बीते शुक्रवार को कोरियाई युद्ध और उसके विभाजन की ६५ वीं वर्षगांठ पर उत्तर कोरिया की राजधानी प्योंगयोंग में एक लाख युवाओं ने 'हे -मोगेम्बो' की मुद्रा में मुठ्ठी बांधकर एक साथ अपनी विरादराना और क्रांतिकारी वतनपरस्ती का इजहार किया। इन युवाओं ने इस अवसर पर समवेत स्वर में अपनी मातृभूमि कोरिया की एकजुटता एवं देशभक्ति के गीत गाये। उन्होंने अमेरिका द्वारा दक्षिण कोरिया को लगातार हथियार -गोला -बारूद की आपूर्ति किये जाने पर रोष भी जाहिर किया। इन कोरियाई युवाओं ने पुरजोर तरीके से "अमेरिकन सम्राज्य्वाद मुर्दाबाद'' के नारे भी लगाए । भारत के मीडिया में इन खबरों के लिए कोई स्थान नहीं। क्योंकि उसे तो 'चार दवंगनियो 'और 'लमो-नमो' से ही फुर्सत नहीं है।
यह दुहराने की जरूरत नहीं कि दूसरे महा युद्ध से पूर्व कोरिया एक गुलाम राष्ट्र था। अमेरिका ,रूस ,जापान और अन्य मित्र राष्ट्रों का कोरिया के अलग-अलग हिस्सों पर कब्जा था। द्वतीय युद्ध में जब सोवियत संघ ने हिटलर की सेनाओं को परास्त किया और इधर अमेरिका ने जापान पर बम गिराकर तबाही मचाई तब कोरिया की आजादी की राह आसान हुई किन्तु भारतीय विभाजन की तरह उसे भी विभाजन का दंश झेलना पड़ा।
दरसल अमेरिका ने बमुश्किल आधा कोरिया ही आजाद किया। उसे ही उत्तर कोरिया कहा जाता है। जिस आधे पर आज भी अमेरिकी सेनाओं की छावनियाँ कायम हैं उसे दक्षिण कोरिया कहते हैं । जितना हिस्सा अमेरिका और जापान से मुक्त हुआ वह साम्यवादी गणतंत्र के रूप में उत्तर कोरिया कहलाया। शीत युद्ध के दौरान 'सोवियत संघ' और चीन ने उत्तर कोरिया की जनवादी क्रांति का बचाव कियाथा । उधर दक्षिण कोरिया में अमेरिकी फौजों का अड्डा होने के कारण ,वहाँ पूँजीवादी लोकतंत्र प्रचारित किया जाता रहा। शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के बिघटन उपरांत अब अमेरिका की शह पर दक्षिण कोरिया और चीन की शह पर उत्तर कोरिया एक दूसरे के खिलाफ लगातार शत्रुता का भाव रखे हुए हैं। चूँकि दोनों कोरिया के अलग-अलग सरपरस्त हैं, अमेरिका और चीन ये दोनों ही संयुक्त राष्ट्र संघ में वीटो धारक हैं, इसलिए इस क्षेत्र में अभी भी शीत युद्ध कायम है। इसके वावजूद वहाँ शक्ति संतुलन भी कायम है।
सरसरी तौर पर भारत -पाकिस्तान की दशा-दुर्दशा उत्तर -दक्षिण कोरिया जैसी ही दिखती है । किन्तु वास्तव में वैसी है नहीं। काश स्थति कम से कम ऐंसी ही होती तो भी गनीमत होती ! पाकिस्तान के सर पर तो अमरीका का हाथ सदैव ही रहा है। लेकिन भारत को अमेरिका ने कभी भी अच्छी नजर से नहीं देखा। उधर चीन भी भारत को अपना चिर प्रतिदव्न्दी या सनातन शत्रु मानकर कई वर्षों से लगातार भारत विरोधी