शुक्रवार, 1 मई 2020

छुआछूत के वैज्ञानिक आधार हैं!


सभ्यताओं की हजारों साल की सतत यात्रा में 'छुआछूत' का जितना विकास हुआ,उसका कारण और निदान दोनों ही 'कोरोना'ने एक झटके में समझा दिया!



मैं छुआछूत नही मानता,किंतु संक्रामक रोग के मरीज से मैं पर्याप्त दूरी बनाकर रखूंगा, क्योंकि मेरे डॉक्टर ने मुझे यह जताया है! किंतु जो छुआछूत के बिरोधी हैं उनसे एक सवाल है, कि वे यह बताएं कि किसी कोरोना पॉजिटिव्स इंसान को देखकर उसे गले से लगाएंगे या उससे निर्धारित दूरी बनाकर रखेंगे ? सरकार और मेडीकल कौंसिल के साफ सफाई के निर्देशों का पालन करेंगे या कोरोना ग्रस्त को अपने घर में मेहमान बनाएंगे ?
हमें सचाई से दूर नहीं भागना चाहिये,जिस तरह कोरोना वायरस महामारी में छुआछूत सामाजिक पाप नही है! इसी तरह अतीत में समय समय पर बीमारियों और संक्रमणों से बचने के लिये जो स्वच्छता और सामाजिक दूरी के मापदंड निर्धारण किये गये थे वही मौजूदा छुआछूत के वैज्ञानिक आधार हैं!प्रकारांतर से  कोरोना वायरस संकट ने भारत की पुरातन छुआछूत व्यवस्था की बाध्यताकारी मजबूरी को सही सिद्ध कर  दिया है. 
कर्म के आधार पर बनी चतुर्वर्ण व्यवस्था हजारों साल तक ठीक ठाक चलती रही, किंतु विदेशी आक्रमणकारियों ने यहां 'फूट डालो राज करो' सिद्धांत अपनाया, हिंदू को मुसलमान से और सवर्ण को अवर्ण से लड़ा दिया! हकीकत में सब बराबर हैं, जो मामूली सामाजिक असमानता है,वह परिस्थितिजन्य कारणों से बाध्यतामूलक सामाजिक व्यवहार मात्र है!

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आमतौर पर मुस्लिमों को छोड़कर कोई हिंदू सिख,ईसाई बौद्ध,जैन,पारसी धर्मावलंबी अपने खुद के धर्म में कट्टर नही होता!और न ही वह दूसरे धर्मावलंबियों के खिलाफ कोई षडयंत्र रचता है और न ही घटिया विषवमन करता है! और कोई इनको कट्टरपंथी सांप्रदायिक नही कहता,क्योंकि वे सहज रूप से धर्मनिरपेक्ष ही हैं!
किंतु जब इस्लामिक आतंकवाद,जैहाद का सैलाब आता है और कसाब जैसे कसाइयों द्वारा निर्दोष हिंदू,जैन, बौद्घ,पारसी,यहूदी मारे जाते हैं, जगह जगह पत्थरबाज और जमाती जुटने लगते हैं,तो तमाम धर्मनिरपेक्ष जनतंत्रात्रिक शांति प्रेमी जनता भी मजबूर होकर अपने अपने धर्म मजहब की शरण में जाकर कट्टरपंथी होने लग जाती है!
धर्मनिरपेक्ष परिवारों में जन्मा हर व्यक्ति जब मुसलमानों की तरह अपने धर्म मजहब को सड़क पर लाता है,धर्मांध भीड़ जुटाता है तब जमाती मरकजी बहाबी तबलीगी लोगों में और इन अहिंसक धर्मावलंबियों में कोई फर्क नही रह जाता है! इन सभी कट्टरपंथी गुटों और समाजों को अमन और शांति का संदेश देने वाले पढ़े लिखे लोगों को दुनिया में 'धर्मनिरपेक्षतावादी' कहा जाता है!
जब कोई ठीक ठाक पढ़ लिख जाता है,विश्व स्तरीय साइंस,लोकतंत्र और मानव समाज के वैज्ञानिक विकास को समझने लगता है, तो वह खुद को मजहबी/धार्मिक पक्षधरता से मुक्तकर 'धर्मनिरपेक्षता' के सिद्धांत का कायल हो जाता है! जब कुछ फासिस्ट और जमाती लोग मजाक में या उपेक्षापूर्ण स्वर में इन्हें 'सेक्युलर' से शब्द से संबोधित करते हैं,तो बड़ी कोफ्त होती है!
किंतु जब कोई मुल्क सऊदी अरब,बेटिकन और इजरायल की तरह साम्प्रदायिक होकर उन्नति करता है और भारत जैसा विशाल देश लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता के मार्ग पर चलकर आंतरिक कलह से ग्रस्त रहता है,तो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठने लगते हैं! ऐंसी विषम परिस्थितियों में फासिस्टों द्वारा धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों और संगठनों पर देशद्रोह के आरोप भी लगने लगते हैं!
इस ओर ध्यान देने के बजाय अरुंधती राय जैसे लेखक लेखिकाएं,नकली धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी और कुछ विपक्षी नेता एवं दल साम्प्रदायिकता की धधकती आग में घी डालने का काम करते रहते हैं!

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