शनिवार, 9 मई 2020

मुझे मार्क्स क्यों पसंद है?

वर्ग संघर्ष का सिद्धांत क्या है?
जिस तरह न्यूटन द्वारा गुरुत्वाकर्षण बल का पता लगाये जाने के बावजूद हम मानते हैं, कि न्यूटन ने तो सिर्फ़ पता लगाया है,जबकि ब्रह्माण्डीय गुरुत्वाकर्षण बल सदा से काम कर रहा है! ठीक इसी तरह 'वर्ग संघर्ष' का पता अवश्य कार्ल मार्क्स ने लगाया,किंतु वह सदा से होता आ रहा है!
अधिकांस जन गण यह सोचते हैं कि कार्ल मार्क्स ने ही 'वर्ग संघर्ष' कराने कि शुरुआत की है!किन्तु यह सच नहीं है।वर्ग संघर्ष तो तब से चल रहा है,जब से मानव समाज का मुख्यत : दो परस्पर विरोधी वर्गों-श्रमजीवी और परजीवी वर्ग में विभाजन हुआ है!
'वर्ग संघर्ष' का अर्थ मात्र लड़ाई झगड़ा,मार पीट,तोड़ फोड़ ,हड़ताल,विरोध प्रदर्शन,नारे बाजी, हिंसा इत्यादि ही नहीं है। श्रमजीवी वर्ग का मन ही मन दुखी होना,शांतिपूर्ण ढंग से निवेदन करना-आदि भी वर्ग संघर्ष के ही प्रछन्न रूप हैं।
मार्क्स ने 1845 में अपनी 28 साल की उम्र में फायरबाख पर आधारित लेख में अपने पूर्ववर्ती सभी विचारकों के उस सिद्धांत को स्वीकार किया कि 'मनुष्य की भौतिक दशाएं उसके चरित्र का निर्माण करती हैं, किन्तु मार्क्स ने उसमें अपनी यह बात भी जोड़ दी कि वह मनुष्य ही है जो उन दशाओं का निर्माण करता है।इस संदर्भ में यह कहा कि शिक्षक को भी शिक्षण की जरूरत होती है।
इसी लेख में मार्क्स का यह प्रसिद्ध कथन है कि 'दार्शनिकों ने अबतक ,दुनिया क्या है ?केवल इसकी व्याख्या की है, किंतु असली सवाल तो इस दुनिया को बदलने का ही है।

आमतौर पर यह माना जाता रहा है कि इतिहास रचने और उसे आगे बढ़ाने का काम अच्छे अच्छे विचार, विचारक, संत, महात्मा राजा,महाराजा,योद्धा इत्यादि ही करते हैं।
मार्क्स एंगेल्स ने मानव समाज और उसके इतिहास के वस्तुवादी अर्थात वैज्ञानिक विश्लेषण से इस बात को सिद्ध किया है कि इतिहास का निर्माण और उसका विकास श्रमजीवी समाज द्वारा अपने जीवन की अच्छी दशाओं के लिए किए जाने वाले सतत् संघर्षों के द्वारा हुआ है और होगा।
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पूंजीवादी अर्थशास्त्री *रेकार्डो* ने कहा है कि माल (Product) श्रम काल में पैदा होता है! तब मार्क्स ने उसमें यह जोड़ा कि मजदूर के काम की गणना श्रम काल में तो जरूर होती है किन्तु माल उसके श्रम कालसे नहीं बल्कि उस श्रम काल में व्यय की गई मजदूर की श्रमशक्ति अर्थात उसकी ऊर्जा से ही पैदा होता है।इस तरह मार्क्स को अपनी बात रखने का आधार रकार्डो ने ही दिया। जबकि प्रो.हीगेल द्वारा प्रस्तुत भावजगत की द्वंदात्मकता को कार्ल मार्क्स ने भौतिक जगत में रूपांतरित कर विश्व सर्वहारा के हरावल दस्तों का मार्ग प्रशस्त किया!

