मंगलवार, 30 जून 2015

पूँजीपतियों और साम्प्रदायिक उन्मादियों के कारण ही भारत आज चौतरफा संकटों से घिरा है।

बीते शुक्रवार को कोरियाई युद्ध और उसके विभाजन की ६५ वीं वर्षगांठ पर उत्तर कोरिया की राजधानी प्योंगयोंग में  एक लाख युवाओं ने 'हे -मोगेम्बो' की मुद्रा में मुठ्ठी बांधकर एक साथ अपनी विरादराना  और  क्रांतिकारी   वतनपरस्ती का इजहार किया।  इन युवाओं ने  इस अवसर पर समवेत स्वर में अपनी मातृभूमि   कोरिया की एकजुटता एवं   देशभक्ति के गीत गाये। उन्होंने अमेरिका द्वारा दक्षिण कोरिया को लगातार हथियार -गोला  -बारूद  की आपूर्ति किये जाने पर रोष  भी जाहिर किया। इन  कोरियाई  युवाओं ने पुरजोर तरीके से    "अमेरिकन सम्राज्य्वाद मुर्दाबाद'' के नारे  भी लगाए । भारत के मीडिया में इन खबरों के लिए कोई स्थान नहीं। क्योंकि उसे तो 'चार दवंगनियो 'और  'लमो-नमो' से ही फुर्सत नहीं है।

                        यह दुहराने की जरूरत नहीं कि दूसरे महा युद्ध से पूर्व कोरिया एक गुलाम राष्ट्र था। अमेरिका  ,रूस ,जापान और अन्य मित्र राष्ट्रों का कोरिया के अलग-अलग हिस्सों पर कब्जा था। द्वतीय युद्ध में जब सोवियत संघ ने हिटलर की सेनाओं को परास्त किया और इधर  अमेरिका ने जापान पर बम गिराकर तबाही मचाई  तब कोरिया  की आजादी की राह आसान हुई किन्तु भारतीय विभाजन की तरह उसे भी विभाजन का दंश  झेलना पड़ा।
              दरसल  अमेरिका ने बमुश्किल आधा कोरिया ही आजाद किया। उसे ही उत्तर कोरिया कहा जाता है।   जिस आधे पर आज भी अमेरिकी सेनाओं की छावनियाँ  कायम  हैं उसे दक्षिण कोरिया कहते हैं । जितना हिस्सा अमेरिका और जापान से मुक्त  हुआ वह  साम्यवादी गणतंत्र के रूप में उत्तर कोरिया कहलाया।  शीत  युद्ध के दौरान 'सोवियत  संघ' और चीन ने उत्तर कोरिया की जनवादी क्रांति का बचाव कियाथा । उधर दक्षिण कोरिया में  अमेरिकी फौजों का अड्डा होने के कारण ,वहाँ  पूँजीवादी लोकतंत्र  प्रचारित किया जाता  रहा। शीत  युद्ध की समाप्ति और सोवियत  संघ के बिघटन उपरांत अब अमेरिका की शह पर दक्षिण कोरिया और चीन की शह  पर उत्तर कोरिया एक दूसरे  के खिलाफ लगातार शत्रुता का भाव रखे हुए हैं। चूँकि दोनों कोरिया के अलग-अलग  सरपरस्त हैं, अमेरिका और चीन ये  दोनों ही संयुक्त राष्ट्र संघ में वीटो धारक हैं, इसलिए इस क्षेत्र में  अभी भी शीत  युद्ध कायम है।  इसके वावजूद वहाँ शक्ति संतुलन भी  कायम है।

                                सरसरी तौर पर  भारत -पाकिस्तान  की दशा-दुर्दशा  उत्तर -दक्षिण कोरिया जैसी ही दिखती है । किन्तु  वास्तव में  वैसी है नहीं।  काश स्थति  कम से कम ऐंसी  ही होती तो  भी गनीमत होती !  पाकिस्तान के सर पर तो अमरीका का हाथ सदैव ही  रहा है। लेकिन भारत को अमेरिका ने कभी भी अच्छी नजर से नहीं  देखा। उधर चीन भी  भारत को अपना चिर प्रतिदव्न्दी या सनातन शत्रु  मानकर कई  वर्षों से  लगातार भारत विरोधी धतकर्मों में जुटा  हुआ है। इसी कारण  वह पाकिस्तान का 'गॉडफादर' बना हुआ है। वह  पाकिस्तान  के कंधे पर बन्दूक रखकर  भारत को परेशान करने में लगा रहता है।  आतंकी और साम्प्रदायिकता के अंधकूप  में भारत को धकेलने और  भारत को दक्षिण एशिया में मित्रविहीन करने में चीन पाकिस्तान की मैत्री सफल रही है। सीपीएम सहित  दुनिया की अन्य विरादराना  पार्टियों को भी चीन की इस बेजा  खामी का खामियाजा भुगतना पड़ा है। चीन  के कामरेडों को भारत के मजदूरों-किसानों की रंचमात्र चिंता नहीं है। यदि होती तो  वे बदनाम हाफिज सईद और लखवी जैसे आतंकियों के संदर्भ में पाकिस्तान की वकालत नहीं करते।  भारत में अर्धसामन्ती-अर्धपूंजीवादी निजाम के  सत्तारूढ़ दलों और  नेताओं ने भी कभी चीन के साथ कोई अनैतिक आचरण नहीं किया। हमेशा दोस्ती की  ही वकालत की।  भारत के साम्यवादियों ने तो  हमेशा ही चीन और पाकिस्तान सहित सारे 'विश्व सर्वहारा' से मैत्री की कामना  ही की है। बदले में चीन और पाकिस्तान ने घृणा का प्रतिदान ही किया है।

                 शायद भारत  की किस्मत  में चीन का अविश्वाश ही बदा  है। भारत की तकदीर उत्तर कोरिया जैसी नहीं है। काश भारत को भी किसी वैश्विक शक्ति  की मैत्री उपलब्ध होती ! काश  भारत को भी  चीन का ''दिल'' से  समर्थन हासिल  होता ! ऐंसा नहीं है कि  भारतीय नेताओं ने कोई कोशिश ही नहीं की। पं नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित, कृष्ण मेनन ,नम्बूदिरीपाद, हरकिसन सुरजीत , राजीव गांधी ,अटलजी और अब नरेंद्र मोदी सहित अन्य भारतीय नेताओं  ने  भी चीन  के आगे अपना दिल खोलकर रख दिया है । किन्तु  माओ से लेकर शी जिन पिंग  तक हर नेता ने हर  बार  भारत को  निराश ही किया है।
                 साम्यवादी हमसोच के बरक्स   व्यक्तिगत रूप से मुझे चीन से हमेशा उम्मीद रही है कि  वह भारत के मजदूरों-किसानों  की दुर्दशा  को समझे और भारत की राह में कांटे न  बिछाये।  भारत में भी चीन के प्रति अविश्वास और घृणा कम नहीं है. किन्तु  भारत के मीडिया ने या यहाँ की पूँजीवादी  सरकारों ने चीन  की महान  सर्वहारा क्रांति के खिलाफ कोई शब्द भी उच्चरित किया है तो हमने  उसका डटकर प्रतिवाद किया है।  किन्तु तिब्बत  में चीन की स्थति और कश्मीर में पाकिस्तान की  स्थति के बरक्स मुझे  चीन के कामरेडों से भी शिकायत है।  यह जग जाहिर है कि चीनी  नेताओं ने कभी  भी  भारत के नेताओं से सीधे मुँह बात  नहीं की। बल्कि  कभी  सियाचीन ,कभी अरुणाचल ,कभी लद्दाख ,कभी मैकमोहन और कभी 'पीओके' में अपनी  अवैध  घुसपैठ और दादागिरी के तेवर ही दिखाए हैं । भारत के अंधराष्ट्रवादी और चीन के साम्राज्य्वादी दोनों ही एक जैसे हैं। पता नहीं कि दोनों और के अन्तर्राष्ट्रीयतावादी खामोश क्यों हैं?

कुदरत ने पाकिस्तान को तीन नेमतें बख्शी  हैं। उसे दुनिया के तमाम इस्लामिक राष्ट्रों का विना शर्त समर्थन हासिल है । उसे अमेरिकन साम्रज्यवाद का   भरपूर समर्थन हासिल है।  उसे चीन का अंध समर्थन हासिल है। जबकि भारत आज 'मित्रविहीन' है। अतीत में उसका  एकमात्र विश्वसनीय मित्र  जरूर था ,किन्तु वह महान  'सोवियत संघ'  कब का  बिखर चूका है।बचा खुचा रूसी फेडरेशन भारत का  औपचारिक मित्र तो अभीभी है ,किन्तु वो क्या खाक  हमारी मदद  करेगा जो खुद संकटग्रस्त है।

                कहने का  तातपर्य यह है कि  भारत भले ही दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हो ,भले ही बड़ा महान सांस्कृतिक समृद्धि और अतीत के गौरव का गान करने वाला हो।  भले ही बहुत बड़ा योगीराज हो ,किन्तु जमीनी हकीकत यह है कि आज 'संयुक्त राष्ट्रसंघ' में  भारत का कोई भी मित्र नहीं है। राजीव गांधी ,नरसिम्हाराव और  डॉ मनमोहनसिंह ने अमेरिका को  भारत के नजदीक लाने की पुरजोर कोशिशें की ,साष्टांग दंडवत किये किन्तु   वे सफल नहीं हुए। अटलजी भी फ़ैल ही रहे। मोदी जी की कोशिशों का नतीजा  क्या होगा ये तो  भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है।   सचाई यही है कि भारत के नेताओं ने  अपना दिल-दिमाग सब कुछ चीन के सामने खोलकर रख दिया  है ,पाकिस्तान से भी तहेदिल से मित्रता की तजबीज करते हैं ,किन्तु पता नहीं क्यों  बदले में  भारत को चीन और पाकिस्तान  से केवल  कुटिल  मुस्कान  ही  क्यों मिल रहीं हैं ?
                                         अमेरिकन सम्राज्य्वाद  ने पाकिस्तान को जितने हथियार ,बंदूकें  और गोल बारूद दिया है  उसका इस्तेमाल पाकिस्तानी सेनाओं द्वारा न केवल  भारत के खिलाफ बल्कि पाकिस्तान की निरीह  सिंधी ,बलूच  ,पख्तून और हिन्दू-क्रिश्चियन माइनर्टीज के खिलाफ  भी हुआ है।  चीन जो हथियार पाकिस्तान को दे रहा है उससे  पाकिस्तान के मजदूरों -किसानों और  जम्हूरियत को भी खतरा है। चीन  द्वारा पाकिस्तान के आतंकियों को और उसकी नापाक सेनाओं को दिए जा रहे हथियारों से  भारत के अम्बानी-अडानी जैसे बड़े  - बड़े  पूँजीपतियों को नहीं बल्कि भारतीय सर्वहारा वर्ग को ही  खतरा है।  क्या चीन के आधुनिक कामरेडों को यह नहीं मालूम  कि भारत के  जो तमाम प्रगतिशील -जनवादी और  वामपंथी हैं वे जिस  शोषण अन्याय से लड़ रहे हैं उसे  चीनी क्रांति  के समर्थन  की दरकार है ?  चीनी नेता जब भारत के खिलाफ रणनीति तय करते हैं तो क्या उन्हें यह सब नहीं सूझता ?  क्या चीन यही चाहता कि भारत के युवा भी उत्तर कोरिया के युवाओं की तरह  एक दिन रामलीला मैदान पर लाखों की तादाद में एकजुट होकर पाक प्रायोजित आतंकवाद  और  चीनी विस्तारवाद के खिलाफ  भी नारे लगाएं ? यदि  साम्यवादी उत्तर कोरिया को 'राष्ट्रवाद' प्यारा है ,यदि चीन की कम्युनिस्ट  पार्टी को राष्ट्रवाद की खुमारी है तो भारत के मजदूर-किसान क्या अकेले ही अंतर्रष्ट्रीयतावाद का झंडा लहराते रहें ?  क्या अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का ठेका  सिर्फ भारतीय वामपंथ ने ले रखा है ?

वेशक यदि अमेरिका या चीन में से कोई एक भी ईमानदारी से  भारत के  साथ  होता या सोवियत संघ ही कायम रहता  तो  भी भारत के लिए गनीमत होती । तब शायद चीन यूएनओ में भारत के खिलाफ पाकिस्तान का उग्र बगलगीर नहीं हो पाता। तब चीन की शह पर पाक  प्रशिक्षित आतंकी इतना न इतराते।   हो सकता है कि  मेरा यह आकलन उन लोगों को न सुहाए जो जरा  ज्यादा ही वर्ग चेतना से लेस हैं। लेकिन यह कटु सत्य है कि  मेरा  आकलन  चीन-पाकिस्तान से घृणा प्रेरित नहीं बल्कि यथार्थ के धरातल पर पत्थर की लकीर है।  हम जानते हैं  कि भारत -पाकिस्तान भी कोरिया की तरह ही  एक ही जमीन के दो टुकड़े हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कोरिया के दोनों भागों पर एक-एक महाशक्ति  का वरदहस्त है। जबकि इधर  पाकिस्तान का सरपरस्त तो अमेरिका पहले से  ही  है. अब चीन भी शिद्द्त से उसकी सरपरस्ती में मुस्तैद है। अब मित्रविहीन भारत को केवल  अपनी  लोकतान्त्रिक साख का ही भरोसा है। पूँजीपतियों और साम्प्रदायिक उन्मादियों के कारण ही भारत आज  चौतरफा संकटों से घिरा है। मित्र विहीन  भारत होने के कारक भी ये ही हैं।

सितमंबर में  होने जा रही संयुक ट्रेड यूनियन हड़ताल  में देश के मेहनतकशों को चाहिए कि अपनी तमाम पूर्व    निर्धारित  मांगों के अलावा  भी वे पाकिस्तान व चीन के नापाक गठजोड़  के खिलाफ भी विश्व सर्वहारा वर्ग का ध्यान आकर्षण  करें । सिर्फ अमेरिकन सम्राज्य्वाद के खिलाफ नारे लगाना  पर्याप्त नहीं है। सिर्फ पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद या देश के अंदर साम्प्रदायिक उन्माद की मुखालफत करना ही अभीष्टनहीं है बल्कि उससे भी ज्यादा  खतरनाक चीन  -पाकिस्तान प्रयोजित षडयंतों  का प्रतिकार भी जरुरी है ! विभिन्न कारणों से विश्व की कम्यूनिस्ट पार्टियों के मतभेद जग जाहिर हैं। यदि भारत और  चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों  या नेता  एक दूसरे   से नाराज होते हैं तो होते रहें। कुर्बानी का ठेका सिर्फ  भारत के मेहनतकशों ने नहीं ले रखा।  यदि चीन  के नेताओं को इतना बड़ा भूभाग होते हुए भी तसल्ली नहीं है ,तो  उसके ही लगभग बराबर की पापुलेशन वाले भारत को क्या इतना  भी हक नहीं कि  बचे-खुचे ,आधे-अधूरे भारत की अखंडता और सीमाओं की भी सुरक्षा सुनिश्चित करे ? यदि देश ही न होगा तो  काहे का साम्यवाद और काहे की क्रान्ति ? वेशक साम्यवाद  का दर्शन  एक कालजयी और सम्पूर्ण मानवीय विचारधारा है।  यह मानवता के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन वैज्ञानिक विचारधारा है।  किन्तु  इस विचारधारा का दुरूपयोग करने वाले भी सर्वहारा के शत्रु हैं। फिर  चाहे  वे चीनी हो या पाकिस्तानी हों या हिन्दुस्तानी हों ! वतनपरस्ती किसी एक की बपौती नहीं है।

                                    श्रीराम तिवारी 

सोमवार, 29 जून 2015

नीति न सिद्धांत न जनतंत्र -गणतंत्र !