धतकर्मों में जुटा हुआ है। इसी कारण वह पाकिस्तान का 'गॉडफादर' बना हुआ है। वह पाकिस्तान के कंधे पर बन्दूक रखकर भारत को परेशान करने में लगा रहता है। आतंकी और साम्प्रदायिकता के अंधकूप में भारत को धकेलने और भारत को दक्षिण एशिया में मित्रविहीन करने में चीन पाकिस्तान की मैत्री सफल रही है। सीपीएम सहित दुनिया की अन्य विरादराना पार्टियों को भी चीन की इस बेजा खामी का खामियाजा भुगतना पड़ा है। चीन के कामरेडों को भारत के मजदूरों-किसानों की रंचमात्र चिंता नहीं है। यदि होती तो वे बदनाम हाफिज सईद और लखवी जैसे आतंकियों के संदर्भ में पाकिस्तान की वकालत नहीं करते। भारत में अर्धसामन्ती-अर्धपूंजीवादी निजाम के सत्तारूढ़ दलों और नेताओं ने भी कभी चीन के साथ कोई अनैतिक आचरण नहीं किया। हमेशा दोस्ती की ही वकालत की। भारत के साम्यवादियों ने तो हमेशा ही चीन और पाकिस्तान सहित सारे 'विश्व सर्वहारा' से मैत्री की कामना ही की है। बदले में चीन और पाकिस्तान ने घृणा का प्रतिदान ही किया है।
शायद भारत की किस्मत में चीन का अविश्वाश ही बदा है। भारत की तकदीर उत्तर कोरिया जैसी नहीं है। काश भारत को भी किसी वैश्विक शक्ति की मैत्री उपलब्ध होती ! काश भारत को भी चीन का ''दिल'' से समर्थन हासिल होता ! ऐंसा नहीं है कि भारतीय नेताओं ने कोई कोशिश ही नहीं की। पं नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित, कृष्ण मेनन ,नम्बूदिरीपाद, हरकिसन सुरजीत , राजीव गांधी ,अटलजी और अब नरेंद्र मोदी सहित अन्य भारतीय नेताओं ने भी चीन के आगे अपना दिल खोलकर रख दिया है । किन्तु माओ से लेकर शी जिन पिंग तक हर नेता ने हर बार भारत को निराश ही किया है।
साम्यवादी हमसोच के बरक्स व्यक्तिगत रूप से मुझे चीन से हमेशा उम्मीद रही है कि वह भारत के मजदूरों-किसानों की दुर्दशा को समझे और भारत की राह में कांटे न बिछाये। भारत में भी चीन के प्रति अविश्वास और घृणा कम नहीं है. किन्तु भारत के मीडिया ने या यहाँ की पूँजीवादी सरकारों ने चीन की महान सर्वहारा क्रांति के खिलाफ कोई शब्द भी उच्चरित किया है तो हमने उसका डटकर प्रतिवाद किया है। किन्तु तिब्बत में चीन की स्थति और कश्मीर में पाकिस्तान की स्थति के बरक्स मुझे चीन के कामरेडों से भी शिकायत है। यह जग जाहिर है कि चीनी नेताओं ने कभी भी भारत के नेताओं से सीधे मुँह बात नहीं की। बल्कि कभी सियाचीन ,कभी अरुणाचल ,कभी लद्दाख ,कभी मैकमोहन और कभी 'पीओके' में अपनी अवैध घुसपैठ और दादागिरी के तेवर ही दिखाए हैं । भारत के अंधराष्ट्रवादी और चीन के साम्राज्य्वादी दोनों ही एक जैसे हैं। पता नहीं कि दोनों और के अन्तर्राष्ट्रीयतावादी खामोश क्यों हैं?