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१. मार्क्स यह कहने का साहस देता है कि गलती को मानो और सुधार करो !
२. मार्क्स सोचने-समझने की दृष्टि देता है!
३. मार्क्स विवेक देता है!
४. मार्क्स वैज्ञानिक नजरिया देता है !
५. मार्क्स बिना प्रमाणों के बात नहीं करता और बिना तर्क-सबूत के बात को मानने की हिमायत नहीं करता !
६. मार्क्स बताता है कि सही क्या है और गलत क्या है और इसे सबूत से साबित करता है!
७. मार्क्स दुनिया की बात नहीं करता - दुनिया को बदलने की बात करता है क्योंकि आज तक कोई दर्शन दुनिया को न बदल सका और न उसने बदलने की बात की !
८. मार्क्स सामाजिक इतिहास का विश्लेषण करता है और उसके आधार पर भविष्य का रास्ता दिखाता है - आप उस पर चलें या न चलें समाज और इतिहास अपना रास्ता बनाता चलता है - ठीक उसी तरह जैसे नदी अपना रास्ता बनाती है और उसका आधार पानी होता है - समाज का आधार अर्थ-तंत्र होता है जो विकसित होता चलता है, अपना रूप बदलता चलता है और समाज के रूप को बदलता चलता है !
९. मार्क्स दिमाग को साफ करता है और कचरे को बाहर निकाल फेंकता है !
10-इसीलिये मार्क्स के यहाँ समझ का द्वंद्व नहीं है! क्योंकि वह खुद हर चीज को द्वंद्वात्मकता में परखता है,जांचता है, प्रमाणों-सबूतों की कसौटी पर कसता है और तब बात करता है !-श्रीराम तिवारी

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फ्रांसीसी क्रांति का इतिहास पढ़ने पर मालूम हुआ कि दक्षिणपंथ क्या बला हैऔर वामपंथ किस चिड़िया का नाम है? पेरिस कम्यून और ततसंबंधी साहित्य में एक विराट जन प्रतिनिधि सभा का उल्लेख है, जिसमें दांये बांयें बैठने से उनके नामकरण का उल्लेख मिलता है!
दरसल दक्षिणपंथ होने के लिये किसी को कोई विशेष प्रयास नही करना पड़ता!यदि वह पुरातनपंथी और रूढ़िवादी है, दकियानूसी और पुंसत्ववादी है तो वह दक्षिणपंथी ही होगा!हरएक ह्रदयहीन यथास्थितिवादी,लोभी,लालची,मजहबी-पाखंडी,मौकापरस्त,मुनाोफाखोर,कमजोरों पर हकूमत करने की इच्छा रखनेवाले सख्श को दक्षिणपंथी कह सकते हैं!
वामपंथी होने के लिये तलवार की धार पर चलना पड़ता है,भगतसिंह की तरह क्रांति के वास्ते फांसी के लिये तैयार रहना पड़ता है! विशाल ह्रदय इंसान बनना पड़ता है,त्याग- तपस्या,बलिदान से जो सुर्खरू होता है,दूसरों के सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझता है,जिसका नजरिया वैज्ञानिक है,जो शोषण, उत्पीड़न अन्याय के खिलाफ संघर्ष करता है,जो किसी का अहित नही चाहता और जो खुद भी समग्र मानवता के साथ गरिमामय जीवन की चाहत रखता है,उस सत्यनिष्ठ को वामपंथी कहते हैं!
कुछ लोग अपने आपको वामपंथी कहते हैं! वे सर्वहारा क्रांति के बारे में ज्यादा कुछ नही जानते!वे द्वंदात्मक भौतिकवाद आधारित वर्ग संघर्ष की चेतना के बरक्स पाकिस्तान परस्त आतंकियों और कश्मीरी पत्थरबाजों का समर्थन करते हैं!जो कोरोना फैलाने वाले जमातियों और शाहीनावादियों का समर्थन करते हैं,जो कोरोना पीड़ित प्रवासी मजदूरों के बहाने केंद्र राज्य सरकारों की आलोचना तो करते हैं,किंतु यथार्थ के धरातल पर वे किसी की कोई मदद नही करते, ऐंसे लोग भी आजकल अपने आप को वामपंथी कहते हैं!कुछ तत्व ऐंसे हैं जो राष्ट्रवाद को तो पाप समझते हैं किंतु रात दिन देश के दुश्मनों को बचाने में जुटे रहते हैं,ये नकली वामपंथी होते हैं!
दरसल ये लोग न तो दक्षिणपंथी हैं और न ही वामपंथी हैं,वह इन दोनों के सनातन संघर्ष में कुल्हाड़ी का बैंट बन जाने को अभिशप्त है!

