बुधवार, 10 जून 2015

जब योग का कहीं कोई विरोध है ही नहीं तो उसे करवाने की आक्रामक नाटकीयता क्यों ?

आजकल शुद्ध  सरकारी और उसका पिछलग्गू व्यभिचारी प्रचार तंत्र नाटकीय ढंग से योगाभ्यास के बरक्स  आक्रामक और असहिष्णु हो चला  है। दृश्य,श्रव्य ,पश्य, छप्य,डिजिटल,इलक्ट्रॉनिक ,मोबाइल  और तमाम 'प्रवचनीय' माध्यमों दवरा  बार -बार  कहा जा रहा है कि दुनिया में भारतीय योग का झंडा पहली बार  बुलंदियों को छूने वाला है।  बड़े  ही आक्रामक तरीके से यह भी  सावित करने की कोशिश की जा रही है कि जो  इसे नहीं   करेंगे वे 'हठयोगी' हैं। जबकि वे खुद मानते हैं कि अनेक गैर हिन्दू भी इस योगाभ्यास के कायल हैं।
                             यह तो जग जाहिर है कि  प्रकारांतर से दुनिया का हर जागरूक  शख्स अपनी सेहत के प्रति खुद  ही सचेत हुआ करता है।चूँकि यह योगाभ्यास मानवीय सेहत के लिए एक बेहतरीन'योग क्रिया' है साथ ही विभिन्न  रूपों में यह पहले से ही सारे संसार में प्रचलित है ,इसलिए इसको एक  खास दिन आधा -एक  घंटा  करने पर या रोज करने पर भी  कहीं कोई  विरोध नहीं है। जहाँ तक 'ॐ ' के उच्चारण का सवाल है, तो यह भी   केवल कुछ  हिन्दुओं की थाती नहीं है। वह तो भारतीय उपमहाद्वीप में सदियों से पुरातन- प्राकृत शब्द ब्रह्म का द्वेतक रहा है। इसे जैन,बौद्ध सिख और शैव -शाक्त सभी ने अपनी सुविधानुसार अपनाया है। दरसल ॐ एक  धर्मनिरपेक्ष  'शब्द ' है। यह अल्लाह के उद्घोष या उच्चारण जैसा ही  है। यह 'शब्दब्रह्म' 'हिन्दू' शब्द की व्युत्पत्ति से बहुत पूर्व का है। यह आर्यों से भी पूर्व का है।यह विश्व की धरोहर है। इसलिए जो लोग इसका विरोध   या  मजाक उड़ाते हैं वे   भीसही  नहीं  हैं ।
                    वास्तव  में  कुछ लोग सोते-जागते ,उठते बैठते केवल  विरोध की अपावन राजनीति के सिंड्रोम से पीड़ित  हैं। इसी के वशीभूत वे  इस बहुमूल्य योग का भी मजाक उड़ाते  हैं । इसी तरह जो लोग योग को  करने  - कराने  पर पागलपन की हद तक  व्याकुल हैं वे भी पाखंडी हैं। क्योंकि उनके लिए योग महत्वपूर्ण नहीं बल्कि उसके बहाने अपनी कीर्ति और प्रचार  ही महत्वपूर्ण है।ये लोग यह तो बखान  करेंगे कि द्वारकाधीश  भगवान कृष्ण बड़े योगी थे। किन्तु उनका निर्धन  मित्र सुदामा  क्यों योगी नहीं  भिखारी था ?  शायद इसका उत्तर इनके पास नहीं है ! खुद  कौरव -पांडव भी योगी नहीं थे। यदि वे  योगी  होते तो कृष्ण को गीता में अर्जुन से यह नहीं कहना पड़ता कि हे अर्जुन ! 'यह योग जो मैंने तेरे से कहा है वह बड़ा पुरातन और सीक्रेट है चूँकि तूँ मेरा अनन्य  है इसीलिये मैंने तुझे ये  योगविद्या प्रदान की है। इसीलिए -'तस्मात् योगी भवार्जुन '!
      