कुदरत ने पाकिस्तान को तीन नेमतें बख्शी हैं। उसे दुनिया के तमाम इस्लामिक राष्ट्रों का विना शर्त समर्थन हासिल है । उसे अमेरिकन साम्रज्यवाद का भरपूर समर्थन हासिल है। उसे चीन का अंध समर्थन हासिल है। जबकि भारत आज 'मित्रविहीन' है। अतीत में उसका एकमात्र विश्वसनीय मित्र जरूर था ,किन्तु वह महान 'सोवियत संघ' कब का बिखर चूका है।बचा खुचा रूसी फेडरेशन भारत का औपचारिक मित्र तो अभीभी है ,किन्तु वो क्या खाक हमारी मदद करेगा जो खुद संकटग्रस्त है।
कहने का तातपर्य यह है कि भारत भले ही दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हो ,भले ही बड़ा महान सांस्कृतिक समृद्धि और अतीत के गौरव का गान करने वाला हो। भले ही बहुत बड़ा योगीराज हो ,किन्तु जमीनी हकीकत यह है कि आज 'संयुक्त राष्ट्रसंघ' में भारत का कोई भी मित्र नहीं है। राजीव गांधी ,नरसिम्हाराव और डॉ मनमोहनसिंह ने अमेरिका को भारत के नजदीक लाने की पुरजोर कोशिशें की ,साष्टांग दंडवत किये किन्तु वे सफल नहीं हुए। अटलजी भी फ़ैल ही रहे। मोदी जी की कोशिशों का नतीजा क्या होगा ये तो भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। सचाई यही है कि भारत के नेताओं ने अपना दिल-दिमाग सब कुछ चीन के सामने खोलकर रख दिया है ,पाकिस्तान से भी तहेदिल से मित्रता की तजबीज करते हैं ,किन्तु पता नहीं क्यों बदले में भारत को चीन और पाकिस्तान से केवल कुटिल मुस्कान ही क्यों मिल रहीं हैं ?
अमेरिकन सम्राज्य्वाद ने पाकिस्तान को जितने हथियार ,बंदूकें और गोल बारूद दिया है उसका इस्तेमाल पाकिस्तानी सेनाओं द्वारा न केवल भारत के खिलाफ बल्कि पाकिस्तान की निरीह सिंधी ,बलूच ,पख्तून और हिन्दू-क्रिश्चियन माइनर्टीज के खिलाफ भी हुआ है। चीन जो हथियार पाकिस्तान को दे रहा है उससे पाकिस्तान के मजदूरों -किसानों और जम्हूरियत को भी खतरा है। चीन द्वारा पाकिस्तान के आतंकियों को और उसकी नापाक सेनाओं को दिए जा रहे हथियारों से भारत के अम्बानी-अडानी जैसे बड़े - बड़े पूँजीपतियों को नहीं बल्कि भारतीय सर्वहारा वर्ग को ही खतरा है। क्या चीन के आधुनिक कामरेडों को यह नहीं मालूम कि भारत के जो तमाम प्रगतिशील -जनवादी और वामपंथी हैं वे जिस शोषण अन्याय से लड़ रहे हैं उसे चीनी क्रांति के समर्थन की दरकार है ? चीनी नेता जब भारत के खिलाफ रणनीति तय करते हैं तो क्या उन्हें यह सब नहीं सूझता ? क्या चीन यही चाहता कि भारत के युवा भी उत्तर कोरिया के युवाओं की तरह एक दिन रामलीला मैदान पर लाखों की तादाद में एकजुट होकर पाक प्रायोजित आतंकवाद और चीनी विस्तारवाद के खिलाफ भी नारे लगाएं ? यदि साम्यवादी उत्तर कोरिया को 'राष्ट्रवाद' प्यारा है ,यदि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को राष्ट्रवाद की खुमारी है तो भारत के मजदूर-किसान क्या अकेले ही अंतर्रष्ट्रीयतावाद का झंडा लहराते रहें ? क्या अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का ठेका सिर्फ भारतीय वामपंथ ने ले रखा है ?