      घर से तो  निकले थे बारात लेकर ,अनजाने जनाजे में क्यों आ गए हम ?

      होगा  कबीलों में जंगल का क़ानून ,उसी के मुहाने पर क्यों रम  गए हम।।


      सत्ता में बैठे हैं  पूँजी के  मालिक , श्रेष्ठि   सामंत  श्रम शोषण हारी  ,

      फंडा  नहीं जहाँ  नीति -अनीति का ,  खरामा- खरामा  उधर  आ  गए  हम।


     रेपिस्ट पा रहे जब  न्यायिक सदाशयता , गुनहगार को फिर डर क्या किसी का?

    लग रही है जिधर  दाँव  पर पांचाली ,    शकुनि  के  उस जुआ घर  आ गए हम।


    नहीं है जहाँ कदर  मूल्यों की कोई  ,  न नीति न सिद्धांत न जनतंत्र -गणतंत्र ,

    अनजान  दुर्गम बहशी भयावह ,   उस अँधेरी  सुरंग  में क्यों आ गए हम ?


                                                           :-श्रीराम तिवारी :-


  

  

   

        

    

ललित मोदी काण्ड से भी ज्यादा भयावह और जघन्य है गवाहों का मारा जाना।



   इस दौर में जितने पत्रकार मारे गए हैं उतने आपातकाल में भी नहीं मारे गए होंगे। बदनाम आसाराम रेपकांड में  लगभग आधा दर्जन गवाह कत्ल किये जा चुके हैं। इससे  भी ज्यादा भयावह स्थति 'व्यापम' के गवाहों की है।  इस अब तक २३ गवाह मारे जा चुके हैं।   इन हत्याओं  के लिए प्रशासनिक  तौर  पर असफलता के लिए जिम्मेदार लोग  यदि खुद ही व्यापम जैसे कांडों में लिप्त हों तो जनता की जबाबदेही क्या होनी  चाहिए ? जिन तत्वों  का इन हत्याओं से वास्ता  है यदि  वे स्वयं ही राज्यसत्ता पर काबिज हों, मीडिया और जनता के सामने - योगासन की बगुलाभक्ति में  में लीन  हों तो इस दुरावस्था  को आपातकाल क्यों नहीं  मान लिया जाए ? वेशक  ललितगेट  और हवाला काण्ड के दोषियों  से सत्ताधारियों की नजदीकियाँ   भी जग जाहिर हैं। इस संदर्भ में  सर्वोच्च  सत्ता का  मौन  क्या सावित  करता है ?  वेशक उस कुख्यात  ललित मोदी से  सत्तारूढ़  भाजपा  नेत्रियों की   नजदीकियाँ   नितांत  देशद्रोह पूर्ण  हैं  ? लेकिन इस  ललित लीला से भी ज्यादा  भयावह  और  जघन्य  है अपराध जगत को नंगा करने वाले  विसिलब्लोवर और गवाहों का  मारा जाना।   अपराधियों  द्वारा रोज-रोज  अपने जघन्य पापों को छिपाने के लिए  पत्रकारों और गवाहों का  मारा जा  रहा है  !' अली बाबा ' के चालीस चोर क़त्ल किये जा रहे हैं और वे खुद मौन हैं।  किसी  लोकतान्त्रिक गणराज्य की  यदि यह स्थिति है तो इंदिराजी का आपातकाल उतना बुरा नहीं था।
                                                                           श्रीराम तिवारी  

रविवार, 28 जून 2015

छद्मवेश सत्ता धारी का ,कब समझेगी जन- वैदेही ?



        चाल -चरित्र -चेहरे की कालिख , साबुन से धुल न पाएगी।

        बड़बोले - बकरों  की अम्मा  ,  सदा न  खैर  मना पाएगी ?


        खर-दूषण  निशिचर भगनी हों ,राक्षस कुल की सूर्पनखायें ,

        लोकतंत्र की पंचवटी में ,  मृगया काम न आयगी। 


        छद्मवेश सत्ता धारी का ,कब  समझेगी  जन- वैदेही ?

        तनी हुई है भृकुटि काल की  ,लंकाकाण्ड करवाएगी  ।


        पूंजीवाद और धर्मान्धता , रावण -कुम्भकरण जैसे ,

        जब इनके अच्छे दिन आये , तो  क्यों न  विपदा आएगी ?


                          श्रीराम तिवारी



        


      

       

      

                
           श्रीराम तिवारी 

गुरुवार, 25 जून 2015

गुलगुले खाने वालों को कोई हक नहीं कि गुड खाने का निषेध करें !



 विगत एक वर्ष में  'संघ परिवार' और मोदी सरकार का  केवल आर्थिक मामलों में ही कांग्रेसीकरण नहीं हुआ,  बल्कि  तथाकथित साम्प्रदायिक और जातीय  'तुष्टिकरण' की नीति का भी उन्होंने जोरदार  नव उदारीकरण  किया  है। इस क्षेत्र में तो 'मोदी सरकार ने कांग्रेस के भी कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए हैं। वेशक कांग्रेस ने आजादी के बाद सर्वाधिक समय तक देश पर राज किया है। उसने  सत्ता प्राप्ति के लिए और सत्ता में  बने रहने के लिए   बहुत सारे अवांछनीय समझोते भी किये हैं। वोट के लिए विभिन्न वर्गों-अल्पसंख्यकों,सहित अगड़ा-पिछड़ा और दलित का भी खूब  भारत मिलाप  किया है। वेशक देश की जनता ने  कांग्रेस को अभी केंद्र की सत्ता से  बाहर किया है। किन्तु  उसकी वजह  उसकी  तथाकथित तुष्टिकरण  नीति नहीं है बल्कि महँगाई  भृष्टाचार  , अण्णा -राम देव और भाजपाइयों का दुष्प्रचार ही प्रमुख रहा है।

 साम्प्रदायिक और जातीय तुष्टिकरण सिर्फ काग्रेस  ने ही नहीं किया  बल्कि सपा, वसपा, ममता,पासवान,  लालू ,नीतीश,अकाली,शिवसेना इत्यादि  सभी ने अपनी-अपनी  सुविधा और उपलब्धता के अनुसार विभिन्न सम्प्रदायों और जातियों के वोटों का भरपूर स्वार्थमय  तुष्टिकरण किया है।  लेकिन कांग्रेस सहित इन सभी गैर भाजपा दलों ने जितना  भी तुष्टिकरण किया होगा ,उससे कई गुना तुष्टिकरण विगत एक साल में अकेले  मोदी सरकार  ने कर दिखाया । यह मूल्यांकन देश की प्रबुद्ध जनता को करना है कि इस तुष्टिकरण के निहतार्थ क्या हैं ?जो लोग गुलगुले खा रहे हैं वे ओरों को गुड खाने से मना कैसे कर सकते हैं ? यह सौ फीसदी सत्य है कि  जब तक जातीय , साम्प्रदायिक  और भाषायी -क्षेत्रीय आधार पर वोटिंग होती रहेगी तब तक  भारत का लोकतंत्र अधूरा ही रहेगा। अभी तो यह धनबल बाहुबल और जातीय-साम्प्रदायिक तुष्टिकरण  का 'बनाना' तंत्र ही  है।

                    विगत लोक सभा चुनाव की  बम्फर सफलता से बौराये एनडीए नेता अब यूपी -बिहार में भी उसी जातीय तुष्टिकरण के लिए कूट रचना में व्यस्त हैं। जीतनराम,पासवान और कुशवाहा जैसे  दलित नेताओं को भाजपा के साथ एनडीए में लाकर लालू-नीतीश की जातीय युति का  खौफनाक प्रतिस्पर्धी कुम्भकरण जगाया जा रहा है।  मोदी प्रेरित  और अमित शाह अभिनीत  तौर  तरीके बता रहे हैं कि  आइन्दा भी  बिहार -यूपी ही नहीं बल्कि पूरे देश में जातीतवाद और सम्प्रदायवाद का यही सिलसिला जारी रहेगा। जो लोग मोदी जी पर या उनकी सरकार  पर हिन्दुत्वादी होने का आरोप  लगा रहे हैं वे गलतफहमी में हैं । जो लोग मोदी सरकार से  ये उम्मीद लगाये  बैठे हैं कि इस सरकार के रहते भारत में 'हिन्दुपदपादशाही'  के  दिन बहुरेंगे  वे  घोर अज्ञानी हैं।मोदी सरकार के राज में एक ओर  अडानी-अम्बानी जैसे फलेंगे -फूलेंगे तो दूसरी ओर  जातीयता-साम्प्रदायिकता का उन्माद  भी बढ़ता रहेगा । वे कांग्रेस को कोसते रहेंगे और आचरण में तथाकथित भृष्ट कांग्रेस का ही अनुसरण  भी करते रहेंगे। यह अपवित्र कर्म  वे स्वेच्छा से नहीं बल्कि इस नापाक सिस्टम के स्टेक होलडर्स  के दवाव में करते रहेंगे। 
                             
                                       भारत की जनता जब तक वर्तमान अधोगामी सिस्टम पर  हल्ला नहीं बोलती ,जब तक  इस पूँजीवाद  प्रेरित आर्थिक नीति पर हल्ला नहीं बोलती ,जब तक जागरूक जनता जाति -मजहब और खाप से परे  'वर्ग संघर्ष' का बिगुल नहीं  बजाती ,तब तक जातीय,साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की कालिख को  कोई नहीं मिटा सकता।  नमो भी नहीं !
                                                              श्रीराम तिवारी 

सार्वजनिक जीवन में शुचिता और अपरिग्रह ! ये दोनों ही चीजें भाजपा और कांग्रेस के शब्दकोश में नहीं हैं।

 इंदौर नगर निगम पर २० साल से भाजपा का कब्जा है । बीस साल से यहाँ भाजपा का ही महापौर है। इंदौर की सांसद  सुमित्रा महाजन  लोक सभा अध्यक्ष हैं।  यहाँ एक कांग्रेस का और  सात विधायक भाजपा के हैं।यहाँ के नेता कैलाश विजयवर्गीय भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री हो गए हैं।  मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है। देश में अर्थात केंद्र में भी भाजपा की ही  सरकार है। तो जब टॉप टू  वाटम सब कुछ भगवा ही भगवा है, जब चारों और योग-ही योग है ,तो  सत्ता के स्वाद  की खातिर  जेल भी भगवा  ही क्यों जा रहे हैं ? विरोधी पक्ष वाला तो वैसे भी 'संघी आतंक' से आक्रान्त है। वो क्या खाक ऐसा कुछ करेगा कि  जेल जाना पड़े ? मालवा तरफ के दो  बड़े   भाजपा नेता तो योग करने के  तुरंत बाद सीधे बैकुंठधाम चले गए।
              इस इक्कीस जून को जब मोदी जी राजपथ पर योग कर रहे थे तब  इंदौर में  भी  लगभग पौने दो लाख लोगों ने एकसाथ और अलग-अलग योगाभ्यास किया। संघ परिवार और उसके अनुषंगी भाजपाई नेता भी शुभ्र वस्त्र धारण कर इन योगार्थियों की अग्रिम पंक्ति में  शोभायमान हो रहे थे। अगले दिन अखवारों में मय  फोटो और खबर के साथ देखा कि नगर भाजपा के दर्जन भर नेता ,कार्यकर्ता,पार्षद, एमआईसी सदस्य ,राजस्व प्रभारी -सबके सब किसी  पुरातन 'महान घपले' में शामिल होने की वजह से जेल के सींकचों में शिद्दत से बंद कर दिए गए   हैं ।  जिस किसी को मेरे कथन की  सचाई पर संदेह हो वो इन्दौर की जेल में जाकर खुद  हथेली लगा ले !