                                 देश और दुनिया में करोड़ों ऐंसे  हैं जो अपने बचपन से ही योगाभ्यास  करते आ रहे हैं। मैं  खुद भी  अपने स्कूली  बचपन  से ही योग -अभ्यास और शारीरिक व्यायाम करता आ रहा हूँ। इक्कीस जून  हो या वाईस या कोई और दिन मुझे  कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे तो यह आवश्यक रूप से करना ही है। जब रामदेव पैदा नहीं हुए होंगे तब भी मैं यह योगाभ्यास करता था।जब  मोदी सरकार नहीं थी तब भी मैं यह  बिलानागा  करता था । वनाच्छादित गाँवों के  खेतों में - खलिहानों में ,जंगलों में , ठंड-बरसात या गर्मीमें , कोई भी मौसम हो , कोई भी काल हो या कोई  भी अवस्था  हो ,मैं तो अल सुबह एक घंटा इस योगाभ्यास को करने की कोशिस अवश्य करता  रहा  । अब यदि केंद्र  की  मोदी सरकार यह  योग करवा रही है तो भी मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि किसी कारण से  इस सामूहिक आयोजन  वे निरस्त  भी करते  [जैसे  कि पता चला है कि खुद मोदी जी इस योगाभ्यास से पीछे हट गए हैं ] तो भी मुझे कोई समस्या नहीं है । मैं तब भी  नित्य की भाँति इस फिर   भी  करता। क्योंकि यह मेरी निजी  दिनचर्या का आवश्यक हिस्सा है। मुझे इस प्रयोजन के लिए किसी प्रकार के  राजनीतिक  पाखंड  की जरुरत नहीं है ।
                  वे चाहे 'योगी' आदित्यनाथ  जैसे बड़बोले नेता बनाम साधु हों ,योग में साम्प्रदायिकता ढूंढने वाले पक्ष-विपक्ष के पैरोकार हों या किसी खास नेता  के चमचे  हों, अपने योगाभ्यास के लिए मुझे किसी की दरकार नहीं।दुनिया के  अधिकांस गैर राजनैतिक खाते -पीते  'योगियों' का मानना है कि प्रत्येक मनुष्य के बेहतरीन जीवन के लिए 'योग क्रिया'  एक अचूक वैज्ञानिक उपादान है। यह योग-अभ्यास  एक आदर्श जीवन  शैली का उत्प्रेरक जैसा है। इसलिए  भी मैं नित्य ही उसका यथा संभव अभ्यास करता हूँ। आइन्दा आजीवन यथासम्भव  करता  भी रहूँगा। यह  महज इसलिए  नहीं कि  किसी नेता , बाबा  या शासक का तुगलकी फरमान है ! यह सिर्फ इसलिए ही नहीं कि इक्कीस जून को कैमरों के सामने किये जाने का इंतजाम है।  गरीबी ,भुखमरी ,शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ने वालों को तो  यह योग अवश्य ही करना  चाहिए। यह योगाभ्यास  बल-विवेक और आरोग्यता का खजाना है।

                     हालाँकि  मैं उनका भी विरोधी नहीं जो योग -ध्यान या प्राणायाम इत्यादि  नहीं करते। मैं उनका भी विरोधी नहीं जिन्होंने  २१ जून वाले आयोजन का बहिष्कार किया है । दरअसल इसमें  समर्थन या विरोध  का तो  सवाल नहीं  है। यह तो नितांत निजी अभिरुचि है।कुछ लोगों को गलतफहमी है कि  इस योगाभ्यास को  वैश्विक पहचान  दिलाने और प्रतीकात्मक प्रदर्शन की  शुरुआत  के लिए भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ,उनके प्रेरणा स्त्रोत स्वामी रामदेव  जिम्मेदार हैं। लेकिन  भले ही इस योग आयोजन के सार्वजनिक प्रदर्शन   के पीछे किसी की कोई  भी  मनसा  रही  हो  किन्तु अब तो  वे बधाई के पात्र तो अवश्य हैं। क्योंकि  दुनिया भर में इस भारतीय 'योग' का मान तो अवश्य  ही बढ़ा है। इस योग ने खान-पान की शैली पर भी कुछ शोध भी  किया है। इसीलिये  अब  खाते -पीते उच्च मध्यम वर्ग की चटोरी जुबाँ पर कुछ तो लगाम लगेगी। इसके अलावा  योग  करने वाला व्यक्ति  मानवीय श्रम  का कुछ महत्व भी समझेगा। चूँकि कि योग की पहली शर्त है शौच संतोष स्वाध्याय ,अतएव यदि  वह पूँजीपति है या अपराधी है  तो मेहनतकश इंसान के पसींने का कुछ तो सम्मान अवश्य करेगा !

