मंगलवार, 12 मई 2020

वैदिक वांग्मय और 'परमसत्य'

आमतौर पर संस्कृत के 'धर्म' शब्द का अनुवाद अरबी/फारसी के 'मजहब' और अंग्रेजी के रिलीजन शब्द से किया जाता है, यह अनुवाद पूर्णत: भ्रामक है!वास्तव में जितना फर्क पाश्चात्य दर्शन और भारतीय दर्शन में है,जितना फर्क भौतिकवादी और अध्यात्मवादी दर्शन में है! और जितना फर्क किसी प्रमेय के सिद्धांत और सूत्र में है,उतना ही फर्क मजहब और 'धर्म' में है! और उतना ही फर्क रिलीजन और धर्म में भी है!धर्म के बारे में संस्क्रत वांज्ञ्मय में अनेक परिभाषाएं हैं,उनमें से कोई भी रिलीजन या मजहब से मेल नहीं खाती!पाणिनी कहते हैं,- 'मनुज: सत्यम् धारयते इति धर्म:' और महावीर स्वामी का प्रसिद्ध सूत्रवाक्य है-"वस्तु स्वभावो धम्म:!"
धर्म को परिभाषित करते हुए मनु स्म्रति का सर्वाधिक प्रचलित श्लोक है-:
"धृति क्षमा दमोSस्तेयम्,शुचितेंद्रिय निग्रह:,
विद्या बुद्धि च अक्रोधस्य,एष: धर्मस्य लक्षणम्!"
अर्थ:-"धैर्यशीलता,जितेंद्रियता,सभी इंद्रियों की विषयों से असम्बध्ता याने भावों की पवित्रता, सुशिक्षित होना,अपना अहित करने वाले पर भी क्रोध न करना इत्यादि सदुगुण ही धर्म के लक्षण हैं!"
इन दिनों आमतौर पर लोग उक्त सद्गुणों की कोई परवाह नही करते! वे मॉब लिंचिंग को या किसी राजनैतिक पार्टी को जिताने के लिये 'जय श्रीराम' के नारों को एवं मजहबी उन्माद जैसे हथकंडों को 'हिन्दू धर्म' कहते हैं! वास्तव में भारतीय आर्यों का वास्तविक धर्म तो 'सनातन धर्म' ही है! आज जिस हिंदू धर्म के नाम पर लोग लाल पीले हो रहे हैं,उस का तो गीता,वेद,पुराण,उपनिषद,संस्क्रत या पाली,अपभ्रंश महाकाव्यों और संहिताओं में उल्लेख भीं नहीं है।
जब भगवान महावीर कहते हैं कि 'वस्तु स्वभावो धम्म' तब उनका आसय यह है कि मिर्च यदि चिरपिरी है तो यह मिर्च का धर्म है और गन्ना मीठा है तो यह गन्ने का धर्म है और यदि मनुष्य का स्वभाव है कि समूहमें रहकर नियमान्तर्गत सानंद रहे,तो यह मनुष्यका धर्म है!इस तरह सभी भारती़य मत पंथ दर्शन नियति की अनूकूलता से संचालित हैं!उनका रिलीजन और मजहब से तुलना करना वैसा ही है जैसे फारसी में सिंधु नदी को हिंदस और यूनानी में इंडस(Indus) तथा फारसी में भारत को सिंधुदेश या हिंदुदेश कहना !