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भारत में चुनाव के दौरान हरएक राजनैतिक पार्टी गरीबों,दलितों,कमजोरों, महिलाओं के हितों की रक्षक होने की स्वांग करती दिखती है! इसी हो हल्ले में किसान मजदुूर अपने असली शुभचिंतक-वामपंथ को भूल जाते हैं!वे भूल जाते हैं कि अतीत में वामपंथ द्वारा किये गये संघर्ष के कारण ही कुछ हासिल हुआ है!
मनरेगा योजना,एक रुपया किलो गेहूँ,दो रुपया किलो चावल,बीपीएल,न्यूनतम् वेतन,श्रम सुरक्षा कानून,सबको रोटी कपड़ा मकान,और आरक्षण इत्यादि तमाम जन कल्याण के काम कांग्रेस और अन्य दलों ने पूंजीवाद के प्रभाव में नहीं बल्कि वामपंथ के दबाव में ही किये हैं!दरसल यह बुर्जुवा दलों द्वारा मार्क्सवादी सिद्धांतों की स्वार्थपूर्ण नकल है! इस तरकीब से इन बुर्जुवा नेताओं और दलों ने दो लक्ष्य एक साथ साधे! एक ओर उनने सर्वहारा क्रांति नही होने दी और दूसरी तरफ चुनावी एरिना में, वामपंथ याने असली साम्यवादियों को हासिये पर धकेलने में सफल रहे!
वास्तव में मार्क्सवाद एक अत्यंत परिष्क्रत वैज्ञानिक दर्शन है ! विगत शताबदी के मध्य में इसी मार्क्सवाद ने सारी दुनिया को लूटेरे साम्राज्यवादियों के चंगुल से आजाद कराया है ! भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भी यह दर्शन अन्याय और शोषण के खिलाफ एक कारगर अस्त्र माना गया!तब यह लोकमान्य तिलक,शहीद भगतसिंह ,चंद्रशेखर आजाद सहित मुल्क के करोडों मझदूरों -किसानों का अवलंबन रहा है !यह अलग विमर्श का विषय है किं आजादी के बाद भारत में भाषाई,जाती़य और सांप्रदायिक उभार के कारण आधुनिक भारतीय युवा पीढ़ीं में इस मार्क्सवादी दर्शन की कुछ खास पैठ नही बन पाई है !
1980 से 2000 तक के युवक (नये वोटर) यह नहीं जानते कि उनके भविष्य की आज कोई गारंटी नही! प्रायवेट सेक्टर में 12 घंटे खटने वाले युवा भूल जाते हैं,कि आइंदा जब वे जवान नहीं रहेंगे या छटनी के शिकार होंगे तब किसी नेता के जुमले काम नहीं आ़येंगे! लेकिंन यदि वे संगठित होकर अपने दूरगामी सामूहिक हितों की रक्षा के लिये लाल झंडे के नीचे संघर्ष करेंगे,तो देश की सत्ता में भले ही काला चोर चुनकर आ जाये किंतु उनके हित अवश्य सुरक्षित रहेंगे!और अंततोगत्वा विजय सत्य की ही होगी! -श्रीराम तिवारी

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कार्ल मार्क्स का कहना है कि इतिहास की पीठ इतनी मजबूत नहीं है कि वह अतीत का कूड़ा ढो सके।मार्क्सवाद साम्यवाद की मुख्य शत्रुता पूँजीवाद से है चाहे उसका रूप कोई भी क्यों न हो। सामंतवाद की मूल दुश्मनी पूंजीवाद से है और पूंजीवाद की साम्यवाद से सनातन दुश्मनी रहती आई है।
मार्क्सवाद साम्यवाद तो हमेशा सामंतवाद को समाज का कूड़ा ही समझता है। जाहिर है कि कूड़ा दुश्मनी लायक भी नही होता!
मार्क्सवाद साम्यवाद मानव समाज का आखिरी सफाई कर्मी है।कई मित्र सामंती कूड़े की सफाई की बात सुनते ही तिलमिला जाते हैं।उनकी बैंक पास बुक के भारी होने के बावजूद उनकी हैसियत सामंत बन जाने की नहीं है।न ही उनमें उसका कोई लक्षण है फिर भी अपने आप को सामंत समझते हैं।
इन मित्रों के पूर्वज सामंत रहे होंगे।तब उनके पास काफी जगह जमीन रही होगी।उस जमीन पर दूसरे अनेक परिवार भी स्थाई रूप से पल रहे होंगे।वे पूर्वज सामंत शायद कठोरता के साथ ही उदारता की मूर्ति रहे होंगे।वह विरोचित और शान पर जान देने वाले भी रहे होंगे।रोटी पानी के दिलदार रहे होंगे।
किंतु अब न तो कोई ऐसा मिलेगा जो किसी की जमीन पर स्थाई रूप से पलना चाहेगा, और न ही किसी की ऐसी हैसियत जो किसी को स्थाई रूप से पाल सके।अपना हिस्सा तो बीघे से बिस्से में आ गया।फिर भी समझ रहे हैं कि सामंत हैं।निष्कर्ष यह है कि यह आधुनिकतावादी नव धनाड्य, बुर्जुवा वर्ग और परजीवी साम्प्रदायिक मध्यम वर्ग वैचारिक दिवालियेपन के शिकार हैं।