अब लाख  टके  का सवाल ये है कि यहाँ  'सलमान खान 'फार्मूला या  जय ललिता अम्मा वाला फार्मूला  फिट क्यों नहीं हो पाया  है? हालाँकि  यह सवाल आसाराम एंड संस ने भी उठाया है। किन्तु जिन्हे जबाब देना है वे तो खुद ही जेल की तरफ खिचे चले जा  रहे हैं। खबर है कि कुछ बड़ी  भाजपाई नेत्रियाँ  भी जेल में योग अभ्यास की पूर्व  रहसल कर रहीं हैं। सत्तारूढ़ भाजपा  नेताओं की इन  'जेल यात्रा ' में किसी विदेशी ताकत का हाथ हो तो वो ही जाने। वैसे  महायोगी   बलात्कारी आसाराम  या  उसका परमभक्त सुब्रमण्यम स्वामी  भी  बता सकता है।

   इस आलेख के प्रस्तुतिकरण  का उद्देश्य संकटग्रस्त  भाजपा  नेताओं की खिल्ली उड़ाना  नहीं है। वैसे भी इन भाजपा नेताओं से अपनी भी  बहुत पुरानी पहचान है। वे कितने बड़े हिन्दुत्ववादी हैं या  कितने बड़े योगी हैं यह मुझसे ज्यादा वे खुद भी नहीं जानते। यहाँ मेरा मकसद योग की आलोचना या प्रशंसा भी  नहीं है। इसे  लिखने से पहले में स्वयं ही  यह घोषणा करता हूँ कि मेरा मकसद इन संकटग्रस्त भाजपा  नेताओं और उनके बरक्स   योग की महत्ता कम करना कतई  नहीं है।योगियों का उपहास उड़ाना तो  रंचमात्र नहीं है।मैं भी अन्य सभी की तरह यथासम्भव योग करने की कोशिश करता रहा हूँ। मैं  प्रधानमंत्री  श्री नरेंद्र  मोदी जी के अंतर्राष्ट्रीय योग कार्यक्रम का तहेदिल से  समर्थन किया है ।  किन्तु मेरा मानना है  कि किसी जीवंत व्यक्ति , समाज, कौम तथा राष्ट्र के लिए  'और भी गम हैं जमाने में इस योग के सिवा '! उससे भी महत्वपूर्ण है सार्वजनिक जीवन में शुचिता और अपरिग्रह ! ये दोनों ही चीजें भाजपा और कांग्रेस के शब्दकोश में नहीं हैं।ये दोनों ही पैसे वालों के गुलाम हैं।
    
      यदि दुनिया चैन से ही  न रहने दे तो उसके लिए योग-भोग का क्या कीजियेगा ? जब किसी व्यक्ति के लिए रहने-खाने और सुरक्षा का ही  कोई ठिकाना न हो तो वो  योग का क्या अचार  डालेगा ?  वैसे भी जब आसाराम एंड सन और  भाजपा नेता  सभी सहज योगी ही हैं  तो जेल क्यों जा रहे हैं ?और नहीं करने वाले मजाक उड़ा रहे हैं। जोलोग सिर्फ फेस बुक और विभिन्न सूचना माध्यमों  के ही गुलाम नहीं हैं बल्कि कुछ अपनी भी वैचारिक  मेधा शक्ति  जागृत रखते हैं वे  कपटी मुनि नहीं बन सकते। वे   किसी  दुश्चरित्र शासक या नेता के चाल चरित्र और चेहरे को छिपाने में अपना दामन दागदार कदापि नहीं बनाएंगे। किन्तु जो टुच्चे ,चापलूस और बगलगीर हैं वे  सुब्रमण्यम स्वामी की तरह जेल में बंद आसाराम या  इन भाजपाई नेताओं के पीछे किसी 'विदेशी 'ताकत का हाथ ढूंढने लग जाएंगे। वकील का काला  कोट भी पहनकर पैरवी भी  करने लग जाएंगे।

        श्रीराम तिवारी


हमारे दुश्मन षड्यंत्रों में सफल हो रहे हैं और हम  केवल अपनी योग कला में आत्ममुग्ध हैं।

  
                       वैसे भी यह सौ फीसदी सही है कि  इस उपमहाद्वीप में सदियों से 'योग' की महिमा गाई जाती रही है। लेकिन यह भी अकाट्य सत्य है कि जब से इस पुरातन योग विद्या को 'नाटक नौटंकी' में रूपांतरित किया जाने लगा तभी से यह राष्ट्र  गुलाम ही होता आ रहा  है। यक्ष प्रश्न की तरह सवाल आज भी मौजूद है कि सिर्फ  'लोम-विलोम' या  शीर्षशासन लगाने से  क्या  चीन पाकिस्तान गौ हो जायंगे ? इस तरह से उनकी नापाक हरकतों का मुकाबला कैसे किया जा सकता है  ? हमारे  प्रधानमंत्री जी अपने सवा सौ करोड़ देशवासियों के साथ  जब 'लोम-विलोम' में लींन थे  तब उधर 'संयुक्त  राष्ट्र संघ ' में अकेला  हाफिज सईद ही  हम पर  व्यक्तिशः भारी पड़ रहा  था। जब हमारे इतने बड़े महान योगी प्रधानमंत्री है तो हमारा यह ढपोरशंखी योग वहाँ  किसी काम क्यों नहीं आया  ? जबकि  योग के विरोधी और भारत के दुश्मन पाकिस्तान और चीन के संयुक्त वरदहस्त  से  मुंबई बिस्फोट काण्ड का दोषी  हाफिज सईद अभी भी सही -सलामत है !हमारे दुश्मन षड्यंत्रों में सफल हो रहे हैं और हम  केवल अपनी योग कला में आत्ममुग्ध हैं।

 बहुत संभव है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर भारतीय पक्षकार की अपरिपक्व कूटनीतिक तैयारियों और लचर प्रस्ताव के चलते ही भारत को  इस तरह से नीचे देखना पड़ा हो !  जो भी हो लेकिन यह पक्की बात है कि हमारे लोह पुरुष प्रधानमंत्री मोदी जी के राज में भी   कुख्यात  जकीउर्रहमान लखवी मामले में ही नहीं बल्कि हाफिज सईद और दाऊद  इब्राहीम मामले में भी  भारत की अब तक केवल किरकिरी ही  अवश्य हुई है। विगत कुछ दिन पहले जब भारत ने  यूएनओ में  पाकिस्तान से स्पष्टीकरण  मांगने विषयक प्रस्ताव रखा तो हमारे विदेश  मंत्री  और  प्रधानमंत्री को  यह क्यों नहीं सूझा कि पाकिस्तान के खैरखुआह  भी चुप नहीं बैठेंगे। चीन ने   जब हमारे प्रस्ताव को वीटो कर दिया है तो भारत के  सत्तारूढ़ नेतत्व  की  कूटनीतिक असफलता ही उसके लिए उत्तरदायी  होगी न ! हमारे नेता या तो 'आप' के डिग्री वाले तोमर को निपटाने में व्यस्त  हैं या मीडिया में सरकारी धन से अपने  अनकिये अवदान को महिमामंडित करने में मस्त हैं। उन्हें यह इल्म ही नहीं है कि  केवल चीन-पाकिस्तान को गरियाने से ,भारतीय विपक्ष को गरियाने से या योग-भोग  की आत्मतुष्टि से इस देश की सुरक्षा संभव नहीं है !
                        यह सर्वविदित है कि  चीन -पाकिस्तान  और अन्य ईर्षालु पड़ोसियों द्वारा न केवल सुदूर - उत्तरपूर्व  के अलगाववादियों को प्रश्रय दिया जा रहा है,  बल्कि कश्मीर,पंजाब और आसाम में भी विध्वंशक गतिविधियाँ तेज कर दींगयीं  हैं।  अब तो  पाकिस्तान की ओर  से  चीन ने  भी भारत विरोधी मोर्चा संभाल लिया है। यूएनओ में  अलगाववादियों और आतंकियों को पनाह देना शुरू कर दिया है। कहने का अभिप्राय यह है  कि पाकिस्तान और चीन  ने  तो भारत को  घेरने और  परेशान करने का पक्का इंतजाम कर लिया  है।  लेकिन हमारी तैयारियाँ  क्या हैं ?  हमारे  रक्षा मंत्री कहते हैं  की 'चूँकि भारत की  सेनाओं ने ४० साल से कोई युद्ध  ही नहीं लड़ा इसलिए हमारी सेना सीमाओं पर असफल हो रही है'। इसीलिये   हमारी ठुकाई हो रही है।  जब मीडिया ने इस बयान पर एतराज किया तो मंत्री जो बोले ' आइन्दा मीडिया को ६ महीना कोई बयान ही नहीं दूंगा '! जो नेता कभी योग दिवस ,कभी गंगा आरती ,कभी मंदिर विवाद कभी कुम्भ मेला और कभी भृष्ट भगोड़े  ललित-मोदियों -हवाला कारोबारियों को बचाने में लगे हैं , वे  ही नेता हमारी भारतीय फौजों की वीरता पर भी   प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं।  विचित्र   बात यह है कि  इस का खंडन या प्रतिवाद  न तो पीएम  ने किया और न ही किसी भाजपा  प्रवक्ता ने किया।  राष्ट्रवाद के स्वयंभू अलमबरदार 'संघ'  के नेताओं ने भी मनोहर परिकर  के इस  शर्मनाक बयांन  का कहीं कोई प्रतिवाद  नहीं किया।

  बारीकी से जांच -परख करने वालों का अनुभव है कि 'योग' में अवस्थित व्यक्ति अक्सर ओवरकॉन्फिडेंस  का शिकार भी  हो जाया करता है। योग करने वाले  पौरुष ,दाहिर सेन ,हेमचंद, राणा  सांगा जैसे  वीरगति को प्राप्त होते चले गए।  जबकि योग नहीं करने वाले सिकंदर ,मुहम्मद -बिन-कासिम,गजनवी, गौरी ,तैमूरलंग  ,बाबर इत्यादि  खूँखार भोगी यवन - 'मलेच्छ ' दनादन  भारत भूमि को रौंदते चले गए। न केवल ये यवन -मलेच्छ बल्कि 'श्वेत पर्भु' अंग्रेज भी हमारे  भारतीय  अतीत  का मानमर्दन ही करते रहे। ये  वाक्यात यह सिद्ध करते हैं कि इस अध्यात्म,योग और दैवी उपासना के बरक्स व्यक्ति विशेष ही नहीं बल्कि  पूरा भारतीय उपमहाद्वीप ही    बौराया हुआ था।  अपने भौतिक संसाधनों से ज्यादा उसे अपनी आत्मा-परमात्मा वाली योग शक्ति पर कुछ   ज्यादा  ही आत्मविश्वाश  रहा है।  शायद  भारतीयों [हिन्दुओं ] की तमाम पराजयों का यही कारण भी रहा है।

 भगवान  परशुराम बड़े महायोगी' थे। उन्हें राम-लक्ष्मण जैसे वाचाल  युद्दोन्मत्त धनुर्धर युवाओं द्वारा  राजा जनक की भरी सभा में अपमानित किया गया । जबकि राजा जनक स्वयं 'योगीराज विदेह ' कहलाते थे। उनकी पुत्री के स्वयंवर  में सादर आमंत्रित 'योगी'  परशुराम का सिर्फ यह अपराध था कि  उन्होंने अपने  गुरु 'महायोगी'  शिव के धनुष भंजन किये जाने पर एतराज जताया था। उनके 'योग' और उनकी तपस्या की  ऐसी-तैसी करते हुए ,बेइज्जत  करते हुए  उनके ही मतनुआइयों ने ठीक   वही किया जो मोदी जी किये जा। कहीं  परशुराम की ही तरह [स्वर्गीय] दत्तोपंत ठेंगडी ,गोविंदाचार्य ,बाघेला , केशु भाई ,आडवाणी  संजय जोशी ,मुरलीमनोहर जोशी  भी  बड़े बेआबरू होकर  गुमनामी के अँधेरे  में नहीं धकेल दिए गए हैं ?  कहीं इन सबको अयोग्य सावित करने की मशक्क़त का नाम ही  तो 'राजयोग'  नहीं है ?

                                        श्रीराम तिवारी
                                                      

  चार  योगिनी  बड़ीं -बड़ीं।
            
 योग न भावे घणी -घणी।।

  सत्ता खातिर   नमो-नमो,

  अब प्यारा है मनी -मनी ।



 

रविवार, 21 जून 2015

योगीराज होने के वावजूद हर प्रतियोगिता की पदक तालिका में हम अंतिम पायदान पर क्यों होते हैं



    विश्व विख्यात  योग दिवस सानंद समपन्न हुआ। इस अवसर पर शिद्द्त से  योग कार्यक्रम में शामिल होने  वाले सभी भारतीयों को और संसार के तमाम योग साधकों -समर्थकों को बधाई ! इस अभूतपूर्व आयोजन की पूर्व पीठिका  लिखने वाले हमारे अनन्य  योगनिष्ठ प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को विशेष साधुवाद ! मैंने बचपन में ही  कहीं पढ़ा था कि जहाँ योग है वहाँ योगेश्वर  भगवान श्रीकृष्ण स्वयं मौजूद रहते हैं. और विजयश्री भी  वहीँ विराजती है। यह योग भी वहीँ सफल  होता है। जहाँ झूंठ-कपट -पाखंड न हो ! जहाँ  धनलोलुपता नहीं हो। जहाँ ओरों का शोषण नहीं हो !जहाँ परनिंदा  नहीं हो ! जहाँ किसी के प्रति घृणा नहीं हो !जहाँ  राग-द्वेष नहीं हो !
                                                          लेकिन बड़े  दुःख की बात है कि इस २१ जून के रोज जो लोग इस योग  कार्यक्रम की अगुवाई कर रहे थे उन्होंने 'योगशास्त्र' के किसी एक सूत्र का भी पालन नहीं किया। स्वामी रामदेव और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी वेशक कुछ परिमार्जित तो हुए हैं. किन्तु कांग्रेस या विपक्ष या भाजपा के ही चंद   वरिष्ठों के प्रति उनका घृणा का भाव उन्हें योगी कहलाने से रोकता है। भारतीय नेतत्व की इन्ही खामियों की बदौलत जब डॉ हेडगेवार की जयंती पर दुनिया भर में  सारा 'संघ परिवार' और उनका असोसिएट -भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद- राजपथ से योगपथ में तब्दील हो रहा था ,तब भारतीय क्रिकेट टीम उन बांग्लादेशी 'बच्चों 'से पिट रही थी। जो अभी तक इस योग का  अ ब स या  ककहरा भी नहीं जानते। वैसे तो हमें अपनी इस विद्द्या पर बड़ा नाज  है कि हमारे ही ऋषि और पूर्वज  इस अद्भुत कला  के मूर्धन्य आविष्कारक  थे। वेशक वे बड़े योग विशारद  हुए होंगे ! किन्तु इस दौर की पीढ़ी अर्थात उन महानतम योगियों के वंशज  अब केवल ढपोरशंख ही क्यों बजाये चले जा रहे हैं ?
              गोकि आप की योग साधना  विश्व वंदनीय हैं। किन्तु जब एक अदने से बांग्ला  देश की नौसिखिया क्रिकेट टीम - जो रामदेव जैसा योग - कोहली -धोनी जैसा भोग  कुछ नहीं जानती वो बांग्ला देशी टीम हमारे महानतम योगीपुत्रों को  -भारतीय टीम  को यदि लतियाये जा रही हो ,माँन मर्दन किये जा रही हो तो  भारतीय योगियों और  नेताओं को अपनी कथनी-करनी पर  पुनर्विचार  अवश्य करना चाहिए ।

