संसद के मानसून सत्र में विपक्षी दलों को संसदीय मर्यादा के अंदर रहकर ही जन-मुद्दों और उन तमाम सवालों पर अपनी लोकतान्त्रिक भूमिका अदा करनी चाहिए- जिन मुद्दों को लेकर देश भर में -सड़कों पर संघर्ष किया जा रहा है। वैसे भी खंड -खंड बिखरे हुए विपक्ष की नाराजगी से जनता को कोई लेना देना नहीं है। यदि कुछ वास्ता या लेना-देना होता तो अधिकांस उपचुनावों में सत्तापक्ष की ही जीत क्यों होती ? बटे हुए विपक्ष की विभिन्न मुद्दों पर सत्तारूढ़ वर्ग से मुठभेड़ से आम जनता का कोई भला नहीं होने वाला । विपक्ष की इस आपसी फूट के कारण ही जनता तो यह भी भूल गयी कि -सूचना का अधिकार ,मनरेगा अधिकार ,खाद्य सुरक्षा का अधिकार शिक्षा का अधिकार दिलाने में किसकी भूमिका रही। जनता के इन सवालों को लेकर जिस वामपंथ और ट्रेड - यूनियन आंदोलन ने पीढियां कुर्वान कर दीं उसीके साधनहीन -धनहीन ईमानदार प्रत्यासी आजकल दिल्ली , मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र,गुजरात ,यूपी ,बिहार और उड़ीसा में जमानत भी नहीं बचा पाते।
कुछ लोग कह सकते हैं कि इसमें जनता का कोई कसूर नहीं। ये तो साम्प्रदायिक शक्तिओं का उभार और जातीयता की बदबू है जो लाल महक को फलने फूलने नहीं दे रही। विगत मई-२०१४ में हुए सत्ता परिवर्तन को भी कुछ लोग कांग्रेस की काली करतूतों और उसकी बदनामी से जोड़कर देखते हैं। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि भाजपा के दुष्प्रचार - मीडिया मैनेजमेंट और अम्बानी-अडानी का ही यह कमाल है कि केंद्र में एनडीए को प्रचंड बहुमत मिल गयाहै । कुछ लोग मानते हैं कि जिन्होंने जनता के सवालों पर संघर्ष नहीं किया ,वही हासिये पर धकेल दिए गये। ऐसा कहने वाले वही हो सकते हैं जो केवल भाषणबाजी कर सकते हैं या कभी खुद किसी संघर्ष में शामिल नहीं हुए। कभी किसी धरना या भूंख हड़ताल पर भी नहीं बैठे ।
यदि विपक्षी एवं सत्ता वंचित पार्टियाँ और लोग केवल सत्ता पक्ष के दोषों का ही बखान करते रहेंगे या उनकी भूरि-भूरि आलोचना ही करते रहेंगे तो इससे सत्ताधारी वर्ग का ही फायदा होगा। क्योंकि उन्हें अपने पापों को छिपाने और दोषों को दूर करने का पर्याप्त मौका मिलेगा। जनता भी आम तौर पर सत्तापक्ष को 'संदेह का लाभ' देने में यकीन रखती है। जबकि विद्रोही मीडिया एवं अविश्वश्नीय विपक्ष को आम जनता इन दिनों शक और संदेह की नजर से देख रही है।इस संदर्भ में मेरी साधारण चेताती है कि मैं व्यक्तिश ; यथासम्भव शोषण -उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ लड़ने वालों का साथ दूँ । अपनी निजी और वर्गीय हैसियत मुझे यह एहसास भी कराती रहती है कि तमाम अधुनातन वैज्ञानिक संसाधनों को हथियार बनाकर यह अधोगामी कुव्यवस्था अपने चरम पतन के दौर में है। इसका कोई तो तोड़ होना चाहिए ,या कोई तो सार्थक विकल्प अवश्य चाहिए। तमाम दार्शनिक और चिंतकों द्वारा समीक्षित तथा अनेक सर्वहारा क्रांतियों द्वारा परिष्कृत मानवीय वैज्ञानिक वैचारिकश्रेष्ठतम विकल्प सिर्फ वामपंथ अर्थात मार्क्सवाद -लेनिनवाद -सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद ही है। यही इस वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था का बेहतरीन विकल्प हो सकता है।
