विगत ग्रीष्मकालीन परिचर्चाओं में सीनियर सिटिजंस फोरम ऑफ़ 'आनन्दम्' इंदौर के बौध्दिकों ने "मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है'' ? नामक विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया था । यद्द्यपि आयोजकों के द्वारा पूर्व से ही निर्धरित यह विमर्श मुझे विशुद्धत: व्यक्तिनिष्ठ , भाववादी ,और तथाकथित कोरे अध्यात्मवाद से प्रेरित जान पड़ा। किन्तु इस विषय पर जब मैंने कुछ पारंगत साथियों से अपनी अज्ञानता व्यक्त की तो उन्होंने अपना -अपना वही पुराना घिसा-पिटा अलौकि ज्ञान मुझ अकिंचन पर उड़ेल दिया ,जो मैं बचपन में खेतों की मेड पर और 'पिड़रुवा' के महा भयानक जंगल में छोड़ आया था। जब उन्होंदे भाव वादी अभिमत को कल्पना की चासनी में लपेटकर प्रस्तुत किया तो मेरी आशंका को और बल मिला । अपनी बारी आने पर मैंने भी इस सब्जेक्ट को जो नितांत शीर्षाशन की मुद्रा से पैरों के बल खड़ा किया । मैंने आनंदम के इस तयशुदा विमर्श को किंचित प्रोग्रेसिव और वैज्ञानिक भौतिकवादी बनाने की यथासंभव कोशिश की। परिणामस्वरूप मेरी दॄष्टि में यह विमर्श अब न केवल समष्टिगत रहा अपितु पर्याप्त वैश्विक और यथार्थवादी भी हो गया ।
इस विमर्श पर जब मुझे अपना पक्ष रखने को कहा गया तो मैंने सर्वप्रथम विमर्श का शीर्षक बदलना ही उचित समझा। कतिपय दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी बौद्धिकों ने तो टोकाटाकी भी की। हालाँकि उन में भी अधिकांस श्रोताओं का मंतव्य और प्रतिक्रिया सकारात्मक ही थी। कुछ कहने लगे कि 'इस तरह तो हमने सोचा ही नहीं था '! दरसल मैंने उस तयशुदा सीमित विषयवस्तु में अन्तर्निहित व्यक्तिवाद की जगह समाजवाद को ही समाविष्ट कर दिया । मैंने शिद्दत से उस प्रस्तुत विमर्श को -"मेरे जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए "? से बदलकर - ''मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए " कर दिया। उपलब्ध मंच और प्रस्तुत विमर्श पर उस समय मुझे यही बेहतर जचा कि मैं अपने पूर्व वक्ताओं की नितांत संकीर्णतावादी - तमाम आदर्शवादी और उटोपियाई -सामंतयुगीन वैयक्तिक स्वार्थपूर्ति वाली अवधारणों से हटकर व्यवस्था परिवर्तन के निमित्त एक क्रांतिकारी वर्गीय चेतना के निर्माण की बात करूँ। आयोजकों ने समयभाव का बहाना करके मुझे बाधित किया। जिससे मैं अपना पूरा वक्तव्य पेश नहीं कर सका। अब उसी विमर्श को सारांश रूप में अपने ब्लॉग-
www. janwadi.blogspot.com पर प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