    चाहे कोई कॉमनवेल्थ गेम हो ,चाहे ओलम्पिक हो ,फीफा वर्ल्ड कप हो या एशियन गेम्स हों ,बड़े योगीराज होने के वावजूद  हम भारतीय हर प्रतियोगिता  की  पदक तालिका में अंतिम पायदान पर क्यों  होते हैं ?यदि हमारे योग की इतनी बड़ी महिमा है,तो  हर ओलम्पिक में , हर राष्ट्रमंडलीय खेल प्रतियोगिता में , यहां तक की एशियाड में भी हमारे भारतीय खिलाडियों को एक-दो स्वर्ण पदकों के लिए ही एड़ी- चोटी का जोर क्यों लगाना पड़ता है ? दो-चार कांसे के टुकड़ों को पाकर ही हमारा सीना ५६ इंच का क्यों  होने लगता है? जबकि तथाकथित  योग नहीं  जानने या मानने वाले -चीन,अमेरिका,जापान,रूस,ब्रिटेन जर्मनी,फ़्रांस ,कोरिया इत्यादि सैकड़ों स्वर्ण पदक पाकर भी आत्मतुष्ट  नहीं होते !
                     हमारे देश के कुछ दाढ़ीधारी और  कुछ भगवाधारी अपने  ज्ञान-ध्यान और योग का अनावश्यक   गोरखधंधा  अपने कंधे  पर लादे-लादे दुनिया  भर में घूम फिर रहे हैं । इसी ज्ञान के अहंकार और योग के दम्भ का  नतीजा है कि विभिन्न वैश्विक प्रतिस्पर्धाओं में हमारे भारतीय खिलाड़ी अब  उजवेगिस्तान , मंगोलिया , कजाकिस्तान या ईरान से भी प्रतिस्पर्धा में मात खा जाते हैं। लगता  है कि हमारा योग शौर्य  केवल पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को चिढ़ाने  भर के लिए है ?  विगत क्रिकेट विश्व कप में हमारे खिलाड़ी कौन सा योग कर रहे थे  यह कोहली और अनुष्का शर्मा जैसे योगी अच्छी तरह जानते हैं।

                             आधुनिक विज्ञान और  योग को समझने वाले स्वामी विवेकानंद कहा करते थे कि योग के   मार्ग में मिथ्या भाषण बड़ी बिघ्न बाधा है। मुझे याद है कि विगत एक वर्ष पहले ही योग गुरु स्वामी रामदेव ने और खुद योगिराज श्रीमान नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में बताया था कि  स्विट्ज़रलैण्ड बैंकों  में भारतीय चोट्टों  ने कालेधन के रूप में लाखों करोड़ रूपये जमा कर रखे हैं। उन्होंने तो उस रकम का बटवारा भी कर दिया था कि  हम[मोदी सरकार]  यदि सत्ता में आये तो हरेक के खाते में १५ लाख रूपये जमा करेंगे। बड़े खेद की बात है कि  खोदा पहाड़ निकली चुहिया। स्विस सरकार ने पहली बार पूर्ण आंकड़े घोषित किये हैं। उनके पास दुनिया के ६३ देशों की  कुल जमा  रकम १६०० अरब डॉलर याने १०२४०० अरब रूपये मात्र  हैं। इस  कालेधन की रकम में  भी    भारत  का  हिस्सा मात्र ०. १२३ है। याने रूपये की शक्ल में मात्र १२६१५ करोड़ रूपये ही भारत का कालधन के रूप में जमा है। इस बदनाम चोट्टा  सूची में भी भारत महा फिसड्डी है। यहाँ भी वह ६१ वें स्थान पर है। याने दुनिया के ६०  देशों के चोट्टे -यहाँ भारत के चोट्टों से  बाजी मार गए। स्विस सूची में तो  भारत के कालेधन वाले अंतिम पायदान से  सिर्फ दो  राष्ट्रों के  ही ऊपर  हैं। उस पर भी लुब्बो-लुआब ये है कि कालेधन की इस चोट्टाई में भी हम खेलों की पदक तालिका जैसे  ही फिसड्डी  निकले ।चुनाव में जनता को बरगलाने के लिए जिस झूंठ का सहारा लिया गया वो योग के लिए मुफीद नहीं हो सकता !

                          बड़ी अजीब स्थिति है कि जो लोग योग का प्रचार -प्रसार करते हैं वे ही महा झूंठ और पाखंड के शिकार हैं।सत्ता में आने के बावजूद भी ये झूंठी वयान बाजी करने वाले लोग, आइन्दा यदि योग को बदनाम न करते  हुए, चीन-जापान-कोरिया  की तरह अपने भारतीय खिलाडियों को कुछ बेहतर सुविधाएँ और टिप्स देंतो ही बेहतर होगा।  ताकि वे आगामी ओलम्पिक में और कॉमनवेल्थ गेम्स में भी, भारत का नाम  पदक तालिका में  सबसे ऊपर  ले जा सकें।  तभी ये  दुनिया वाले आपके 'योग' का लोहा मानेगे । वैसे भी  बिना सत्य ,अहिंसा अस्तेय , अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के कोई भी योग नहीं  सधता। शारीरिक कसरत को योगविद्द्या का नाम देने  , उसको भी केवल किसी नेता या  समाज सुधारक के जन्मदिन पर जश्न जैसा दिन मना लेने के निहतार्थ तब तक सकारात्मक नहीं हो सकते ,जब तक भारत में धर्म ,मजहब ,खेल और  संस्कृति को राजनैतिक पाखंड  से मुक्त नहीं किए जाता।
                    
                                     श्रीराम तिवारी    
 

शुक्रवार, 19 जून 2015

चेहरा चाल चरित्र , भूल गए पाकर सत्ता !


     सत्ता मनमानी करे ,सिस्टम हो बदहाल ।

     आडवाणी जी कह रहे, यही है आफतकाल।।

     यही है आफतकाल ,  मोदीमय मौसम हुआ ।

    सुषमा का सानिध्य ,महाभृष्ट उपकृत हुआ ।।

     चर्चित  मोदीगेट, दिखाता  वसुंधरा  हत्ता ।

    चेहरा चाल  चरित्र ,  भूले ये  पाकर सत्ता ।। 


                    श्रीराम तिवारी

   

बुधवार, 17 जून 2015

कुछ मंत्री -मुख्यमंत्री इस देश को चूना लगाये जा रहे हैं।


    वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति  कम-ज्यादा गलतफहमी का शिकार हुआ करता है। लेकिन मुझे कुछ  ज्यादा   ही गलतफहमियां घेरे रहती हैं। हालाँकि वक्त का  कुहाँसा  छटने पर मैं स्वयं ही अपनी समझ-बूझ का तिया -पाँचा
करने में भी देर नहीं करता।विगत लोक सभा चुनाव से पूर्व चल रहे चुनाव अभियान में मुझे गलत फहमी हुई कि
भाजपा नीत  एनडीए गठबंधन को बमुश्किल बहुमत मिलेगा। अतः अन्य दलों के समर्थन की दरकार होगी । मुझे गलतफहमी थी कि  मोदी जी के नाम पर बाहरी समर्थन जुटाना मुश्किल होगा ,अतएव राजनाथसिंह या सुषमा स्वराज में से कोई भी  प्रधानमंत्री बन सकता है। चुनाव परिणाम में जब एनडीए को २८२ सांसदों का प्रचंड बहुमत मिला और नरेंद्र मोदी की झोली में जब राजनैतिक आंधी के बेर झर  पड़े तो मेरी वो गलतफहमी  भी दूर  हो गयी। यूपीए के दौरान नेता प्रतिपक्ष के रूप में शुषमा स्वराज की धर्मनिरपेक्ष और समन्वयात्मक छवि  की गलतफहमी मेरे अलावा कइयों को थी। नरेंद्र मोदी की गुजरात वाली इमेज के बरक्स सुषमा स्वराज कीपुरानी   आपातकाल वाली समाजवादी छवि मुझे एहसास दिलाती थी कि  "सुषमा इस बेटर देन नमो' । मेरी यह मासूम  गलतफहमी भी तब दूर हुई जब मुझे  जब पता चला कि  सुषमा जी तो वर्षों से सपरिवार  एक भगोड़े देशद्रोही ललित मोदी  की 'पारिवारिक मित्र' हैं ।
                                          मुझे गलतफहमी थी कि  नरेंद्र मोदी तो हिटलर ,मुसोलनि,नादिरशाह या स्टालिन जैसी  शख्शियत के हैं। मुझे गलतफहमी थी कि  वे बड़े निरंकुश -आत्मविश्वाशी और सर्वज्ञ हैं। उनकी इच्छा के बिना  कोई मंत्री तो क्या संत्री भी पर नहीं मार सकता। मुझे गलतफहमी थी कि  नरेंद्र मोदी की पूरे राजनैतिक परिदृश्य पर मजबूत पकड़ है। उन्होंने सभी को काबू में कर रखा है। मेरी ये गलतफहमियां भी दूर हो गयीं जब पता चला कि भारत के प्रधानमंत्री को तो ये भी नहीं मालूम कि  पीएमओ ने एक साल में क्या काम किया ? वे  तो  देश और दुनिया में घूम-घूमकर विकास,सुशासन और योग का सिर्फ डंका  ही बजाये जा  रहे हैं  जबकि उनके ही कुछ मंत्री -मुख्यमंत्री इस देश को चूना लगाये जा  रहे हैं। 

       जब यूपीए के दौरान कोई  घोटाला उजागर होता था तो मोदी जी से ज्यादा तेज आवाज सुषमा जी की हुआ करती थी। कई बार तो वे मनमोहन सरकार को संकट में देख नाची भी। अब उनके 'सतकर्म' पर 'नमो' का मौन मनमोहन के मौन पर  भारी पड़ रहा है।मोदी सरकार के मंत्री सुषमा -वसुंधरा -ललित मोदी गेट व्  व्यापम जैसे अनेक घोटालों  के  बचाव  में कांग्रेस के पापों को बार-बार गिनाकर  कब तक जस्टीफाइड  करते रहेंगे ?

                                           

मैग्नाकार्टा 'संधि की ८०० वीं सालगिरह पर लोकशाही को नमन।


विगत रविवार को ब्रिटेन के कुछ लोकतंत्रवादियों ने ८०० वाँ 'मैग्नाकार्टा संधि दिवस' मनाया। इस मैग्नाकार्टा संधि के इतिहास ,लोकतंत्र के क्रमिक विकास या ततसंबंधी संबद्धता पर  ब्रिटेन की लोकतंत्र समर्थक जनता को बड़ा अभिमान रहा है। हालाँकि राजतन्त्र समर्थकों की वहाँ  कभी कमी नहीं रही। अभी  भी यदि एक ढूढो तो सौ मिल जायंगें। जैसे की भारत में इस इक्कीसवीं शताब्दी में भी कुछ लोग -सामंतवादी खंडहरों के मलबे  के ढेर में अतीत का काल्पनिक स्वर्णयुग ढूँडने के लिए हलकान हुए जा रहे हैं। वे यह कदापि मानने को तैयार नहीं हैं कि  आज जिस भारतीय संविधान की सौगंध खाकर राजयोग -भोग रहे हैं वह ब्रिटिश संविधान के मूल सिद्धांतों की उत्तर मीमांसा मात्र है। इस ब्रिटिश संविधान का  अवतरण  भी किसी दैविक आकाशवाणी या चमत्कार से नहीं हुआ ।  बल्कि 'विश्वविख्यात मैग्नाकार्टा संधि में निहित 'जनतंत्रीय सूत्रों' की छाँव में ब्रिटेन की प्रगतिशील  - लोकतान्त्रिक जनता ने शताब्दियों में इसका महत सम्पादन किया है।   

 संसार में  मानवीय सभ्यता -संस्कृति -विकाश और सर्वागीण ज्ञान को सूत्रबद्ध किये जाने की परम्परा जितनी  पुरानी है। उसे परिभाषित किये जाने और लोकार्पित किये जाने  के अलग-अलग दृष्टिकोण भी उतने ही पुरातन हैं। हरेक  देश में ,हरेक कबीले में ,हरेक खाप-गोत्र में ,हरेक दौर के प्रगतिशील समाज में -सदा से पृथक-पृथक  दृष्टिकोण  विद्यमान रहे हैं। अपने पूर्वजों  की शिक्षाओं पर अपने अतीत के इतिहास की अवधारणाओं पर भी हमेशा अलग-अलग दृष्टिकोण विद्यमान रहे हैं।वैसे रामराज्य जैसी लोक कल्याणकारी अवधारणा - भारतीय उपमहाद्वीप में  भी वैचारिक और सांस्कृतिक रूप से  सदियों से विद्यमान  थी।किन्तु इसमें निहित  निरंकुश  सामंतशाही और स्वछंद - राजतंत्र ने अपने आप को भगवान का स्वरूप घोषित कर रखा था। पुरोहित वर्ग ने  राज्यसत्ता को ईश्वरीय आभा प्रदान कर  शोषण का  'अमानवीय स्वभाव' बना डाला था । लिखित क़ानून के रूप में यदि  भारतीय  हिन्दू सामंतों के पास 'मनुस्मृति' थी  तो  लुटेरे तुर्क -पठानों -मुगलों के पास  उनकी  व्यक्तिगत 'सनक '  के अलावा कुछ नहीं था। इन राजाओं-नबाबों-सामंतों का शब्द्घोष ही संविधान हुआ करता था । जब अंग्रेज इत्यादि यूरोपियन भारतीय उपमहाद्वीप में आये तब यहाँ की प्रबुद्ध जनता ने जाना की जनतंत्र - लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है ?
                                 आज हमारे पास जो सम्विधान है वह  ब्रिटिश लोकतंत्र और उसके संविधान की अनुकृति मात्र है। वेशक उसमें मुस्लिम पर्सनल ला ,हिन्दू कोड विल एवं  जातीय आरक्षण इत्यादि कुछ अमेंडमेंट किये गए हैं. किन्तु  संसदीय लोकतंत्र व् उसके  जन प्रतिनिधत्व कानून समेत सभी  विधान इत्यादि  न केवल भारत में  बल्कि  राष्ट्रमंडल के सभी  [भूतपूर्व गुलाम राष्ट्रों ] देशों में यथावत चलन में हैं। वेशक इन सभी  राष्ट्रों को   इन अंग्रेजों ने  खूब लूटा। किन्तु इन 'गुनाहों के देवताओं' ने  जाते-जाते  इन तमाम गुलाम राष्ट्रों को लोकतंत्र और उसका  संविधान देकर उपकृत भी किया है।  न केवल लोकतान्त्रिक व्यवस्था और संविधान बल्कि साइंस एंड टेक्नालजी भी दी।

         यह सुविदित है कि  पाश्चात्य भौतिक ,वैज्ञानिक व्  कानूनी शिक्षाओं ने गुलाम भारत के तत्कालीन जन-मानस को राष्ट्रीय आजादी और लोकतंत्र का आकांक्षी बनाया।  हमारे अमर शहीदों और स्वाधीनता सेनानियों में से अधिकांस विलायत रिटर्न हुआ करते थे।वहाँ उन्होंने अमेरिका ,फ़्रांस,सोवियतसंघ ,चीन क्यूबा ,वियतनाम में सम्पन्न हुई क्रांतियों का अध्यन भी  किया। जब स्वदेश लौटे तो विभिन्न किस्म की पूंजीवादी व् साम्यवादी  क्रांतियों  को आधार बनाकर आजादी की लड़ाई में कूंद  पड़े। तत्कालीन अधिकांस युवाओं को ब्रिटेन के पूंजीवादी लोकतंत्र ने अधिक आकर्षित किया। इसीलिये  स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों में भी उसी की अनुगूँज सुनाई पड़ी । यदि भारत के नेता  बाल गंगाधर तिलक के साथ चलते तो देश में वोल्शेविक क्रांति हो जाती। तब  भगतसिंह इत्यादि के सपनों का भारत बनता। तब भारत का संविधान कुछ और होता। शायद चीन  की  तरह।

 लेकिन गांधी -नेहरू के आदर्श पर चलकर   हमारे नेताओं ने ब्रिटिश संविधान के  अधिकांस मूल तत्वों को  ही  यथावत अंगीकृत किया।  भारतीय संसद ने भी इसे यथावत  राष्ट्रीय आचरण बना लिया । आज हम जिस  भारतीय सम्विधान के तहत शासित हैं , जिस सांस्कृतिक  बहुलतावाद पर गर्व करते हैं।  जिस  धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक  गणराज्य   पर गर्व करते हैं ,उसकी प्रेरणा का आधार ब्रिटेन का लोकतंत्र और उसका सम्विधान ही है। ब्रिटेन का संविधान यदि विश्व लोकतंत्र का जनक है तो  'मैग्नाकार्टासंधि' उसकी भी पर-पर दादी अम्मा  है। इसीलिये  इस मैग्नाकार्टा 'संधि की ८०० वीं सालगिरह पर लोकशाही को नमन। चूँकि भारत के बहुलतावादी  समाज में  साम्प्रदायिक और जातीय  मतभेद भी है और  इस मतभेद की जन्मदात्री भी वही इंग्लिस्तानी अम्मा ही  है। फिर भी ब्रिटेन को  लोकतान्त्रिक अधिकारवाद का जनक तो हम कह ही सकते हैं। अतएव जो लोकशाही का जनक हो उसे हेय दृष्टि  से क्यों देखा जाए ?