         वैसे भी  पुरातन मनीषियों ने योगविद्द्या के रूप में संसार के शोषक वर्ग को तो अनेक  बेहतरीन तोहफे  दिये हैं  किन्तु श्रम  के सम्मान बाबत कुछ ख़ास नहीं कहा -सुना गया ! वेशक उनकी मंशा शायद यही रही होगी कि इस धरा पर जो चालू किस्म के मनुष्य होते हैं यदि वे  योगाभ्यास करते हैं या करेंगे तो वे एक दिन  नेक और  अच्छे इंसान जरूर  बनेंगे ! वशर्ते 'योग' की सही तश्वीर संसार के सामने हो। हालाँकि  भारतीय उप महाद्वीप की अधिकांस  मेधाशक्ति इसी क्षेत्र में भटकती रही है। भारतीय चिंतकों और अन्वेषकों की बिडंबना रही है कि ज्ञान-ध्यान-योग जैसी  आध्यात्मिक उड़ानों में तो बेजोड़ रहे हैं।  किन्तु  मेहनतकश आवाम-के लिए ,किसानों के लिए और आर्थिक -सामाजिक विषमता के भुक्तभोगियों के लिए उनके पास एक शब्द नहीं था। यही वजह रही है कि हजारों सालों से  भारत की आवाम के लिए  केवल हल-बैल  और मानसून ही जीवन के आधार  बने रहे हैं। जब  अंग्रेज -डच -फ्रेंच  और यूरोपियन  भारत आये तब   ही यहाँ  की जनता ने जाना कि संविधान क्या चीज   है ?   'लोकतंत्र' किस चिड़िया का नाम है ?  वरना योग  और भोग तो इस देश  की शोषणकारी ताकतों का क्रूरतम  इतिहास रहा है। 
        भारत में रेल ,मोटर,एरोप्लेन,कम्प्यूटर ,इंटरनेट,टीवी,मोबाईल ,टेलीफोन ,स्कूटर ,कार ,पेट्रोलियम ,,इंजन से लेकर सिलाई मशीन -सब कुछ इन विदेशी आक्रान्ताओं और व्यापारियों की तिजारत का कमाल  है। वरना हम भारतीयों के लिए रुद्राक्ष की माला ,त्रिशूल ,कमंडल और योग क्रिया ही  शुद्ध देशी है ।  बाकी जो कुछ भी हमारे  बदन पर है ,हमारे घर में है वो सब विदेशी है। हमारे अतीत के वैज्ञानिक चमत्कार तो केवल पुराणों और शाश्त्रों में पूजा के लिए सुरक्षित  हैं।  इसीलिये योगी आदित्यनाथ को याद रखना चाहिए कि उनके मतानुसार  'यह सन्सार माया है -ये  तमाम भौतिक संसाधन और वैज्ञानिक उपकरण  मृगतृष्णा है'। अतः उन्हें इनके साथ  -साथ राजनीति  से  भी सन्यास ले लेना चाहिये। उन्हें तो  मृगछाला और   दंड -कमंडल  सहित योग-ध्यान में लींन  रहना  चाहिए।  वे नाहक ही सांसारिक  मायामोह में अपना तथाकथित परलोक बर्बाद कर रहे हैं।

जिस तरह मानव सभ्यता के इतिहास में पश्चिमी राष्ट्रों के चिंतकों - वैज्ञानिकों ने, न केवल राष्ट्र राज्यों की अवधारणा का आविष्कार किया ,अपितु  कृषि,विज्ञान,रसायन,चिकित्सा,रणकौशल, तोप  ,बन्दूक , बारूद  सूचना एवं  संचार ,अंतरिक्ष विज्ञान और स्थापत्यकला में चहुमुखी विकास किया है। ठीक उसी तरह दुनिया की हर कौम ने , हर कबीले ने , हर देश ने, हर समाज ने -अपने 'जन समूह' को अजेय ,स्वश्थ और पराक्रमी  बनाने के लिए भी  कुछ न कुछ  सार्थक  शारीरिक व्यायामों  का भी विकाश भी  किया है। भारत  ,चीन और पूर्व के देशों के मध्य  पुरातनकाल से ही इस  शरीर सौष्ठव प्रक्रिया  का उन्नत योग के रूप में  आदान-प्रदान होता रहा है।  चीन ,जापान ,कोरिया ,थाइलैंड इत्यादि में शारीरिक पौरुष को मार्शल आर्ट- कुंग-फु- जूड़ो -कराते- ताइक्वांडो और सूमो इत्यादि में निरंतर निखार होता रहा है।इसे ही बाद में आत्म रक्षार्थ बौद्ध भिक्षुओं ने परवान चढ़ाया।

