बुधवार, 21 दिसंबर 2022

:- यादों के झरोके...

 कविता :- यादों के झरोके...

देहरी, आंगन, धूप नदारद |
*ताल, तलैया, कूप नदारद।*
*घूँघट वाला रूप नदारद।*
*डलिया,चलनी,सूप नदारद।*
आया दौर फ्लैट कल्चर का,
देहरी, आंगन, धूप नदारद।
हर छत पर पानी की टंकी,
ताल, तलैया, कूप नदारद।।
लाज-शरम चंपत आंखों से,
घूँघट वाला रूप नदारद।
पैकिंग वाले चावल, दालें,
डलिया,चलनी, सूप नदारद।।
🤨🤨
बढ़ीं गाड़ियां, जगह कम पड़ी,
सड़कों के फुटपाथ नदारद।
*लोग हुए मतलबपरस्त सब,*
*मदद करें वे हाथ नदारद।।*
मोबाइल पर चैटिंग चालू,
यार-दोस्त का साथ नदारद।
बाथरूम, शौचालय घर में,
कुआं, पोखरा ताल नदारद।।
🤨🤨
हरियाली का दर्शन दुर्लभ,
*कोयलिया की कूक नदारद।*
घर-घर जले गैस के चूल्हे,
चिमनी वाली फूंक नदारद।।
मिक्सी, लोहे की अलमारी,
सिलबट्टा, संदूक नदारद।
*मोबाइल सबके हाथों में,*
*विरह, मिलन की हूक नदारद।।*
🤨🤨
बाग-बगीचे खेत बन गए,
जामुन, बरगद, रेड़ नदारद।
सेब, संतरा, चीकू बिकते
गूलर, पाकड़ पेड़ नदारद।।
ट्रैक्टर से हो रही जुताई,
जोत-जात में मेड़ नदारद।
*रेडीमेड बिक रहा ब्लैंकेट,*
*पालों के घर भेड़ नदारद।।*
🤨🤨
लोग बढ़ गए, बढ़ा अतिक्रमण,
जुगनू, जंगल, झाड़ नदारद।
कमरे बिजली से रोशन हैं,
ताखा, दियना, टांड़ नदारद।।
चावल पकने लगा कुकर में,
*बटलोई का मांड़ नदारद।*
कौन चबाए चना-चबेना,
भड़भूजे का भाड़ नदारद।।

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