                             भारत जैसे गुलाम राष्ट्रों का  दृष्टिकोण  यह रहा  है कि जो कुछ भी पूर्वजों ने सिद्धांत स्थापित किये हैं ,उन्हें जस का तस मानकर उसके प्रति भक्तिभाव रखते हुए अपनी समकालीन निजी और सामूहिक सोच  - समझ  को संकीर्णता में बांध लिया जाए।   उस पौराणिक या प्रागैतिहासिक समझ-बूझ को सर्वकालिक मानकर , ब्रह्म वाक्य मानकर ,अंतिम सत्य  मानकर -अतीत  का शरणम गच्छामि हो जाना।  यदि उन्हें बताया गया है कि  मनुष्य मात्र तो 'आदम और हौआ' की संतान हैं। यह किसी के  पूर्वजों ने लिख दिया कि सारे-के -सारे मरे हुए मनुष्य कयामत के रोज अपंने -अपने कर्मों का दण्ड  या  इनाम  पाएंगे तो वे इस स्थापना को मृत्युपर्यन्त 'मरे हुए बंदरिया के बच्चे'   की मानिंद छाती से लगाये हुए खुद अतीत को प्यारी  होते चले जायंगे। इसके लिए उन्हें यदि'जेहाद' करना पड़े तो भी वे पीछे नहीं  हटेंगे। वे यह सुनने या समझने को कदापि तैयार नहीं कि  उनके इस तथाकथित सार्वभौम सिद्धांत को चीन,भारत ,अमेरिका ,जापान ,जर्मनी और इंग्लैंड जैसे राष्ट्रों की सुसंस्कृत और  सभ्य जनता क्यों नहीं मानती ?

 जिनके  पूर्वज लिख गये हैं कि  सृष्टि का निर्माण -पालन और संहार विष्णुपुराण के अनुसार ही हुआ है। वे सृष्टि के विस्तार का कारण -विष्णु की नाभि  को मानकर चले जा रहे हैं। विष्णु की नाभि से कमल -कमल  से ब्रह्मा और ब्रह्मा से मनु-सतरूपा हुए हैं और उन्ही से यह सब संसार समृद्ध हुआ है। इस कपोलकल्पित सिद्धांत की रक्षा के लिए इसके अनुयायी पवित्र  'धर्मयुद्ध' का एलान भी कर  सकते हैं।  उनके पास इसका कोई जबाब नहीं कि  उनके इस सारभौम 'सृष्टि सिद्धांत'को  यूरोप  , आस्ट्रलिया  कनाडा  ,जापान,अमेरिका और तमाम मुस्लिम जगत  क्यों नहीं मानता ?

 जिनका  दृष्टिकोण यह रहा है कि "वर्तमान पीढ़ी अपने पूर्वजों से ज्यादा समझदार और सृजनशील है " ।  इस सोच वालों की  नजर में अतीत  के इंसान की सोच का  सब कुछ स्याह ही स्याह  है।  इस  सोच के लोग अपने आप को वैज्ञानिक- भौतिकवादी और तर्कवादी मानते हैं । इस अवधारणा  का अनुशीलन करने वाले  चाहे  डार्विन के विकाशवाद  को मानते हों ,चाहे वैज्ञानिक भौतिकवादी  सृष्टि रचना सिद्धांत को मानते हों , चाहे वे दुनिया  भर  में हो रहे वैज्ञानिक अनुसंधान के  पैरोकार हों -सभी को अतीत का चिंतन ,सृजन या दृष्टिकोण पुरातनपंथी -दकियानूसी  लगता है।  उन्हें तो   इतिहास में भी 'मिथ' और पुरातन मानवीय  मूल्यों में  सिर्फ पाखंड नजर आता है।वे यह भूल जाते हैं कि  वे  'मैग्नाकार्टा संधि ' की तरह सनातन काल प्रवाह की धारा  के एक विशेष खंड या हिस्सा मात्र हैं। वे यह भूल जाते हैं कि  अतीत के इंसान ने जब आग का आविष्कार किया,जब पहिये का आविष्कार किया ,जब गिरी-कंदराओं और पर्वतों पर भव्य निर्माण किये हैं तो कुछ तो उसका भी साइंटिफिक होगा ?यदि अतीत का सब कुछ भ्रामक ,मन गणन्त  है तो   फिर  इस  ८०० साल पुराने  मैग्नाकार्टा के डीएनए से क्यों चिपके हुए हैं?
                 बिजली ,टेलीफोन ,इंटरनेट ,रेल कम्प्यूटर और टीवी कहाँ से आते ? क्या आरबिल और बिल्वर राइट के  खटारा नुमा पुरातन उड़नखटोले  के आविष्कृत हुए बिना आज के सुपरसोनिक विमान या ड्रोन विमान सम्भव थे ?उपरोक्त दोनों  विपरीत दृष्टिकोण और  स्थापनाओं  के बरक्स हर नयी पीढ़ी,अपने आपको पहले से बेहतर होने का भरम पालती हैं। प्रत्येक दौर  का इंसान अपने से पूर्ववर्ती पीढ़ी को गया -गुजरा मानने के दम्भ में यह भूल जाता है की आइन्दा उसके सिद्धांत और नियम भी उसकी भावी पीढ़ियों के दवारा कूड़ेदान में फेंक दिए जाने वाले हैं !
                     इसी तरह न केवल विकासवादी ,न केवल वैज्ञानिक भौतिक वादी बल्कि   अध्यात्म वादी   भी अपनी-अपनी स्थापनाओं में अधूरे और खंडित हैं। सत्य यही है कि मैग्नाकार्टासंधि  मील का पथ्थर मात्र है।
                
                            श्रीराम तिवारी 

रविवार, 14 जून 2015

फेस बुक और गूगल से ,इंटरनेट की शोभा है !

     'संघ- कुल' रीत सदा चलि आई।

     धनवानों  की करत   सेवकाई।।

     दाग जब  मनी  लॉंड्रिंग लागा।

     मोदी  ललित  वतन  से भागा ।।

     मोदी  -मोदी     भाई  - भाई।

     सुषमा बहिन ने प्रीत निभाई।।

     ई डी  ढूंड  रहा  है  जिसको।

     शासक बचा रहे हैं उसको।।

    अब अण्णा  क्यों चुप है भाई।

    क्यों सत्य न्याय की शामत आई।।


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वाद से प्रतिवाद की ,प्रतिवाद से वाद की ,

वाद और प्रतिवाद से ,संवाद की शोभा है।

संघर्ष से एकता की ,एकता से संघर्ष की ,

संघर्ष और एकता से ,क्रान्ति की शोभा है।।

बलिदान से लहू की ,लहू से बलिदान की ,

बलिदान और लहू से ,लाल झंडे की शोभा है।

शोषण से दमन की ,दमन से शोषण की ,

शोषण और दमन से ,गुलामी की शोभा है।।

श्रम  से पूँजी की ,पूँजी से श्रम  की ,

श्रम  और पूँजी से ,पूँजीवाद की शोभा है।

पूंजीवाद से विषमता की ,विषमता से पूंजीवाद की ,

विषमता और पूँजीवाद से,लुटेरों की शोभा है।। 

किसान से मजदूर की ,मजदूर से किसान की ,

किसान और मजदूर से ,उत्पादन  की शोभा है।

सत्ता से दलालों की ,दलालों से सत्ता की ,

सत्ता और दलालों से ,धन्ना सेठों की शोभा है।।

अपराधी से पुलिस की ,पुलिस से अपराधी की ,

अपराधी और पुलिस से ,थाने की शोभा है।

जज से वकील की ,वकील से जज की ,

जज और वकील से ,क़ानून की शोभा है।।

डॉ से मरीज की ,मरीज से डाक्टर की ,

डाक्टर और मरीज से अस्पताल की शोभा है।

चमचों से नेता की ,नेता से चमचों की ,

नेता और चमचों से ,जम्हूरियत की शोभा है।।

लेखक से पाठक की ,पाठक से लेखक की ,

लेखक और पाठक से ,रचना की शोभा है।

फेस बुक से गूगल की ,गूगल से फेस बुक की ,

फेस बुक और गूगल से ,इंटरनेट की शोभा है।।

 श्रीराम तिवारी    

 





       

शुक्रवार, 12 जून 2015

भारत में सरकार के कामकाज एवं नीतियों की आलोचना एक अलग बात है और सत्ता परिवर्तन एक अलग बात हो चुकी है।

 खबर है कि दिल्ली के सफाई कर्मचारी जब वेतन के लिए हड़ताल पर थे तो राहुल गांधी उन्हें सांत्वना देने जा पहुंचे।वेतन भुगतान की माँग संबंधी हड़ताल समाप्त कर सफाई कर्मचारी  हजारों की तादाद में सबसे  पहले राहुल गांधी का  शुक्रिया अदा करने  उनके आफिस गए। यह स्मरणीय है कि वेतन भुगतान भाजपा शासित महानगर परिषद की जिम्मेदारी थी। किन्तु दिल्ली में फैलती गंदगी से नाराज जनता का आक्रोश कहीं  'आप' पर न टूट पड़े इसलिए 'आप'  ने अभी तदर्थ भुगतान कर दिया है। इसके वावजूद  सफाई कर्मचारियों  ने न तो 'आप' को धन्यवाद दिया और न एलजी या भाजपा नेताओं को तबज्जो दी। कर्मचारी  काम पर गए या नहीं यह तो दिल्ली की जनता ही बता सकती है। जहाँ तक मीडिया रिपोर्ट का सवाल है  तो वहाँ अभी  'आप' के हाथों में केवल  झाड़ू है। जबकि राहुल गांधी  कर्मचारियों के हीरो बन गए हैं। भाजपा वाले मुँह बाये एक दूसरे को  इस तरह देख रहे हैं  जैसे भारतीय क्रिकेटर के द्वारा  छक्का जड़ने  पर पाकिस्तानी बॉलर और कप्तान देखते हैं।

                           किसानों, मजदूरों और शोषित -पीड़ित वर्गों के लिए इन दिनों राहुल जो कर रहे हैं ,जो बोल रहे हैं यदि वो यह सब  यूपीए -१ और यूपीए -२ के दरम्यान करते तो मोदी जी आज सत्ता में ही  न होते ! कांग्रेस का पटिया  उलाल न होता।  कुछ कांग्रेसी तो मोदी जी -भाजपा और 'आप' का शुक्रिया भी कर रहे हैं।उनका अनुमान है कि मोदी जी  के कारण ही  कांग्रेस के शीर्ष नेतत्व को इन दिनों जमीनी  हकीकत समझने लायक स्थिति पैदा हुई है ।कांग्रेस  की  मर्मान्तक पराजय के कारण ही राहुल गाँधी अब फूल टाइम वामपंथी जैसा  वेश धारण किये हुए हैं। यदि राहुल इसी तरह चलते रहे ,इसी तरह बोलते रहे तो शीघ्र ही न केवल मोदी सरकार , न केवल 'आप'    की केजरीवाल  सरकार बल्कि अन्य दलों को भी लोग इतिहास के कूड़ेदान में ढूंढते रह जायेगे। किसानों - मजदूरों  के निरंतर हित साधने वाले ,उनके हक की लड़ाई लड़ने वाले ,मेहनतकशों के हरावल दस्ता कहे जाने वाले  और सर्वहारा  वर्ग  के स्वाभाविक मित्र के रूप में  वामपंथ  को भी राहुल की इस अदा  से सावधान रहना चाहिए।  कहीं ऐंसा न हो कि  जिस तरह विगत शताब्दी के पूर्वार्ध में  ब्रिटेन में कम्युनिस्ट पार्टी की संभावनाओं को  पूँजीवादी 'लेबर पार्टी ने लील लिया ,कहीं भारत में  भी  राहुल गांधी के इस नूतन अवतार से वामपंथ को  नयी चुनौती तो नहीं मिलने जा रही है ?  जो लोग राहुल को  पप्पू समझ रहे हैं उन्हें दिल्ली के सफाई कर्मचारियों से जरूर अपनी राय  शेयर करनी  चाहिए !