               भारतीय चिंतकों ,ऋषियों और प्राचीन  मनीषियों  ने इस शारीरिक मशक्क़त अर्थात व्यायाम  को - मानसिक  ,लौकिक,दैविक,पारलौकिक और आध्यात्मिक आवेगों के साथ संबद्ध  कर 'योग' में रूपांतरित कर दिया । उनके मतानुसार मानव  शरीर को महज बंदरों ,भालुओं  की तरह  उछल-कूंद कराने मात्र से ही यह योग  सिद्ध नहीं किया जा सकता। उन्होंने सूर्योदय के समय शुद्द आबोहवा में प्राणवायु को ठीक से पहचाना। पेड़ों की पत्तियों पर आपतित  प्रातःकालीन सूर्य रश्मियों से क्ल्रोफिल क्रिया और उससे उतपन्न  आक्सीजन का ज्ञान  भले ही पतंजलि को न रहा हो किन्तु  प्राणवायु का महत्व तो वे जरूर वे जानते थे।  यदि उन्होंने दो हजार वर्ष पूर्व यह पता लगा लिया कि  यह धरती 'सूर्य'की परिक्रमा करती है और इसका जन्म भी सूर्य से  ही हुआ है अतः  सूर्य को नित्य  शुक्रिया अदा करने में के गलत है ?  इससे तो मनुष्य में कृतग्यता का ही भाव आता है ! इससे  आराधक का  ऊर्जावान होना भी स्वाभाविक है ।

      इसी तरह से इस्लामिक जगत में  भी यदि सूर्योदय से  पहले की नमाज का महत्व है और उसका प्रयोजन   इसी तरह से आंका गया  है की सुबह जल्दी उठो और अल्लाह को उसकी नेमतों का शुक्रिया अदा करो। जब कोई   व्यक्ति सुबह जल्दी उठेगा  और शरीर -मन -प्राण की  शक्ति संचित करेगा तो उसमें सूर्य का कुछ तो एहसान होगा। इसके अलावा वजू या नमाज  की मुद्राएँ हों , पंचकर्म या सूर्य नमस्कार की मुद्राएँ हों , यदि ध्यान से देखें तो सभी में वही खास तत्व उभयनिष्ठ है ,जिसकी  हर नेक इंसान को शिद्द्त से जरुरत है।इसीलिये  सूर्य नमस्कार का विरोध करना या योग का विरोध करना उतना ही बड़ा गुनाह  है जितना कि योगी आदित्यनाथ ने -योग  नहीं करने वालों को समुद्र में डूबने का अभिशाप देकर किया है।

                                        बिना सूर्य नमस्कार के बचे-खुचे शारीरिक श्रम को यदि योग कहा जाए तो यह 'योग ' का तिरस्कार है। स्वामी रामदेव और श्री  नरेंद्र मोदी आज जिसे योग बता रहे हैं वह भी  केवल 'मर्कट नर्तन' मात्र है। भीषण गर्मी ,कड़कड़ाती  ठण्ड में भूंखे-नंगे आदिवासियों को ,बारह महीना खेतों में काम करने वाले किसानों, फैक्ट्रियों-कारखानों  में  तथा निर्माण क्षेत्र में पसीना बहा रहे मजदूरों को इस यह  २१ जून की नौटंकी में शामिल  होने की फुर्सत कहाँ ? उन्हें तो योग भी किसी तपश्या से  कम नहीं। भूंखे  भजन न होय गोपाला। इसलिए इस   निर्धन सर्वहारा वर्ग के लिए  अपनी आजीविका के अलावा किसी भी 'योग' -भोग की अभिलाषा नहीं है। वह अपने खून पसीने से तमाम उत्पादन और सृजन साकार करते हुए ही नित्य ही 'सहज योग' करता रहता है ,यदि मोदी जी द्वारा आहूत कार्यक्रम [योग] से  उसे  दो-जून की सूखी रोटी  भी नसीब हो जाएतो वह अभिनंदनीय है। अन्यथा  उसके श्रम  को किसी  योग या भोग  की नहीं अपितु  न्यूनतम मजदूरी तथा  किंचित पोषित आहार  - रोटी-कपड़ा और मकान की  ही दरकार है।