वेशक यदि अमेरिका या चीन में से कोई एक भी ईमानदारी से भारत के साथ होता या सोवियत संघ ही कायम रहता तो भी भारत के लिए गनीमत होती । तब शायद चीन यूएनओ में भारत के खिलाफ पाकिस्तान का उग्र बगलगीर नहीं हो पाता। तब चीन की शह पर पाक प्रशिक्षित आतंकी इतना न इतराते। हो सकता है कि मेरा यह आकलन उन लोगों को न सुहाए जो जरा ज्यादा ही वर्ग चेतना से लेस हैं। लेकिन यह कटु सत्य है कि मेरा आकलन चीन-पाकिस्तान से घृणा प्रेरित नहीं बल्कि यथार्थ के धरातल पर पत्थर की लकीर है। हम जानते हैं कि भारत -पाकिस्तान भी कोरिया की तरह ही एक ही जमीन के दो टुकड़े हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कोरिया के दोनों भागों पर एक-एक महाशक्ति का वरदहस्त है। जबकि इधर पाकिस्तान का सरपरस्त तो अमेरिका पहले से ही है. अब चीन भी शिद्द्त से उसकी सरपरस्ती में मुस्तैद है। अब मित्रविहीन भारत को केवल अपनी लोकतान्त्रिक साख का ही भरोसा है। पूँजीपतियों और साम्प्रदायिक उन्मादियों के कारण ही भारत आज चौतरफा संकटों से घिरा है। मित्र विहीन भारत होने के कारक भी ये ही हैं।
सितमंबर में होने जा रही संयुक ट्रेड यूनियन हड़ताल में देश के मेहनतकशों को चाहिए कि अपनी तमाम पूर्व निर्धारित मांगों के अलावा भी वे पाकिस्तान व चीन के नापाक गठजोड़ के खिलाफ भी विश्व सर्वहारा वर्ग का ध्यान आकर्षण करें । सिर्फ अमेरिकन सम्राज्य्वाद के खिलाफ नारे लगाना पर्याप्त नहीं है। सिर्फ पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद या देश के अंदर साम्प्रदायिक उन्माद की मुखालफत करना ही अभीष्टनहीं है बल्कि उससे भी ज्यादा खतरनाक चीन -पाकिस्तान प्रयोजित षडयंतों का प्रतिकार भी जरुरी है ! विभिन्न कारणों से विश्व की कम्यूनिस्ट पार्टियों के मतभेद जग जाहिर हैं। यदि भारत और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों या नेता एक दूसरे से नाराज होते हैं तो होते रहें। कुर्बानी का ठेका सिर्फ भारत के मेहनतकशों ने नहीं ले रखा। यदि चीन के नेताओं को इतना बड़ा भूभाग होते हुए भी तसल्ली नहीं है ,तो उसके ही लगभग बराबर की पापुलेशन वाले भारत को क्या इतना भी हक नहीं कि बचे-खुचे ,आधे-अधूरे भारत की अखंडता और सीमाओं की भी सुरक्षा सुनिश्चित करे ? यदि देश ही न होगा तो काहे का साम्यवाद और काहे की क्रान्ति ? वेशक साम्यवाद का दर्शन एक कालजयी और सम्पूर्ण मानवीय विचारधारा है। यह मानवता के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन वैज्ञानिक विचारधारा है। किन्तु इस विचारधारा का दुरूपयोग करने वाले भी सर्वहारा के शत्रु हैं। फिर चाहे वे चीनी हो या पाकिस्तानी हों या हिन्दुस्तानी हों ! वतनपरस्ती किसी एक की बपौती नहीं है।
श्रीराम तिवारी
यह दुहराने की जरूरत नहीं कि दूसरे महा युद्ध से पूर्व कोरिया एक गुलाम राष्ट्र था। अमेरिका ,रूस ,जापान और अन्य मित्र राष्ट्रों का कोरिया के अलग-अलग हिस्सों पर कब्जा था। द्वतीय युद्ध में जब सोवियत संघ ने हिटलर की सेनाओं को परास्त किया और इधर अमेरिका ने जापान पर बम गिराकर तबाही मचाई तब कोरिया की आजादी की राह आसान हुई किन्तु भारतीय विभाजन की तरह उसे भी विभाजन का दंश झेलना पड़ा।