   मोदी सरकार ने विगत एक वर्ष में जो कुछ  भी किया -धरा है और वह जो कुछ अभी भी किये जा रही है ,यदि  उसका सिलसिला  इसी तरह  चलता रहा तो भारत  में राजनैतिक  'तुष्टिकरण' का इतिहास और ज्यादा बदरंग होता चला जाएगा । यदि यह सरकार भी अपने पूर्ववर्तियों के नक़्शे-कदम पर चलकर राजनैतिक कदाचरण और साम्प्रदायिक तुष्टिकरण के परनाले बहाती रही तो मृतप्राय कांग्रेस का भविष्य निसंदेह उज्ज्वल है। वेशक मोदी सरकार के खिलाफ बहुत सारे आरोप लगाए जा सकते हैं। सिर्फ कांग्रेस ,वामपंथ या शेष विपक्ष ही नहीं  मीडिया का ईमानदार निष्पक्ष धड़ा और स्वयं 'संघ परिवार ' के अंदर के संजयजोशी,शत्रुध्न सिन्हा मुरली मनोहर जोशी और आडवाणी जैसे कई 'लतमर्दित' - जले -भुने  बैठे हैं। जो लोग समझते हैं कि मोदी जी ने  सभी  प्रतिदव्न्दियों को पराजित कर दिया है,वे न केवल गलतफहमी में  हैं ,बल्कि मोदी जी को  भी और ज्यादा  गफलत में डाल  रहे हैं।सवाल किया जा सकता है कि  वर्तमान  सत्तापक्ष और सरकार की चूकों से किसको फायदा होगा ? निसंदेह केवल कांग्रेस को ही सर्वाधिक लाभ होगा ! चूँकि वामपंथ का बंगाल,केरल और त्रिपुरा ही नहीं बल्कि देश में कहीं भी  भाजपा से सीधा मुकाबला नहीं है , इसीलिये भाजपा या मोदी  की असफलता का फायदा या तो कांग्रेस को मिलेगा या अन्य क्षेत्रीय दलों को।
              इसीलिये  शायद मोदी जी और उनके संगी साथी  इन दिनों  केवल राहुल गांधी और कांग्रेस  को  ही गंभीरता से ले रहे हैं। जनता दल -एमवाय एवं पिछड़ा -दलित  परिवार ,वामपंथ और अन्य क्षेत्रीय दलों के बारे में  वे कुछ खास  नहीं बोलते। फेस बुक इत्यादि आभाषी सूचना -संचार माध्यमों पर कुछ अपरिपक्व किस्म के  प्रगतिशील -वामपंथी और समाजवादी चिंतक-विचारक आँख मींचकर हर घटना और क्रिया पर अपनी सटीक  प्रतिक्रिया देते रहते हैं। हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि  वर्गीय समाज में  घटनाओं और क्रियाओं पर अपरिपक्व जनों  की अभिरुचि 'नायकवादी' हुआ करती  है। अतः कभी-कभी  हर किस्म के  अतिशय आक्रामक विरोध  के कारण धर्मनिरपेक्ष  जन समुदाय और वाम-जनवादी -लोकतांत्रिक  ताकतों के बीच दूरियाँ और ज्यादा  बढ़ती जाती हैं ! मोदी सरकार की असफलताओं और 'संघ परिवार' की साम्प्रदायिक  छवि के कारण यदि आइन्दा फिर सत्ता अपरिवर्तन होता है तो संघर्ष कारी वामपंथ या जनवादी-धर्मनिरपेक्ष ताकतों को कोई विशेष  फायदा नहीं होगा।
               इसीलिये कांग्रेस फिर सत्ता में आ जाएगी और जब कांग्रेस के पापों का घड़ा फिर से  भर जाएगा तो एनडीए या भाजपा फिर  से सत्ता  में आ जायेंगे। वायचांस यदि कभी वामपंथ समर्थित कोई तीसरा मोर्चा सत्ता  में आता भी है तो वह देवगौड़ा और चंद्रशेखर जैसा असफल होकर, देश को पुनः अतीत की भाँति कलंकित कर्,  शताब्दियों पीछे धकेल कर, फना हो जाएगा। जब  हर चुनाव में  सारी क्रांतिकारिता  धरी जाती है और जब इसी अधोगामी -पतनशील  व्यवस्था में अंतिम सांस तक  मर-मर कर जीना पड़ता है तो क्यों न इस  लोकतान्त्रिक व्यवस्था के उजले पक्ष को ही तराशा जाए ?
                                    सत्ता पक्ष  द्वारा राहुल गांधी पर जो व्यक्तिगत हमले  किये जा रहे है वह क्या सावित करता है। कांग्रेस -वामपंथ और सम्पूर्ण विपक्ष द्वारा कभी परिकर,कभी सुषमा स्वराज , कभी गडकरी पर जो   हमले किये जाते हैं उससे क्या देश में कोई जन क्रांति सम्भव है ? क्या मोदी जी किसी वामपंथी - प्रगतिशील नेता या दल के खिलाफ कभी कुछ बोले हैं ? जबकि मोदी जी के ही  निर्देश पर स्मृति ईरानी हफ्ते में तीन बार अमेठी  उड़-उड़ कर जा रही है। इसका क्या अभिप्राय हो सकता है ? जो राहुल गांधी अभी कुछ दिन पहले तक  'पप्पू' कहलाते थे ,सत्तापक्ष की आक्रामकता  से वे और ज्यादा सुर्खरू होते जा रहे है । ५६ दिन के अज्ञातवास   उपरान्त तो  'संघ परिवार' में  भी राहुल गांधी संज्ञेय हो गए है।  जब  मोदी सरकार का कांग्रेसीकरण  हो सकता है  तो  केदारनाथ में जाकर राहुल का भगवाकरण क्यों नहीं हो सकता ?   जो तुष्टिकरण कांग्रेस पर आरोपित था वो अब भाजपा और मोदी सरकार पर आरोपित क्यों नहीं हो सकता ?

                                  वर्तमान सरकार की प्रतिगामी नीतियों के परिणामस्वरूप आइन्दा  यदि मोदी सरकार के प्रति जनाक्रोश उभरता  है तो  कांग्रेस को ही  फायदा होगा। क्योंकि राष्ट्रीय विकल्प के रूप में अभी भी देश भरमें  सहजरूप से कांग्रेस ही सर्वत्र उपलब्ध है।  मीडिया और पूँजीपति  भी रंग बदलने में देर नहीं करेंगे। विगत आम  चुनाव में  जो विचारधारा विहीन  'नायकवादी' लोग  'नमो-नमो' कर रहे थे। आइन्दा  वे 'राहुल-राहुल' नहीं करेंगे इसकी क्या गारंटी है ? इसीलिये  वामपंथी विचारक -बुद्धिजीवी- कार्यकर्ता भले ही मोदी सरकार की कमजोरियो खामियों  को उजागर करते रहें, किन्तु वे हरकिस्म  के चुनावों में हर  जगह  अपना क्रांतिकारी उम्मीदवार तो  खड़ा कर नहीं सकते। यदि कहीं कोई बन्दा खड़ा कर भी दिया तो वे वर्तमान   भृष्ट और महँगी  चुनावी प्रक्रिया में उसे जिता  पाने में अभी तो समर्थ नहीं होंगे। क्योंकि  भारत की जनता में विचारधाराओं के आधार पर आदर्श मतदान की  परिपक्वता अभी भी नदारद है। अतः  देश की आवाम  मजबूर होकर  नागनाथ को छोड़कर पुनः साँपनाथ  की शरणम गच्छामि हो जाएगी।  दरशल भारत में सरकार के कामकाज एवं नीतियों की आलोचना एक अलग बात है और  सत्ता परिवर्तन एक अलग बात हो चुकी है।  वाम -जनवादी लोग  जिंदगी भर कांग्रेस के कुशासन और भृष्टाचार से लड़ते रहे  किन्तु  नतीजे में उन्हें  'मोदी सरकार'  मिली।  और यह मोदी सरकार यदि विगत एक साल वाले रास्ते पर ही चलती रही तो जनता का इससे  भी मोह भंग होने में देर नहीं लगनी है। तब वर्तमान संसदीय व्यवस्था में जनता के समक्ष पुनः कांग्रेस को चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा

                          वर्तमान सत्तारूढ़ नेतत्व  ने अपने इर्द-गिर्द एक काल्पनिक वैयक्तिक महिमा का आभामंडल  निर्मित कर  लिया है।  मोदी जी ,जेटली जी और अमित शाह की त्रयी  के अलावा किसी भी नेता ,सांसद या पार्टी पदाधिकारी के पास कुछ भी करने - कहने- सुनने को नहीं है। भीतर-भीतर मोदी विरोधियों को ठिकाने लगाने की  चालें भी किसी से छिपी नहीं हैं। ललित मोदी प्रत्यार्पण  संदर्भ में सुषमा और कश्मीर समेत पूर्वोत्तर की असफलताओं के  सन्दर्भ  में   राजनाथ सिंह को 'बेबस' दिखाकर ,क्या सावित किया जा रहा है ? वेशक भाजपा को 'पार्टी विथ डिफरेंट ' बनाने की युक्ति  अब मायने नहीं रखती। अब तो दुनिया की तथाकथित सबसे बड़ी  पार्टी  बनाने की जुगत में बोगस सदस्य भी गले की  हड्डी बन गए  हैं।

                       आर्थिक नीतियों में  जन-कल्याण की  बात तो दूर  अब तो सत्ता  के केंद्र में मूल हिन्दुत्ववादी एजेंडा भी नदारद  है। 'मोदी सरकार' के  इस बदले हुए तेवर  को जो लोग नोटिश नहीं कर रहे हैं और वे यदि  पिछलग्गू - जरखरीद  नहीं हैं तो उन्हें अपने विवेक पर  थोड़ा तरस  अवश्य  खाना चाहिए। चौतरफा मुश्किलों   और असफलताओं  के  लिए  पूँजीवादी साम्प्रदायिक सरकार समर्थक और व्यक्तिश : मोदी समर्थक  कसूरवार हैं। उतने भी ज्यादा  वे  भी   कसूरवार हैं जो बार-बार जनता के समक्ष गैर कांग्रेसी-गैरभाजपाई  विकल्प खड़ा  करने की मशक्क़त तो करते हैं  किन्तु   सत्ता मिलते ही आपस में सर फुटौव्वल करने लगते हैं। जो प्रगतिशील  वामपंथी  बुद्धिजीवी हैं , जो अपने चिंतन-लेखन -मनन से  जन-संघर्षों का  विकास करते हैं और जो व्यवस्था परिवर्तन बावत जन  बैचेनी का निर्माण  करते रहते हैं, वे भी इस दुरवस्था  लिए किंचित  कसूरवार हैं। क्योंकि वे न तो किसी को चुनाव  जिता  सकते हैं और न खुद ही कोई  चुनाव  जीत सकते हैं ।

                    मोदी जी का  कांग्रेस मुक्त भारत का नारा उनके वैयक्तिक  आचरण में ही  हवा हो रहा है। भाजपा या संघ परिवार भले ही अभी तलक 'हिंदुत्व 'की बंदरिया को छाती से लगाये घूम रहे हों। किन्तु मोदी जी ने तो जाने -अनजाने हीसही अपना भगवा चोला उतार फेंका है। वे  अपनी  ही सरकार  का चरम कांग्रेसीकरण  करते जा रहे हैं। शायद इसीलिये वे अभी भी सिर्फ कांग्रेस पर ही अपनी  तीखी जुबान चलाया करते हैं ।मनमोहनसिंह ने २० साल पहले  नरसिम्हाराव के जमाने में  जो उदारीकरण की गिनती शुरू की  थी।  उसके आगे  कुछ शून्य बढ़ाकर जेटली जी ने देश  को आर्थिक उदारीकरण  की तीव्रगामी पटरी पर जबरन धकेल दिया है। भले ही विकास दर  के कुछ आंकड़े  बढ़ाकर   बताये जा रहे हों किन्तु  वास्तविक अर्थव्यवस्था वहीं चकरघिन्नी हो रही  है। जहाँ यूपीए ने छोड़ी थी। इसीलिए रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन को  भी समझ नहीं आ रहा है कि वित्त मंत्रालय और वर्तमान  केंद्र सरकारको  भूतपूर्व यूपीए सरकार के ढर्रे पर चलने की  'जन -मनाही' के वावजूदवह   तेजी से उसी'ट्रिपल www  को  ही फॉलो क्यों कर रही है?
                       विगत एक वर्ष में  केवल आर्थिक मामलों में ही कांग्रेसीकरण नहीं हुआ बल्कि तथाकथित  'तुष्टिकरण' की नीति  का भी उदारीकरण हुआ है। इस क्षेत्र में तो 'मोदी सरकार ने  कांग्रेस के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए हैं। वेशक कांग्रेस ने आजादी के बाद सर्वाधिक समय तक देश पर राज किया है। कांग्रेस ने सत्ता प्राप्ति के लिए अवांछनीय समझोते भी किये हैं। वोट के लिए विभिन्न वर्गों-अल्पसंख्यकों,सहित अगड़ा-पिछड़ा और दलित का भी खूब जाप किया है। सिर्फ काग्रेस  ने ही नहीं सपा, वसपा ,ममता,,नीतीश,अकाली,शिवसेना इत्यादि ने भी अपनी-अपनी सुविधा और उपलब्धता के अनुसार विभिन्न सम्प्रदायों और जातियों के वोटों का  भरपूर तुष्टिकरण किया है।लेकिन कांग्रेस सहित इन सभी दलों ने जितना तुष्टिकरण किया होगा। उससे कई गुना तुष्टिकरण विगत एक साल में मोदी सरकार कर चुकी ही। उनके तौर  तरीके बता रहे हैं कि  आइन्दा यही सिलसिला जारी रहेगा। जो लोग मोदी जी या उनकी सरकार पर हिन्दुत्वादी होने का आरोप लगा रहे हैं या जो लोग मोदी सरकार से उम्मीद लिए बैठे हैं कि  ये सरकार भारत में 'हिन्दुपदपादशाही'  के 'अच्छे दिन' लाएगी वे दोनों ही घोर अज्ञानी हैं।
                      कश्मीर में जो कभी कांग्रेस या नेशनल कांफ्रेंस  ने नहीं किया ,जो कभी किसी अन्य धर्मनिरपेक्ष  सरकार ने नहीं किया , वो असल तुष्टिकरण मोदी सरकार ने  अब कर दिखाया है । राजीव गांधी ने यदि शाहवानों  केश में अल्पसंख्यक वर्ग को तुष्ट किया था तो उन्होंने दूसरी ओर  अयोध्या में हिन्दुओं को भी कुछ सहलाया था। बाबरी  'ढांचे ' में राम लला 'मंदिर के ताले भी खुलवा दिए थे। किन्तु मोदी जी तो  हिन्दुओं को छोड़ बाकी सभी को तुष्ट कर रहे हैं। उनके  सत्ता में रहते  तो छोटी बात किन्तु जब तक सूर्य चन्द्रमा और  धरती रहेगी तब तक धारा  -३७०  का कोई कुछ नहीं कर सकता। चुनाव में वोट बटोरने  के लिए मंदिर-मस्जिद विवाद  को उछालना अलग बात है। लेकिन अब मोदी जी भी  कांग्रेस या यूपीए-३ के पीएम की तरह व्यवहार क्यों  कर रहे हैं ? अब वे क्यों सोनिया गांधी की तरह अल्पसंख्यक वर्गों की ओर  झुके हैं ? जिस चुनावी राजनीति के लिए  कांग्रेस ने पर्सनल लॉ  छोड़ा,कश्मीर विवाद छोड़ा ,मंदिर विवाद छोड़ा  उसी घटिया राजनीति  के लिए मोदी जी अब र्य  सूर्य नमस्कार क्यों छोड़ रहे हैं ? क्या यह 'संघ परिवार' और स्वयंसेवकों  की संतुष्टी के लिए छोड़ रहे हैं?
 