मेंरा यह भी मानना है कि दुनिया भर के तमाम राजनैतिक दल और शासक वर्ग अपने सिद्धांतों - नीतियों और विचारों को ही अंतिम सत्य मानते हैं। अतएव वे इस अर्थ में अपूर्ण हैं या कदाचित दोषी भी हैं कि अपनी खामियों को अव्वल तो मानते ही नहीं । यदि कभी रँगे हाथ पकड़े भी गए तो सारा दोष जनता के सिर पर मढ़ देते हैं। जैसे कि आर्थिक मंदी के दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने कहा था कि 'भारत और चीन के लोग ज्यादा खाने लगे हैं " जबकि एक दुष्परिणाम के रूप में अमेरिकन आर्थिक मंदी की वजह उसका खुद का किया धरा ही था। भारत के ३० % नर-नारी तो आज भी भयानक कुपोषण और दरिद्रता के शिकार हैं। दसबीस अम्बानियों -अडानियों की बढ़ती चमक-दमक से भारत की आर्थिक दुर्दशा को ढका नहीं जा सकता। अच्छे दिनों की नारेबाजी से या झाड़ू लेकर फोटो खिचाने से या मीडिया के दुरूपयोग से शासक वर्ग को अस्थायी सफलता मिल सकती है. किन्तु जनता-जनार्दन के लिए तभी कुछ हो सकेगा जब उसकी तरफदार नीतियों पर देश की शासन व्यवस्था चलेगी। यदि शासक वर्ग यह काम नहीं करता तो विपक्ष की यह जिम्मेदारी है कि न केवल सड़कों पर बल्कि संसद में जनता के लिए संघर्ष करे।संघर्ष से मेरा अभिप्राय माइक या कुर्सियां उखाड़ने से नहीं है । बल्कि यदि विपक्ष चाहे तो जनता के सवालों को संसद में मुँह पर पट्टी बांधकर पुरजोर और अहिंसक तरीके से भी उठा सकता है। यह तरीका ज्यादा असरकारक और राष्ट्रहितकारी होगा।
जबकि इसके बरक्स साम्यवाद और उसकी मार्क्सवादी वैज्ञानिक व्याख्या में यह जन कल्याणकारी और सर्वोत्तम गुण निहित है कि वह अपनी कमियों और दोषों के निवारण में कोई संकोच नहीं करती। इसका एक और महत्वपूर्ण गुण यह है कि इस विचारधारा और दर्शन पर आधारित कोई भी जनवादी पार्टी किसी भी देश विशेष की जनता के बहुमत की आकांक्षाओं के बिना जबरिया नहीं थोपी जा सकती ।नक्सलवादी या माओवादी तरीके से तो कदापि नहीं। जबकि प्रायः सभी पूँजीवादी और साम्प्रदायिक पार्टियाँ छल-बल-धन इत्यादि प्रपंचों का इस्तेमाल करके सत्ता पर काबिज हो जातीं हैं। किसी भी जनवादी - साम्यवादी विचारधारा की पार्टी का लक्ष्य जनता की जनवादी क्रांति ही है। इसीलिये वामपंथी कार्यकर्ता इसकी परवाह नहीं किया करते कि संसदीय लोकतंत्र के मंच पर उनकी प्रस्तुति कब और कैसी है ? जनतांत्रिक तौर तरीकों से भी यदि देश की या किसी राज्य विशेष की राज्यसत्ता पर किसानों-मजदूरों का कोई वर्चस्व इन दिनों नहीं दिख रहा है तो उसके लिए बाकई उनके ही संघर्षों और जद्दोजहद में कोई कमी रही होगी !
