखा होगा। मैंने कभी किसी को उसकी धार्मिक आस्था या जीवन शैली पर भी कोई एतराज नहीं किया। लेकिन स्वयं पूरी कोशिश रही कि जितना भी सम्भव हो अंधश्रद्धा और पाखंड से दूर रहा जाये।मैं यगोपवीत धारण नहीं करता क्योंकि उसकी सार्थकता और उपयोगिता कभी भी मेरे पल्ले ही नहीं पडी। मेरी चोटी -शिखा भी गायब है । इस सबके वावजूद मैंने कभी किसी अन्य व्यक्ति के जनेऊ पहनने या चोटी रखने पर उसका उपहास नहीं किया । इसीलिये मेरे सैकड़ों मित्र हैं जो किसी भी विचारधारा- सम्प्रदाय के होते हुए भी - मुझे एक वामपंथी जानते हुए भी -ना पसंद नहीं करते । यही क्या कम है ?
बंगाल और केरल में वामपंथ की लगातार चकाचक धुलाई के बाद मुझे लगा कि वहां के राजनैतिक परिदृश्य में वामपंथ की खामियों का भी संधान करूँ। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि बहुसंख्यक हिन्दू भाजपा की ओर जा रहे हैं। अल्पसंख्यकों को वाम से ज्यादा ममता पर भरोसा है। दोनों ही समुदायों ने वाम पंथ की धर्मनिरपेक्षता को नकार दिया है । पश्चिम बंगाल और केरल में ही नहीं बल्कि पूरे देश में वामपंथ ने विगत ७० साल से अल्पसंख्यक वर्गों की रक्षा के लिए हजारों कुर्बानियां दी हैं। किन्तु अब ये हालत हैं की बहुसंख्यक तो भाजपा के साथ हो लिए और अल्पसंख्यक ममता,मुलायम ,लालू या नीतीश के साथ हो लिए वाम को तो "दोई दीन से गए पांड़े !" इतने पर भी हमने यदि आत्मालोचना से मुँह चुराया तो यह दुनिया की महानतम विचारधारा के प्रति हमारी अवैज्ञानिक विवेचना ही हो सकती है।
श्रीराम तिवारी
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