यहाँ प्रस्तुत विषय 'मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ?' को मैं नवीनीकृत किये जाने का सुझाव रखता हूँ। मेरा अनुरोध है कि इस प्रसंग को 'मनुष्य जीवन का उदेश्य क्या होना चाहिए?' के रूप में प्रस्तुत किया जाए। क्योंकि 'मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ' यह शीर्षक स्कूली छात्रों के अध्यन -प्रशिक्षण के लिए तो ठीक है किन्तु जो वरिष्ठजन अपनी जिंदगी के उत्तरार्ध में भी इस तरह के विमर्शों को नितांत निजी और स्वान्तःसुखाय में अंगीकृत किये जा रहे हैं। वे हकीकत से आँखें चुरा रहे हैं। मेरे पूर्व वक्ताओं में से कुछ ने मूल्यों की गिरावट पर चिंता व्यक्त की है। किसी को अपने सपरिजनो की उपेक्षा का शिकार होना अखर रहा है।किसी को सम्पूर्ण युवा और आधुनिक पीढ़ी ही युवाओं की मोबाईल दीवानगी पसंद नहीं। किसी को नकली दवा की शिकायत है। किसी को बिजली के बड़े दामों की शिकायत है। किसी को नलों में ड्रेनेज के गंदे पानी की शिकायत है। किसी को व्यापम जैसे घोटाले से आपदा हुए डाक्टरों,इंजीनियरों और कारकुनों की अक्षमता और रिश्वतखोरी से शिकायत है। किसी को अपने आसन्न बुढ़ापे में बच्चों की उपेक्षा की शिकायत है।
इन समस्याओं से निजात पाने के लिए मेरे कुछ विदवान बुजुर्ग साथियों ने ,राजयोग -यम ,नियम आसन ,प्रत्याहार,प्राणायाम ,ध्यान ,धारणा, और समाधि में -समाधान उपेक्षा का शिकार वर्तमान दौर के क़ानून - व्यवस्था तथा भृष्ट सिस्टम को तो कोसते हैं किन्तु वर्तमान शासक वर्ग के द्वारा अपनाई जा रही प्रतिगामीऔर कार्पोरेटपरस्त आर्थिक नीतियों पर कहने से हिचकते हैं। सामाजिक,राजनीतिक,और आर्थिक सही सोच का दावा नहीं कर सकते। उनके लिए यह विमर्श नितांत गफलत भरा और निष्प्रयोजनीय ही है। वैसे भी यह वाक्य संदर्भित विमर्श को भी किसी सार्थक अंजाम तक नहीं पहुंचाता । चूँकि व्यक्ति विशेष अपनी निजी ,पारिवारिक ,आर्थिक ,सामाजिक और बौद्धिक चेतना के मिले-जुले 'इनपुट'से ही किसी खास विषय पर अपना 'आउटपुट' प्राप्त करता है। अपना नजरिया या दृष्टिकोण निर्धारित करता है। खास तौर से भाववादी सोच के अच्छे -खासे खाते -पीते अधिकांस वरिष्ठजन तो पुरातन भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था के ही कायल होने के कारण अभी भी अन्नमय कोष ,प्राणमय कोष ,मनोमय कोष ,विज्ञानमय कोष और तथाकथित आनंदमय कोष की मानसिक अवस्थाओं में विचरण कर रहे हैं। वे अपने मंतव्य को घेर-घारकर उसी 'ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ और सन्यास' पर ले जाकर ही अपना जीवन उदेश्य समाप्त कर देते हैं।उनके दुराग्रहों पर सीधे -सीधे चोट करने या विशुद्ध प्रगति- शीलता या क्रांतिकारिता झाड़ने से भी किसी का कोई फायदा नहीं। इसलिए मैंने आप लोगों के समक्ष विषय शीर्षक परिवर्तन की गुस्ताखी की है। आप सभी जानते हैं कि कबीरदास के इस सिद्धांत 'अंदर हाथ सहार दे ,बाहर मारे चोट' का प्रयोग ही हमें विमर्श सकरात्मकता तक ले जा सकता है।