खैर इस संदर्भ में मेंरा वैचारिक दृष्टिकोण अनगढ़ या अपरिपक्व भी हो सकता है। किन्तु इसमें वामपंथी विचारधारा का कोई दोष नहीं।वेशक इसीलिये उसके प्रति मेरी प्रतिबध्दता अक्षुण है। मेरा व्यक्तिशः मानना है कि भारत के संसदीय या विधान सभा चुनाव में धर्म-मजहब और जाति जैसे मुख्य कारकों पर वामपंथ का नजरिया दुरुस्त नहीं है। चीन ,रूस ,वियतनाम या क्यूबा जैसी सामाजिक स्थति हमारी नहीं है। उनके बरक्स भारत में दुनिया के सर्वाधिक अल्पसंख्यक रहते हैं। भारत ही दुनिया का ऐसा देश है जहाँ बहुलतावादी सांस्कृतिक और जातीय बहुलतावादी समाज है।यहाँ लाखों जातियां और हजारों धर्म-मजहब हैं। इसी वजह से दुनिया में भारत ही एकमात्र ऐंसा देश है जो अंदर से खोखला और बाहर से असुरक्षित है। भारत ही एकमात्र ऐंसा देश है जहाँ दुनिया के सर्वाधिक अमीर रहते हैं। भारत ही दुनिया का एकमात्र देश है जहाँ दुनिया की सर्वाधिक गरीब आबादी रहती है। भारत ही एकमात्र देश है जहाँ 'अहिंसा' को मानने वाले भी रहते हैं. और भारत ही एक मात्र ऐंसा देश है जहाँ हिंसक प्रवृत्ति के संहारक तत्व भी बहुतायत से पाये जाते हैं।
भारत के बहुसंख्यक 'अहिंसक 'समाज की अनदेखी और अल्पसंख्यकवाद के लगातार कुपोषण से भारत रुपी यह पुरातन राष्ट्र रुग्ण और छत-विक्षत हो चूका है । कतिपय नौसिखिये तथाकथित प्रगतिशील वामपंथियों ने अपनी वैचारिक संकीर्णता से बहुसंख्यक हिन्दू समाज को साम्प्रदायिक तत्वों के हवाले करदिया है। अभी भी केवल मोदी -मोदी किये जा रहे हैं। वाम पंथ को अपनी उस जड़ता से मुक्त होना ही होगा जिसके चलते उसे अब बंगाल में कंगाल होना पड़ रहा है। केरल में कांग्रेस ने चतुराई से अधिकांस अल्पसंख्यकों- ईसाइयों,मुसलमानों को भरपल्ले से संतुष्ट किया है। उधर हिन्दुओं का पेटेंट तो अभी भी मोदी जी के नाम ही हो चला है ,अतः केरल में भी वाम को अपनी वापिसी के लिए,वहाँ के बहुसंख्यक वर्गीय मजदूरों -किसानों के सक्रिय समर्थन को जुटाने की कोई खास पहल करनी ही होगी । यदि जरुरत पड़े तो सभी वर्गों और समाजों के शोषित पीड़ित-किसान -मजदूरों को उनकी जातीय और -धार्मिक पहचान बनाये रखने के आग्रह पर कोई उदार रवैया अख्तयार किया जा सकता है। ताकि आरएसएस और ओवेसी जैसे लोग कम्युनिस्टों को धर्म विरिुद्ध या समाज विरुद्ध न बता सकें। लेकिन कुछ स्वनामधन्य वाम पंथियों ने आरएसएस और आईएसएस को एक ही तराजू पर तौलने की कसम खा रखी है। उनके इस हठधर्मी व्यवहार से बहुसंख्यक हिन्दू गरीब भी आईएसएस के कहने पर गोधरा में जल-मरने या मस्जिद तोड़ने के दौरान बेमौत मरने को तैयार है। और यदि ज़िंदा बच गया तो 'हर-हर मोदी -घर-घर मोदी 'के नारे लगाकर भाजपा के व्यापम वालों को सत्ता बिठाने के लिए सब कुछ कर ने के लिए तैयार है। वामपंथ ने विगत ७० सालों में अल्पसंख्यकों की लड़ाई हमेशा लड़ी। यदि वामपंथ को हिन्दू आरएसएस के कारण छोड़ गए तो अल्पसंख्यक और खास तौर से अधिकांस मुसलमान कांग्रेस ,ममता और मुलायम की ओर चले गए और उस वामपंथ को मझधार में छोड़ गए ,जिसने अपना सर्वस्व सबके लिए अर्पण किए है।
श्रीराम तिवारी
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