दरसल अमेरिका ने बमुश्किल आधा कोरिया ही आजाद किया। उसे ही उत्तर कोरिया कहा जाता है। जिस आधे पर आज भी अमेरिकी सेनाओं की छावनियाँ कायम हैं उसे दक्षिण कोरिया कहते हैं । जितना हिस्सा अमेरिका और जापान से मुक्त हुआ वह साम्यवादी गणतंत्र के रूप में उत्तर कोरिया कहलाया। शीत युद्ध के दौरान 'सोवियत संघ' और चीन ने उत्तर कोरिया की जनवादी क्रांति का बचाव कियाथा । उधर दक्षिण कोरिया में अमेरिकी फौजों का अड्डा होने के कारण ,वहाँ पूँजीवादी लोकतंत्र प्रचारित किया जाता रहा। शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के बिघटन उपरांत अब अमेरिका की शह पर दक्षिण कोरिया और चीन की शह पर उत्तर कोरिया एक दूसरे के खिलाफ लगातार शत्रुता का भाव रखे हुए हैं। चूँकि दोनों कोरिया के अलग-अलग सरपरस्त हैं, अमेरिका और चीन ये दोनों ही संयुक्त राष्ट्र संघ में वीटो धारक हैं, इसलिए इस क्षेत्र में अभी भी शीत युद्ध कायम है। इसके वावजूद वहाँ शक्ति संतुलन भी कायम है।
सरसरी तौर पर भारत -पाकिस्तान की दशा-दुर्दशा उत्तर -दक्षिण कोरिया जैसी ही दिखती है । किन्तु वास्तव में वैसी है नहीं। काश स्थति कम से कम ऐंसी ही होती तो भी गनीमत होती ! पाकिस्तान के सर पर तो अमरीका का हाथ सदैव ही रहा है। लेकिन भारत को अमेरिका ने कभी भी अच्छी नजर से नहीं देखा। उधर चीन भी भारत को अपना चिर प्रतिदव्न्दी या सनातन शत्रु मानकर कई वर्षों से लगातार भारत विरोधी धतकर्मों में जुटा हुआ है। इसी कारण वह पाकिस्तान का 'गॉडफादर' बना हुआ है। वह पाकिस्तान के कंधे पर बन्दूक रखकर भारत को परेशान करने में लगा रहता है। आतंकी और साम्प्रदायिकता के अंधकूप में भारत को धकेलने और भारत को दक्षिण एशिया में मित्रविहीन करने में चीन पाकिस्तान की मैत्री सफल रही है। सीपीएम सहित दुनिया की अन्य विरादराना पार्टियों को भी चीन की इस बेजा खामी का खामियाजा भुगतना पड़ा है। चीन के कामरेडों को भारत के मजदूरों-किसानों की रंचमात्र चिंता नहीं है। यदि होती तो वे बदनाम हाफिज सईद और लखवी जैसे आतंकियों के संदर्भ में पाकिस्तान की वकालत नहीं करते। भारत में अर्धसामन्ती-अर्धपूंजीवादी निजाम के सत्तारूढ़ दलों और नेताओं ने भी कभी चीन के साथ कोई अनैतिक आचरण नहीं किया। हमेशा दोस्ती की ही वकालत की। भारत के साम्यवादियों ने तो हमेशा ही चीन और पाकिस्तान सहित सारे 'विश्व सर्वहारा' से मैत्री की कामना ही की है। बदले में चीन और पाकिस्तान ने घृणा का प्रतिदान ही किया है।
शायद भारत की किस्मत में चीन का अविश्वाश ही बदा है। भारत की तकदीर उत्तर कोरिया जैसी नहीं है। काश भारत को भी किसी वैश्विक शक्ति की मैत्री उपलब्ध होती ! काश भारत को भी चीन का ''दिल'' से समर्थन हासिल होता ! ऐंसा नहीं है कि भारतीय नेताओं ने कोई कोशिश ही नहीं की। पं नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित, कृष्ण मेनन ,नम्बूदिरीपाद, हरकिसन सुरजीत , राजीव गांधी ,अटलजी और अब नरेंद्र मोदी सहित अन्य भारतीय नेताओं ने भी चीन के आगे अपना दिल खोलकर रख दिया है । किन्तु माओ से लेकर शी जिन पिंग तक हर नेता ने हर बार भारत को निराश ही किया है।
साम्यवादी हमसोच के बरक्स व्यक्तिगत रूप से मुझे चीन से हमेशा उम्मीद रही है कि वह भारत के मजदूरों-किसानों की दुर्दशा को समझे और भारत की राह में कांटे न बिछाये। भारत में भी चीन के प्रति अविश्वास और घृणा कम नहीं है. किन्तु भारत के मीडिया ने या यहाँ की पूँजीवादी सरकारों ने चीन की महान सर्वहारा क्रांति के खिलाफ कोई शब्द भी उच्चरित किया है तो हमने उसका डटकर प्रतिवाद किया है। किन्तु तिब्बत में चीन की स्थति और कश्मीर में पाकिस्तान की स्थति के बरक्स मुझे चीन के कामरेडों से भी शिकायत है। यह जग जाहिर है कि चीनी नेताओं ने कभी भी भारत के नेताओं से सीधे मुँह बात नहीं की। बल्कि कभी सियाचीन ,कभी अरुणाचल ,कभी लद्दाख ,कभी मैकमोहन और कभी 'पीओके' में अपनी अवैध घुसपैठ और दादागिरी के तेवर ही दिखाए हैं । भारत के अंधराष्ट्रवादी और चीन के साम्राज्य्वादी दोनों ही एक जैसे हैं। पता नहीं कि दोनों और के अन्तर्राष्ट्रीयतावादी खामोश क्यों हैं?