                               ओवेसियों ,मदनियों ,देवबंदियों,बरेलियों और आलिम -उलेमाओं की  जितनी खैरख्वाह ये मोदी सरकार है , उतनी  इस देश में ओरंगजेब की सरकार भी नहीं रही। ये लव जेहाद,घर वापिसी -हिन्दुत्ववादी नारेबाजी केवल  दिखावा है। ये बहुसंख्यक हिन्दुओं  के वोट  वटोरने  का अभीष्ट मन्त्र  है।  ये अम्बानियों-अडानियों  के  एहसान चुकाने  का शुक्राना है या कांग्रेस की अल्पसंख्य्क तुष्टिकरण  नीति का नूतन अवतरण ? यदि विकास -सुशासन और 'सबका-विकाश -सबका साथ ' मोदी सरकार के नाभिकुंड में विराजमान है तो  'हिंदुत्व ' के अभुदय' का क्या  होगा ?  दरसल संघ के और पूँजीपतियों के एजेंडे को  नष्ट किये बिना देश का विकाश - सुरक्षा   असंभव है। शोषित-पीड़ित आवाम का उत्थान  भी नितांत असंम्भव है। इसीलिये जब तक जाति -मजहब और लूटतंत्र का तुष्टिकरण  जारी है ,तब तक  किसी भी क्रांति  का आगाज असंभव है।

                           श्रीराम  तिवारी
                                           

       

बुधवार, 10 जून 2015

जब योग का कहीं कोई विरोध है ही नहीं तो उसे करवाने की आक्रामक नाटकीयता क्यों ?

आजकल शुद्ध  सरकारी और उसका पिछलग्गू व्यभिचारी प्रचार तंत्र नाटकीय ढंग से योगाभ्यास के बरक्स  आक्रामक और असहिष्णु हो चला  है। दृश्य,श्रव्य ,पश्य, छप्य,डिजिटल,इलक्ट्रॉनिक ,मोबाइल  और तमाम 'प्रवचनीय' माध्यमों दवरा  बार -बार  कहा जा रहा है कि दुनिया में भारतीय योग का झंडा पहली बार  बुलंदियों को छूने वाला है।  बड़े  ही आक्रामक तरीके से यह भी  सावित करने की कोशिश की जा रही है कि जो  इसे नहीं   करेंगे वे 'हठयोगी' हैं। जबकि वे खुद मानते हैं कि अनेक गैर हिन्दू भी इस योगाभ्यास के कायल हैं।
                             यह तो जग जाहिर है कि  प्रकारांतर से दुनिया का हर जागरूक  शख्स अपनी सेहत के प्रति खुद  ही सचेत हुआ करता है।चूँकि यह योगाभ्यास मानवीय सेहत के लिए एक बेहतरीन'योग क्रिया' है साथ ही विभिन्न  रूपों में यह पहले से ही सारे संसार में प्रचलित है ,इसलिए इसको एक  खास दिन आधा -एक  घंटा  करने पर या रोज करने पर भी  कहीं कोई  विरोध नहीं है। जहाँ तक 'ॐ ' के उच्चारण का सवाल है, तो यह भी   केवल कुछ  हिन्दुओं की थाती नहीं है। वह तो भारतीय उपमहाद्वीप में सदियों से पुरातन- प्राकृत शब्द ब्रह्म का द्वेतक रहा है। इसे जैन,बौद्ध सिख और शैव -शाक्त सभी ने अपनी सुविधानुसार अपनाया है। दरसल ॐ एक  धर्मनिरपेक्ष  'शब्द ' है। यह अल्लाह के उद्घोष या उच्चारण जैसा ही  है। यह 'शब्दब्रह्म' 'हिन्दू' शब्द की व्युत्पत्ति से बहुत पूर्व का है। यह आर्यों से भी पूर्व का है।यह विश्व की धरोहर है। इसलिए जो लोग इसका विरोध   या  मजाक उड़ाते हैं वे   भीसही  नहीं  हैं ।
                    वास्तव  में  कुछ लोग सोते-जागते ,उठते बैठते केवल  विरोध की अपावन राजनीति के सिंड्रोम से पीड़ित  हैं। इसी के वशीभूत वे  इस बहुमूल्य योग का भी मजाक उड़ाते  हैं । इसी तरह जो लोग योग को  करने  - कराने  पर पागलपन की हद तक  व्याकुल हैं वे भी पाखंडी हैं। क्योंकि उनके लिए योग महत्वपूर्ण नहीं बल्कि उसके बहाने अपनी कीर्ति और प्रचार  ही महत्वपूर्ण है।ये लोग यह तो बखान  करेंगे कि द्वारकाधीश  भगवान कृष्ण बड़े योगी थे। किन्तु उनका निर्धन  मित्र सुदामा  क्यों योगी नहीं  भिखारी था ?  शायद इसका उत्तर इनके पास नहीं है ! खुद  कौरव -पांडव भी योगी नहीं थे। यदि वे  योगी  होते तो कृष्ण को गीता में अर्जुन से यह नहीं कहना पड़ता कि हे अर्जुन ! 'यह योग जो मैंने तेरे से कहा है वह बड़ा पुरातन और सीक्रेट है चूँकि तूँ मेरा अनन्य  है इसीलिये मैंने तुझे ये  योगविद्या प्रदान की है। इसीलिए -'तस्मात् योगी भवार्जुन '!
      
                                 देश और दुनिया में करोड़ों ऐंसे  हैं जो अपने बचपन से ही योगाभ्यास  करते आ रहे हैं। मैं  खुद भी  अपने स्कूली  बचपन  से ही योग -अभ्यास और शारीरिक व्यायाम करता आ रहा हूँ। इक्कीस जून  हो या वाईस या कोई और दिन मुझे  कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे तो यह आवश्यक रूप से करना ही है। जब रामदेव पैदा नहीं हुए होंगे तब भी मैं यह योगाभ्यास करता था।जब  मोदी सरकार नहीं थी तब भी मैं यह  बिलानागा  करता था । वनाच्छादित गाँवों के  खेतों में - खलिहानों में ,जंगलों में , ठंड-बरसात या गर्मीमें , कोई भी मौसम हो , कोई भी काल हो या कोई  भी अवस्था  हो ,मैं तो अल सुबह एक घंटा इस योगाभ्यास को करने की कोशिस अवश्य करता  रहा  । अब यदि केंद्र  की  मोदी सरकार यह  योग करवा रही है तो भी मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि किसी कारण से  इस सामूहिक आयोजन  वे निरस्त  भी करते  [जैसे  कि पता चला है कि खुद मोदी जी इस योगाभ्यास से पीछे हट गए हैं ] तो भी मुझे कोई समस्या नहीं है । मैं तब भी  नित्य की भाँति इस फिर   भी  करता। क्योंकि यह मेरी निजी  दिनचर्या का आवश्यक हिस्सा है। मुझे इस प्रयोजन के लिए किसी प्रकार के  राजनीतिक  पाखंड  की जरुरत नहीं है ।
                  वे चाहे 'योगी' आदित्यनाथ  जैसे बड़बोले नेता बनाम साधु हों ,योग में साम्प्रदायिकता ढूंढने वाले पक्ष-विपक्ष के पैरोकार हों या किसी खास नेता  के चमचे  हों, अपने योगाभ्यास के लिए मुझे किसी की दरकार नहीं।दुनिया के  अधिकांस गैर राजनैतिक खाते -पीते  'योगियों' का मानना है कि प्रत्येक मनुष्य के बेहतरीन जीवन के लिए 'योग क्रिया'  एक अचूक वैज्ञानिक उपादान है। यह योग-अभ्यास  एक आदर्श जीवन  शैली का उत्प्रेरक जैसा है। इसलिए  भी मैं नित्य ही उसका यथा संभव अभ्यास करता हूँ। आइन्दा आजीवन यथासम्भव  करता  भी रहूँगा। यह  महज इसलिए  नहीं कि  किसी नेता , बाबा  या शासक का तुगलकी फरमान है ! यह सिर्फ इसलिए ही नहीं कि इक्कीस जून को कैमरों के सामने किये जाने का इंतजाम है।  गरीबी ,भुखमरी ,शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ने वालों को तो  यह योग अवश्य ही करना  चाहिए। यह योगाभ्यास  बल-विवेक और आरोग्यता का खजाना है।

                     हालाँकि  मैं उनका भी विरोधी नहीं जो योग -ध्यान या प्राणायाम इत्यादि  नहीं करते। मैं उनका भी विरोधी नहीं जिन्होंने  २१ जून वाले आयोजन का बहिष्कार किया है । दरअसल इसमें  समर्थन या विरोध  का तो  सवाल नहीं  है। यह तो नितांत निजी अभिरुचि है।कुछ लोगों को गलतफहमी है कि  इस योगाभ्यास को  वैश्विक पहचान  दिलाने और प्रतीकात्मक प्रदर्शन की  शुरुआत  के लिए भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ,उनके प्रेरणा स्त्रोत स्वामी रामदेव  जिम्मेदार हैं। लेकिन  भले ही इस योग आयोजन के सार्वजनिक प्रदर्शन   के पीछे किसी की कोई  भी  मनसा  रही  हो  किन्तु अब तो  वे बधाई के पात्र तो अवश्य हैं। क्योंकि  दुनिया भर में इस भारतीय 'योग' का मान तो अवश्य  ही बढ़ा है। इस योग ने खान-पान की शैली पर भी कुछ शोध भी  किया है। इसीलिये  अब  खाते -पीते उच्च मध्यम वर्ग की चटोरी जुबाँ पर कुछ तो लगाम लगेगी। इसके अलावा  योग  करने वाला व्यक्ति  मानवीय श्रम  का कुछ महत्व भी समझेगा। चूँकि कि योग की पहली शर्त है शौच संतोष स्वाध्याय ,अतएव यदि  वह पूँजीपति है या अपराधी है  तो मेहनतकश इंसान के पसींने का कुछ तो सम्मान अवश्य करेगा !

         वैसे भी  पुरातन मनीषियों ने योगविद्द्या के रूप में संसार के शोषक वर्ग को तो अनेक  बेहतरीन तोहफे  दिये हैं  किन्तु श्रम  के सम्मान बाबत कुछ ख़ास नहीं कहा -सुना गया ! वेशक उनकी मंशा शायद यही रही होगी कि इस धरा पर जो चालू किस्म के मनुष्य होते हैं यदि वे  योगाभ्यास करते हैं या करेंगे तो वे एक दिन  नेक और  अच्छे इंसान जरूर  बनेंगे ! वशर्ते 'योग' की सही तश्वीर संसार के सामने हो। हालाँकि  भारतीय उप महाद्वीप की अधिकांस  मेधाशक्ति इसी क्षेत्र में भटकती रही है। भारतीय चिंतकों और अन्वेषकों की बिडंबना रही है कि ज्ञान-ध्यान-योग जैसी  आध्यात्मिक उड़ानों में तो बेजोड़ रहे हैं।  किन्तु  मेहनतकश आवाम-के लिए ,किसानों के लिए और आर्थिक -सामाजिक विषमता के भुक्तभोगियों के लिए उनके पास एक शब्द नहीं था। यही वजह रही है कि हजारों सालों से  भारत की आवाम के लिए  केवल हल-बैल  और मानसून ही जीवन के आधार  बने रहे हैं। जब  अंग्रेज -डच -फ्रेंच  और यूरोपियन  भारत आये तब   ही यहाँ  की जनता ने जाना कि संविधान क्या चीज   है ?   'लोकतंत्र' किस चिड़िया का नाम है ?  वरना योग  और भोग तो इस देश  की शोषणकारी ताकतों का क्रूरतम  इतिहास रहा है। 
        भारत में रेल ,मोटर,एरोप्लेन,कम्प्यूटर ,इंटरनेट,टीवी,मोबाईल ,टेलीफोन ,स्कूटर ,कार ,पेट्रोलियम ,,इंजन से लेकर सिलाई मशीन -सब कुछ इन विदेशी आक्रान्ताओं और व्यापारियों की तिजारत का कमाल  है। वरना हम भारतीयों के लिए रुद्राक्ष की माला ,त्रिशूल ,कमंडल और योग क्रिया ही  शुद्ध देशी है ।  बाकी जो कुछ भी हमारे  बदन पर है ,हमारे घर में है वो सब विदेशी है। हमारे अतीत के वैज्ञानिक चमत्कार तो केवल पुराणों और शाश्त्रों में पूजा के लिए सुरक्षित  हैं।  इसीलिये योगी आदित्यनाथ को याद रखना चाहिए कि उनके मतानुसार  'यह सन्सार माया है -ये  तमाम भौतिक संसाधन और वैज्ञानिक उपकरण  मृगतृष्णा है'। अतः उन्हें इनके साथ  -साथ राजनीति  से  भी सन्यास ले लेना चाहिये। उन्हें तो  मृगछाला और   दंड -कमंडल  सहित योग-ध्यान में लींन  रहना  चाहिए।  वे नाहक ही सांसारिक  मायामोह में अपना तथाकथित परलोक बर्बाद कर रहे हैं।

जिस तरह मानव सभ्यता के इतिहास में पश्चिमी राष्ट्रों के चिंतकों - वैज्ञानिकों ने, न केवल राष्ट्र राज्यों की अवधारणा का आविष्कार किया ,अपितु  कृषि,विज्ञान,रसायन,चिकित्सा,रणकौशल, तोप  ,बन्दूक , बारूद  सूचना एवं  संचार ,अंतरिक्ष विज्ञान और स्थापत्यकला में चहुमुखी विकास किया है। ठीक उसी तरह दुनिया की हर कौम ने , हर कबीले ने , हर देश ने, हर समाज ने -अपने 'जन समूह' को अजेय ,स्वश्थ और पराक्रमी  बनाने के लिए भी  कुछ न कुछ  सार्थक  शारीरिक व्यायामों  का भी विकाश भी  किया है। भारत  ,चीन और पूर्व के देशों के मध्य  पुरातनकाल से ही इस  शरीर सौष्ठव प्रक्रिया  का उन्नत योग के रूप में  आदान-प्रदान होता रहा है।  चीन ,जापान ,कोरिया ,थाइलैंड इत्यादि में शारीरिक पौरुष को मार्शल आर्ट- कुंग-फु- जूड़ो -कराते- ताइक्वांडो और सूमो इत्यादि में निरंतर निखार होता रहा है।इसे ही बाद में आत्म रक्षार्थ बौद्ध भिक्षुओं ने परवान चढ़ाया।