चाहे महाभारत हो,रामायण हो या उसके बाद जैन-बौद्ध साहित्य हो 'हिन्दू धर्म' के नाम से किसी धर्म के होने का उल्लेख नहीं है! वेशक दुनिया की तमाम सभ्यताओं ने अपने-अपने धर्म-मजहब का नामकरण खुद ही किया है। सिवाय 'हिन्दू धर्म' के। यह नाम करण खुद हिन्दुओं ने नहीं किया!बल्कि यह तो गैर हिन्दुओं द्वारा की गई नाम उपाधि है।
भारतीय उपमहाद्वीप में जब तक आर्यों की मोनोपॉली चलती रही,तब तक उन्होंने यहाँ 'आर्यधर्म'अथवा 'वैदिक पद्धति' नाम से अपना धर्म पालन किया!बाद में महाकाव्यों ने भारत से लेकर कंबोडिया,इंडोनेसिया और सीरिया तक'भागवत धर्म' की धूम मचाई!जब जैन और बौद्ध धर्म का बोलवाला हुआ तो यहाँ श्रमण परंपरा और 'बौद्ध धर्म' की साख परवान चढ़ी!जब आदि शंकराचार्य ने वेदों और अद्वैत वेदांत की नवीन व्यख्या की तथा अपने पूर्ववर्ती सभी भारतीय -सिद्धांतों -पंथों, दर्शनों और वादों का परिमार्जन करते हुए उत्तर मीमांसा को भारतीय वेदांत दर्शन घोषित किया!आर्य धर्म की नवीन व्याख्या की! तब भारत की जनता ने उनके सिद्धांत 'ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या' को सर माथे लिया।
सम्भवतः कालांतर में दक्षिण भारत से पुन: पल्लवित पुष्पित 'भक्तिमार्ग' तीर्थाटन और अवतारवाद के समिश्रण से सज्जित होकर उत्तर भारतकी ओर आया होगा और तभी से भारतीय आध्यात्मिक चेतना और धार्मिक परम्पराओं को 'सनातन धर्म' कहा जाने लगा। बाद में कुछ विदेशी आक्रमणकारियों और यायावर विदेशी धर्म प्रचारकों ने इस भारत भूमि को हिंद और यहां के निवासियों को हिंदू कहा और यहां के रहने वालों के धर्म को 'हिंदू धर्म' का नाम दिया।
इस कालप्रवाही सामाजिक सांस्क्रतिक यात्रा में 'हिंदू धर्म' शुद्ध आर्य या वैदिक अथवा परम भागवत धर्म न होकर-आर्यों, द्रविड़ों, हमलावर शक,हूण कुषाणों तथा आदिम जन जातियों की मिश्रित सभ्यता- संस्क्रति और आध्यात्मिक जीवन शैली का एकीक्रत रूप होकर 'हिंदू धर्म' बन गया!
श्रीराम तिवारी
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यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि 'ऊर्जा का नाश कभी नही होता'और बिना कारण के कार्य नही हो सकता! दुनिया के अधिकांस चिंतक तर्कवादी विद्वान इस सिद्धांत पर एकमत रहे हैं कि 'भयातुर मानव मन की आशान्वित कल्पना का नाम ईश्वर है।' चूंकि मनुष्य स्वयं नश्वर है,इसलिये उसके द्वारा सर्जित प्रत्येक वस्तु,विचार,सभ्यता संस्क्रति यहां तक कि मनुष्य द्वारा निर्मित 'ईश्वर'भी अक्षुण नही हो सकता,अनियंत्रित कोरोना महामारी इसका जबरदस्त प्रमाण है! आज करोड़ों नर नारी कोरोना के डर से ईश्वर,गॉड या अल्लाह की शरण में या उसके भरोसे नहीं,बल्कि सोशल डिस्टेंसिंग और मेडीकल ट्रीटमेंट पर भरोसा करते हैं !
अस्तित्व के संपूर्ण विस्तार में आज ऊर्जा की अविनष्टता और पदार्थ की गति एवं नित्य परिवर्तनशीलता का सिद्धांत ही अटल है !इसे भारतीय वैदिक वांग्मय ने 'परमसत्य' कहा है! इसे लाओत्से ने ताओ कहा है!बुद्ध ने इसे धम्म और नानक ने इसे 'हुकुम' कहा है!

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समाज में कोई भी बदलाव वैज्ञानिक तरीके से धीरे धीरे होगा,आपसी संघर्ष से किसी को लाभ नही होगा!":-
सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन
उपरोक्त सिद्धांत को सिद्ध करने के लिए पेश है एक रोचक कथा :-
एक बार कुछ वैज्ञानिकों ने एक बहुत ही मजेदार प्रयोग किया..
उन्होंने 5 बंदरों को एक बड़े से पिंजरे में बंद कर दिया और बीचों -बीच एक सीढ़ी लगा दी जिसके ऊपर केले लटका दिये..