कुदरत ने पाकिस्तान को तीन नेमतें बख्शी हैं। उसे दुनिया के तमाम इस्लामिक राष्ट्रों का विना शर्त समर्थन हासिल है । उसे अमेरिकन साम्रज्यवाद का भरपूर समर्थन हासिल है। उसे चीन का अंध समर्थन हासिल है। जबकि भारत आज 'मित्रविहीन' है। अतीत में उसका एकमात्र विश्वसनीय मित्र जरूर था ,किन्तु वह महान 'सोवियत संघ' कब का बिखर चूका है।बचा खुचा रूसी फेडरेशन भारत का औपचारिक मित्र तो अभीभी है ,किन्तु वो क्या खाक हमारी मदद करेगा जो खुद संकटग्रस्त है।
कहने का तातपर्य यह है कि भारत भले ही दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हो ,भले ही बड़ा महान सांस्कृतिक समृद्धि और अतीत के गौरव का गान करने वाला हो। भले ही बहुत बड़ा योगीराज हो ,किन्तु जमीनी हकीकत यह है कि आज 'संयुक्त राष्ट्रसंघ' में भारत का कोई भी मित्र नहीं है। राजीव गांधी ,नरसिम्हाराव और डॉ मनमोहनसिंह ने अमेरिका को भारत के नजदीक लाने की पुरजोर कोशिशें की ,साष्टांग दंडवत किये किन्तु वे सफल नहीं हुए। अटलजी भी फ़ैल ही रहे। मोदी जी की कोशिशों का नतीजा क्या होगा ये तो भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। सचाई यही है कि भारत के नेताओं ने अपना दिल-दिमाग सब कुछ चीन के सामने खोलकर रख दिया है ,पाकिस्तान से भी तहेदिल से मित्रता की तजबीज करते हैं ,किन्तु पता नहीं क्यों बदले में भारत को चीन और पाकिस्तान से केवल कुटिल मुस्कान ही क्यों मिल रहीं हैं ?
अमेरिकन सम्राज्य्वाद ने पाकिस्तान को जितने हथियार ,बंदूकें और गोल बारूद दिया है उसका इस्तेमाल पाकिस्तानी सेनाओं द्वारा न केवल भारत के खिलाफ बल्कि पाकिस्तान की निरीह सिंधी ,बलूच ,पख्तून और हिन्दू-क्रिश्चियन माइनर्टीज के खिलाफ भी हुआ है। चीन जो हथियार पाकिस्तान को दे रहा है उससे पाकिस्तान के मजदूरों -किसानों और जम्हूरियत को भी खतरा है। चीन द्वारा पाकिस्तान के आतंकियों को और उसकी नापाक सेनाओं को दिए जा रहे हथियारों से भारत के अम्बानी-अडानी जैसे बड़े - बड़े पूँजीपतियों को नहीं बल्कि भारतीय सर्वहारा वर्ग को ही खतरा है। क्या चीन के आधुनिक कामरेडों को यह नहीं मालूम कि भारत के जो तमाम प्रगतिशील -जनवादी और वामपंथी हैं वे जिस शोषण अन्याय से लड़ रहे हैं उसे चीनी क्रांति के समर्थन की दरकार है ? चीनी नेता जब भारत के खिलाफ रणनीति तय करते हैं तो क्या उन्हें यह सब नहीं सूझता ? क्या चीन यही चाहता कि भारत के युवा भी उत्तर कोरिया के युवाओं की तरह एक दिन रामलीला मैदान पर लाखों की तादाद में एकजुट होकर पाक प्रायोजित आतंकवाद और चीनी विस्तारवाद के खिलाफ भी नारे लगाएं ? यदि साम्यवादी उत्तर कोरिया को 'राष्ट्रवाद' प्यारा है ,यदि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को राष्ट्रवाद की खुमारी है तो भारत के मजदूर-किसान क्या अकेले ही अंतर्रष्ट्रीयतावाद का झंडा लहराते रहें ? क्या अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का ठेका सिर्फ भारतीय वामपंथ ने ले रखा है ?