हर समय व बार-बार यह दुहराने से की व्यक्ति,संस्थाएं , चीजें या वर्तमान व्यवस्था अच्छी -बुरी ऐंसी-वेंसी है ,इससे पुनरावृत्ति दोष के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा। वैसे भी इससे क्या फर्क पड़ता है कि व्यक्ति या चीजें किसी के लिए कितनी अनुकूल हैं या किसी के कितनी प्रतिकूल हैं ? बम-बारूद और मारक हथियारों के उत्पादनकर्ताओं को उनके उत्पादित माल खुशनुमा लगते हैं तो उनका उदेश्य 'नरसंहार' भी हो सकता है। किन्तु अमन -शान्तिकामी जनता को ये संहारक अश्त्र यदि काल समान दीखते है तो उसका उदेश्य 'युद्द नहीं शांति चाहिए' हो सकता है। व्यक्ति ,समाज या चीजों के अलहदा उपादेय हो सकते हैं। उनके यथावत रहने से यदि अभीष्ट सिद्ध होना होता तो फिर ये कोहराम ही क्यों मचता ? यदि अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता तो उसके पुनर्बखान की जिद ही क्यों ? मानवता के मार्ग में बाधक कारकों को यदि नजरअंदाज नहीं किया जा सकता तो उसका निवारण व्यक्तिगत चेष्टाओं या आत्मकेंद्रित प्रयाशों से कैसे सम्भव है।
इसलिए मैंने उक्त शीर्षक को बदलकर ''मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए " कर दिया। उसका व्यक्तिकरण से समाजिैकरण ही नहीं वरन जगतीकरण ही आकर दिया। जिसका वास्तविक तातपर्य यही है कि बदमाशों या समाजद्रोहियों को उनके अनैतिक जीवन का उद्देश्य तय करने का अधिकार उन्ह नहीं मिलना चाहिए। क्या व्यक्ति स्वतंत्रता के बहाने हम असुरों को 'अमृत' पिलाने का काम करते रहें ? हमें तो इंसानियत , बंधुता, करुणा और समानता के उदयगान की प्रतिध्वनि सुनने वालों के जीवन का उद्देश्य तय करना चाहिए । यदि हम यह तय कर लें कि मनुष्य को 'संहारक' शक्तियों की चिंता या उद्देश्य तय करना नहीं बल्कि सृजन की शक्तियों को पुष्ट करने और मूल्य निर्धारण करने के लिए उनके सर्वकालिक उद्देश्य तय करने चाहिए। यह तय होने के उपरान्त ही हम जान सकेंगे कि ' मानव जीवन का सर्वश्रष्ठ उद्देश्य क्या हो सकता है ? यह जान लेनें और तय करने के बाद उस महत उद्देश्य की आपूर्ति में जुट जाने के लिए कोई भी मानवतावादी इंकार नहीं कर सकता। यही हमारी 'सर्व मंगल मांगल्ये..... वाली अभिलाषा होना चाहिए !
मनुष्य जीवन का उदेश्य क्या है ? यह प्रश्न मूलतः दार्शनिक प्रकृति का है। मनुष्यमात्र की निजी और सामूहिक आवश्यकताओं के बरक्स तथा इतिहास ,भूगोल एवं प्राकृतिक परिवर्तनों - झंझावतों की असंख्य श्रृंखलाओं के मद्देनजर इस प्रश्न का बेहतर समाधान खोजना ही धरती के श्रेष्ठतम मानवों का उद्देश्य रहा है। किसी व्यक्ति,समाज या राष्ट्र का उद्देश्य यदि उनके निहित स्वार्थ तक सीमित है तो उनकी नजर में मानव जीवन का उद्देश्य सीमित हो सकता है। इस संदर्भ में चिंतनशील वैश्विक मनुष्य के अनगिनत जबाब हो सकते हैं। यदि कभी नादिरशाह दुर्रानी, हलाकू ,चंगेज खान या तैमूर लंग या ईदी अमीन से यह सवाल किया जाता कि उनके जीवन का उद्देश्य क्या है ? तो उनका जबाब होता "वयम भक्षाम : " शायद यदि उन्हें अमरत्व मिला होता तो वे कयामत के दिन तक 'असहमतों का कत्ले आम और दुनिया की लूट' के उदेश्य में संलग्न रहते।