जैसा कि अनुमान था, एक बन्दर की नज़र केलों पर पड़ी तो वो उन्हें खाने के लिए दौड़ा..
पर जैसे ही उसने कुछ सीढ़ियां चढ़ीं उस पर ठण्डे पानी की तेज बौछार कर दी गयी और उसे उतर कर भागना पड़ा..
पर वैज्ञानिक यहीं नहीं रुके,उन्होंने एक बन्दर के किये गए कार्य की सजा बाकी बंदरों को भी दे डाली और सभी को ठन्डे पानी से भिगो दिया..
बेचारे बन्दर हक्के-बक्के एक कोने में छुपकर बैठ गए..
पर वे कब तक बैठे रहते, कुछ समय बाद एक दूसरे बन्दर को केले खाने का मन किया..
और वो उछलता-कूदता सीढ़ी की तरफ दौड़ा..
अभी उसने चढ़ना शुरू ही किया था कि पानी की तेज बौछार से उसे नीचे गिरा दिया गया..
और इस बार भी इस बन्दर की गुस्ताखी की सज़ा बाकी बंदरों को भी दी गयी..
एक बार फिर बेचारे बन्दर सहमे हुए एक जगह बैठ गए…
थोड़ी देर बाद जब तीसरा बन्दर केलों के लिए लपका तो एक अजीब वाक्य हुआ..
बाकी के बन्दर उस पर टूट पड़े और उसे केले खाने से रोक दिया,
ताकि एक बार फिर उन्हें ठन्डे पानी की सज़ा ना भुगतनी पड़े..
अब प्रयोगकर्ताओं ने एक और मजेदार चीज़ की..
अंदर बंद बंदरों में से एक को बाहर निकाल दिया और एक नया बन्दर अंदर डाल दिया..
नया बन्दर वहां के नियम क्या जाने..
वो तुरंत ही केलों की तरफ लपका..
पर बाकी बंदरों ने झट से उसकी पिटाई कर दी..
उसे समझ नहीं आया कि आख़िर क्यों ये बन्दर ख़ुद भी केले नहीं खा रहे और उसे भी नहीं खाने दे रहे..
ख़ैर बाद में उसे भी समझ आ गया कि केले सिर्फ देखने के लिए हैं, खाने के लिए नहीं..
इसके बाद प्रयोगकर्ताओं ने एक और पुराने बन्दर को निकाला और नया बंदर अंदर कर दिया..
इस बार भी वही हुआ, नया बन्दर जैसे ही केलों की तरफ लपका, पर बाकी के बंदरों ने उसकी धुनाई कर दी और मज़ेदार बात ये थी कि पिछली बार आया नया बन्दर भी धुनाई करने में शामिल था..
जबकि उसके ऊपर एक बार भी ठंडा पानी नहीं डाला गया था!
प्रयोग के अंत में सभी पुराने बन्दर बाहर जा चुके थे और नए बन्दर अंदर थे जिनके ऊपर एक बार भी ठंडा पानी नहीं डाला गया था..
पर उनका स्वभाव भी पुराने बंदरों की तरह ही था..
वे भी किसी नए बन्दर को केलों को नहीं छूने दे रहे थे ..
हमारे समाज में भी ये स्वभाव देखा जा सकता है कि जाति भेद छुआछूत का विरोध करने वाले लोग धीरे धीरे खुद एक नया मलाईदार समाज बना लेते हैं,फिर वे अपर कास्ट के खिलाफ नही बल्कि अपने ही दीन हीन पिछड़े दलित भाइयों को हेय द्रष्टि से देखते हैं और खुद को नव सवर्ण जैसा मानने लगते हैं!
जब भी कोई परंपराओं को तोड़ने और नई परंपराओं की शुरूआत करने की कोशिश करता है, तो उसके आस-पास के लोग उसे या तो ऐसा करने से रोकते हैं या वे खुद उस समाज की नकल करने लग जाते हैं, जिसके खिलाफ लड़ने का दावा करते रहते हैं!
वे अंग्रेजी कहावत "If you can't defeat You join them" का अनुसरण करने लग जाते हैं!

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