      पुरातनकाल से ही यह तथाकथित 'योग' अपने बुनियादी स्वरूप में -शारीरिक व्यायाम के रूप में  पहले  फौजियों- सेनानियों के लिए अनिवार्य था। सामंतयुग में  इन्द्र्जालिकों ने, गोरखपंथियों ने ,चंद्रकांता संतति  जैसे  नटविद्द्या - मोहनी विद्या में माहिर जासूसों ने योग को  चमत्कारिकता प्रदान की। लेकिन वास्तविक योगियों ने   इस तरह की पाशविक शक्ति अर्जन को 'योग' नहीं 'तामसी कर्म ' कहा है। इसी तरह केवल अपने  निजी निहित स्वार्थ के निमित्त  किये गए अष्टांगयोग -यम  नियम ,आसन ,प्रत्याहार ,प्राणायम ,ध्यान , धारणा और समाधि  को  भी  योग नहीं कहा जा सकता। केवल लोम-विलोम ,भस्त्रिका,कपालभाती ,अग्निसार या भ्रामरी  प्राणायाम  को भी योग नहीं है। ये सभी प्रयोजन तो 'योग' के निम्नतर क्रमिक  सोपान हैं। वास्तविक योग के विषय में तो स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण का कथन है कि  :-

           तपस्विभ्योSधिको  योगी ,ज्ञानिभ्योSपि  मतोSधिक :।

          कर्मिभ्यश्चाधिको योगी ,तस्मात् योगी भवार्जुन।।

                                                                                               --श्रीमद्भगवद्गीता  अध्याय-६ ,श्लोक -४६

भावार्थ स्पष्ट है कि योग के मार्ग में आडंबर ,पाखंड ,दिखावा ,राजनैतिक  निहित स्वार्थ इत्यादि बाधाओं  करना जरुरी है। जब तपश्वी, ज्ञानी और कर्मशील भी योगी  के समक्ष बौने हैं तो जो रोज सुबह से शाम झूँठ बोलने वाले क्या ख़ाक योग समझते होंगे ? यदि उनका अभिप्राय  केवल शारीरिक श्रम से है और यदि उनके मन-मष्तिष्क  में तमोगुण कूट -कूट कर भरा  है तो इक्कीस जून को हो या जिंदगी भर,उनका योग कभी  सधने वाला नहीं है।   वेशक वे सुडौल शरीर के मालिक बन सकते हैं। उनका ५६ इंच का सीना  भी हो सकता है।  किन्तु वे 'योगी' नहीं हो सकते।  वे  योग  की ब्रांडिंग कर सकते  हैं। जो लोग मानते हैं कि इस तरह के अधकचरे प्रदर्शन  से दुनिया में 'योग' की या भारत की प्रतिष्ठा बढ़ेगी बड़ा  मान होगा वे बड़े भोले और 'अयोगी' हैं। दरअसल उन्हें योग का अ ब  स याने  ककहरा भी नहीं मालूम। उन्हें यह याद रखना होगा कि 'सच्चा योग ' तो इस लौकिक संसार से विरक्ति  के उपरान्त ही साधा  सकता है। योग सिर्फ शारीरिक  मशक्क़त नहीं है।योग कोई धार्मिक पाखंड नहीं है। यह   विशुद्ध विज्ञान है। क्रांतिकारियों के लिए तो यह योगाभ्यास  परम आवश्यक है। यह शक्ति -स्फूर्ति तो देता ही है साथ ही अन्याय और अत्याचार से लड़ने का जज्वा भी देता है। जिसे विश्वास न हो वह मोदी जी की सफलता से ही इसकी महिमा का अंदाज लगा सकता है।  