यदि ईसा मसीह , बुद्ध, महावीर,स्रहपपा ,हजरत निजामुद्दीन ओलिया या हजरत शेख सलीम चिस्ती से यही प्रश्न पूंछा जाता तो वे वही जबाब देते जो पौराणिक काल मेंवैदिक ऋषियों-मुनियों और हरिश्चन्द्र,रघु ,दिलीप,भगीरथ ,शिवि ,दधीचि ,अत्रि ,अनुसुइया ,गार्गी ,मैत्रयी ,गौतमी ,अगस्त, लोपामुद्रा, कश्यप ,जाबालि , वशिष्ठ, याग्यब्ल्क्य ,भरद्वाज ,दत्तात्रेय जनक या नचिकेता इत्यादि मानवतावादियों से पूंछा जाता की 'मनुष्य जीवन का उदेश्य क्या है ?' तो शायद उनका जबाब होता -'सत्यं शिवम सुंदरम ' या सर्वे भवन्तु सुखिनः ,,सर्वे सन्तु निरामया …या वसुधैव कुटुंबकम …! जिनका मनसा-वाचा -कर्मणा से मानव मात्र का कल्याण ही 'मानव जीवन का श्रेष्ठतम उद्देश्य है'। यदि किसी सांख्यशास्त्री या अनीश्वरवादी से यही प्रश्न किया जाता तो उसका उत्तर होता -मानव जीवन तो प्रकृति प्रदत्त कोरा कागज जैसा है। इसे मानव द्वारा बेहतरीन रंगों से भरने की कला ही मानव जीवन का श्रेष्ठतम उद्देश्य हो सकता है।
विश्व के ज्ञात इतिहास और पौराणिक आख्यानों में जितने भी पात्र-कुपात्र हुए हैं ,उनके 'उद्देश्यों' पर नजर डालने पर यह परिणाम निकलता है कि जिस तरह यह सृष्टि नित्य नाशवान और नित्य परिवर्तनशील है, उसी तरह मनुष्यमात्र का मन और स्वभाव और उसकी संवेदनाएं भी नित्य परिवर्तनशील है। जिस तरह से संसार की सभ्यताएं परिवर्तनशील हैं ,उसी तरह मनुष्य मात्र की अभिलाषा और उनके जीवन का उद्देश्य भी नित्य परिवर्तनशील है।जो-जो वास्तविक और मानवीय है वो-वो सब का सब नित्य परिवर्तनशील है। इसके अलावा जो-जो अमानवीय है ,अलौकिक है या अपौरषेय है, उसके बारे में सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है. कि उसके 'टाइम फ्रेम' में वह सब भी नित्य परिवर्तनशील ही होगा।
जब कोई प्राणी या इंसान भूँखा होता है तो उदरभरण ही उसके जीवन का प्रथम उद्देश्य होता है। जब कोई प्यासा होता है तो प्यास बुझाना ही उसका प्रथम उद्देश्य होता है। यदि किसी आम या ख़ास आदमी की सायकल ,स्कूटर या कार बीच रास्ते में पंचर हो जाए तो उसके जीवन का प्रथम उद्देश्य 'पंचर 'सुधारना ही होगा तब उसे विश्व की या खुद की अन्य समस्याओं की तरफ देख पाने की फुर्सत ही कहाँ ? तब उसका उद्देश्य शुद्ध एकांगी ,तात्कालिक और निजी ही होगा । इसी तरह प्रत्येक मनुष्य का उद्देश्य उसकी मांग और पूर्ती के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। इसीलिये इस नित्य परिवर्तनीय दशा में किसी का कोई वश नहीं कि अपने किसी खास उद्देश्य पर स्थिर रह सके।वक्त किसी को भी मजबूर कर सकता है कि वह जान ले कि मनुष्य परम स्वतंत्र या सर्वशक्तिमान नहीं है।