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प्रगतिशील होने के लिये कम्युनिस्ट होना जरूरी नही है! किंतु कम्युनिस्ट होने के लिये प्रगतिशील होना बहुत जरूरी है! यदि कोई सच्चा धार्मिक हो सकता है,तो बजरिये आदर्शवाद वह वैज्ञानिक द्वंदातमकता को भी सहज ह्रदयगम्य कर सकता है!वशर्तें उसकी आस्था को चिढ़ाया न जाये!बल्कि उसके समक्ष उसकी सोच को अवैज्ञानिक सिद्ध कर दिया जाये !तो जैसे एक डाँकू रत्नाकर भी बाल्मीकि हो सकता है!उसी तरह यदि एक सच्चा आस्तिक या संत होगा तो वो सच्चा कम्युनिस्ट भी हो सकता है! वशर्ते उसकी आस्था पर सीधे चोट न कर सहज सरल शब्दों में समझाया जाये कि मार्क्सवाद सिर्फ एकांगी शुष्क राजनैतिक दर्शन मात्र नही है!

यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि खुदका कल्याण तभी संभव है जब जगत का कल्याण हो! और जगत का कल्याण तभी संभव है जब पूंजीवादी व्यवस्थामें क्रांतिकारी सकारात्मक परिवर्तन हो!और यह तभी संभव है जब वर्ग संघर्ष की स्थितिमें आर्थिक रूपसे वास्तविक कमजोर पक्ष को एकजुट किया जाये!
यह जाहिर है कि कम्युनिज्म की सतत लड़ाई शोषण अन्याय और असमानता के खिलाफ है!किंतु धर्म मजहब में घुसे धूर्त पाखंड और अवैज्ञानिक अंधविश्वास से लडने के लिये भी कम्युनिस्ट तैयार रहते हैं! यह भी सच है कि अधिकांस नास्तिक जन अराजक-अमर्यादित हुआ करते हैं! बहुत कम नास्तिक ऐंसे होते हैं जिन्हें साम्यवाद रास आता है! आमतौर पर सभी धर्मों के बौद्धिक -इंटेलेक्चुवल्स,वैज्ञानिक सोच और चरित्र के धनी सदाचारी नर नारी और युवक युवती ही सफल कम्युनिस्ट बन पाते हैं!
इसलिये धर्म मजहब के संवेदन शील मुद्दे पर वामपंथी बुद्धिजीवियों को हर समय सतर्क रहना चाहिये और उनको जातिय सम्प्रदाय के आधार पर पक्षपात नही करना चाहिये!उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि इतिहास में जो कौम गुलाम रही,जो धर्म मजहब दमित रहा, उसकी समकालीन पीढ़ी के लोग आसानी से किसी विदेशी विचारधारा पर यकीन नही कर सकेंगे! यदि स्थानीय मूल निवासियों के धर्म मजहब पर हमला कर जबरन कोई नई विचारधारा थोपी गई तो क्रांति नही भ्रांति की संभावनाएं अधिक हो सकतीं हैं!
किसी भी तरह के चुनावों में जब कम्युनिस्ट पार्टियाँ किसी खास धर्म मजहब के वोट से इंकार नही करतीं और किसी धार्मिक व्यक्ति के सपोर्ट से इंकार नही करते तो उसकी धार्मिक आस्था और विश्वास पर हमला कैसे कर सकते हैं?किसी आधुनिक व्यक्ति की धार्मिक आस्था को 150 साल पुराने सुदूर यूरोपियन नजरिये से नही देखा जा सकता!
मार्क्सवादी पंडितों को याद रखना चाहिये कि भारत के अधिकांस मूल निवासी गरीबी भुखमरीके बावजूद अत्यंत सह्रदय,धर्मभीरू, नैतिकतावादी और आदर्शवादी हैं! भारतीय वामपंथ को इन चीजों के मद्देनजर ही आगे बढ़ना चाहिये!तभी भारत में साम्यवाद सफल होगा और भारत भी चीन की तरह शक्तिशाली हो सकेगा!


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