वेशक यदि अमेरिका या चीन में से कोई एक भी ईमानदारी से भारत के साथ होता या सोवियत संघ ही कायम रहता तो भी भारत के लिए गनीमत होती । तब शायद चीन यूएनओ में भारत के खिलाफ पाकिस्तान का उग्र बगलगीर नहीं हो पाता। तब चीन की शह पर पाक प्रशिक्षित आतंकी इतना न इतराते। हो सकता है कि मेरा यह आकलन उन लोगों को न सुहाए जो जरा ज्यादा ही वर्ग चेतना से लेस हैं। लेकिन यह कटु सत्य है कि मेरा आकलन चीन-पाकिस्तान से घृणा प्रेरित नहीं बल्कि यथार्थ के धरातल पर पत्थर की लकीर है। हम जानते हैं कि भारत -पाकिस्तान भी कोरिया की तरह ही एक ही जमीन के दो टुकड़े हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कोरिया के दोनों भागों पर एक-एक महाशक्ति का वरदहस्त है। जबकि इधर पाकिस्तान का सरपरस्त तो अमेरिका पहले से ही है. अब चीन भी शिद्द्त से उसकी सरपरस्ती में मुस्तैद है। अब मित्रविहीन भारत को केवल अपनी लोकतान्त्रिक साख का ही भरोसा है। पूँजीपतियों और साम्प्रदायिक उन्मादियों के कारण ही भारत आज चौतरफा संकटों से घिरा है। मित्र विहीन भारत होने के कारक भी ये ही हैं।
सितमंबर में होने जा रही संयुक ट्रेड यूनियन हड़ताल में देश के मेहनतकशों को चाहिए कि अपनी तमाम पूर्व निर्धारित मांगों के अलावा भी वे पाकिस्तान व चीन के नापाक गठजोड़ के खिलाफ भी विश्व सर्वहारा वर्ग का ध्यान आकर्षण करें । सिर्फ अमेरिकन सम्राज्य्वाद के खिलाफ नारे लगाना पर्याप्त नहीं है। सिर्फ पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद या देश के अंदर साम्प्रदायिक उन्माद की मुखालफत करना ही अभीष्टनहीं है बल्कि उससे भी ज्यादा खतरनाक चीन -पाकिस्तान प्रयोजित षडयंतों का प्रतिकार भी जरुरी है ! विभिन्न कारणों से विश्व की कम्यूनिस्ट पार्टियों के मतभेद जग जाहिर हैं। यदि भारत और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों या नेता एक दूसरे से नाराज होते हैं तो होते रहें। कुर्बानी का ठेका सिर्फ भारत के मेहनतकशों ने नहीं ले रखा। यदि चीन के नेताओं को इतना बड़ा भूभाग होते हुए भी तसल्ली नहीं है ,तो उसके ही लगभग बराबर की पापुलेशन वाले भारत को क्या इतना भी हक नहीं कि बचे-खुचे ,आधे-अधूरे भारत की अखंडता और सीमाओं की भी सुरक्षा सुनिश्चित करे ? यदि देश ही न होगा तो काहे का साम्यवाद और काहे की क्रान्ति ? वेशक साम्यवाद का दर्शन एक कालजयी और सम्पूर्ण मानवीय विचारधारा है। यह मानवता के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन वैज्ञानिक विचारधारा है। किन्तु इस विचारधारा का दुरूपयोग करने वाले भी सर्वहारा के शत्रु हैं। फिर चाहे वे चीनी हो या पाकिस्तानी हों या हिन्दुस्तानी हों ! वतनपरस्ती किसी एक की बपौती नहीं है।
श्रीराम तिवारी
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