               भारतीय चिंतकों ,ऋषियों और प्राचीन  मनीषियों  ने इस शारीरिक मशक्क़त अर्थात व्यायाम  को - मानसिक  ,लौकिक,दैविक,पारलौकिक और आध्यात्मिक आवेगों के साथ संबद्ध  कर 'योग' में रूपांतरित कर दिया । उनके मतानुसार मानव  शरीर को महज बंदरों ,भालुओं  की तरह  उछल-कूंद कराने मात्र से ही यह योग  सिद्ध नहीं किया जा सकता। उन्होंने सूर्योदय के समय शुद्द आबोहवा में प्राणवायु को ठीक से पहचाना। पेड़ों की पत्तियों पर आपतित  प्रातःकालीन सूर्य रश्मियों से क्ल्रोफिल क्रिया और उससे उतपन्न  आक्सीजन का ज्ञान  भले ही पतंजलि को न रहा हो किन्तु  प्राणवायु का महत्व तो वे जरूर वे जानते थे।  यदि उन्होंने दो हजार वर्ष पूर्व यह पता लगा लिया कि  यह धरती 'सूर्य'की परिक्रमा करती है और इसका जन्म भी सूर्य से  ही हुआ है अतः  सूर्य को नित्य  शुक्रिया अदा करने में के गलत है ?  इससे तो मनुष्य में कृतग्यता का ही भाव आता है ! इससे  आराधक का  ऊर्जावान होना भी स्वाभाविक है ।

      इसी तरह से इस्लामिक जगत में  भी यदि सूर्योदय से  पहले की नमाज का महत्व है और उसका प्रयोजन   इसी तरह से आंका गया  है की सुबह जल्दी उठो और अल्लाह को उसकी नेमतों का शुक्रिया अदा करो। जब कोई   व्यक्ति सुबह जल्दी उठेगा  और शरीर -मन -प्राण की  शक्ति संचित करेगा तो उसमें सूर्य का कुछ तो एहसान होगा। इसके अलावा वजू या नमाज  की मुद्राएँ हों , पंचकर्म या सूर्य नमस्कार की मुद्राएँ हों , यदि ध्यान से देखें तो सभी में वही खास तत्व उभयनिष्ठ है ,जिसकी  हर नेक इंसान को शिद्द्त से जरुरत है।इसीलिये  सूर्य नमस्कार का विरोध करना या योग का विरोध करना उतना ही बड़ा गुनाह  है जितना कि योगी आदित्यनाथ ने -योग  नहीं करने वालों को समुद्र में डूबने का अभिशाप देकर किया है।

                                        बिना सूर्य नमस्कार के बचे-खुचे शारीरिक श्रम को यदि योग कहा जाए तो यह 'योग ' का तिरस्कार है। स्वामी रामदेव और श्री  नरेंद्र मोदी आज जिसे योग बता रहे हैं वह भी  केवल 'मर्कट नर्तन' मात्र है। भीषण गर्मी ,कड़कड़ाती  ठण्ड में भूंखे-नंगे आदिवासियों को ,बारह महीना खेतों में काम करने वाले किसानों, फैक्ट्रियों-कारखानों  में  तथा निर्माण क्षेत्र में पसीना बहा रहे मजदूरों को इस यह  २१ जून की नौटंकी में शामिल  होने की फुर्सत कहाँ ? उन्हें तो योग भी किसी तपश्या से  कम नहीं। भूंखे  भजन न होय गोपाला। इसलिए इस   निर्धन सर्वहारा वर्ग के लिए  अपनी आजीविका के अलावा किसी भी 'योग' -भोग की अभिलाषा नहीं है। वह अपने खून पसीने से तमाम उत्पादन और सृजन साकार करते हुए ही नित्य ही 'सहज योग' करता रहता है ,यदि मोदी जी द्वारा आहूत कार्यक्रम [योग] से  उसे  दो-जून की सूखी रोटी  भी नसीब हो जाएतो वह अभिनंदनीय है। अन्यथा  उसके श्रम  को किसी  योग या भोग  की नहीं अपितु  न्यूनतम मजदूरी तथा  किंचित पोषित आहार  - रोटी-कपड़ा और मकान की  ही दरकार है।

      पुरातनकाल से ही यह तथाकथित 'योग' अपने बुनियादी स्वरूप में -शारीरिक व्यायाम के रूप में  पहले  फौजियों- सेनानियों के लिए अनिवार्य था। सामंतयुग में  इन्द्र्जालिकों ने, गोरखपंथियों ने ,चंद्रकांता संतति  जैसे  नटविद्द्या - मोहनी विद्या में माहिर जासूसों ने योग को  चमत्कारिकता प्रदान की। लेकिन वास्तविक योगियों ने   इस तरह की पाशविक शक्ति अर्जन को 'योग' नहीं 'तामसी कर्म ' कहा है। इसी तरह केवल अपने  निजी निहित स्वार्थ के निमित्त  किये गए अष्टांगयोग -यम  नियम ,आसन ,प्रत्याहार ,प्राणायम ,ध्यान , धारणा और समाधि  को  भी  योग नहीं कहा जा सकता। केवल लोम-विलोम ,भस्त्रिका,कपालभाती ,अग्निसार या भ्रामरी  प्राणायाम  को भी योग नहीं है। ये सभी प्रयोजन तो 'योग' के निम्नतर क्रमिक  सोपान हैं। वास्तविक योग के विषय में तो स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण का कथन है कि  :-

           तपस्विभ्योSधिको  योगी ,ज्ञानिभ्योSपि  मतोSधिक :।

          कर्मिभ्यश्चाधिको योगी ,तस्मात् योगी भवार्जुन।।

                                                                                               --श्रीमद्भगवद्गीता  अध्याय-६ ,श्लोक -४६

भावार्थ स्पष्ट है कि योग के मार्ग में आडंबर ,पाखंड ,दिखावा ,राजनैतिक  निहित स्वार्थ इत्यादि बाधाओं  करना जरुरी है। जब तपश्वी, ज्ञानी और कर्मशील भी योगी  के समक्ष बौने हैं तो जो रोज सुबह से शाम झूँठ बोलने वाले क्या ख़ाक योग समझते होंगे ? यदि उनका अभिप्राय  केवल शारीरिक श्रम से है और यदि उनके मन-मष्तिष्क  में तमोगुण कूट -कूट कर भरा  है तो इक्कीस जून को हो या जिंदगी भर,उनका योग कभी  सधने वाला नहीं है।   वेशक वे सुडौल शरीर के मालिक बन सकते हैं। उनका ५६ इंच का सीना  भी हो सकता है।  किन्तु वे 'योगी' नहीं हो सकते।  वे  योग  की ब्रांडिंग कर सकते  हैं। जो लोग मानते हैं कि इस तरह के अधकचरे प्रदर्शन  से दुनिया में 'योग' की या भारत की प्रतिष्ठा बढ़ेगी बड़ा  मान होगा वे बड़े भोले और 'अयोगी' हैं। दरअसल उन्हें योग का अ ब  स याने  ककहरा भी नहीं मालूम। उन्हें यह याद रखना होगा कि 'सच्चा योग ' तो इस लौकिक संसार से विरक्ति  के उपरान्त ही साधा  सकता है। योग सिर्फ शारीरिक  मशक्क़त नहीं है।योग कोई धार्मिक पाखंड नहीं है। यह   विशुद्ध विज्ञान है। क्रांतिकारियों के लिए तो यह योगाभ्यास  परम आवश्यक है। यह शक्ति -स्फूर्ति तो देता ही है साथ ही अन्याय और अत्याचार से लड़ने का जज्वा भी देता है। जिसे विश्वास न हो वह मोदी जी की सफलता से ही इसकी महिमा का अंदाज लगा सकता है।  

                योग गुरु  स्वामी रामदेव ,श्री-श्री और अन्य अनेक स्वनामधन्य 'योगी' महर्षि भी वास्तव में परफेक्ट   'योगी' नहीं हैं। जिनका एक पाँव राजनीति  की नाव पर हो , दूसरा पाँव  मीडिया की नजर का गुलाम हो वे 'नट '  हो सकते हैं किन्तु  'योगी' नहीं। वेशक यदि  इस शारीरिक मशक्क़त के साथ -साथ  व्यक्ति , समाज  और राष्ट्र  को समोन्नत बनाने ,सुसभ्य बंनाने,शोषणविहीन समाज -अन्याय अत्याचारविहीन समाज स्थापित करने की तमन्ना हो ,  देश और दुनिया के दैहिक ,दैविक,भौतिक संतापों-कष्टों से निजात दिलाने की कामना हो श्रेष्ठतम   मानव के निर्माण की अभिलाषा हो, तो ही सच्ची  'योग' सिद्धि सम्भव  है। वास्तविक योग क्रिया कोई घातक  -  साम्प्रदायिकता  नहीं है। दरसल  धर्मनिरपेक्ष मानसिकता वाला व्यक्ति ही सच्चा योगी बन सकता है।  इसमें घृणा  ,द्वेष या बैरभाव नहीं बल्कि  समता और करुणा का भाव ही धजता है।  केवल हिन्दू साधु -संत ही योगी  नहीं हुए हैं - जनक[विदेह],श्रीकृष्ण ,पतंजलि  रामदेव ही योगी नहीं हुए हैं, बल्कि यहूदी-पारसी- इस्लाम  - ईसाइयत  -जैन -बौद्ध इत्यादि दर्शन परम्परा में भी महानतम योगी-सिद्ध और महात्मा  हुए हैं। उन्होंने किसी को  भी जबरन योग हेतु बाध्य नहीं किया।
                                 सत्तारूढ़ भाजपा सांसद [अ]योगी  श्री  आदित्यनाथ जैसे लोग यदि  कह रहे  हैं कि सूर्य नमस्कार या  योग नहीं  करने वालों को 'समुद्र में डूब मारना  चाहिए !  तो इससे  योग नहीं करने वालों या  गैर हिन्दुओं की सेहत पर कोई असर  नहीं पड़ने वाला । बल्कि यह तो सरासर हिंदुत्व का और योग का ही  अपमान है।नकली 'योगी' आदित्यनाथ या उनके जैसे भगवाधारियों को  योगी कहना तो योग का अपमान है !उन्होने या तो  पातंजलि योगसूत्र पढ़ा ही नहीं या फिर उन्होंने अपने ही आदि गुरु गोरखनाथ को भी ठीक से नहीं समझा !  'कबीर' नानक  ,रैदास   को वे समझ पाएंगे इसका सवाल ही नहीं उठता। उन्हें शायद ही ज्ञात हो कि  'योग' के  बहुआयामी उद्देश्य के लिए 'पतंजलि' जैसे कुशल योगाचार्यों ने विभिन्न 'योग सूत्रों' का वैज्ञानिक  अन्वेषण करते हुए बेहतरीन  प्रतिपादन किया है । बिना किसी भय व रागद्वेष के उन महान ऋषियों ने  मानव मात्र को  'योग' की कला का ज्ञान दिया। उन्होंने उद्घाटित किया कि मानव मात्र  अपने शरीर मन  बुद्धि,अहंकार और   प्रकृति के साथ इन सबका सांगोपांग  तादात्म्य स्थापित कर शतायु हो सकता है।अर्थात  'जीवित शरदः शतम' की कामना के साथ -साथ संसार के सभी प्राणियों और प्रकृति से बेहतरीन सामंजस्य की कला को ही उन्होंने  योग  कहा है - इसे  उन्होंने अपने एक खास  सूत्र में  इस प्रकार व्यक्त किया है।

'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः '

अर्थात  चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम  योग है।  इसमें एकांत का बड़ा महत्व है। यह सड़कों पर या कैमरे के सामने प्रदर्शित तो किया जा सकता है किन्तु इसे 'साधा'  नहीं किया जा सकता। योग कोई  प्रदर्शनीय वस्तु   नहीं अपितु  शानदार अनुकरणीय  कला  है।इसके बारे में स्वामी समर्थ रामदास कह गए हैं:-

                'योगिनांम साध ली जीवन कला '


        इसी को वेदव्यास ने निम्न प्रकार से  व्यक्त किया है -

              योग क्षेम बहाम्यहम्

               अथवा 

                'तस्मात् योगी भवार्जुन !        [भगवद्गीता ]

 जो इसे जानते और मानते हैं वे ही इसे  कर सकते  हैं। जब स्वामी रामदेव का नाम भी मैंने नहीं सुना था तब बचपन में गाँव में पीपल या पलाश की छाँव में  भी हम 'अष्टांगयोग' किया करते थे। गायों-बेलों का चारा-पानी  ,खेती -मजूरी सब करते हुए भी न केवल पढाई-लिखाई  बल्कि योग-व्यायाम इत्यादि  में भी हमारी रूचि हुआ आकृति थी। टीवी या मीडिया पर किसी की शारीरिक -मानसिक  चेष्टाओं देखकर हमने योग नहीं सीखा।किसी    प्रदर्शनीय सामूहिक  प्रयोजन  का नाम योग नहीं  है। इसे तो एकांत में ही साधा जा सकता है। इसी तरह  इसके आयोजक यदि सूर्य नमस्कार को भी  किसी के  दबाव में छोड़ रहे हैं तो यह और भी अधिक आपत्तिजनक है।



                                    श्रीराम तिवारी 

सोमवार, 8 जून 2015

रिश्वत भृष्टाचार से , कौन विभाग है खाली ?



   खाली खाते खोलकर , नेता  ठोकें  पीठ।

   राजनीति  के खेल में ,मगन खिलाड़ी ढीठ।।

  मगन खिलाड़ी ढीठ, महफ़िल फील गुड जैसी ।

  धन्ना सेठ गुलजार ,जनता की ऐंसी की तैंसी।।

  पूरा सिस्टम वंटाढार , नेता की  डिग्री जाली  ।

  रिश्वत भृष्टाचार से , कौन विभाग है खाली  ? ?

                     श्रीराम तिवारी

   



  

  

   

शनिवार, 6 जून 2015



  हर चीज की  बुलन्दियों  पर पहुँचने की भी एक हद हैगी।

 तभी तो बड़ी बेआबरू होकर किचन से निकल गयी मैगी।।

                    :-श्रीराम तिवारी