श्री कृष्ण के जीवन का उनकी किशोर अवश्था में उद्देश्य या निहतार्थ क्या था ? राधा सहित अन्य गोपियों के साथ 'रासलीला' करना ! कभी गेंद खेलना ,वाँसुरी बजाना और ग्वाल वालों के साथ मिलकर गोप-गोपियों को सताना। युवा होने पर जब उन्हें बताया गया की उनके माता -पिता को बंदीगृह में डालने वाला उनका मामा दुष्ट कंस ही है तो उनका जीवन उद्देश्य 'कंस बध ' हो गया। जब उनके हाथों कंस मारा गया तो उनका उद्देश्य बदल गया। तब कंस के साले जरासंध और मित्र कालयवन से सम्पूर्ण यादव कुल की रक्षा करना श्रीकृष्ण का उद्देश्य हो गया। भले ही उसके लिए उन्हें रणछोड़ीलाल बनना पड़ा। उन्हें रातोंरात बृज ,मथुरा -गोकुल -वृन्दावन राधा को छोड़कर द्वारिका में शरण लेनी पडी । हालाँकि कंस बध से पूर्व वास्तव में उन का उद्देश्य यह नहीं था । लेकिन कंस बध के उपरान्त चूँकि उनका इतिहास,भूगोल परिस्थितियां सब तेजी से बदलते गए तो कृष्ण के उद्देश्य भी बदलते गए। यही हाल दुनिया के हर उस इंसान का,महानायक का या अवतार का है जो नहीं मानता कि "रिपट पड़े तो हर-हर गंगे "
हो सकता है सिकंदर का उद्देश्य दुनिया को जीतने का रहा हो ! किन्तु जब भारत में प्रवेश करते ही वह बुरी तरह घायल हुआ तो जीवित रहकर सुदेश मकदूनिया लौटना उसका मकसद हो गया। वेशक वह जीवित नहीं लौट पाया लेकिन उसका उदेश्य भी कुछ का कुछ होता चला गया । अरब खलीफा ने उद्देश्य लिया कि फारस और हिन्दुस्तान को 'कफ़िरों' से मुक्त किया जाए। इसके लिए उसने मुहम्मद बिन कासिमको चुना। कासिम ने फारस और 'सिंध' को लूटने उपरान्त विजय की सूचना अपने खलीफा को देना उचित समझा। इसके लिए उसने खलीफा को खुश करने का उदेश्य बनाया। उसके लिए खलीफा के हरम में कुछ सुंदर राजकुमारियाँ भेजीं, राजकुमारियों ने खलीफा को बताया कि 'हम आप के काबिल नहीं हैं 'क्योंकि मुहम्मद-बिन-कासिम ने हमें पहले ही 'जूंठा' कर दिया है। तब खलीफा का उद्देश्य 'कासिम बध' हो गया। उसके आदेश पर अन्य इस्लामिक सेनानियों ने मुहम्मद बिन कासिम के टुकड़े-टुकड़े कर जमीदोज कर दिया। न खलीफा का उद्देश्य सफल हुआ और न मुहम्मद बिन कासिम का कोई उदेश्य सफल रहा। जिनका उद्देश्य इस्लाम को बुलंदियों पर ले जानाथा वे आपस में लड़-मर गए। उनका उदेश्य इस्लाम विस्तार की जगह सुन्दर नारियों के द्वारा हरम विस्तार होता चला गया।
नेपोलियन का पहला उद्देश्य था फ़्रांस की खोई हुई गरिमा को लौटाना । पूर्ववर्ती दुश्मन राष्ट्रों को विजित कर अपनी खोई हुई फ्रांसीसी सरहदों को वापिस हासिल करना।जर्मनी,हालेंड,बेल्जीएम और इटली को विजिट कर नेपोलियन जब इंग्लैंड पर दुबारा आक्रमण करने पहुंचा तब अंग्रेज जनरल बेलिंगटन की सैन्य टुकड़ियों ने उसे सेंट हेलेना टापू पर कैद कर लिया। अब नेपोलियन का पहले वाला उद्देश्य हवा हो चुका था। अब उसका उद्देश्य हो गया कि कैद से छुटकारा कैसे पाया जाए ? हालाँकि इस 'श्मशान वैराग्य' वाले उद्देश्य में भी वह सफल नहीं रहा । और वहीँ बीमार होकर मर गया। मानव सभ्यता में जो लोग अपने निहित स्वार्थी उद्देश्यों को लेकर चले वे अंत में घोर रुसवाई को प्राप्त हुए।
