निर्विचार चेतना ध्यान है।और निर्विचारणा के लिये विचारों के प्रति जागना ही विधि है।विचारों का सतत प्रवाह है मन।इसी प्रवाह के प्रति मूर्छित होना,सोये होना,अजाग्रत होना साधारणतः हमारी स्थिति है।इस मूर्छा से पैदा होता है तादात्म्य।मैं मन ही मालूम होने लगता हूं।जागें और विचारों को देखें।"
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विचार स्वतः चलते रहते हैं।उनसे तादात्म्य करने वाली चेतना मूर्छित होती है अर्थात् होश में नहीं रहती, जाग्रत नहीं रहती।यह गीता का अहंकारविमूढात्मा है।
यह जो लिखता हूं इसे पुनरावृत्ति नहीं समझना चाहिये।यह उसे बारबार खोदने की कोशिश है ताकि उसका पर्दा हटे।
चेतना के होश के लिये लिखा क्योंकि अहंभाव, कर्ताभाव मूर्छा है।
विचार तो मूर्छा हैं ही,प्रतिक्रिया कर्ता(भाव)भी मूर्छा है।
सुख मूर्छा है तो सुख भोगनेवाला भी मूर्छा है।दुख मूर्छा है तो दुख भोगनेवाला भी मूर्छा है।इस मूर्छा से चेतनारुपी हम मूर्छित होते हैं।हमारे और सुखदुख के बीच में सुखीदुखी अहंकार खडा है।उसी अहंकार से हम मूर्छित हैं।अहंकारविमूढात्मा।हमें होश में रहना चाहिए।करना इतना ही है कि हम विचारों के साथ एक न हों पर विचारकर्ता के साथ भी एक न हों।यह कर्ता भाव,अहंभाव है और अहंभाव मूर्छा है जिससे सभी मूर्छित हैं।मैं अरु मोर तोर तें माया।जेहीं कीन्हें बस जीव निकाया।
रामचरितमानस की इस चौपाई तथा गीता के अहंकारविमूढात्मा के साम्य को समझना चाहिये।
कुछ लोग विचार के प्रति तो सजग हो जाते हैं किंतु विचारकर्ता के प्रति सजग नहीं हो पाते।इस कर्ता,इस मूर्छारुप अहंकार के प्रति सजग होना ही बडी बात है।
भीतर दुखी,पीडित और चिंतित कौन है?
यह अहंकार है।हम कौन हैं?
या तो हम अहंकार हैं या जानना मात्र हैं,शुद्ध जानना,न कि जाननेवाला।
जाननेवाला अहंकार है।जाननेवाला होने का अर्थ है चेतना अब भी अहंभावसे,कर्ताभाव से मूर्छित है।यह माया है।इसीसे चेतना पर अर्थात् हमारे मूलस्वरूप पर पर्दा पडता है।
चेतना तथा अहंकार एक नहीं है।अहंकार को जड या प्रकृति कहा जा सकता है,चेतना को आत्मा या पुरुष कहा जा सकता है।
इस पर विचार तथा विचारकर्ता का आवरण नहीं आना चाहिए।
आदमी कुछ देखते,सुनते ही रागद्वेष पूर्वक सोचने लगता है।यह सोचनेवाला अहंकार है,मूर्छा है।इस कर्ता के प्रति सजग होना ही होश की साधना है।
केवल विचारों के प्रति ही नहीं, विचारकर्ता के प्रति भी सजग होना,केवल प्रतिक्रिया ही नहीं, प्रतिक्रिया कर्ता के प्रति भी सजग होना।
विचार तथा विचारकर्ता अलग अलग थोडे ही हैं।विचार ही विचारकर्ता बनकर सोचता है।गलती से हम विचार रुप विचारकर्ता से तादात्म्य करके अपने को ही विचारकर्ता मान लेते हैं।मानों हम ही विचारकर्ता हैं इस तरह सोचने लगते हैं।होता सब उधार कार्यक्रम।विचार भी उधार के,विचारकर्ता भी उधार का।विचार और विचारकर्ता एक ही प्रक्रिया है।
'The thinker is the thought.'
"There is no thinker,
only conditioned thinking."
यह जो संस्कारबद्ध विचारणा चलती रहती है यही विचार तथा विचारकर्ता में बंटी रहती है।एक भाग मानों विचारा जाने वाला बन जाता है,दूसरा भाग मानों विचारने वाला बन जाता है।
फिर हम कौन हैं?यहीं सावधानी की जरूरत है।क्योंकि या तो हम विचार अर्थात् मन हो सकते हैं या जागरूकता(होश,अवेयरनेस)।वह नहीं जो जाननेवाला है,जो होश में माना जाता है।वह तो कर्ता है,अहंरुपी मूर्छा है।
इसे जाननेपर जो हमारी स्थिति है वह तत्वरुप है,अहंरुप नहीं।अहंरुप है तो फिर क्या फर्क है दोनों में?तब मूल बात कैसे स्पष्ट होगी,तादात्म्य कैसे दूर होगा?अभी मन बनकर कौनसा सुख पा रहे हैं?
अमन में ही सुख है,शांति है।
मन बनने के कारण,विचार तथा विचारकर्ता से एकरुप होने के कारण ही गीता का यह तथ्य सब पर लागू हो रहा है-
"संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न हुए सुखदुखादि द्वंद्वरुप मोह से संपूर्ण प्राणी अति अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं।"
'इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत।सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप।।
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