सोमवार, 29 जून 2015

ललित मोदी काण्ड से भी ज्यादा भयावह और जघन्य है गवाहों का मारा जाना।



   इस दौर में जितने पत्रकार मारे गए हैं उतने आपातकाल में भी नहीं मारे गए होंगे। बदनाम आसाराम रेपकांड में  लगभग आधा दर्जन गवाह कत्ल किये जा चुके हैं। इससे  भी ज्यादा भयावह स्थति 'व्यापम' के गवाहों की है।  इस अब तक २३ गवाह मारे जा चुके हैं।   इन हत्याओं  के लिए प्रशासनिक  तौर  पर असफलता के लिए जिम्मेदार लोग  यदि खुद ही व्यापम जैसे कांडों में लिप्त हों तो जनता की जबाबदेही क्या होनी  चाहिए ? जिन तत्वों  का इन हत्याओं से वास्ता  है यदि  वे स्वयं ही राज्यसत्ता पर काबिज हों, मीडिया और जनता के सामने - योगासन की बगुलाभक्ति में  में लीन  हों तो इस दुरावस्था  को आपातकाल क्यों नहीं  मान लिया जाए ? वेशक  ललितगेट  और हवाला काण्ड के दोषियों  से सत्ताधारियों की नजदीकियाँ   भी जग जाहिर हैं। इस संदर्भ में  सर्वोच्च  सत्ता का  मौन  क्या सावित  करता है ?  वेशक उस कुख्यात  ललित मोदी से  सत्तारूढ़  भाजपा  नेत्रियों की   नजदीकियाँ   नितांत  देशद्रोह पूर्ण  हैं  ? लेकिन इस  ललित लीला से भी ज्यादा  भयावह  और  जघन्य  है अपराध जगत को नंगा करने वाले  विसिलब्लोवर और गवाहों का  मारा जाना।   अपराधियों  द्वारा रोज-रोज  अपने जघन्य पापों को छिपाने के लिए  पत्रकारों और गवाहों का  मारा जा  रहा है  !' अली बाबा ' के चालीस चोर क़त्ल किये जा रहे हैं और वे खुद मौन हैं।  किसी  लोकतान्त्रिक गणराज्य की  यदि यह स्थिति है तो इंदिराजी का आपातकाल उतना बुरा नहीं था।
                                                                           श्रीराम तिवारी  

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