हिटलर -तोजो और मुसोलिनी का प्रथम उद्देश्य यह था कि अमेरिका,इंग्लैंड और फ़्रांस जैसे साम्राज्य्वादी मुल्कों -के वैश्विक उपनवेशीकरण में से अपना हिस्सा लड़कर हासिल किया जाए। इसके लिए यूरोप में शुरू हुई लड़ाई दुनिया भर में फ़ैल गयी। जिसे बाद में द्वतीय विश्व युद्ध कहा गया।हिटलर ,मुसोलनि के प्रारम्भिक उद्देश्य सिर्फ रक्षात्मक और गरिमा -अस्मिता से ओत -प्रोत थे। बाद में जब छोटी-छोटी झड़पों में उन्हें कुछ सफलता मिली तो वे चूहे से शेर हो गए। उनके उद्देश्य बदल गए। वे नायक से अधिनायक होते चले गए । अंत में खलनायक होकर वीरगति को प्राप्त भये।
इन ऐतिहासिक और पौराणिक घटनाओं के उल्लेख से सावित होता है कि 'मानव जीवन का कोई भी उद्देश्य' अंतिम सत्य नहीं है। असल तथ्य यह है कि देश काल परिश्थितियों इंसान को मजबूर कर देती हैं कि वे अपना कोई स्वतंत्र लक्ष्य -उद्देश्य या 'एम' साध ही नहीं सकते !और यही एक चीज है जो मानव मात्र को ईश्वर नहीं होने देती। मनुष्य की स्रावश्रेष्ठता पर भी यही असम्भाविता ही प्रश्न चन्ह लगाती है। 'महाभारत' के संग्राम में शोक संतप्त अर्जुन को श्रीकृष्ण ने अपने अवतार लेने या ईश्वर होने का निरूपण करते हुए अपने जीवन के 'एम' या उद्देश्य को भी व्यक्त किया है।
सभी जानते हैं … परित्राणाय साधुनाम ,विनाशाय च दुष्कृताम …! \
किन्तु वह चिटफण्डिया सुब्रतो राय सहारा , कथाबाचक बलातकारी आसाराम ,दुराचारी नारायण साईं ,एक्टर संजू या सल्लू ,भृष्ट नेता -मंत्री -मन्त्राणियां और मुनाफाखोर पूँजीपति यह सब नहीं जानते। यदि इन्हे मालूम होता कि जिस अपावन उद्देश्य को लेकर वे मानवता का शोषण कर रहे हैं ,तो वे यह अब करने से बाज आते। इन सभी के स्वर्णिम दिनों में जीवन का उद्देश्य या अभिप्राय भले ही कुछ और रहा होगा किन्तु नियति और काल -चक्र ने अब उनका उद्देश्य बदल डाला है। अब इन सभी का उद्देश्य है कि किसी तरह 'बेल'याने जमानत ही मिल जाए तो गनीमत होगी।
विगत लोक सभा चुनाव में यूपीए - कांग्रेस को हराने के लिए और सत्ता में आने के लिए 'संघ परिवार' भाजपा और मोदी जी का उद्देश्य क्या था ? क्या आज भी उनके उद्देश्य वही हैं ? क्या कालेधन पर स्वामी रामदेव जैसों के वक्तव्य कालातीत नहीं हुए हैं ?क्या धारा ३७० ,एक समान क़ानून ,राम लला मंदिर या कोई भी पूर्वघोषित सौगंध कहीं भी कार्यान्वित की जा रही है ?क्या अपनी असफलता, अज्ञानता को छिपाने के लिए कभी गंगा मैया ,कभी गौमाता ,एकभी योगक्रिया जैसे नए-नए फंडे जनता के सामने परोसे जाने का उद्देश्य पहले भी था ?
इस तरह की बिडम्ब्नाओं पर ही किसी ने कहा है कि :-
पुरुष बलि नहिं होत है ,समय होत बलवान।
भिल्ल्न लूटी गोपिका ,बेई अर्जुन बेई बाण।।
श्रीराम तिवारी