                योग गुरु  स्वामी रामदेव ,श्री-श्री और अन्य अनेक स्वनामधन्य 'योगी' महर्षि भी वास्तव में परफेक्ट   'योगी' नहीं हैं। जिनका एक पाँव राजनीति  की नाव पर हो , दूसरा पाँव  मीडिया की नजर का गुलाम हो वे 'नट '  हो सकते हैं किन्तु  'योगी' नहीं। वेशक यदि  इस शारीरिक मशक्क़त के साथ -साथ  व्यक्ति , समाज  और राष्ट्र  को समोन्नत बनाने ,सुसभ्य बंनाने,शोषणविहीन समाज -अन्याय अत्याचारविहीन समाज स्थापित करने की तमन्ना हो ,  देश और दुनिया के दैहिक ,दैविक,भौतिक संतापों-कष्टों से निजात दिलाने की कामना हो श्रेष्ठतम   मानव के निर्माण की अभिलाषा हो, तो ही सच्ची  'योग' सिद्धि सम्भव  है। वास्तविक योग क्रिया कोई घातक  -  साम्प्रदायिकता  नहीं है। दरसल  धर्मनिरपेक्ष मानसिकता वाला व्यक्ति ही सच्चा योगी बन सकता है।  इसमें घृणा  ,द्वेष या बैरभाव नहीं बल्कि  समता और करुणा का भाव ही धजता है।  केवल हिन्दू साधु -संत ही योगी  नहीं हुए हैं - जनक[विदेह],श्रीकृष्ण ,पतंजलि  रामदेव ही योगी नहीं हुए हैं, बल्कि यहूदी-पारसी- इस्लाम  - ईसाइयत  -जैन -बौद्ध इत्यादि दर्शन परम्परा में भी महानतम योगी-सिद्ध और महात्मा  हुए हैं। उन्होंने किसी को  भी जबरन योग हेतु बाध्य नहीं किया।
                                 सत्तारूढ़ भाजपा सांसद [अ]योगी  श्री  आदित्यनाथ जैसे लोग यदि  कह रहे  हैं कि सूर्य नमस्कार या  योग नहीं  करने वालों को 'समुद्र में डूब मारना  चाहिए !  तो इससे  योग नहीं करने वालों या  गैर हिन्दुओं की सेहत पर कोई असर  नहीं पड़ने वाला । बल्कि यह तो सरासर हिंदुत्व का और योग का ही  अपमान है।नकली 'योगी' आदित्यनाथ या उनके जैसे भगवाधारियों को  योगी कहना तो योग का अपमान है !उन्होने या तो  पातंजलि योगसूत्र पढ़ा ही नहीं या फिर उन्होंने अपने ही आदि गुरु गोरखनाथ को भी ठीक से नहीं समझा !  'कबीर' नानक  ,रैदास   को वे समझ पाएंगे इसका सवाल ही नहीं उठता। उन्हें शायद ही ज्ञात हो कि  'योग' के  बहुआयामी उद्देश्य के लिए 'पतंजलि' जैसे कुशल योगाचार्यों ने विभिन्न 'योग सूत्रों' का वैज्ञानिक  अन्वेषण करते हुए बेहतरीन  प्रतिपादन किया है । बिना किसी भय व रागद्वेष के उन महान ऋषियों ने  मानव मात्र को  'योग' की कला का ज्ञान दिया। उन्होंने उद्घाटित किया कि मानव मात्र  अपने शरीर मन  बुद्धि,अहंकार और   प्रकृति के साथ इन सबका सांगोपांग  तादात्म्य स्थापित कर शतायु हो सकता है।अर्थात  'जीवित शरदः शतम' की कामना के साथ -साथ संसार के सभी प्राणियों और प्रकृति से बेहतरीन सामंजस्य की कला को ही उन्होंने  योग  कहा है - इसे  उन्होंने अपने एक खास  सूत्र में  इस प्रकार व्यक्त किया है।

'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः '

अर्थात  चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम  योग है।  इसमें एकांत का बड़ा महत्व है। यह सड़कों पर या कैमरे के सामने प्रदर्शित तो किया जा सकता है किन्तु इसे 'साधा'  नहीं किया जा सकता। योग कोई  प्रदर्शनीय वस्तु   नहीं अपितु  शानदार अनुकरणीय  कला  है।इसके बारे में स्वामी समर्थ रामदास कह गए हैं:-

                'योगिनांम साध ली जीवन कला '


        इसी को वेदव्यास ने निम्न प्रकार से  व्यक्त किया है -

              योग क्षेम बहाम्यहम्

               अथवा 

                'तस्मात् योगी भवार्जुन !        [भगवद्गीता ]

 जो इसे जानते और मानते हैं वे ही इसे  कर सकते  हैं। जब स्वामी रामदेव का नाम भी मैंने नहीं सुना था तब बचपन में गाँव में पीपल या पलाश की छाँव में  भी हम 'अष्टांगयोग' किया करते थे। गायों-बेलों का चारा-पानी  ,खेती -मजूरी सब करते हुए भी न केवल पढाई-लिखाई  बल्कि योग-व्यायाम इत्यादि  में भी हमारी रूचि हुआ आकृति थी। टीवी या मीडिया पर किसी की शारीरिक -मानसिक  चेष्टाओं देखकर हमने योग नहीं सीखा।किसी    प्रदर्शनीय सामूहिक  प्रयोजन  का नाम योग नहीं  है। इसे तो एकांत में ही साधा जा सकता है। इसी तरह  इसके आयोजक यदि सूर्य नमस्कार को भी  किसी के  दबाव में छोड़ रहे हैं तो यह और भी अधिक आपत्तिजनक है।



                                    श्रीराम तिवारी 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें