घर से तो निकले थे बारात लेकर ,अनजाने जनाजे में क्यों आ गए हम ?
होगा कबीलों में जंगल का क़ानून ,उसी के मुहाने पर क्यों रम गए हम।।
सत्ता में बैठे हैं पूँजी के मालिक , श्रेष्ठि सामंत श्रम शोषण हारी ,
फंडा नहीं जहाँ नीति -अनीति का , खरामा- खरामा उधर आ गए हम।
रेपिस्ट पा रहे जब न्यायिक सदाशयता , गुनहगार को फिर डर क्या किसी का?
लग रही है जिधर दाँव पर पांचाली , शकुनि के उस जुआ घर आ गए हम।
नहीं है जहाँ कदर मूल्यों की कोई , न नीति न सिद्धांत न जनतंत्र -गणतंत्र ,
अनजान दुर्गम बहशी भयावह , उस अँधेरी सुरंग में क्यों आ गए हम ?
:-श्रीराम तिवारी :-
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