प्रगतिशील विचारकों - दार्शनिक सिद्धान्तकारों के अनुसार 'व्यक्ति -विशेष' की बनिस्पत ' विचार विशेष ' की महत्ता ही श्रेष्ठ है। इतिहास गवाह है जब-जब किसी 'व्यक्ति विशेष' को समाज या राष्ट्र से ऊपर माना गया, तब-तब मानव समाज ने बहुत धोखा खाया है। किसी 'व्यक्ति विशेष' के पक्ष -विपक्ष के कारण ही दुनिया में दो बड़े महायुद्ध हो चुके हैं। भारत जैसे देश को तो इसी व्यक्ति केंद्रित सोच के कारण सदियों की गुलामी भोगनी पड़ी !दुनिया की जिस किसी कौम ने ,राष्ट्र ने, 'विचारधारा की जगह किसी व्यक्ति विशेष' को 'अवतार' या 'हीरो' माना उस देश और समाज की बहुत दुर्गति हुई है।
जिस किसी प्रबुद्ध कौम या राष्ट्र ने 'व्यक्ति विशेष' की महत्ता के बजाय उसके द्वारा प्रणीत श्रेष्ठ 'मानवीय मूल्यों' को अर्थात ''विचारों' को महत्व दिया ,उस कौम या राष्ट्र ने अजेय शक्ति हासिल की। व्यक्ति की जगह मानवीय मूल्य , मानवोचित विचार और विवेक को महत्व देने के कारण ही अंग्रेज जाति ने सैकड़ों साल तक अधिकांस दुनिया पर राज किया है। जबकि अपने तानाशाह शासक नेपोलियन की जय- जयकार करने वाली फ़्रांसीसी जनता को एक अंग्रेज जनरल 'वेलिंग्टन' के सामने शर्मिंदा होना पड़ा। इसी तरह हिटलर की जयजयकार करने वाले जर्मनों की नयी पीढी को उनके पूर्वजों का अंतिम हश्र ,आज भी शर्मिंदा करता है। जनरल तोजो की हठधर्मिता के कारण ही हिरोशिमा और नागाशाकी का भयानक नर संहार हुआ था, जिसका नकारात्मक असर आजभी जापानकी जनता पर देखा जा सकता है। जो कौम या राष्ट्र इतिहास से सबक नहीं सीखते उनका वजूद हमेशा खतरे में रहता है !
कल्पना कीजिये कि घोड़े के पैर में लोहे की नाल ठुकती देख ,मेंढक भी नाल ठुकवा ले तो क्या होगा ? नाई को हजामत बनाते देख कोई बंदर भी उस्तरा चलादे तो क्या होगा ? सोचिये कि यदि कोई भारतीय नेता आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ,किसी पूर्ववर्ती सामंतयुगीन तानाशाह या बीसवीं सदी के बदनाम 'डिक्टेटर' की नकल करने लगेगा तो क्या होगा ? सदन का नेता और देशका प्रधानमंत्री किसी प्रासंगिक एजेंडे पर संसद में बयान देने के बजाय उसी विषय पर कभी मथुरा ,कभी आगरा और कभी बठिंडा की आम सभा में भाषण देते रहेंगे तो यह सरासर लोकतंत्र का अपमान होगा !निश्चय ही यह तुगलक बनने की अपवित्र चेष्टा कही जाएगी ! यदि संसद का अनादर होगा तो लोकतंत्र कैसे जीवित रह सकता है ? चूँकि समाजवाद के लक्ष्य की पूर्ती के लिए लोकतंत्र रुपी धनुष और सर्वहारा वर्ग की एकजुटता का बाण जरूरी है इसलिए लोकतंत्र की सर्वोच्च शक्ति याने भारतीय संसद की गरिमा को अक्षुण बनाये रखना जरुरी है। संसद की अवमानना करने वालों को बेनकाब किया जाए !
चूँकि एनडीए सरकार की 'नोटबंदी' योजना का 'जापा' बिगड़ चुका है। विपक्ष को इस पर 'भारत बंद' करने की कोई जरूरत नहीं है। देश की जनता खुद समझदार है और यदि उसे इस योजना से बाकई हैरानी -परेशानी है या कष्ट हुआ है तो वह ही खुद निपट लेगी। देशके राजनैतिक विपक्ष को इस नोटबंदी पर आइंदा ज्यादा ऊर्जा बर्बाद करने के जरूरत नहीं है। इसके बजाय एकजुट होकर ,प्रधानमंत्री द्वारा लगातार की जा रही संसद की अवमानना पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। इसके लिए 'बहरत बंद' नहीं बल्कि देशभर में एक दिनका सामूहिक उपवास या भूंख हड़ताल का सर्वसम्मत प्रोग्राम बनाना चाहिए ! देश की आवाम को संसदीय लोकतंत्र के खतरों से अवगत कराया जाना चाहिए। वेशक इस 'नोटबंदी' से लगभग सौ निर्दोष जाने गयीं हैं, किन्तु यह भी सच है कि आतंकवाद ,नक्सलवाद , कालेधन पर कुछ तो असर हुआ है। 'अच्छे दिनों' की आशा में देश की जनता तकलीफ उठाकर भी इन तत्वों को निपटानेके मूडमें है। इसलिए नोटबंदी पर अब ज्यादा तरजीह देनेकी जरूरत नहीं है।
हालाँकि यह खेदजनक है कि भारत की अधिकांस जनता इन दिनों एक खास 'व्यक्ति' के भरोसे है। जैसे सिकंदर के आक्रमण के समय पौरुष के भरोसे रहे ,जैसे मुहम्मद बिन कासिम के हमले के वक्त दाहिरसेन के भरोसे रहे जैसे मुहम्मद गौरी के हमले के समय पृथ्वीराज चौहान के भरोसे रहे ,जैसे बाबर के हमले के समय राणा सांगा के भरोसे रहे , जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी की तिजारत के समय सिराजुददौला -मीरकासिम के भरोसे रहे जैसे अंग्रेजों के आक्रमण के समय बहादुशाह जफर के भरोसे रहे ,वैसे ही इन दिनों भारत की आवाम का एक खास हिस्सा नरेद्र मोदी के भरोसे है। तो दूसरा हिस्सा भी केवल उनकी आलोचना में ही व्यस्त है। नीतियों-कार्यक्रमों पर अभी बहुत कम बात हो रही है। श्रीराम तिवारी !
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