सोमवार, 29 जून 2015

नीति न सिद्धांत न जनतंत्र -गणतंत्र !




      घर से तो  निकले थे बारात लेकर ,अनजाने जनाजे में क्यों आ गए हम ?

      होगा  कबीलों में जंगल का क़ानून ,उसी के मुहाने पर क्यों रम  गए हम।।


      सत्ता में बैठे हैं  पूँजी के  मालिक , श्रेष्ठि   सामंत  श्रम शोषण हारी  ,

      फंडा  नहीं जहाँ  नीति -अनीति का ,  खरामा- खरामा  उधर  आ  गए  हम।


     रेपिस्ट पा रहे जब  न्यायिक सदाशयता , गुनहगार को फिर डर क्या किसी का?

    लग रही है जिधर  दाँव  पर पांचाली ,    शकुनि  के  उस जुआ घर  आ गए हम।


    नहीं है जहाँ कदर  मूल्यों की कोई  ,  न नीति न सिद्धांत न जनतंत्र -गणतंत्र ,

    अनजान  दुर्गम बहशी भयावह ,   उस अँधेरी  सुरंग  में क्यों आ गए हम ?


                                                           :-श्रीराम तिवारी :-


  

  

   

        

    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें