मंगलवार, 30 अगस्त 2016

सभी धर्म-मजहब के धर्मगुरु भारत के संविधान पर भी थोड़ा विश्वास करें !

जैसे हँसना और गाल फुलाना -दोनों एक साथ सम्भव नहीं ,उसी तरह वैराग्य और सांसारिकता भी एक साथ सम्भव नहीं। यह सनातन और स्वयंसिद्ध नियम जानते हुए भी कुछ स्वयम्भू स्वामी ,योगी ,सन्यासी ,मुनि अपना 'सन्यास' कर्म त्याग कर सांसारिक पचड़ों में पड़ जाया करते हैं।जब इन मुमुक्षु वीतरागियों का अपनी ही जुबान पर कोई नियन्त्रण नहीं रहैगा ,तो  वे यह उम्मीद कैसे कर सकेते हैं कि दुनिया उनके दकियानूसी भाषणों और आध्यात्मिक लफ्फाजी पर अमल करेगी ? यदि मध्य युगीन सामन्ती सिस्टम होता तब भी गनीमत होती,तब यह सिद्धान्त मान्य हो सकता  था कि ''धर्म तो पति है और राजनीति पत्नी है ,इसलिए 'धर्म' का दायित्व है कि राजनीति रुपी पत्नी पर काबू रखे'' यह खतरनाक और प्रतिगामी सिद्धांत पेश करते हुए प्रातः स्मरणीय पूज्य मुनिवर महान - क्रांतिकारी सन्त श्री तरुणसागरजी महाराज  यह भूल गए कि यह नारी विरोधी पुरुषसत्तात्मक हिंसक दर्शन २१वीं शताब्दी की लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में नहीं चलेगा । केवल जैन सन्त तरुणसागर जी ही नहीं बल्कि अन्य सभी धर्म-मजहब के अलम्बरदार भी समय-समय पर अपना पौरुष प्रदर्शित करते रहते हैं।

चूँकि भारतीय संविधान सहित दुनिया के तमाम लोकतान्त्रिक राष्ट्रों के संविधान में स्त्री -पुरुष दोनों की समानता का उद्घोष विगत शताब्दी में ही हो चुका है। इसलिए अब पति -पत्नी दोनों बराबर हैं। यदि मुनिश्री तरुणसागरजी को या अन्य धर्म-मजहब के स्वामियों ,बाबाओं ,महंतों ,धर्मगुरुओं और उलेमाओं को यह  जानकारी नहीं है तो वे  अपनी जानकारी अपडेट कर लें। सभी धर्म-मजहब के अलम्बरदार भलेही क्रांतिकारी या रेनेसाँवादी न हों किन्तु  भारत के संविधान पर तो  थोड़ा विश्वास करें ! यदि संत-महात्मा ,ऋषि -मुनि और उलेमा अपने आप को संविधान से ऊपर रखना  चाहते हैं ,तो वे राजनीति से दूर रहें। यदि वे संविधान के खिलाफ- स्वेच्छाचारी आचरण करेंगे तो   उन्हें नक्सलवादियों की कतार में शामिल होना पड़ेगा। जो भारतीय संविधान ,न्याय व्यवस्था ,लोकतंत्र और संसद को भी नहीं मानते। दूसरा रास्ता उन कश्मीरी अलगाववादियों वाला है ,जो भारतके खिलाफ युद्ध छेड़े हुए हैं,और भारतीय संविधान से नफरत करते हैं। किसी भी धर्म-मजहब का परम विद्वान रहनुमा यदि अपने देश के संविधान की प्रस्तावना से अनभिज्ञ है ,तो उसे समाजको ज्ञान बांटने का कोई अधिकार नहीं। जिस सन्त ,मुनि या धर्मगुरु के मन में अपने देश के  संविधान के प्रति आदरभाव नहीं उसे 'राष्ट्रसन्त' कहना सरासर बेईमानी और पाखण्ड है।

इस संविधानिक अनभिज्ञता की अनदेखी कर, कुछ उत्साही धर्मांध अनुयायी यदि अपने 'कडुवे बोल 'वाले धर्मगुरु के समर्थन में आंदोलन  पर उतारू होने लगजाएँ तो यह नितांत अनैतिक कर्म ही माना जाएगा । प्रकारांतर से यह धार्मिक दबंगई जैसी ही है। यह स्मरणीय है कि तरुणसागरजी के कडुवे बोलबचन से अनेकान्तवाद स्याद्वाद और  'अहिंसावाद' का कोई  वास्ता नहीं। बल्कि नारी जाति का अपमान तो 'मानसिक हिंसा' जैसा कृत्य है ! जैन दर्शन का सर्वोच्च सारतत्व यही है की मनसा -बाचा -कर्मणा से हिंसा का निषेध हो !चूँकि तरुण सागर जी ने राजनीति रुपी पत्नी पर पुरुष रुपी 'धर्म' को खुली छूट दी है। अतः लोक और शास्त्र दोनों का हनन हुआ है। यदि 'आप पार्टी के नेता श्री दादलानी  ने मुनिवर के 'महाकडूबे 'बोल बचन ' पर आपत्ति ली,तो कौनसा गुनाह कर दिया ?गनीमत रही कि  मुनिवर ने भी कोई प्रतिवाद नहीं किया और क्षमा कर दिया। किन्तु उनके अनुयायी - जैन समाजके लोग आंदोलन पर उतारू हैं। वे भूल रहे हैं कि यदि श्री तरुणसागर जी को भारतीय  संविधान की अवज्ञा के वावजूद अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है तो दादलानी को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता क्यों नहीं ?क्या गलत बात का मौखिक विरोध भी सहन नहीं करोगे ? यदि कोई धर्म दर्शन इतना छुई-मुई है कि किसी एक मामूली व्यक्ति की सात्विक आलोचना से मुरझा जाये तो  उसका अस्तित्व  ही संदेहास्पद है।

हालाँकि मैं स्वयम भी  तरुण सागर जी का बहुत सम्मान करता हूँ। जैन दर्शन के वैज्ञानिक स्वरूप को तथा उसके स्याद्वाद ,अनेकान्तवाद दर्शन को बहुत पसन्द करता हूँ। किन्तु मैं मुनिश्री के उस पुरुषत्ववादी दर्शन से कतई सहमत नहीं हूँ,जो उन्होंने हरियाणा - चातुर्मास के दौरान निर्देशित किया। यदि  मुनिवर खुद ही अपनी इस गलती को सुधार लेते तो उनकी महानता में चार चाँद लग जाते । चूँकि वे देशभक्त -राष्ट्रसंत कहलाते हैं इसलिए यह और जरुरी है कि  वे भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिंद्धान्तों का सम्मान करें। संविधान की अवधारणा उसकी प्रस्तावना में निहित है। जो भी सख्श संविधान के खिलाफ जायेगा वह या तो नक्सलवादियों की तरह का हिंसक क्रांतिकारी होगा या अलगाववादियों -अराजकतावादी की तरह देशद्रोही होगा। यदि कोई धर्मगुरु अपने आप को सन्यासी,मुनि या वीतरागी घोषित करता है तो उसे इस सांसरिक ईषनाऔर 'चाहना' से ऊपर उठ जाना चहिये । ''वीतराग भय क्रोध : स्थिर धीर मुनि रुच्यते '' ही उसे शोभा देता है। 

धर्मगुरुओं को याद रखना चाहिए कि वे संविधान से ऊपर नहीं हैं। यदि वे सच्चे सन्त हैं ,राष्ट्र सन्त हैं तो सत्ता के 'अपवित्र' गलियारे उनके लिए नहीं हैं। उन्हें तो हमेशा यही कहना चाहिए कि 'संतन्ह कहुँ का सीकरी सौं काम। हरियाणा के खट्टर बाबा हों ,दिल्ली के आप नेता दादलानी हों ,राजनीती हो ,मुनि श्री तरुणसागरजी को इन सब सांसारिक विषयों से ऊपर दिखना चाहिए। उन्हें गलत फहमी है कि उनके कडूबे  बोल बचन महान जैन दर्शन का मान बढ़ा रहे हैं। बाणी का संयम धारण करना ही होगा। उन्हें यह भी कोशिश करनी चाहिए कि जैन समाज के लोग दिग्भर्मित न हों ! ददलानी की जरासी प्रतिक्रिया पर रुष्ट  होकर जैनबन्धु देशभर में 'मुनिवर' की अभ्यर्थना दिखाने के बहाने दादलानी को गिरफ्तार करने की मांग कर रहे हैं ,उसके लिए उग्र आंदोलन  कर रहे हैं,क्या यह मानसिक हिंसा नही है? जो लोग पर्युषण पर्व पर क्षमा का प्रदर्शन करने के बजाय कटुतापूर्ण भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वे सभ्रांत वर्ग के लोग जैन धर्म-जैन दर्शन और उसकी महानता को कठघरे में क्यों खड़ा कर रहे हैं ? यदि आंदोलन करना ही है तो श्वेताम्बर मुनियोंकी तरह मुँह पर सफ़ेद पट्टी  बांधकर,अहिंसक और मौन विरोध दर्ज क्यों नहीं कराते ?

सभी धर्म-मजहब के धर्मगुरुओं को ,संतों,मुनियों और साधु-साध्वियों ओं को स्वयम ही कानून के दायरे में आचरण करना चाहिए।  क्योंकि कानून या देश की जनता  उनको नियंत्रित करेगी तो यह अधर्म कहलायेगा।  किसी भी समाज को यह पसन्द नहीं आएगा। आधुनिक उन्नत टेक्नालॉजी के युग में ,प्रगत वैज्ञानिक युग में हर एक व्यक्ति धर्म को वैज्ञानिक कसौटी पर कसना चाहेगा , प्रगतिशील और लोकतंत्र-धर्मनिरपेक्षता का साहचर्य पसन्द करना चाहेगा। चूँकि धार्मिक और मजहबी प्रतिष्ठानों में अच्छी और वैज्ञानिक शिक्षा का घोर अभाव है ,और इसलिए वरिष्ठ सन्त और मुनि भी धर्म-मजहब या दर्शन के सामन्ती स्वरूप को सलीब की तरह अपने कन्धे पर उठाये इधर -उधर भटक रहे हैं । उनकी राजनैतिक सोच सामन्ती और सामाजिक मानसिकता यथावत है ,याने पुरुषसत्तात्मक  ही है। उनसे उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत को सीरिया या पाकिस्तान न बनाये। अपने धर्म -दर्शन को अपडेट करते रहें। आईएसआईएस जैसे हावभाव न दर्शाएं। क्योंकि भारत प्रतिगामी और मध्ययुगीन निरंकुश शासन व्यवस्था को बहुत पीछे छोड़ चुका है। चूँकि कुछ पुरातन सामन्ती रीति रिवाज मानव समाज और राजनीती को धकियाते हैं  इसलिए दादलानी ने तरुणसागर के उपदेश पर जो कुछ कहा वो दुरुस्त है। केजरीवाल ने यदि उसे पार्टी से निकाला है तो यह घोर मौकापरस्ती है। मुझे उनलोगों की समझ पर तरस आता है। जो सत्य से असत्य की ओर जा रहे हैं ,जो प्रकाश से अन्धकार की ओर जा रहे हैं ,जो अमृत्व से मृत्यु की ओर बढे चले जा रहे हैं। इससे उनकी हालत आसाराम जैसी भले ही न हो किन्तु त्रिशंकु जैसी तो हो ही जाएगी । श्रीराम तिवारी !




सोमवार, 29 अगस्त 2016

केवल प्रगतिशील गॉसिप या हवाबाजी से क्रांतियाँ नहीं भ्रांतियाँ ही हो सकती हैं।

 अत्यंत खेद की बात है कि जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है ,सामान्य राजनैतिक प्रतिस्पर्धियों की तरह ही तमाम वामपंथी - धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी भी अपने ज्ञान के अजीर्ण का भौंडा प्रदर्शन  किये जा रहे हैं। यदि आये दिन प्रधानमंत्री मोदी जी अपनी अल्पज्ञता दिखलाते हैं ,यदि उनके पक्षधर स्वामी,मुनि -बाबा लोग धुर -सामंत-  युगीन दलित-स्त्री शोषण का  फूहड़ दर्शनशात्र  बघारते रहते हैं ,यदि प्रकाश जावड़ेकर जैसे विद्वान मंत्री गण नेहरू,पटेल और सुभाष चन्द्र बोस को फांसी पर चढ़ना बताते हैं, यदि ऐन चुनाव के वक्त 'संघ प्रमुख' आरक्षण और 'हिन्दू जनसँख्या' क्षरण पर चिंता जताने लग जाते हैं ,तो यह सब उनका अज्ञानजनित 'सहज स्वभाव' है। यह उनका राजनैतिक पाखण्ड भी हो सकता है। लेकिन 'संघ' और मोदी जी के विद्वान आलोचकों को यदि बाकई देश की फ़िक्र है ,जनता की फ़िक्र है, लोकतंत्र और धर्मनिपेक्षता की फ़िक्र है तो अपना विकल्प पेश करें। जनता का मार्गदर्शन करें !अपनी वैचारिक सर्वोच्चता का प्रमाण पेश करें !केवल प्रगतिशील  गॉसिप या हवाबाजी से क्रांतियाँ नहीं भ्रांतियाँ ही हो सकती हैं।

मौजूद शासकों के आलोचक गण यह हमेशा याद रखें कि भारत की जनता ने तो खुल्लमखुल्ला 'अज्ञानियों' और पाखण्डियों को सत्ताके लिए चुना है ! यह मंजर 'परमज्ञानियों' के लिए एक दुष्तर चुनौती है। इसमें कोई शक नहीं कि यह अज्ञानियोंका सौभाग्य नहीं बल्कि उनकी वास्तविक 'विद्वत्ता' ही है.कि विराट जनादेश पाकर वे सत्तामें हैं। भारतके परम विवेकीजन - धर्मनिरपेक्ष ,विज्ञानवादी -समाजवादी नजरिये वाले विद्वतजन  यदि जनता का समुचित जनादेश हासिल नहीं कर पाते हैं ,तो यह उनकी वास्तविक 'अज्ञानता' है। भौतिकवादी- दर्शनशास्त्री- धर्मनिरपेक्ष- बुद्धिजीवी लोग देश की ज्वलन्त समस्याओं पर नीतिगत विकल्प प्रस्तुत करने के बजाय ,आवाम का मार्गदर्शन करने के बजाय , सोशल मीडिया पर सरकार की असफलता का मजा ले रहे हैं। क्या उनका यह गर्दभ आचरण क्रांतिकारी है ?  केवल 'संघ परिवार' या मोदी सरकार के मंत्रियों के ज्ञान का उपहास करते रहने से देश का भला नहीं होने वाला।इससे समाज का कोई कल्याण नहीं होने वाला। यदि इस तरह के बौद्धिक आचरण से कोई महान क्रांति  होने वाली हो तो मुझे इसका इल्म नहीं !
  
 कुछ लोग गाहे- बगाहे आरएसएस की तुलना आईएसआईएस ,अल-कायदा या तालिवान से करते रहते हैं। यह तुलना हास्यापद और भ्रामक है। इस काल्पनिक तुलनात्मकता में वैज्ञानिकता और तार्किकता का घोर अभाव है। वेशक मूलरूप से तत्वतः  सभी साम्प्रदायिक संगठनों में 'धर्मान्धता' ही उनका लाक्षणिक गुण है। RSS[संघ ]और आईएसआईएस में समानता सिर्फ इतनी  है कि दोनों संगठनों में 'अक्ल के दुश्मन' ज्यादा है.इसके अलावा इनमें और कोई समानता नहीं । मजहबी आधार पर इस्लामिक संगठनों के निर्माण ,उत्थान- पतन का इतिहास उतना ही पुराना है,जितना कि इस्लाम का इतिहास पुराना है।जबकि 'हिंदुत्व' का कॉन्सेप्ट ही तब अस्तित्व में आया जब मुस्लिम शासकों ने 'जजिया' कर लगाया। बाद में ज्यों-ज्यों हिंदुओं पर अत्याचार बढ़ते गये और हिंदु-मुस्लिम को एक सा मानने वाले दारा शिकोह जैसे मुगल वलीअहद भी जब औरंगजेब के इस्लामिक कट्टरवाद के शिकार हो गए तब भी हिंदुत्व का विचार तो अस्तित्व में आया किन्तु 'संगठन'बनने का कोई साक्ष्य नहीं है। छत्रपति शिवाजी और अहिल्या बाई होल्कर जैसे हिन्दू जागीरदारों   ने जरूर मरणासन्न हिंदुत्व को 'संजीवनी' दी ! किन्तु  इस्लाम जैसा आक्रामक मजहबी संगठन हिंदुओं का कभी नहीं बना।

मुगल सल्तनत के अवसान और ब्रिटिश गुलामी के भारत में अंग्रजों ने भी पहले केवल उन्ही मजहबी लोगों को संगठन बनाने के लिए उकसाया जो हिंदुओं के खिलाफ थे ,जो हिंदुस्तान के खिलाफ थे और जो अंग्रेज भक्ति में लीन थे। अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग को उकसाया ,सिख नेताओंको उकसाया ,दलित नेताओं  को उकसाया और इन अंग्रेज शासकोंने देशी राजाओं को भी संगठित होकर पटेल -नेहरूके खिलाफ उकसाया। अंग्रेजों ने उन सभीको भरपूर सहयोग दिया जो आजादी की जंग से बहुत दूर थे। जो डरपोक -स्वार्थी और कायर थे। अंग्रेजों ने इन सभी गद्दारों को कांग्रेस और गाँधी के खिलाफ लामबन्द  किया। सम्भवतः यही एक खास वजह रही कि हिंदुओं के नेता डॉ मुन्जे ,सावरकर , हेडगेवार को जब संगठन बनाने की सूझी तब उन्होंने अंग्रेजों के दुश्मन 'हिटलर' -मुसोलनी  से मदद माँगी। यद्द्पि  यह सही है कि  'संघ परिवार' ने स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस का साथ नहीं दिया ,किन्तु बंगाल के कट्टरपंथी हिंदु-साधु सन्यासियों ने जितनी कुर्बानी दी वो वेमिशल है। हिन्दू स्वामी श्रद्धानन्द और लाला लाजपतराय जैसे महान लोगों के बलिदान ने ही शहीद भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों को प्रेरणा दीथी । यह बात अलग है कि फांसी के फंदे पर झूलने से कुछ दिनों पहले शहीद भगतसिंह बहुत बड़े वामपंथी  'विचारक' और शुध्द वोल्शेविक बन चुके थे।  

किन्तु न केवल सनातन हिन्दू धर्म में ,बल्कि जैन और बौद्ध धर्म  में और उनके पुरातन पैतृक -आर्य वैदिक धर्म  में भी 'अहिंसा' ही हमेशा आस्था का सर्वोच्च सिद्धांत रहा है। संसार के अन्य किसी भी धर्म-मजहब ने 'अहिंसा'को इतना महत्व नहीं दियाहै। सर्वविदित है कि मजहबी दुनिया के इतिहास में भारत के स्थानीय धर्मों के अलावा अन्य किसी भी मजहब में अहिंसाके लिए कोई जगह नहीं है। बल्कि मजहब के नाम पर लूटपाट और अमानवीय  क्रूरता का वीभत्स रूप ही  विद्यमान रहा है।  मुझे याद नहीं आ रहा कि  भारत से बाहर स्थापित हुए किस धर्म मजहब में 'अहिंसा' शब्द का सम्मानजनक उल्लेख कहाँ -कब और किस सन्दर्भ में  किया  गया है ? वेशक आरएसएस वालों पर असत्य कथन का आरोप तो लगाया जा सकता है कि वे मजूरों-किसानों की उद्धारक साम्यवादी और समाजवादी विचार - धारा को विदेशी बताते हैं ,जबकि वे खुद हिटलर-मुसोलनी की  'फासीवादी ' विचारधारा से  इस कदर प्रेरित हैं कि फह्यूरर और सिन्योरा की टोपी भी उन्होंने अपना ली। यदि आरएसएस वाले शिवाजी वाली पगड़ी रखते या चाणक्य और समर्थरामदास जैसे सफाचट खोपड़ी पर खुली चोटी रखते तो माना जाता कि वे शुद्ध देशी हैं ,किन्तु आरएसएस का सम्पूर्ण वैभव ,बिचारऔर दर्शन सुद्ध विदेशी है

रविवार, 28 अगस्त 2016

हर पुरातन मानवीय मूल्य को अंध आस्था के हवाले नहीं किया जा सकता ।



  जब तक आपके घर में ,मोहल्ले में ,शहर में ,प्रदेश में , देश में और दुनिया में  कोई  माकूल कल्याणकारी- व्यवस्था स्थापित न हो जाए ,कोई न्यायप्रिय -अमनपसन्द वातावरण स्थिर न हो जाए या जब तक कोई बेहतर सकारात्मक सामाजिक -आर्थिक -सांस्कृतिक क्रांति न हो जाए ; तब तक प्रत्येक व्यक्ति की सेहत के लिए यह उचित है कि अपने परम्परागत मानवीय मूल्यों और नैतिक सन्देशों का अनुशरण अवश्य करे। ऐंसा करते हुए ही मानवीय जीवन की अनवरत यात्रा जारी रखी जा सकती है।

प्रायः विश्व के हर समाज ,हर राष्ट्र के रीति-रिवाजों में और अधिकांस धर्म-मजहब में  कुछ तो सार्थक सिद्धान्त -सूत्र अवश्य हैं। वर्तमान धर्म-मजहब के आडम्बर और पाखण्ड को किनारे कर यदि हम हमारे मुमुक्षु पूर्वजों द्वारा अन्वेषित 'सुख मन्त्रों' का अध्यन करें ,उनका अनुशीलन  भी करें तो ,अनुभव बताता है कि उसमें कुछ भी बेकार  नहीं है।बल्कि कुछ ऐसा अवश्य है जो अवैज्ञानिक नहीं है। इसलिए हर पुरातन मानवीय मूल्य को अंध आस्था के हवाले नहीं किया जा सकता। बल्कि बहुत कुछ ऐंसा है जो सर्वकालिक है ,सार्वभौमिक है और क्रांतिकारी भी है।

उदाहरण के लिए कुछ पुरातन और उपयोगी शिक्षाएं  इस आलेख में  प्रस्तुत हैं :-

१- ये तीन चीजें कभी किसी का इन्तजार नहीं करतीं -समय ,मौत और ग्राहक !

२-ये तीन चीजें जीवन में एक बार ही मिलती हैं -माँ -बाप और जवानी !

३-ये तीन बातें हमेशा याद रखें -कर्ज,फर्ज और मर्ज !

४-इन तीनों का सदा सम्मान करो -जल ,जंगल और जमीन !

५-इन तीनों को ईश्वर से अधिक पूज्य मानों -माता-पिता और शिक्षक !

६ -ये तीन बातें हमेशा स्मरण रखो -कम खावो ,गम खावो ,नम जावो !

७-इन तीन को कभी छोटा नहीं समझो -कर्ज ,क्रोध और बीमारी !

८-इन तीन को हमेशा काबू में रखो -मन ,इन्द्रियाँ और शरीर !

९-ये तीन कभी वापिस नहीं लौटते -धनुष से छूटा तीर ,मुँह से निकला बोल और प्रमादसे निकला समय !

१० - ये तीनों  बहुत पछताते  हैं -डाल का चूका बन्दर ,आषाढ़ का चूका किसान और अखाड़े में चूका पहलवान !


११-समय ,सेहत और सम्बन्ध इन तीनों पर  कीमत का लेबल नहीं लगा होता,जब हम इन्हें खो देते हैं तब उनकी कीमत का पता चलता है !


* -गलती कबूल करने और गुनाह छोड़ने में कभी देर नहीं करनी चाहिए। अन्यथा सफर जितना लंबा होगा वापिसी उतनी ही मुश्किल होती चली जाएगी !

*-इंसान तब समझदार नहीं होता जब वह बड़ी -बड़ी बातें करने लगे ,बल्कि समझदार तो वह तब होता है जब छोटी-छोटी बातों को समझने लगे !

* -मंदिर में वो भगवान् है ,जिसे इंसान ने बनाया है। घर में वो माँ -बाप हैं ,जिन्होंने  हमें बनाया है।

*-एक मिनिट में जिंदगी नहीं बदलती ,किन्तु एक मिनिट 'सोचकर' लिया गया फैसला,जिंदगी बदल सकता है !

*- हमारी दुर्लभ मानव देह सोने के पात्र के समान है। इसमें  हिंसा ,स्वार्थ ,धर्मांधता ,साम्प्रदायिकता ,जातीयता और विलासिता का कूड़ा -करकट भरने के बजाय ,सदविचार ,सदाचार,और मानवता के क्रांतिकारी विचारों का अमृत भर दो  !

                                                                            सङ्कलन :-श्रीराम तिवारी

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

ऐंसे -कैसे मान लें कि अब भारत भी एक अमीर देश हो गया है?

 विश्व बैंक के एक सर्वे में दुनिया के अमीर देशों की सूची जारी हुई है। अमेरिका पहले स्थान पर है ,रूस नम्बर दो पर ,चीन तीसरे नम्बर पर और भारत सातवें नम्बर पर आ गया है। दुनिया के दो सौ सोलह राष्ट्रों की सूची  में यदि भारत का नम्बर सातवां  है तो प्रतिव्यक्ति आय में यह १२० वें स्थान पर गिर चुका है। चूँकि ये दोनों ही आंकड़े 'न्यू वर्ल्ड वेल्थ आर्गेनाइज़ेशन 'के हैं अतः अविश्वास की गुंजायस कम ही है। यदि अमीर देशों में भारत बाकई  सातवें नम्बर पर आ गया है तो यह भारत की कुछ कम उपलब्धि नहीं है। बल्कि मौजूदा मोदी सरकार के लिए अपनी पीठ ठोकने लायक  बहुत है।लेकिन उन्हें इसका जबाब देना ही होगा कि प्रति व्यक्ति आय में भारत का स्थान १२० वें नम्बर पर क्यों हैं ?

जब डॉ मनमोहन सिंह ने २००४ में सत्ता सम्भाली तब  विश्व के अमीरों की सूची में भारत १४ वें नम्बर पर था। डॉ. मनमोहनसिंह ने यूपीए के १० सालाना शासन काल में भृष्ट अमीरों की सम्पदा में चार गुना ज्यादा इजाफा कराया। और अप्रेल-२०१४ की सूची में भारत ११ वें स्थान पर आ गया। मई २०१४ में मोदी सरकार ने सत्ता सम्भाली और मात्र सवा दो साल में  भारत विश्व के अमीर देशों की सूची में  ७ वें स्थान पर आ गया । याने सवा दो साल में भारत के अमीरों की इतनी अधिक तरक्की हुई है कि भारत ७ वें स्थान पर आ गया। जबकि प्रति व्यक्ति आय में और सकल राष्ट्रीय उत्पादन में भारत अभी भी सूडान ,इथोपिया ,अफगानिस्तान ,पाकिस्तान,बांग्लादेश ,भूटान और नेपाल जैसे कंगले राष्ट्रों से भी नीचे ओंधे मुँह पड़ा है। मोदी सरकार से और देश के आर्थिक नीति निर्मातों से प्रश्न किया जाना चाहिए कि समृद्ध भारत का  वास्तविक तात्यपर्य क्या है ? क्या अमीरों की अमीरी में इजाफा होने या कुछ अरब डालर  विदेशी  मुद्रा भण्डार की बढ़त से देश की समृद्धि का मूल्यांकर होगा ?क्या देश की अधिसंख्य जनता केवल वोटर मात्र है ?क्या मोदी सरकार अपनी आर्थिक नीतियों को कुछ इस तरह पलटने का कष्ट करेगी कि 'प्रति व्यक्ति आय' में  बढ़त हो और उस सूची में भी  भारत कम से कम ७वे स्थान पर हो !

बहरहाल विश्वके प्रमुख अमीर देशों के साथ ७वें नंबर पर भारत को देखकर ,मुझे सूझ नहीं पड़ रहा कि हँसू या रोऊँ !क्योंकि पूँजीवादी विकास का एकमात्र अर्थ है कि इस विकास के दुष्परिणाम का फल देश की गरीब जनता को ही भुगतना पड़ता है। जैसे कि मिट्टी का ऊँचा टीला या चबूतरा बनाने के लिए आसपास की जमीन से ही मिट्टी खोदकर उस टीले को ऊंचा किया जाता है ,उसी तरह यदि  देश में कुछ लोग ज्यादा अमीर बनेगें तो उनके हिस्से में जो धन की बाढ़ आई वह धन उनके हिस्से का ही होगा जो कंगाल होते जा रहे हैं । यद्द्पि इस सूचना से मुझे खुश होना चाहिए था , कि भारत अब और जायद अमीर देश हो गया है। किन्तु इस खबर के वास्तविक अर्थ  की समझ रखने वाला कोई भी  सच्चा भारतीय  खुश होने के बजाय कुपितया दुखी ही होगा। क्योंकि इस समृद्धि का अर्थ स्पष्ट है कि ज्यादा लोगों के आर्थिक शोषण और उनका हिस्सा हड़पकर ही  चन्द अमीर घरानो -कार्पोरेट्स के जमाखातों में आकर्षक आर्थिक आंकड़े विश्व बैंक को सहला रहे हैं। इस किस्म के लुभावने आर्थिक आंकड़ों में भले ही भारत  एक अमीर देश दीखता है।किन्तु देश की अधिकांस निर्धन जनता का, यह सनातन कंगाली पीछा क्यों नहीं छोड़ रही  ? यह सवाल अवश्य बार-बार मेरे मन में उठ रहा है। 

यह बिडम्बना ही है कि सवासौ करोड़ की आबादी वाले देश में दो-चार खरबपति ,दस-बीस अरबपति और मात्र ३%  इनकम टैक्स पेई हों ,जिस देश में ४०% जनता बीपीएल /एपीएल के झमेले में झूल रही हो ,जिस देश की ६०% से ज्यादा आबादी अभी भी पीने योग्य पानी के लिए तरस रही हो ,जिस देश की ७०%जनता स्वास्थ सेवाओं से वंचित हो ,जिस देश की आधी आबादी खुले में शौच के लिए मजबूर हो ,जिस देश के कालाहांडी[ओड़ीसा ] में किसी गरीब आदिवासी को अपनी मृत पत्नी की पार्थिव देह कन्धे पर लादकर कीचड़ भरे पथरीले रस्ते पर मीलों पैदल  चलना पड़ता हो , जिस देश के लोगों का चरित्र इतना गिर गया हो कि रेलवे के पंखे और कम्बल चुराकर घर ले जाएं , जिस देश के लोग राह में दुर्घटना ग्रस्त किसी कारवाले को या बस वाले यात्रियों को मौत से जूझता देखकर भी उनके पर्स और कीमती सामान पर हाथ साफ कर भाग जाएँ , जिस देश में बिना भेंट-पूजा दिए थाने में ,सरकारी कार्यालयों में और राजनीति के ठिकानों में नमस्ते का उत्तर भी न मिलता हो ,उस देश को हम महान भारत तो कह सकते हैं ,किन्तु अमेरिका ,रूस ,चीन ,ब्रिटेन, जर्मनी,जापान,के बाद यदि ७वा स्थान मिला हो तो खुश होने के बजाय सर पीटने का मन करता है। श्रीराम तिवारी

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

लोग योगेश्वर श्रीकृष्ण को भूलकर, माखनचोर के पीछे क्यों पड़े रहते हैं ?



हिन्दू पौराणिक मिथ अनुसार  भगवान् विष्णु के दस अवतार माने गए हैं। कहीं-कहीं २४ अवतार भी माने गए हैं।  अधिकांस हिन्दू मानते हैं कि केवल श्रीकृष्ण अवतार ही  भगवान् विष्णु का पूर्ण अवतार है। हिन्दू मिथक अनुसार श्रीकृष्ण से पहले विष्णु का 'मर्यादा पुरषोत्तम' श्रीराम अवतार हुआ और वे केवल मर्यादा के लिए जाने गए। उनसे पहले परशुराम का अवतार हुआ,वे  क्रोध और क्षत्रिय -हिंसा के लिए जाने गए। उनसे भी पहले 'वामन' अवतार हुआ जो न केवल बौने थे अपितु दैत्यराज प्रह्लाद पुत्र राजा - बलि को छल से ठगने के लिए जाने गए। उनसे भी पहले 'नृसिंह'अवतार हुआ ,जो आधे सिंह और आधे मानव रूप के थे अर्थात पूरे मनुष्य भी नहीं थे। उससे भी पहले 'वाराह' अवतार हुआ जो अब केवल एक निकृष्ट पशु  ही माना जाता है। उससे भी पहले कच्छप अवतार हुआ ,जो समुद्र मंथन के काम आया। उससे भी पहले मत्स्य अवतार हुआ जो इस वर्तमान ' मन्वन्तर' का आधार  माना गया।डार्विन के वैज्ञानिक विकासवादी सिद्धांत की तरह यह 'अवतारवाद' सिद्धांत भी वैज्ञानिकतापूर्ण है।  

आमतौर पर विष्णु के ९ वें अवतार 'गौतमबुद्ध ' माने गए हैं, दशवाँ कल्कि अवतार होने का इन्तजार है। लेकिन हिन्दू मिथ भाष्यकारों और पुराणकारों ने श्री विष्णुके श्रीकृष्ण अवतार का जो भव्य महिमामंडन किया है वह न केवल  भारतीय मिथ -अध्यात्म परम्परा में बेजोड़ है ,बल्कि विश्व के तमाम महाकाव्यात्मक संसार में भी श्रीकृष्ण का चरित्र ही सर्वाधिक रसपूर्ण और कलात्मक  है। श्रीमद्भागवद पुराण में वर्णित श्रीकृष्ण के गोलोकधाम गमन का- अंतिम प्रयाण वाला दृश्य पूर्णतः मानवीय  है। इस घटना में कहीं कोई दैवीय चमत्कार नहीं अपितु कर्मफल ही झलकता है। अपढ़ -अज्ञानी  लोग कृष्ण पूजा के नाम पर वह सब ढोंग करते रहते हैं जो कृष्ण के चरित्र से मेल नहीं खाते। आसाराम जैसे कुछ महा धूर्त लोग अपने धतकर्मों को जस्टीफाई करने के लिए  कृष्ण की आड़ लेकर कृष्णलीला या रासलीला को बदनाम करते रहते हैं। श्रीकृष्ण ने तो इन्द्रिय सुखों पर काबू करने और समस्त संसार को निष्काम कर्म का सन्देश दिया  है।

आपदाग्रस्त द्वारका में जब यादव कुल आपस में लड़-मर रहा था । तब दोहद- झाबुआ के बीच के जंगलों में श्रीकृष्ण किसी मामूली भील के तीर से घायल होकर  निर्जन वन में एक पेड़ के नीचे कराहते हुए पड़े थे । इस अवसर पर न केवल काफिले की महिलाओं को भीलों ने लूटा बल्कि गांडीवधारी अर्जुन का धनुष भी भीलों ने  छीन लिया । इस घटना का वर्णन किसी लोक कवि ने कुछ इस तरह किया है :- जो अब कहावत  बन गया है ।

        ''पुरुष  बली नहिं  होत है ,समय होत बलवान।

        भिल्लन लूटी गोपिका ,वही अर्जुन वही बाण।।''

अर्थ :-  कोई भी व्यक्ति उतना महान या  बलवान नहीं है ,जितना कि 'समय' बलवान होता है। याने वक्त सदा किसी का एक सा नहीं रहता और मनुष्य वक्त के कारण  ही कमजोर या ताकतवर हुआ करता है। कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में, जिस गांडीव से अर्जुन ने हजारों शूरवीरों को मारा ,जिस गांडीव पर पांडवों को बड़ा अभिमान था ,वह गांडीव भी श्रीकृष्णकी रक्षा नहीं कर सका। दो-चार भीलोंके सामने अर्जुनका वह गांडीव भी बेकार साबित हुआ।  परिणामस्वरूप 'भगवान' श्रीकृष्ण घायल होकर 'गौलोकधाम' जाने का इंतजार करने लगे। 

पराजित-हताश अर्जुन और द्वारका से प्राण बचाकर भाग रहे  यादवों के स्वजनों- गोपिकाओं को भूंख प्यास से तड़पते  हुए  मर जाने का वर्णन मिथ- इतिहास जैसा चित्रण नहीं लगता। यह कथा वृतांत कहीं से भी चमत्कारिक  नहीं लगता। वैशम्पायन वेदव्यास ने  श्रीमद्भागवद में  जो मिथकीय वर्णन प्रस्तुत किया है ,वह आँखों देखा हाल जैसा लगता है। इस घटना को 'मिथ' नहीं बल्कि इतिहास मान लेने का मन करता है। कालांतर में चमत्कारवाद से पीड़ित,अंधश्रद्धा में आकण्ठ डूबा हिन्दू समाज इस घटना की चर्चा ही नहीं करता। क्योंकि इसमें ईश्वरीय अथवा मानवेतर  चमत्कार  नहीं है। यदि विष्णुअवतार- योगेश्वर श्रीकृष्ण एक भील के हाथों घायल होकर मूर्छित पड़े हैं तो उस घटना को अलौकिक कैसे कहा जा सकता है ? जो मानवेतर नहीं वह कैसा अवतार ? किसका अवतार ? किन्तु अधिकांस सनातन धर्म अनुयाई जन द्वारकाधीश योगेश्वर श्रीकृष्ण को छोड़कर , लोग पार्थसारथी - योगेश्वर  श्रीकृष्ण को भूलकर   माखनचोर  के पीछे पड़े हैं। लोग श्रीकृष्ण के 'विश्वरूप'को भी पसन्द नहीं करते उन्हें तो   'राधा माधव' वाली छवि ही भाती  है । रीतिकालीन कवि बिहारी ने कृष्ण विषयक इस हिन्दू आस्था का वर्णन इस तरह किया है :-

     मोरी  भव  बाधा  हरो ,राधा  नागरी  सोय।

    जा तनकी  झाईं परत ,स्याम हरित दुति होय।।

   या

'' मोर मुकुट कटि काछनी ,कर मुरली उर माल।

 अस बानिक मो मन बसी ,सदा  बिहारीलाल।। ''

अर्थात :- जिसके सिर पर मोर मुकुट है ,जो कमर में कमरबंध बांधे हुए हैं ,जिनके हाथों में मुरली है और वक्षस्थल पर वैजन्तीमाला है , कृष्ण की वही छवि  मेरे [बिहारी ]मन में सदा निवास करे !

कविवर रसखान ने भी इसी छवि को बार-बार याद किया है।

  'या लकुटी और कामरिया पर राज तिहुँ पुर को तज डारों '

या

 'या छवि को रसखान बिलोकति बारत कामकला निधि कोटि '

संस्कृत के भागवतपुराण -महाभारत, हिंदी के प्रेमसागर -सुखसागर और गीत गोविंदं तथा कृष्ण भक्ति शाखा के अष्टछाप -कवियों द्वारा वर्णित कृष्ण लीलाओं के विस्तार अनुसार  'श्रीकृष्ण' इस भारत भूमि पर-लौकिक संसार में श्री हरी विष्णु के सोलह कलाओं के सम्पूर्ण अवतार थे। वे न केवल साहित्य ,संगीत ,कला ,नृत्य और योग विशारद थे। अपितु वे इस भारत भूमि पर पहले  क्रांतिकारी थे जिन्होंने इंद्र  इत्यादि वैदिक देवताओं के  विरुद्ध जनवादी शंखनाद किया था। खेद की बात है कि श्रीकृष्ण के इस महान क्रांतिकारी व्यक्तित्व को भूलकर लोग उनकी बाल छवि वाली मोहनी मूरत पर ही फ़िदा होते रहे । श्रीकृष्ण ने  'गोवर्धन पर्वत क्यों उठाया ? यमुना नदी तथा गायों की पूजा के प्रयोजन क्या था ?  इन सवालों का एक ही उत्तर है कि श्रीकृष्ण प्रकृति और मानव समेत तमाम प्रणियों के शुभ चिंतक थे।  क्रांतिकारी  श्रीकृष्ण ने कर्म से ,ज्ञान से और बचन से मनुष्यमात्र को  नई  दिशा दी। उन्होंने विश्व को कर्म योग और भौतिकवाद से जोड़ा।  शायद इसीलिये उनका चरित्र विश्व के तमाम महानायकों में सर्वश्रेष्ठ है। यदि वे कोई देव अवतार नहीं भी थे तो भी वे इतने महान थे कि उनके मानवीय अवदान और चरित्र की महत्ता किसी ईश्वर से कमतर नहीं हो सकती । Shriram Tiwari !




सोमवार, 22 अगस्त 2016

रियो ओलम्पिक में भारत की दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है ?

इसमें कोई शक नहीं कि रियो ओलम्पिक में भारत की  बेहद शर्मनाक दुर्दशा हुई है। इतिहास में भारत का इतना पतन कभी नहीं हुआ। गुलामी के दिनों में भी भारत के  ध्यानचंद जैसे महान हॉकी खिलाड़ी  गोल्ड मेडल लाने का माद्दा रखते थे । आजादी के बाद साल दर साल भारत ने खेलों में तरक्की की है। विगत २०१२ के ओलम्पिक खेलों  में भी भारतको आधा दर्जन मेडल मिले थे। लेकिन मोदी सरकार के सत्तामें आने के बाद ; भारत को  जिस तरह हर क्षेत्र में नकारात्मक धक्का लगा है ,उसी तरह खेल  के क्षेत्र में भी भारत का प्रशासन रसातल में  धस गया है। रियो ओलम्पिक में भारत की महादुर्दशा के लिए कौन-कौन जिम्मेदार हैं ? भारत की खस्ताहाल खेल नीति या नेता अथवा खेल अधिकारी या खिलाड़ी ;  इसकी जबाबदेही अवश्य  ही तय होनी चाहिए।

एक भारतीय मैराथान धाविका 'ओ पी जैशा'ने रियो ओलम्पिक में ४२ किलोमीटर की मैराथन दौड़ में एक ग्लास पानी भी नसीब नहीं होने का दर्द बयां किया है। इस शर्मनाक घटना के फोटो पहले ही वायरल हो चुके हैं ,किन्तु भृष्ट- बेईमान खेल अधिकारी अपनी अय्यासी और काली करतूतों पर पर्दा डालने के लिए ,उलटे उस धाविका के बयान को गलत बता रहे हैं। जबकि सारी दुनिया ने जैशा को बीच सड़क पर बेहोश पडी हालत में देखा है। और पीड़ित भारतीय धाविका का फोटो सोशल मीडिया पर सारी दुनिया पहले ही अच्छी तरह से देख चुकी है। क्या भारतके प्रधानमंत्री मोदीजी इन पापियों को दण्डित करेंगे ?या कालेधन वालों की तरह,विजय माल्या की तरह , ललित मोदी की तरह,जमाखोरों और कालाबाजारियों की तरह , इन अपराधियों की ओर से भी नजर फेर लेंगे ? 

भारतीय मैराथन धाविका  'ओ पी जैशा ' ने  IBN7 को रोते हुए बताया  कि '' ४२ किलोमीटर की मैराथन दौड़ के दौरान उसे पीने के लिए एक बूँद पानी  भी नहीं दिया गया । बिना पानी ,ग्लूकोज और शहद के वह लगातार ३६ किलोमीटर दौड़ चुकने के बाद जब वह सड़क पर बेहोश होकर गिर पडी,तो दो घंटे तक किसी ने उसकी सुध नहीं ली। दूसरे देशों के खिलाडी-धावकों ने जरूर उसे उठाकर सड़क किनारे बिठा दिया किन्तु वह मरणासन्न अवस्था में अपने देश के सिस्टम पर आंसू बहती रही। भारतीय ओलम्पिक दल का कोई भी शख्स  वहाँ मौजूद नहीं था।'' भारत से लेकर रियो तक सबकेसब सेल्फी खींचने और सोशल मीडिया पर फोटो पोस्ट करने में व्यस्त थे। रियो में खिलाड़ियों को देखने सुनने वाला  कोई नहीं था। मैराथन धाविका ने बताया कि ''दूसरे देशों के कोच और खिलाडियों या सहयोगियों ने उसकी मदद की और पानी पिलाया। जबकि दुनिया के तमाम अन्य पार्टिसिपेंट के लिए उनके देशों के परिचारक हर आठ किलोमीटर पर टॉल लगाकर खड़े और हौसला भी बढा रहे थे।भारत के भी कुछ टॉल लगे हुए थे लेकिन वहां कोई मौजूद नहीं था।''

भारत का निर्मम- धृष्ठ प्रशासन ,मक्कार खेल अधिकारी ,प्रमादग्रस्त  कोच  और भारत के निर्लज्ज  खेलमंत्री शायद  रियो में सपरिवार केवल सैर -सपाटे या सेल्फी खींचने के लिए गए थे। कायदे से हर आठ किलोमीटर पर खिलाड़ी को पीने का पानी मिलना चाहिये था। अपनी अकर्मण्यता पर पर्दा डालने के लिए ,ओलम्पिक में अपनी काली करतूत छिपाने के लिए , सत्ता में बैठे निर्लज्ज लोग और उनके चमचे  रियो में साक्षी -सिंधु को मिले कांसे और चाँदी के एक-एक मेडल को ऐतिहासिक उपलब्धि  बता रहे हैं।  इन दो मेडलों पर करोड़ों न्योछावर करने का ढोंग -पाखण्ड कर रहे हैं । रियो ओलम्पिक में अपनी घोर असफलता पर शर्मिंदा होनेके बजाय ये जिम्मेदार लोग  सत्ता की चापलूसी में ढपोरशंख बजाने में जुट गए हैं। आईओए वालो ,खेल अधिकरियो , नीति-निर्धारकों -देश की हालत पर कुछ तो शर्म करो  ! शहीदों के महान देश भारत का मजाक उड़वाना बंद करो !

'रियो डी जेनेरियो' -ओलम्पिक समापन उपरान्त  जारी अंतिम पदक सूची के अनुसार अमेरिका अपने प्रथम स्थान पर नाबाद है। लेकिन जो देश  विगत चार ओलम्पिक खेलों से लगातार नंबर दो पर हुआ करता था ,वो चीन अब नंबर तीन पर आ गया है। उसकी जगह ब्रिटेन नंबर दो पर आ गया है। १९८०  के ओलम्पिक में  तो सोवियत संघ नंबर वन था। किंतु सोवियत विखण्डन के उपरान्त वाला रूस अब ५ -६ नंबर पर खिसक गया है। लेकिन यदि उसके बिखरे फेडरल राष्ट्रों -रूस ,यूक्रेन,जार्जिया,उजवेगस्तान,अजरवेजान,तुर्कमेनिस्तान इत्यादि  के मेडल एक साथ जोड़ें जाएँ ,तो यह कुल योग अमेरिका को मिले कुल पदकों  से भी ज्यादा होगा ।अर्थात 'सोवियतसंघ'  यथावत होता तो रियो ओलम्पिक में  वही नबर वन होता। और अमेरिका नंबर दो पर  ही होता।

उधर चीन के खिलाडियों  और चीन सरकार ने खेलों के लिए इस ओलम्पिक में जी जान लगा दी थी। चीनियों का मकसद था कि रियो में चीन नम्बर दो पर आये ;और अमेरिका को पीछे छोड़ दे। चीन चौबे से छब्बे तो नहीं बन पाया किन्तु दुब्बे जरूर बन गया। क्योंकि  ब्रिटेन  ने दूसरा स्थान छीन लिया है। जबकि १९९६ में ब्रिटेन को सिर्फ एक स्वर्ण पदक मिला था। उससे नसीहत लेकर ब्रिटिश सरकार ने खेल विषयक नीतियाँ और कार्यकर्मों में कुछ खास परिवर्तन किये थे , परिणामस्वरूप रियो ओलम्पिक में ब्रिटिश खिलाडियों ने चीनी खिलाडियों से भी बेहतर प्रदर्शन  किया है । और अब  ब्रिटेन नंबर दो पर है । भारत की मोदी सरकार ने विगत सवा दो साल में जो कुछ किया उसका परिणाम सबके सामने है।  पहले आधा दर्जन मेडल लाया करते थे ,इस बार केवल दो पदकों में ही सरकार और खेल प्रेमी गदगद हो रहे हैं। पुराने और परम्परागत भारतीय भृष्ट  खेल प्रबधन पर कोई लगाम नहीं लगाई गयी।  पुराने भृष्टों की जगह अपने 'संघनिष्ठ' नए भृष्ट  अफसरों और मक्कार नेताओं  को खेल प्रबधन सौंप कर  केंद्र सरकार चैन की नींद सोती रही ।  सवा दो साल केवल ठकुर सुहाती ही बर्बाद कर दिए !अब दो पदकों को देख-देख ऐंसे किलक रहे मानों क्रिकेट विश्व कप में पाकिस्तान को हरा दिया हो !

               भृष्ट सिस्टम -मुर्दाबाद :-

   सवा सौ करोड़की आबादी वाला हमारा प्यारा भारत -दुनिया का तथाकथित सबसे बड़ा लोकतंत्र -जिंदाबाद !

   केंद्र में ऊर्जावान प्रधानमंत्री श्री मोदीजी और उनके नेतत्व में विशुध्द 'राष्ट्र्वादी' एनडीए सरकार-जिंदाबाद !

    रियो ओलम्पिक खेलों पर दो सौ करोड़ रूपये  खर्च करने वाले मंत्री ,अफसर,कोच -खिलाड़ी -जिंदाबाद !

   अपने खिलाडियों की जीत के लिए -यज्ञ , हवन ,कीर्तन,मन्नत ,पूजा -पाठ  करने वाले शृद्धालु -जिंदाबाद !

    कासे का एक पदक जीतनेवाली साक्षी और चाँदी का मेडल जीतने वाली संधू और उनके कोच -जिंदाबाद !

   आजादीके सत्तर साल बाद रियो ओलम्पिक में भारतको एक भी स्वर्णपदक नहीं मिला भृष्ट सिस्टम -मुर्दाबाद !

                        shriram Tiwari

सोमवार, 15 अगस्त 2016

मोदी जी आपकी बदौलत बीएसएनएल को प्रॉफिट नहीं हुआ है !


 ७० वें स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए प्रधान मंत्री मोदी जी ने जो कुछ कहा उससे किसी को शायद ही कोई शिकायत होगी। बल्कि मुझे तो उनका पीओके , गिलगिलत - बलूचिस्तान वाला वक्तव्य बहुत सटीक लगा। इसके अलावा उन्होंने फ़ौज के जवानों को याद किया। किसानों - महिलाओं की और दलितों की बात की। सौर ऊर्जा ,दालों की कमी और पेट्रोलियम आयात पर बचाये गए बीस हजार करोड़ रुपयों की बात की ,उन्होंने सार्वजानिक उपक्रमों को घाटे से उबारने और मुनाफे में लाने का दावा किया,उन्होंने महँगाई  कंट्रोल में होने की बात की औरआगामी तीन वर्षों में देश के पांच करोड़ अन्त्यज गरीबों तक एलपीजी सुविधा पहुंचाने का वादा भी दुहराया। चूँकि भाषण का मामला वन वे है, मोदी जी प्रधान मंत्री हैं और लालकिले की प्राचीर से उन्होंने जो कुछ भी कहा है ,वह देश की आवाज है ,यह भाषण देश की पालिसी और प्रोग्राम को भी दर्शाता है। इसलिए  स्वाधीनता दिवस पर अधिकांस देशवासियों का जश्ने आजादी की शुभकानाओं के आदान - प्रदान पर आत्मतुष्ट हो जाना स्वाभाविक है। लेकिन विवेकशील राष्ट्रीय चेतनाका दायित्व है कि सापेक्ष सत्य को स्वीकार करे,और अर्धसत्यके कुहांसे को कोई रात का अँधेरा न समझ बैठे,यह  सम्पूर्ण भारतीय जनमानस का दायित्व  है।

लाल किले की प्राचीर से सत्तरवें स्वाधीनता दिवस के भाषण में मोदीजी ने एयर इण्डिया ,शिपिंग कारपोरेशन और बीएसएनएल समेत अन्य सार्वजनिक उपक्रमों को 'ऑपरेशनल प्रॉफिट' में होना बताया है ,यह न केवल मोदी सरकार के लिए ,न केवल हितग्राहियों के लिए बल्कि पूरे राष्ट्रके लिए आत्म गौरव और प्रशन्नता की बात है। किन्तु इसका श्रेय मोदी जी को बिकुल नहीं है। क्योंकि यदि उनकी वजह से बीएसएनएल में नफा  हुआ है ,तो उनके होते हुए एमटीएनएल घाटे में क्यों है ? क्योंकि भाजपा और एनडीए के चुनावी घोषणा पत्र में और कार्यनीतिक  एजेंडे में तो भारत के सभी सार्वजनिक उपक्रम को महज  'सफेद हाथी' कहा गया है। श्री मोदीजी की बदौलत बीएसएनएल को प्रॉफिट नहीं हुआ है। मोदीजी और भाजपा वाले तो निजीकरण के समर्थक हैं। एनडीए -प्रथम याने  अटलबिहारी सरकार के समय से ही उन्होंने सभी सार्वजनिक उपक्रमों में  १००%  एफडीआई के लिए जोर लगाया है। पूँजी निवेश की वैश्विक 'बनिया लाबी'का मोदी जी के सर पर हाथ है। इसी भृष्ट लॉबी  के इशारे पर अटलजी के दौर में स्वर्गीय प्रमोद महाजन और अरुण शौरी ने आनन्-फानन निजी क्षेत्र को लाइसेंस बाँटे थे। और देश के दुधारू डिपार्टमेंट -डीओटी को चूना लगाया था,  निजीकरण का श्रीगणेश किया था। जो लोग टाटा,अम्बानी,अडानी, सुनील मित्तल भारती के खैरख्वाह होंगे, वे बीएसएनएल का मुनाफा क्यों चाहेंगे ? वे तो उसे बेमौत मरते  देखना चाहते हैं।

जिस स्पेक्ट्रम घोटालेकी बात मोदीजीऔर भाजपावाले चटखारे लेकर बार-बार करते रहतेहैं , उसका बीजांकुरण भले ही नरसिम्हाराव ,सुखराम , दयानिधि मारन ने किया हो ,किन्तु असल खिलाड़ी तो प्रमोद महाजन और अरुण शौरी ही थे। वेशक सन २००४ के बाद डॉ मनमोहनसिंह की यूपीए सरकार में द्रुमक के भृष्ट संचार मंत्री ए राजा और करूणानिधि की बेटी कनिमोझी ने भी खूब घोटाले किये। डॉ मनमोहन सिंह ,सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी यह सब रोकने में और  मॉनिटरिंग करने में असफल रहे।  सार्वजानिक उपक्रमों को बर्बाद करने के लिए एनडीए और यूपीए दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं। पहले तो अटलबिहारी सरकार ,फिर डॉ मनमोहनसिंह की दस सालाना यूपीए सरकार ने और मोदी सरकार ने लगातार विश्व बैंक और अमेरिकी दवाव में आकर न केवल बीएसएनएल बल्कि सभी सार्वजनकि उपक्रमों में १००% एफडीआई के दरवाजे खोल दिए हैं । किन्तु वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने   यह राष्ट्रघात नहीं  होने दिया। अब यदि बिना  १ % एफडीआई के भी बीएसएनएल ऑपरेशनल  प्रॉफिट में आ गया है तो उसका श्रेय संगठित ट्रेडयूनियन आंदोलन को जाता है। क्योंकि वेशक निवृतमान संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद जी का भी सहयोग सराहनीय रहा है ,इस नाते मोदी जी भी अपनी पीठ खुद थोक सकते हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब  दूर संचार विभाग की  मोनोपाली थी तब भी भारत सरकार के खजाने में अरबों-खरबों डॉलर कमाकर यही दिया करता था। एक बढ़िया सरकारी विभाग को सार्वजानिक उपक्रम बनाया ही इसलिए गया था कि वह घाटे में आ जाये ,और तब सरकार उसका निजीकरण करदे। इसीलिये तत्कालीन ही एनडीए की अटल सरकार ने इसको जबरन  लिमिटेड कम्पनी बना दिया। लेकिन संयोग से बीएसएनएल के कर्मचारी/अधिकारी का बहुत मजबूत और संगठित मोर्चा  है,इसीलिये अब तक बीएसएनएल बचा हुआ है। इसमें मोदी जी की कोई मेहरवानी नहीं है।

भारत जैसे विशाल लोकतान्त्रिक देश के प्रधान मंत्री की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह कम से कम स्वाधीनता दिवस पर तो सच बोलें ! यदि  एफडीआई के बगैर बीएसएनएल मुनाफा दे सकता है तो  एमटीएनएल पब्लिक शेयर का क्या मतलब है ?जबकि वह घाटे में जा रहा है। मोदी जी एमटीएनएल को प्राफिट में लाने का प्रयास क्यों नहीं करते?  बंद हो चुके अनेक उपक्रमों की सुध क्यों नहीं लेते ?चूँकि आमतौर पर  प्रधानमंत्री द्वारा  स्वाधीनता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से दिए गए भाषण के निहतार्थ  बहुत व्यापक और दूरगामी होते हैं ,इसलिए उन्हें अपनी कॉलर ऊंची करने या आत्मप्रशंसा करने से बचना चाहिए। उनकी जग हँसाई से देश की भी जग हंसाई हो सकती है। ।  श्रीराम तिवारी। 

शनिवार, 13 अगस्त 2016


विगत दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने  'गौरक्षकों' द्वारा दलितों की मार-कुटाई के संदर्भ में एक क्रांतिकारी बयान दिया था,'' ९०% गोरक्षक अनैतिक गोरखधंधे में लगे हैं,और वे  दलितों को मार रहे हैं ,वे मुझे गोली मार दें किन्तु दलितों और निर्दोषों को सताना बन्द करें''  इस बयान की भूरी-भूरी प्रशंसा सभी ने की थी। लेकिन कुछ धुर मोदी -विरोधियों ने मोदीजी के उस नेक बयानमें भी 'गंदगी'सूंघ ली। किसी ने मगरमच्छ के आंसू कहा ,किसी ने कहा - 'का वर्षा जब कृषि सुखाने ', किसी ने मोदीजी के इस बयान को गुजरात -यूपी के आगामी विधान सभा चुनावों में वोटों के नुक्सान की भरपाई निरूपित किया।मोदीजी के इस सार्थक-समसामयिक बयान पर उनके विरोधी कम प्रतिक्रिया  दे रहे हैं ,किन्तु मोदी जी के 'परिवारवाले' कुछ ज्यादा ही 'पीले-पीले ' हो रहे हैं।  प्रवीण तोगड़िया, चक्रपाणि ,शंकराचार्य और अन्य हिन्दू धर्मध्वज -स्वयम्भू गोरक्षक एकसाथ सब मिलकर मोदी जी पर अपने व्यंग बाण' छोड़ रहे हैं।

 विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ पदाधिकारी प्रवीण तोगड़िया ने रहस्योद्घाटन किया है कि  प्रधानमंत्री के उस बयान से उन्हें घोर पीड़ा हुई है। उन्होंने यह भी उद्घाटित किया कि गौरक्षक 'हिंदुत्ववादी' उन्हें [तोगड़िया]को गालियाँ दे रहे हैं  और प्रधानमंत्री को भला-बुरा कह रहे हैं। हम मानते हैं कि  तोगड़िया जी सच ही कह रहे होंगे। किन्तु उनकी इस स्वीकारोक्ति से यह सवाल भी उठ  रहा है कि जो लोग प्रवीण तोगड़िया को और प्रधानमंत्री जी को गालियां दे सकते हैं वे गौरक्षक ,गौसेवक,हिंदुत्ववादी और  'अनुशासित' लोग कितने खतरनाक हो सकते हैं ?इस घटना से यह भी सिद्ध होता है कि इन दक्षिणपंथी -प्रतिक्रियावादियों पर भारत के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ,वाम-धर्मनिरपेक्षतावादियों और सहिष्णुतावादियों ने अब तक जो आरोप लगाए हैं वे सही हैं।  जब 'स्वयम्भू देशभक्त' लोग अपनी ही पसन्दीदा और चुनी हुई सरकार पर यकीन न कर कानून को  हाथ में ले रहें हैं ,तो राष्ट्रविरोधी या आतंकी तत्वों से देशभक्तिपूर्ण आचरण की उम्मीद कैसे की जा सकती है  ?   श्रीराम तिवारी

सोमवार, 8 अगस्त 2016

नामवरसिंह का सुविधापरस्त संशोधनवादी वामदर्शन शायद मोदी जी को भा गया है!

 जम्हूरियत, कश्मीरियत ,इंसानियत जैसे शब्दों का प्रयोग वामपंथी-प्रगतिशील कतारों में बहुतायत से पाया जाता है। नामवरसिंह जैसे  उदभट -प्रख्यात -प्रगतिशील साहित्यकारों के सृजन में तो इन शब्दों ने आतंक मचा रखा है। लेकिन जब इन्ही शब्दों का प्रयोग प्रधानमंत्री मोदी ने चंद्रशेखर आजाद की जन्म स्थली भावरा [मध्यप्रदेश] में  ९ अगस्त-२०१६ को किया तो मुझे  घोर आश्चर्य हुआ ।आश्चर्य यों हुआ कि 'संघ' शिवरों में ,सरस्वती शिशु मंदिरों में या संघ शाखाओं में इन शब्दों का प्रयोग शायद ही कोई कभी करता हो ! वहाँ तो 'नमस्ते भक्त वत्सले,जय हिन्द , भारत माता की जय ,वंदे मातरम इत्यादि 'देशभक्तिपूर्ण' पवित्र नारों की अनुगूंज ही ध्वनित हुआ करती है !वहाँ 'एकचालुकानुवर्तित्व' का पथ संचलन भी सिखाया जाता है, किन्तु जम्हूरियत याने लोकतंत्र की कभी कोई चर्चा नहीं होती। कश्मीरियत शब्द का तो 'संघ' की डिक्शनरी में नामोनिशान ही नहीं है ,इंसानियत याने मानवता तो वेचारी वहाँ -थर-थर कांपती है। यह सुखद आश्चर्य है कि मोदी जी की जुबाँ पर अब वे शब्द आ गए जो महीने भर पहले या दो साल पहले उनके श्री मुख से उच्चरित होना  चाहिए थे। यदि भाजपा अपने घोषणा पत्र में इन तीन शब्दों -जम्हूरियत,इंसानियत और कश्मीरियत को पहले ही शामिल कर लेती और धारा ३७० या एक समान क़ानून की रट नहीं लगाती ,हर कश्मीरीमुसलमान को शक की नजर से नहीं देखती तो आज कश्मीर समस्या इतनी बिकराल नहीं होती।

''केला तबहिं ने चेतिया ,जब ढिग जामी बेर।
अब चेतें क्या होयगा ,काँटन्ह लीनी घेर।।''  

 ''कुछ तो लोग कहेंगे ,लोगों का काम है कहना '' दुनिया का चलन है ,दस्तूर है कि जब  कोई बड़ा नेता या पीएम ज्वलन्त समस्याओं या संकटापन्न प्रश्नों पर मौन धारण कर लेता है तो उसका मजाक उड़ाया जाना स्वभाविक है।  उसे 'मौनी बाबा' कहा जाने लगता है। और जब कोई नेता या पीएम अपनी जुबान खोलता है तो लोग उस पर भी  व्यंगबाण मारने से नहीं चूकते !'अरे ये तो  बोलू है, कोरी बातों का ही बयानवीर है' बगैरह -बगैरह। राजनीति को काजल की कोठरी सिर्फ भृष्टाचार के संदर्भ में ही नहीं कहा गया, बल्कि अच्छे-बुरे बोल-बचन के कारण ,नेताओं और मंत्रियों को जिस दुधारी तलवार पर चलना पड़ता है ,वह किसी नेता या आम व्यक्ति को साबुत बचने ही नहीं देता। खास तौर से मौजूदा पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था तो दोजख के दरिया से कहीं कमतर नहीं है।

'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ,असहिष्णुता, जेएनयू छात्र संघर्ष , हैदराबाद दलित छात्र -रोहित वेमुला का आत्मघात , हरियाणा,मध्यप्रदेश और गुजरातके गौबध बनाम दलित पिटाई काण्ड पर सुब्रमण्यम स्वामी ,साक्षी महाराज जी , गिरिराजसिंह ,तमाम दक्षिणपंथी मीडिया ,तमाम सत्ता -पिछलग्गू सोशल मीडिया और तमाम बाबा बांबियाँ अपने श्रीमुखसे कांग्रेस ,अल्पसंख्यक और वामपंथी साहित्यकारों पर इकतरफा विषवमन करते रहते हैं। सम्पूर्ण विपक्ष और सभ्य लोग उम्मीद करते रहते हैं  कि पीएम मोदीजी अब मुँह खोलेंगे -अब कुछ बोलेंगे ! गुजरात में मृत पशु उठाने वाले -दलितों पर  जुल्मतों की इंतहा हो गयी तब लगा कि शायद  अब बोलेंगे। जब मध्यप्रदेश -मंदसौर में दलित महिलाओं को सरे आम पीटा गया ,तब लगा कि अब कुछ बोलेंगे ,धैर्यवान आवाम को उम्मीद रही कि एक दिन जरूर बोलेंगे। और सार्थक सशक्त हस्तक्षेप भी करेंगे। कुछ अमनपसन्द भोले लोग उम्मीद करते रहे कि मोदीजी कुछ ऐंसा  बोलेंगे जो न्यायसंगत और देशहितकारी होगा ! लेकिन जब उपरोक्त तमाम समस्याओं और घटनाओं   पर मोदीजी चुप रहे तो लोग कहने लगे कि 'ये क्या बोलेंगे ?इन्ही के इशारे पर तो सब हो रहा है !'

अब जबकि मोदी जी ने बड़ी मुश्किल से अपना 'मुँह खोला' है ,अपने ही समर्थकों को 'गौरक्षा गौरखधंधे पर तगड़ी हिदायत दी है, तो उनके 'बोल बचन' पर ही तमाम बातें हो रहीं हैं। 'संघ' वाले आपस में  भिड़ रहे हैं। विपक्ष वाले भी कह रहे हैं कि 'अब बोले तो क्या बोले ? इतनी देर बाद बोलने का क्या फायदा ?अब तो बहुत देर हो गयी है !' संसद में या राज्यसभा में क्यों नहीं बोले ? कश्मीर संकट पर जब आग लगनी शुरू हुई थी तब  क्यों नहीं बोले ?पक्षवाले हों, विपक्षवाले हों, विद्वान् आलोचक हों ,सबकेसब एक साथ मोदीजी पर पिल पड़े हैं.चारों ओर मोदी जी की असफलताओं को देखकर तमाम पक्ष-विपक्ष के मोदी विरोधी नेता अंदर-अंदर खुश हो रहे हैं।अधिकांस लोग मोदीजी को  इस दुखद स्थिति के लिए  जिम्मेदार भी मान रहे हैं। क्योंकि अंततोगत्वा लोकतान्त्रिक जबाब देही तो प्रधानमंत्रीकी ही  है। किंचित मोदीजीको इस संकटसे उबारनेके लिए ही  नामवरसिंहका परकाया प्रवेश हुआ है। नामवरसिंह का सुविधापरस्त संशोधनवादी वामदर्शन शायद  मोदी जी को भा गया है। इसीलिये तो मोदी जी और राजनाथसिंह जी ने पहली बार नामवरसिंह का तहेदिल से 'जन्म दिन' मनाया है ।  

यह नामवर प्रभाव ही है कि गौरक्षकों के वेशमें निर्दोषों पर अत्याचार करने वाले दवंगों और अपराधी तत्वों का मोदीजी ने संज्ञान लिया है। और जबसे मोदी जी ने अपना मौन भंग किया है, तबसे 'भगवा कुनवे' में मानों आगही लग गयीहै। एक तरफ तो खुद मोदीजी के मार्ग दर्शक  'संघ परिवार'में दो फाड़ मची है। दूसरी तरफ  मोदी जी के उनके अपने ही 'भगवा दल' वाले भी चेलेंज करने लगे  हैं ,धमकाने लगे हैं।बीएचपी, हिन्दू महा सभा का ऐलान है कि उनके सहयोग के बिना 'आइंदा अगले चुनावमें जीतकर बतायें मोदीजी !'' इसी तरह  मोदी विरोधी सम्पूर्ण विपक्ष और मीडिया वाले शिकायत कर रहे  हैं कि 'जब साँप  निकल जाता है तब मोदीजी लाठी पीटने लगते हैं !'  याने मोदीजी बोले तो हैं किन्तु  'का वर्षा जब कृषि सुखाने ?'  कुछ स्वनामधन्य बुध्दिजीवी और प्रगतिशील लोग भी 'संघ'और मोदी जी के सनातन विरोध की रौ में  आकर सत्ताधारी नेतत्व  को और उसकी  नीति-नियत को निशाना बना रहे हैं। वे मोदी सरकारकी असफलताओं पर इस तरह गरज रहे हैं,मानों आगामी लोकसभा चुनाव में जनता इन्हें  सत्ता में बिठा ही देगी। या  कोई सर्वहारा क्रांति अब होने ही वाली है ! जब  प्रातःस्मरणीय प्रगतिशील और बुजुर्ग वामपंथी पिता तुल्य  महान साहित्यकार नामवरसिंह ने मोदीजी को अभयदान दे रखा है तो अबखग-मृग -वृन्द और चिड़ियों की चूँ -चूँ का कोई मतलब नहीं है !याने एनडीए और मोदी जी के खिलाफ  लिखने का अब कोई मतलब नहीं । जब नामवरसिंह मोदीजी के खिलाफ नहीं लिखते तब  'मा -बदौलत' की क्या विसात ?

वेशक मोदी जी और उनकी सरकार सब जगह असफल हो चुकी ही है ,किन्तु मोदीजी की या एनडीए सरकार की असफलता से वामपंथ को कोई फायदा नहीं होने वाला। क्योंकि वामपंथी तो हमेशा से वंचित वर्ग की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं। दलितों,महिलाओं,मजदूरों,अल्पसंख्यकों के लिए कुर्बानी देते आ रह हैं। किन्तु वास्तविकता यह है कि जब भी चुनाव आते हैं तो देशकी हिंदी भाषी जनता ,जातिवादी -माया, मुलायम,लालू- नीतीश जैसे नेताओं की ओर लपकने लग जाती है। और देश की अहिंदी भाषी जनता ममता ,जयललिता नवीन ,बादल महबूबा जैसे क्षेत्रीय नेताओं  की गोद में जा बैठती है ! वामपंथी -जनवादी संगठन  शिद्दत से छात्रों-किसानों, महिलाओं - दलितों सहित सम्पूर्ण सर्वहारा के लिए संघर्ष करता रहा है ,किन्तु यही वामपंथ जब हिंदी भाषी क्षेत्रों में चुनाव लड़ता है तो खुद ही वोटों का 'सर्वहारा' नजर आता है। यह  सर्वविदित है कि हर प्रकार के जन संघर्षों में  वामपंथ की भूमिका हमेशा शानदार रही है।  लेकिन नामवरसिंह  जैसे वामपंथी बुद्धिजीवी  जब यह समझ रहे हैं कि वे मोदी जी को  समाजवाद का पाठ पढ़ा देंगे तो मेरे जैसे अल्पज्ञ की क्या हैसियत कि चूँ -चा कर  सकूँ !

वर्तमान शासकों के प्रति नामवरसिंह का सौम्य व्यवहार दर्शाता है कि वे मोदीजी को पूरा -पूरा समय याने पांच साल तक आलोचना से मुक्त रखना चाहते हैं। वे मोदीजी को नाहक परेशांन करने के पक्षमें नहीं हैं। पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में हिंसक उपद्रव मचाना , भारतीय प्रधानमंत्री और  गृहमंत्त्री को अपमानित करना, सलाउद्दीन , हाफिज सईद, जैश ए मुहम्मद और अलकायदा जैसे दुष्ट राक्षसों -द्वारा भारत की धरती पर निरन्तर रक्त बहाना,   भारतीय प्रधानमंत्री को धमकाना ,गालियां देना ,राजनाथसिंह को प्रोटोकाल के बहाने अपमानित करना ,क्या यह सब वामपंथी आलोचना से परे है ? क्या यह निंदनीय नहीं है ? यदि हाँ तो एकजुट होकर पाकिस्तान की आतंक-समर्थक नीति-नियत पर एकजुट हल्ला क्यों नहीं बोलते  ? क्या तमाम विपक्ष और आलोचक केवल भारत सरकार को ही कसूरबार ठहराते रहेंगे ?

कश्मीर में छिपे  पाकिस्तान परस्त - भारत-विरोधी तत्व यदि पुलिस और आर्मी  पर पत्थर बरसाते रहेंगे  तो इससे भारत का हित कैसे सधेगा ? कश्मीर समस्या -का हल कैसे होगा ?  शायद ऐंसे प्रश्न  सिर्फ   नामवरसिंह के मन में ही नहीं  बल्कि अन्य  प्रगतिशील विद्वानों के मन में भी उठते होंगे ! पाकिस्तान तथा उसके पालतू आतंकियों को किसी कारण से यदि 'मोदी जी 'का चेहरा पसन्द नहीं है,तो इसमें मोदीजी का क्या कसूर है ? जो बुरहान बानी - आतंकी , पूरे कश्मीरको ,पूरे भारतको ,पूरे दक्षिण एसिया को ही श्मशान बनाने में जुटा हुआ था ,उसे पाकिस्तान में यदि 'नेशनल हीरो ' बनाये जानेका अभियान चल रहा है तो उसका मकसद बहुत साफ़ है। इस सबके वाबजूद यदि मोदीजी जम्हूरियत,कश्मीरियत और इंसानियत की बात कर रहे हैं ,और उधर पाकिस्तानी जनरल -आतंकी भारत पर एटम बम फेंकने को उतावले  हो रहे हैं ,तो इकतरफा आलोचना करने वाले तत्व किसी भी सदाशयता के हकदार कैसे हो सकते हैं ? शायद इसीलिये नामवरसिंह जी ने जेएनयू काण्ड ,वेमुला कांड ,गुजरात में दलित हत्याकाण्ड और मंदसौर में दलित स्त्री दमन काण्ड पर अपनी आँखे फेर रखीं होंगी !  तभी तो उन्होंने इन विमर्शों पर एक भी शब्द नहीं लिखा !

दरसल तस्वीर भी कुछ ऐंसी ही है कि भारत-पाक विमर्श मेंअसफलता के लिए केवल मोदीजी, राजनाथसिंह जी या भारत सरकार ही अकेले कसूरबार नहीं है। बल्कि पाकिस्तान की सेना,पाकिस्तान के दहशतगर्द ,कश्मीर की जटिल राजनैतिक स्थिति और वहाँ मौजूद इस्लामिक कट्टरपंथी सबसे अधिक कसूरबार हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अतीत में 'संघ परिवार' ने और खुद मोदीजी ने कश्मीर समस्या पर आसमान से तारे तोड़ लाने के दावे किये हैं । हिंदुत्ववादी लोगों द्वारा बार-बार कहा जाता रहा है कि 'हम जब सत्ता में आएंगे तो कश्मीर समस्या खत्म कर देंगे और यदि पाकिस्तान ने गड़बड़की तो उसे अंदर घुसकर मारेंगे !' लेकिन विगत दो साल में मोदी सरकार ने कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया। केवल घोषणाएं और ,'मन की बातों' हो रहीं हैं। लेकिन चन्द्रशेखर आजाद की जन्म भूमि भावरा [झाबुआ] की आमसभा में  मोदी जी ने जम्हूरियत,कश्मीरियत और इंसानियत का उल्लेख कर, गौरक्षा के गोरखधंधे को स्वीकार कर,असमाजिक तत्वों पर मौखिक हमलाकर उन्होंने जो नया स्टेण्ड लिया  वह विशुद्ध 'नामवर इफ़ेक्ट ' याने नामवरसिंह का प्रभाव प्रतीत होता है। 

हालाँकि कश्मीर के विषय में  मोदी जी ने ९ अगस्त को भावरा में जो कुछ भी कहा ,वह  ७० सालसे बाकी लोगों याने पहले वाली केंद्र सरकारों ने भी बार-बार कहा है। लेकिन जनता ने मोदी जी और 'संघ' के दावों पर विश्वाश करके उनकी एनडीए सरकार को पाँच साल के लिए चुना है। अब यदि मोदी सरकार किसी भी मोर्चे पर कुछ नहीं कर पा रही है ,कश्मीर में असफल हो रही है ,तो विपक्ष के लिए यह रामबाण ओषधि भी हो सकती है। कि वे सीना तानकर आगामी चुनावों [२०१९] में जनता के बीच जाएँ ,और जनता को बताएं कि  उनकी ही नीतियाँ सही थीं और मोदी सरकार की नीतियाँ गलत सावित हुईं हैं । लेकिन क्या विपक्ष में कोई एका है ? यदि आगामी चुनाव में  मोदी सरकार सत्ता में नहीं भी आ सके , तो क्या बाकई जनता को कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन फिर से सत्ता में वापिस चाहिए ? यदि नहीं,तो क्या क्षेत्रीय दलों का तीसरा मोर्चा सत्ता सम्भालने लायक है ? यदि नहीं , तो क्या वाम -जनवादी  ताकतों को इतना जन समर्थन मिलने वाला है कि वह  जनकल्याणकारी- क्रांतिकारी नीतियों को इस देश में लागू कर सकें  ? यदि नहीं ! तो जैसे नरसिम्हाराव ,वैसे मनमोहनसिंह ,और वैसे ही नरेन्द्र मोदी ! इन सभी  की आर्थिक नीतियों में कुछ खास फर्क नहीं है ? यदि यूपीए - एनडीए की नीतियों में कोई  फर्क नहीं है तो  फिर जनता के समक्ष विकल्प क्या हैं ? जिन्हें 'आप' के केजरीवाल का निर्जीव अराजक रूप ,ममता बनर्जी का संहारक रूप,  लालू-मुलायम- नीतीश और माया का जातीय- वितंड़ाबादी रूप देखकर घिन आती है,वे लोग शायद यही सोचेंगे  कि 'तमाम बुरे नेताओं में -कम बुरे मोदी ही ठीक ठाक हैं।'   

चाहे कोई अमन पसन्द- ईमानदार और कर्मठ इंसान हो ,चाहे गाय बैल भैंस घोडा और बकरी जैसा कोई पालतू जानवर हो या इनके जैसा कोई अन्य अहिंसक प्राणी हो ,उसके पक्ष में खड़ा होना ही असल इंसानियत है। इन मूक प्राणियों की हिंसा के विरुद्ध  खड़े होने का तात्यपर्य है प्रकृति के पक्ष में खड़ा होना, प्रकृति के पक्ष में खड़े होने का मतलब है, मानवता के पक्ष में खड़ा होना। और मानवता के पक्ष में खड़े होने का मतलब है खुद के पक्ष में खड़े होना। भारतीय प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने अभी-अभी बदमास धंधेबाज नकली 'गौरक्षकों'पर जमकर धावा वोला है, और उन्होंने दलितजनों की हत्या पर भी अपना मुँह खोला है इसलिये उम्मीद की जानी चाहिए कि बहरहाल इस मुद्दे पर वे मानवता के पक्ष में खड़े हैं। वेशक इसी सिद्धांत पर चलने में ही मोदी जी का और उनकी सरकार का कल्याण है। काश  मोदीजीका यह बयान अखलाख की मौतके तुरन्त बाद आजाता तो सिद्ध हो जाता कि 'बीफकांड' में भी मोदीजी 'मानवहत्या' के विरुद्ध खड़े हैं। खैर देर आयद -दुरुस्त आयद !भूल -चूक सभी से हो जाया करती  है। काश नामवरसिंह जी का आशीर्वाद पहले ही मिल जाता !

यह काबिलेगौर है कि पीएम मोदीजी इन दिनों कुछ-कुछ प्रगतिशील,वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष भाषा बोल रहे हैं। जो लोग अपने आंख-कान बंद किये हुए हैं, वे मोदीजी के इस 'कल्याणकारी' और सुखद 'कायाकल्प' को देखने-सुनने में असमर्थ हैं। मोदीजी के इस नव -क्रांतिकारी- बाचाल रूप को देखकर लगता है कि उन्होंने शायद 'संघ' की दक्षिणपंथी और दकियानूसी  शिक्षाओं को  ठन्डे बस्ते में डाल दिया है !हालाँकि  ऐंसा ही कुछ-कुछ हिटलर के साथ भी हुआ था। जर्मनी का चांसलर बनने के दूसरे -तीसरे साल में ही जब जर्मनी में महँगाई-बेकारी बढ़ती चली गयी और जर्मन - जनता का हिटलर से मोह भंग होने लगा, तो हिटलर ने अपनी आम सभाओं की स्पीच्स में 'सोसल डेमोक्रेट्स' - 'समाजवादी' रेडिकल शब्दावली का प्रयोग धड़ल्ले से शुरूं किया था। जर्मन जनाक्रोश  को हिटलर ने पहले 'जर्मन राष्ट्रवाद' में और बाद में उसे द्वतीय विश्व युद्ध में बदल डाला था । चूँकि मोदी जी के नेतत्व में वर्तमान एनडीए शासन वाले भारतके हालात भी कुछ-कुछ द्वतीय विश्वयुद्ध वाले जर्मनी से मेल खा रहे हैं ,और इसलिए नियति का ऊंट किस करवट बैठेगा ,अभी कुछ  कहा  नहीं जा सकता !नामवरसिंह गलत भी सावित हो सकते हैं।

इस साल बड़े आदरभाव से प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री राजनाथसिंह ने विगत २४ जुलाई-२०१६ को प्रख्यात लेखक नामवरसिंह का जन्म दिन मनाया। इन दोनों नेताओं ने नामवरसिंह का जन्म दिन क्या मनाया,इनकी चाल- ढाल और बोल -बचन में भी नामवर नुमा क्रांतिकारिता झलकने लगी। राजनाथ में नामवर वाला वीरोचित उत्साह - आत्मविश्वाश और मोदीजी में 'प्रगतिशीलता' -मानवीयता झलकने लगी । राजनाथसिंहने जिस दर्प व निर्भीकता से पाकिस्तान की कुटिल करतूतों का  सामना किया और प्रधान मंत्री जी ने जिस ढंग से स्वय्मभू 'गौरक्षकों' और दलित- हत्याओं पर 'राजकोप' प्रकट किया उससे हिंदुत्ववादी संगठनों के तिजारतदारों  में खलबली मच गयी । शायद यह प्रधानमंत्री जी पर 'नामवर का प्रभाव'[Naamvar Effect] है ! और तदनुसार वामपंथी विचारधारा का क्षणिक असर भी है ,शायद यही वजह है कि मोदीजी अपनी 'बंधु-बांधवो' को ललकारने का भी दुस्साहस कर रहे हैं।  ''रात में गौरक्षा के नाम पर गलत काम करते हो ,दिन में भगवा कपडे पहिनकर हिन्दुत्वाद का झंडा उठा लेते हो -ये गोरक्षधन्धा नहीं चलेगा '' ! ये शब्द मोदी जी के हैं, या नामवरसिंह के ?मोदी जी ने गौ हत्या के नाम पर हो रही  दलित हत्याओं का भी जमकर विरोध किया है। दरसल नामवरसिंह जैसे वामपंथी तो यह सिद्धान्त हमेशा से ही लेकर चले हैं कि निर्धन  मेहनतकश जनता ,अल्पसंख्यक,दलित का उत्पीड़न बन्द हो,असंवैधानिक संगठनों द्वारा गौरक्षा के बहाने निर्दोष लोगों को मारना-पीटना बंद हो !वैसे भी इस सन्दर्भ में वामपंथ के संघर्षों का बहुत ही शानदार इतिहास रहा है।ये बात जुदा है कि  जब कभी कोई चुनाव होता है तो नामवरसिंह जैसा कोई लेखक -साहित्यकार या बुद्धिजीवी अपनी जमानत भी नहीं बचा पाता। और हिंदी भाषी क्षेत्रों में तो वामपंथ को सम्मान- जनक  जन प्रतिनिधित्व भी नहीं मिल पाता । -:श्रीराम तिवारी :-
       

बुधवार, 3 अगस्त 2016

जब तक आरक्षण व्यवस्था जारी है जातिवाद का भूत भी तब तक जिन्दा रहेगा।


 बहिन मायावती ने राज्यसभा  में कहा ''बहुजन समाज को शोषण मुक्त करने के लिए जातिवाद खत्म कर देना चाहिए, जातिवाद खत्म करने के लिए  हरेक नाम के आगे सरनेम लगाना बंद करना होगा !'' यदि सरनेम लगाना बन्द करने से जातीय विद्वेष की समस्या का निवारण होता है तो 'शुभस्य शीघ्रम ' !किन्तु बहिन जी के इस पवित्र सुझावमें विभिन्न समुदायों और व्यक्तियोंके पृथक अभिमत  भी हो सकते हैं। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जबसे भारतीय उपमहाद्वीप में जातीय और वर्ण व्यवस्था जन्मी है, तभी से उसके उन्मूलन की घोषणाएं भी की जाती रहीं हैं। लेकिन 'ज्यों-ज्यों दवा की  त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता ही गया '!वेशक जातीगत आधार पर भेदभाव की सबसे अधिक मार 'दलित हरिजन वर्ग' पर ही पड़ती रही है। कल्पना करें कि बदतर गुलामी के दिनों में यह दलित वर्ग  किन नारकीय दुरावस्थाओं से गुजरा होगा !



 जिस तरह  एकजुट संघर्ष और अनेक बलिदानों की कीमत पर भारत से गुलामी हट गयी , जिस तरह एकजुट राष्ट्रीय इच्छशक्ति से भारत से चेचकका खात्मा कर दिया गया,जिस तरह इंदिरा -नेहरूके नेतत्व में श्वेतक्रांति - हरित क्रांति हुई ,जिस तरह राजीव गाँधी -सेम पित्रोदा और मनमोहनसिंह की इच्छाशक्ति से भारत में अति-उन्नत टेक्नोलॉजी आई। उसी  तरह सामूहिक  नेतत्व और एकजुट जन संघर्षों से इस देश के गरीबों की गरीबी भी मिट  सकती है। लेकिन जातिवाद का खात्मा नहीं किया जा सकता।सहस्त्राब्दियों पूर्व इस 'जातिवाद' का सृजन  खुद इंसान ने किया था ,सामंत युगमें यह परवान चढ़ता गया और यह उम्मीद भी धूमिल होती चली गयी कि पूँजीवादी   लोकतांत्रिक व्यवस्था में  जातिवाद कुछ हद तक अपने-आप ही  'द्रवीभूत' हो जाएगा। किन्तु आरक्षण व्यवस्था के कारण इस पूंजीवादी व्यवस्था में तो यह जातिवाद भारत का  भस्मासुर बना हुआ है। अब केवल कोई  'सर्वहारा क्रांति ही इस वैमनस्यता पूर्ण जातिवाद को  कुछ हद तक काल -कवलित  कर सकती है ।

विदेशी आक्रमणों और गुलामी से पूर्व भी हिन्दू समाज के 'निम्न वर्ग' को अपने ही उच्च वर्ग की प्रताड़ना भोगनी  पड़ रही  थी। उन्हें सामन्तों -जमीदारों की बेगार करनी पड़ती थी ,इसके अलावा  जो विदेशी-विधर्मी भारत पर लूटपाट की नियत से आक्रमण करते हुए यहाँ आये , इस धरती को गुलाम बनाया ,राज  किया ,उन्हें भी मजदूरों - 'सेवकों' और सैनिकों की जरूरत पड़ती थी। चूँकि तब दुर्भिक्ष भी अधिक हुआ करते थे  और अधिकांस दलित - वर्ग वेकारी-भुखमरी का शिकार हुआ करता था अतएव उसे  मजबूरन विदेशी आक्रांताओं की भी गुलामी झेलनी पडी। सामंती दौर में जब  चाणक्य जैसे ब्राह्मणों को भी 'नन्द राजाओं' द्वारा लतियाया गया ,मुगलकाल में भी जब राणा प्रताप जैसे  शूरवीर राजाओं  को जंगलों में घास खाकर जीना पड़ा , जब इस्लामिक आक्रान्ताओं द्वारा सिख गुरुओं  के शीस काट दिए गए ,जब विधवा क्षत्राणियों को अपने शील की खातिर 'जौहर' करने पड़े तब उस दौर में दलित और  हरिजन की क्या  दयनीय हालात रही होगी ? आज इसका अंदाज लगाना  मुश्किल है। इस दमित -दलित वर्ग की क्या विसात कि वह दमन-उत्पीड़न का प्रतिरोध कर सके। यदि जातीय भेदभाव न होता तो शायद यह भारत बाकई 'महान ' ही होता और गुलाम भी शायद कभी न होता !  इस दौर के 'हिन्दू' भी अपने पूर्वज आर्यों की तरह श्रेष्ठतम  होते ! लेकिन जातिवाद-आरक्षणवाद और सम्प्रदायवाद  ने भारत का सत्यानाश कर रखा है !

इतिहास के हर दौर में इस भारत भूमि पर 'दैवीय अवतार 'हुए। लेकिन निर्धन -निम्नजातीय वर्ग के संत्रास का उद्धारक कोई नहीं हुआ। हिन्दू 'अवतारों को तो केवल अपने-भक्तों ,अनुयाइयों और चारण -भाटों की फ़िक्र हुआ करती थी।  दैवीय अवतारों ने वाल्मीकि,कबीर ,रैदास ,तुकाराम ,घासीदास,मलूकदास और करहप्पा जैसे कुछ निम्नजातीय भक्त कवियों को जरूर प्रमुदित किया किन्तु 'सर्वहारा वर्ग का उद्धारक 'क्रांतिकारी'योद्धा कोई नहीं हुआ। रूढ़िवादी समाज को बदलने वाला कोई हीगेल,कोई फायरबाख ,कोई रूसो,कोई वाल्तेयर,कोई वर्ड्सवर्थ  कोई गेरी बाल्दी,कोई बर्तोल्ड ब्रेख्त या कोई ऑस्त्रोवस्की भारत में कभी  नहीं हुआ। यहाँ बुद्ध ,नानक और अन्ना दुराई,ज्योतिबा फूले  जैसे समाज सुधारकों ने अवश्य कुछ सार्थक पहल की थी ,किन्तु उनके निधन जाने के बाद सब कुछ यथावत ही है। वेशक बाबा साहिब अम्बेडकर ने  एससी/एसटी के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की है,किन्तु इसमें 'एक अनार सौ बीमार' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।  भारत में ७० साल से जातीय आधार पर आरक्षण  व्यवस्था जारी है ,किन्तु गरीब दलित -हरिजन वर्ग की हालात और ज्यादा बदतर है। वे और ज्यादा गरीब और बेरोजगार हो गए हैं। जबकि इस आरक्षण व्यवस्था से देश के सवर्ण गरीब -बेरोजगार युवा समझते हैं कि  उनका हक छीन लिया गया है। इन हालात में अब  बहिन मायावती जी ने सुझाव दिया है कि जातीयता  से निपटने का एक ही उपाय है कि 'जातीयसूचक सरनेम लगाना बंद किया जाए'।

वेशक यदि जातीयता के कारण किसी व्यक्ति अथवा समाजका शोषण होता है ,अपमान होता है और यदि किसी को जातीय सूचक सरनेम नहीं लगाने से कोई लाभ होता है तो वह नाम के आगे सरनेम न लगाये, उसके लिए यह उचित है। किन्तु यदि सरनेम नहीं लगाने के बाद भी किसी दलित-पिछड़े या 'शूद्रवर्ण'के व्यक्ति का शोषण होता है ,उस पर अत्याचार होता है  तो  सरनेम हटाने का क्या फायदा ? अनेक स्वाधीनता सेनानी  कुर्बानी देने ले बाद सम्पूर्ण भारत के 'आइकॉन' हो गए। वे आधुनिक पीढी के सम्माननीय आदर्श हैं ,इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता  की  शहीद भगतसिंह ,सुखदेव ,राजगुरु ,चन्द्रशेखर आजाद ,विरसा मुंडा  टण्टया भील या टीपू सुलतान का सरनेम क्या था ? जिन्होंने कुर्बानी दी उनका उल्लेख एक साथ सम्मान से किया जाता है। कौन ब्राह्मण है ,कौन आदिवासी है ,कौन पिछड़ा है , कौन दलितहै -मुस्लिम या अल्पसंख्यक है इससे देश को कोई फर्क नहीं पड़ता ?
कबीर ने उनसे तो जाति पूँछे जाने पर खुद ही शानदार सर्वकालिक सिद्धांत पेश किया है :-

''जाति न पूँछो साधु की ,पूंछ लीजिये ज्ञान।

मोल करो तलवार का ,पडी रहन दो म्यान।। ''

कुछ परम्परावादी मानते हैं कि जातिप्रथा अकाट्य एवम जीवन्त सत्य है। यह वैश्विक है ,यह वर्तमान पीढीको उस के अपने अतीत के कबीलाई समाजों से सम्बन्धों को दर्शाती है। इसलिए इसे खत्म करना या विलुप्त करना एक किस्म की अवैज्ञानिक अवधारणा है ,नकारात्मक सोच है और पाशविकता प्रवृत्ति है । फ्रांसीसी क्रांति,अमेरिकी क्रांति, सोवियत क्रांति और यहाँ तक की चीन में सम्पन्न दो-दो  क्रांतियों याने लोंगमार्च और सांस्कृतिक क्रांति के वावजूद  किसी एक  शख्स ने भी अपन सरनेम नहीं त्यागा।लेनिन,माओ,कास्त्रो,मार्क्स,एंगेल्स इत्यादि उपनाम -  जातिसूचक सरनेम हैं। फिर भारत में ही क्यों यह  जातिवाद हटाओ या सरनेम मिटाओ का 'लोमड़ सिद्धांत'पेश किया जा रहा है। वेशक कार्य विभाजन आधारित वर्णव्यवस्था और तदनुसार उसकी बदशक्ल दुहिता -जातिप्रथा इस आधुनिक वैज्ञानिक युग में कालातीत हो चुकी है ,किन्तु इन्ही सरनेम और जातिसूचक उप्नामाओं के कारण ही तो संविधान निर्माताओं द्वारा कुछ  विशेष समाजों को सामाजिक उत्थान के लिए चिन्हित किया गया और उन्हें ७० साल से आरक्षण दिया जा रहा है । यह विचित्र विडम्बना है कि ७० साल  तक लगातार आरक्षण सुविधा लेते रहने के वावजूद , किसी एक भी आरक्षणधारी  व्यक्ति या आरक्षण धारी समाज ने अभी तक घोषणा नहीं की कि अब मेरा दलितपन ,हमारा पिछड़ापन या  'शूद्रपन' खत्म हो गया है और मुझे अब आरक्षण नहीं चाहिए ! जो लोग जातिसूचक सरनेम के आधार पर आरक्षण लेकर आईएएस या आईपीएस या अफसर-बाबू बन गए और बाद में सरनेम त्याग रहें हैं , नाम के साथ कोई सवर्ण सरनेम लगाने लगे हैं उन्हें खदु आगे आकर कहना चाहिए कि 'अब मुझे जातीय प्रमाण पत्र नहीं चाहिए ,मुझे आरक्षण की वैशाखी नहीं चाहिए '। जिस दिन यह सिलसिला शुरू हो जाएगा भारत में जातिवाद का विध्वंस शुरू हो जाएगा। वर्ना  जब तक आरक्षण व्यवस्था जारी है जातिवाद का भूत भी तब तक जिन्दा रहेगा।

मान लो कहीं बाढ़ आ गयी ,कोई दलित -आदिवासी जंगल से मजदूरी करके अपने घर लौट रहा है ,रास्ते  में उफनती नदी उसके सामने है ,क्या सरनेम त्याग देने से वह नदी पार  कर सकेगा ? नहीं ! अपितु साहस ,बुद्धि और   तैरने की क्षमता से ही उसके प्राण बच पाएंगे ! यदि उस आदिवासी या दलित मजदूर में ये मानवीय गुण नहीं हैं तो  सरनेम हटा देने के बाद भी वह उफनती नदी में बह जाएगा ,और  भूँखा -प्यासा  मर जाएगा। आदिवासी-दलित मजदूर हो या वेदपाठी - ब्राह्मण हो ,उसे जीवन जीने के लिए जिजीविषा से युक्त होना ही होगा ,केवल सरनेम हटाने या धर्म-बदलने या जातीयता की राजनीति करने से कोई सामाजिक -आर्थिक क्रांति नहीं होने वाली। केवल  शिक्षा,पुरषार्थ मनोबल और शोषण के खिलाफ एकजुट संघर्ष  से ही किसी समाज या कौम का कल्याण हो सकता है ।

 ''बिना सरनेम का नाम याने बिना पूँछ का पशु!'' अभिव्यक्ति की आजादी 'के अनुसार वांछित संदर्भ में अपना व्यक्तिगत मत व्यक्त  करने में कोई बुराई नहीं। किन्तु  किसी भी महान क्रांतिकारी उद्देश्य का कार्यान्वन बिना ठोस जन समर्थन के सम्भव नहीं। ब्रिटेन बनाम 'यूरोपीयन संघ' के जनमत संग्रह [रेफरेंडम] याने ब्रेक्जिट पोल 'की तरह  भारत जैसे लोकतान्त्रिक  देश में भी सार्वभौमिक सवालों पर जनमत लिया जाना चाहिए। न केवल जाति सूचक सरनेम हटाने या लगाने के मुद्दे पर ,न केवल जातीयता पर आधारित आरक्षण मुहैया करानेके मुद्दे   पर ,बल्कि विदेश नीति ,एफडीआई , मंदिर-मस्जिद विवाद ,धारा -३७० ,समान कानून ,बीफभक्षण ,सहिष्णुता- विचार अभिव्यक्ति की सीमा और 'आतंकवाद से संघर्ष' जैसे पेंचीदा मसलों पर भारत की जनता के 'जन मत संग्रह' का भारतीय संविधान में प्रावधान किया जाना चाहिए। प्रत्येक जनमत संग्रह के लिए सुनिश्चित नियमावली हो. उसमें यह भी सुनिश्चित हो की वोट कौन कर सकता है ?

यह रिफ्रेंडम या 'जनमतसंग्रह' आम चुनाव की तर्ज पर  सबको सुलभ नहीं हो सकता । संविधान प्रदत्त अधिकार- मतदान और 'जनमत संग्रह' में अंतर है। आम चुनाव में नागरिक अपने मौलिक अधिकारके तहत अपनी भूमिका अदा करता है ,जबकि 'जनमत संग्रह'में वही लोग शामिल होंगे जो उस संदर्भमें स्टेक होल्डर्स होंगे या उस इवेंट्स से कोई नाता रखते होंगे । मसलन  -अयोध्या में मंदिर-मस्जिद विवाद पर यदि जनमत संग्रह करवाया जाये तो उसमें सिर्फ वही लोग शामिल हों ,जो मंदिर जाते हों या मस्जिद जाते हों। जो हिन्दू -मुस्लिम नहीं  हैं , जो किसी अन्य धर्म-मजहब -ईसाई,बौद्ध  जैन या पारसी हैं अथवा नास्तिक हैं उन्हें इस जनमत संग्रह से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिए । यदि यह सम्भव न हो तो जनमतसंग्रह में भी आम चुनाव के 'नोटा ' की तरह विकल्प रखा जाए।

 श्रीराम तिवारी

दलितों पर अत्याचार करने वाले देशद्रोही हैं !


इन दिनों ऊना [गुजरात] ,मंदसौर [मध्यप्रदेश],यूपी,बिहार,हरियाणा ,पंजाब, तेलांगना इत्यादि से दलितों पर हो रहे अत्याचार की खबरें कुछ ज्यादा आ रहीं हैं।  दुखद बिडम्बना है कि इन दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद घटनाओं से  'बहिनजी' बहुत खुश हैं। और वे दलित नेता  जो जातीयता की राजनीति त्याग कर सत्ता सुख भोगने एनडीए में जा पहुंचे बहरहाल  पशोपेश में हैं। पासवान ,माझी ,उदितराज,आठवले और थावरचंद गहलोत महा - दुरावस्था को प्राप्त हो रहे हैं। इन भाजपाई दलित नेताओं की लानत-मलानत स्वाभाविक और अपेक्षित ही है। क्योकि अतीत में 'संघ' नेतत्व ने जो बीज बपन किया है उसका प्रतिफल अब प्रकट हो रहा है। अब भले ही मोहन भागवत लंदन में जाकर सभी-धर्मों ,जातियों की समानता पर अपना क्रांतिकारी सिद्धान्त पेश करते रहें ,किन्तु उनके पूर्वसरसंघ -चालक  गुरु गोलवलकर ने 'बंच ऑफ थॉट्स 'में जो घृणास्पद ' सिद्धान्त पेश किये हैं जिसे कु प् सुदर्शन ने और ज्यादा धारदार बनाया है ,उसकी ही परिणीति है कि अब भारतीय समाजमें दलित - सवर्ण , हिन्दू- मुस्लिम का  हिंसक द्वंद परवान चढ़ रहा है।वेशक इस्लामिक उग्रवाद और उसका 'जेहादी'रूप भी इसके लिए कसूरबार है।

भारतीय सबल समाज की कंजरवेटिव सोच का परिणाम है कि दलितों पर हो रहे अत्याचार को देखकर दुनिया में भारत के दुश्मन अत्यंत खुश हो रहे हैं। अभी तक तो आरक्षण की माँग करने वाले या मजहबी उन्मादी-आतंकी व धर्मांध -साम्प्रदायिक  तत्व ही भारत की एकता को ध्वस्त करने में जुटे हुए थे। किन्तु अब तो 'वर्ण संघर्ष' के बहाने भारत राष्ट्र के ह्रदय को विदीर्ण किया जा रहा है। गौबध या बीफ भक्षण निषेधसे उतपन्न हिंसक उपद्रवने समस्या को और जटिल बना दिया है।  शताब्दियों से  जो लोग अपने सिरपर मैला ढोते आरहे हैं ,जो सनातन से मरे हुए पशु  फैंकते आरहे हैं ,जिन्हें अक्सर न केवल पर्याप्त मजदूरीसे महरूम रखा गया ,बल्कि अछूत मानकर घृणाका पात्र भी बनाये रखा गया। उन मृत पशु उठाने वालों को ,चमड़ा निकालने वालों को और मांस बेचने वालों को  'भारतीय संस्कृति' के स्वयम्भू ठेकेदार सत्ता की शह पर परेशान कर रहे हैं ,ऐंसे हालातमें  गरीब दलित नरनारी और मेहनतकश कामगार -चुपचाप इस दमन  को कब तक सहते रहेंगे ?

क्या यह जातीय अत्याचार जायज है ? वेशक दमित-दलित वर्ग की प्रतिक्रिया की लाइन और लेंथ गलत कही जा सकती है ,किन्तु उनका यह आक्रोश जायज है। उन्हें अन्याय शोषण के खिलाफ,शोषक वर्ग के खिलाफ अवश्य लड़ना चाहिए !चूँकि हर किस्मके शोषित-पीड़ित वर्गका 'वर्गशत्रु' एकही है अतएव देश के समस्त शोषित-पीड़ित -सर्वहारा वर्ग को   एकजुट होकर अपने उस सनातन शत्रु से लड़ना चाहिए ,जिसने उत्पादन के साधनों पर ,देश की सकल सम्पदाओं पर और जीवन की तमाम भौतिक -सामाजिक अवसरों और संसाधनों पर बलात कब्ज़ा कर रखा है। गुजरात ,मध्यप्रदेश या शेष भारत में असामाजिक तत्वों द्वारा सताए गए दलित स्त्री-पुरषोंऔर युवाओं को 'गरीब सवर्ण' मजदूरों ,अमनपसन्द निर्दोष आवाम से टकराने के बजाय, सामाजिक-जातीय -संघर्ष' के दल-दल में कूंदने के बजाय ,ठोस 'सर्वहारा क्रांति'की ओर अग्रसर होना चाहिए ! उन्हें शोषण-विहीन ,जाति -वर्ण विहीन और वर्गविहीन  समाज की स्थापना  के निमित्त एकजुट संघर्ष के लिए तैयार होना चाहिए  ! 

देश में  इन दिनों इधर-उधर दलित समाज के कुछ भाई-बहिनों पर हुए हमलों से ऐंसा माहौल बनाया जा रहा है कि मानों यह सवर्ण बनाम दलित संघर्ष हो !और ऐंसा जाहिर किये जाने से दलितवादी नेताओं और सवर्णवादी नेताओं के स्वार्थ किसी से छिपे नहीं हैं। निसन्देह उनके वोट में इजाफा होगा। लेकिन इस जातीय संघर्ष से देश के निर्धन लोगों का और शोषित समाज का  ही  नुकसान होगा। यदि दलित-शोषित और वंचित वर्गों को जातीयता की आग में धकेला जाता है और भारतीय समाज की अंतरंग विकृतियों का निराकरण नहीं किया गया तो भारत की एकता और अखण्डता पर भी आँच अवश्य आ सकती है।  वास्तविकता यह है कि  यह 'दलित बनाम सवर्ण ' संघर्ष नहीं  है। बल्कि यह  पूँजीवादी पतनोन्मुख समाज के 'बुर्जुवा वर्ग ' का सामन्ती फासीवादी चेहरा है ,जिसने  भारत के तमाम मजदूर वर्ग पर आजादी की बाद से ही हल्ला बोल रखा है। यह दलित बनाम सवर्ण संघर्ष भी नहीं है ,बल्कि सत्तारूढ़ पक्ष की शह पर ,नव धनाड्य वर्ग के द्वारा पालित-पोषित अतिवादी साम्प्रदायिक संगठनों का  यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर परोक्ष हमला है। सांस्कृतिक संरक्षण के बहाने ,गौ संरक्षण के बहाने ,एक -चालुकानुवर्तित्व के बहाने वे अपने ही देश की जड़ों में मठ्ठा डाल  रहे हैं।

भारत  दुनिया का एक मात्र महान देश है,जहाँ जो लोग गंदगी साफ़ करते हैं ,उन्हें गंदा माना जाता है,साथ नहीं बिठाया जाता। जो लोग गंदगी फैलाते हैं वे बहुत ऊँचे और बड़े बन बैठे हैं। और कुछ तो इनसे भी बहुत बड़े वाले हैं। जो रिश्वतखोरी,जमाखोरी ,कालाबाजारी , हत्या -व्यभिचार में लिप्त हैं ,धार्मिक उन्माद फैलाने में अव्वल हैं,वे  'वर्णव्यवस्था' से परे हैं ,कानून से भी ऊँचे हैं। विभिन्न सूत्रों की सूचनाएं हैं कि आवारा ढोरों से भरे ट्रक को कांजी हॉउस ले जाने या कसाई खाने ले जाने वाले ड्राइवर से 'संस्कृति रक्षक' संगठित  गिरोह बंदी लेते हैं जिसका एक हिस्सा पुलिस को भी जाता है। जो ट्रक वाला या ड्रायवर यह  'शुल्क नहीं दे पाता या जो अपनी 'पहुँच ' का प्रमाण नहीं दे पाता ,उसको 'गौहत्यारा' बीफभक्षक घोषित कर वहीँ 'लुढ़का 'दिया जाता है। ऐंसा नहीं है कि मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री यह नहीं जानते ,लेकिन  लोकतंत्र और देश के दुर्भाग्य से ये हत्यारे ही उनके पोलिंग बूथ एजेंट भी हुआ करते हैं।इसीलिये इस प्रकार के दमन-उत्पीड़न को रोक पाने में वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था असफल हो रही है। इसके लिए  कुछ हद तक दलित -शोषित समाज के लोग भी इस अपराध के भागीदार हैं। क्योंकि बेकारी की हालत में वे दवंग नेताओं और अपराधियों के हाथों 'कुल्हाड़ी का बेंट'बनकर अपने ही सजातीय बंधुओं की हत्या के गुनहगार होते हैं। सबको मालूम है कि यूपी बिहार में जातीय आतंक किसका है।   

एक ग्लास दूषित पानी पीने मात्र से वह 'बैक्टरिया'ग्रस्त हो जाता है,तो रात-दिन सफाई कार्य में जुटे लोग किस हाल में जीते होंगे ? दलितों-वंचितों के इलाज के लिए ,गंदगी फैलाने वालों ने कुछ  इंतजाम तो किया नहीं, अपितु  'गोरक्षा ' और 'बीफ निषेध ' के बहाने  'असंवैधानिक' संगठन खड़े कर दिए हैं। लगता है कि असामाजिक तत्वों को यह अधिकार दे दिया गया है कि वे किसी को भी ,कहीं भी मौत के घाट उतार सकते हैं ।

डिजिटल,एलेक्ट्रॉनिक ,प्रिंट ,श्रव्य और सोसल मीडिया की खबरों से ऐंसा लगता है कि मानों सारे 'सवर्ण ' वर्ग ने दलित समाज पर  हल्ला  बोल दिया हो । जबकि भारतीय समाज और राजनीति में ऐंसा कोई  उदाहरण नहीं जहाँ दलितों को जिम्मेदारी नहीं दी गयी हो। लोकसभा स्पीकर -मीराकुमार भूतपूर्व ग्रह मंत्री सुशील शिंदे से लेकर एनडीए के पासवान और माझी तक सभी यह जानते हैं कि  समस्या सवर्ण बनाम दलित की नहीं बल्कि समस्या निहित स्वार्थों और रोजगार के अवसरों की है। दलित वर्ग के पास आजीविका के जो परम्परागत साधन हैं यदि वह उन्हें छोड़ देगा तो उनके आजीविका के विकल्प क्या होंगे ? इधर आरक्षण के नाम पर जाट,पटेल और गूजर जैसे समाज भी सवर्ण समाज से दूर हो गए हैं। चूँकि धनवान बणिकों ,नेताओं और जाट-पटेल जैसे बड़े -किसानों ने पिछड़ापन माँग लिया है।  इसलिए अब बचा खुचा सवर्ण समाज खुद हासिये पर जा चुका है। अब तो भारत में कोई जाट है ,कोई पटेल है ,कोई पिछड़ा है और कोई अगड़ा है। कोई जैन है ,कोई मराठा है ,कोई सिंधी है,कोई -पँजाबी , कोई तमिल -तेलगु-मलयाली है ,कोई दलित,महादलित ,पिछड़ा,अतिपिछड़ा है और कोई आदिवासी -  अल्पसंख्यक है। ये सभी केवल अधिकारो की बात करते हैं। ऐसे लोग बहुत कम हैं जो देशके प्रति अपने कर्तव्य  की भी बात करते हैं ,जो अपने आपको विशुद्ध भारतीय  समझते हैं!


आजादी के ७० साल बाद भी विकास के तमाम दावों के वावजूद ,नयी-नयी उन्नत टेक्नालॉजी की भरमार के वावजूद ,नयी-नयी उदारवादी-वैश्विक आर्थिक नीतियाँ के वाजूद , यदि भारतीय समाज के दलित वर्ग की क्रूरतम विकृतियों का यह सनातन शूल अभी भी हरा-भरा है ,यदि उसका उच्छेद अभी तक नहीं किया जा सका है ,तो  सिद्ध  होता है  कि इलाज के सारे तरीके गलत रहे हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि न केवल यह पूँजीवादी व्यवस्था बल्कि मौजूद संविधान भी  'दलितोद्धार'में असफल रहा है। संसदीय लोकतंत्र भी असफल सिद्ध हुआ है ! आजाद भारत में मैला -कूड़ा फेंकने ,साफ़ सफाई करने या  मृत पशु उठाने के कार्य का आधुनिकीकरण - तकनीकिकरण  क्यों नहीं किया गया? जापान ,चीन. ,स्विट्जरलैंड में यह काम कौन करता है ? क्या वहाँ 'दलित समस्या है ?कार्य -विभाजन और उसका यक्तियुक्तकरण करने के बजाय भारत के सत्तासीन नेता, केवल वोटों की राजनीति करते रहे । कांग्रेस ,सपा,वसपा ,जदयू, तृणमूल और राजद केवल आरक्षण की वैशाखी बांटते रहते हैं । वर्तमान  सत्तारूढ़ भाजपा नेता अपने हाथों में झाड़ू उठाकर फोटो  खिंचवा रहे हैं,किन्तु 'मैला फेंकने या मृत पशु उठाने के घातक मर्ज के इलाज की कोई योजना या कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं कर पाए हैं।  दरसल इस विमर्श में न केवल राजनीति असफल रही है ,न केवल सरकारें असफल रहीं हैं,बल्कि दलितवादी नेता और सभी कवि और साहित्यकार भी असफल रहे हैं। "-: श्रीराम तिवारी:- !

मंगलवार, 2 अगस्त 2016

'भरोसे की भैंस पाड़ा नहीं जनती,,,,!

वर्तमान सत्तारूढ़ केंद्रीय नेतत्व के 'मिलनसार' व्यवहार से लगता है कि उन्होंने 'संघ' की शिक्षाओं को 'ताक पर रख दिया' है। आधुनिक मुहावरा कुछ यों होना चाहिए कि उन्होंने अपनी तयशुदा नीतियों को 'हेल्ड इन ऑवेन्स ' कर रखा है।  यदि मेरा यह आकलन यथार्थपरक और स्थायीभाव में है तो मोदी सरकार का यह 'परकाया 'प्रवेश देश और दुनिया के हित में ही होगा ! लेकिन सिर्फ मोहन भागवत जी , मोदी जी ,राजनाथ जी, जेटली जी ,बैंकैया जी, रविशँकरप्रसाद जी और सुरेश प्रभु जैसे अग्रिम पंक्ति के व्यक्तित्व ही सामाजिक एकीकरण के उदात्त भाव में दीखते हैं। अन्यथा योगी आदित्यनाथ,महेश शर्मा जी ,साक्षी महाराज ,जनरल सिंह ,सुब्रमण्यम स्वामी ,पर्रिकर जी और अन्य तमाम दोयम दर्जे के भाजपाई-संघी नेता वही पुराना 'गोडसे घराना'राग गाते -बजाते चले जा रहे हैं। एक बुन्देली लोक कहावत है ,जिसमें पलाश की जड़ के छिलके से रस्सी बनाता किसान ,अपने  नादान बेटे को डाँटते  हुए कहता है कि- 'मैं एक हाथ रस्सी जोड़ता हूँ ,तूँ दो हाथ उसे मिटा देता है !' भाजपा और 'संघ परिवार' की  वर्तमान अंतर्कथा का सार रूप यही है !

 पहले 'जनसंघ' और बाद में 'जनता पार्टी' और अब भाजपा के दौर में भी यह 'दोहरी सदस्यता का यह भाव इस दक्षिण पंथी खेमें में विद्यमान रहा है । किन्तु जबसे केंद्र मोदी जी ने सत्ता सम्भाली है ,इस 'परकाया प्रवेश में भारी बृद्धि हुई है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार  महाश्वेता देवी के निधन पर देश और दुनिया के प्रबुद्ध वर्ग ने उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किये, किसी ने शब्दांजलि ,किसी ने श्रद्धांजलि और  किसी भावांजलि व्यक्त की । भाजपा नेताओं में और उनकी सरकार के मंत्रियों में तो श्रद्धांजलि देने की होड़  सी मच गई।  इस होड़ की हड़बड़ी में बड़ी गड़बड़ी हो गई।  विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने ट्ववीट किया कि महाश्वेता देवी की दो साहित्यिक कृतियों -'प्रथम प्रतिश्रुति' और 'बकुल कथा 'से उन्हें बहुत प्रेरणा मिली है । उनके इस ट्वीट को लगभग चार सौ ट्वीटर  'विद्वानों' ने लाइक भी कर  दिया,लेकिन सुषमा जी को जब किसी शुभचिंतक ने सूचित किया कि ये दोनों रचनाएँ तो आशापूर्णा  देवी की हैं ,तो उन्होंने अपने शोक संदेस को टवीटर से हटा लिया।

दूसरा वाक्या भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह जी का है ,जो  काफी रोचक है। टवीटर पर महाश्वेता देवी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अमित शाह जी ने  'हजार  चौरासी की माँ ' और  'रुदाली' को  महाश्वेता देवी  की अत्यंत प्रभावशाली रचनाएँ बताया । अमित शाह जी को शायद मालूम ही नहीं कि 'हजार चौरासी की माँ'  से यदि वे प्रभावित हैं तो वे भाजपा अध्यक्ष कैसे बन गए ? उन्हें तो  नक्सलवादियों  या माओवादियों के साथ होना चाहिए था !क्योंकि 'हजार चौरासी की माँ ' उसी नक्सल आंदोलन की  प्रबल पक्षधर है।महाश्वेता देवी तो ताजिंदगी देश के आदिवासियों और सर्वहारा वर्ग के लिए समर्पित रहीं हैं। उनके लेखन में अमित शाह और मोदी जी के लिए बहुत कुछ  उपादेय और अनुशीलन योग्य है. किन्तु 'संघ' और भाजपा की दक्षिणपंथी साम्प्रदायिक विचारधारा -मजदूर विरोधी विचारधारा  के लिए महाश्वेता देवी के रचना संसार में में  केवल भर्त्सना ही मिलेगी। वे आजीवन मार्क्सवादी रहीं हैं। केवल सिंगुर मामले में उन्होंने पार्टी लाइन से हटकर ममता बेनर्जी को मौखिक समर्थन दिया था ,शायद इसी पथ विचलन से प्रभावित होकर भाजपा के 'कुछ'पढ़े -लिखे लोग अब महाश्वेता देवी के मरणोपरांत उन्हें 'संघप्रिय' बनाने में जुटे गए हैं।

 दरसल भाजपा और संघके बौध्दिकों में वैचारिक दरिद्रता और द्वंदात्मक  चिंतन की कंगाली है, वे गुलगुले तो  गप-गप खा जाते हैं ,किन्तु गुड़ खानेके परहेज  का पाखण्ड करते हैं। उन्हें जहाँ कहीं कोई नजमा हेपतुल्लाह या जगदम्बिका पाल जैसा विद्रोही कांग्रेसी दिखा ,जहाँ कहीं कोई सुरेश प्रभु जैसा विद्रोही शिवसैनिक दिखा ,जहाँ कहीं कोई पथभृष्ट जीतनराम मांझी दिखा ,कोई  'सुधारवादी वामपंथी' -समाजवादी  दिखा कि भाजपा वाले उसे अपने 'पाले'में घसीट लाने की जुगत में भिड़ जाते हैं। केरल विधान सभा चुनाव  में माकपा- एलडीएफ की जीत पर मोदी जी ने सीपीएम पार्टी को नहीं, पिनराई  विजयन को भी नहीं, बल्कि पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ माकपा नेता अच्युतानंदन को  फोन पर बधाई दी। मोदीजी को मालूम है कि बुजुर्ग कामरेड अच्युतानंदन जी लम्बे समय से संठनात्मक मुद्दों पर  पिनराई  विजयन और  माकपा पोलिट ब्यूरो से जुदा राय रखते आ रहे  हैं। और चूँकि भाजपा वाले  पक्के घर फोड़ू हैं। ये लोग किसी मेट्रिक फ़ैल को मंत्री बना देंगे ,किसी असफल गुमनाम कलाकार को एफटीटीआई का अध्यक्ष बना देंगे और किसी  दल-बदलू काले कौवे को 'भारत रत्न ' सौंप देंगे । किन्तु ज्योति वसु, माणिक सरकार ,हरिकिशन सुरजीत या ईएमएस नंबूदिरीपाद का सम्मानपूर्वक नाम भी नहीं लेंगे। क्योंकि 'संघ' वाले अपने अलावा किसी  और विचारधारा में शुद्धता और 'अनुशासन' पसन्द  ही नहीं करते !

हिंदुत्ववादी वीरों ने  'असहिष्णुता'और अभिव्यक्ति  के मुद्दे पर नामवरसिंह द्वारा अलग -थलग स्टेण्ड लेने पर  उनकी  भूरि -भूरि प्रशंसा की है। नामवरसिंह के जन्म दिन पर मोदी जी ने बधाई सन्देश भेजा और देश के गृह मंत्री राजनाथसिंह जी ने खुद उपस्थित होकर शिद्दत से नामवरसिंह का जन्म दिन मनाया ! लोगों के मन में  प्रश्न उठ रहे हैं  कि  क्या यह 'भाजपा'का हृदय परिवर्तन है ? क्या ऐंसा करके भाजपाई नेता  इस मार्क्सवादी वामपंथी -नामवरसिंह केउस लिखे हुए को  मिटा सकते हैं जो 'संघ' और साम्प्रदायिकता के खिलाफ जाता है ? नामवरसिंह ने अब ऐंसा  कहाँ-क्या लिख दिया जो हिटलर, गोडसे या गोलवलकर के 'चिंतन'से मेल खाने लगा है ? नामवर के बहाने भाजपा नेताओं ने यदि 'सबका साथ -सबका विकास 'के मन्त्र पर अमल किया है ,तब तो ठीक है। किन्तु उन्हें यह याद रखना होगा  कि 'भरोसे की भैंस पाड़ा नहीं जनती '। और 'नटवन खेती -बहुअंन घर नहीं चलते '! 'पाहुनों से साँप नहीं मरवाते '। अनेक प्रमाण हैं जहाँ 'संघ' और भाजपा नेताओं ने पथभृष्ट दलबदलू कांग्रेसी और दिग्भृमित वामपंथी ,उजबक समाजवादी तथा  महत्वाकांक्षी  शिवसैनिक को अपना 'कर्ण 'बनाया है ! मोदी जी खुद दुर्योधन की तरह इन सभी को 'अंगराज'कर्ण बनाते जा रहे हैं। उधर उनके 'वैचारिक सहोदर' दलित-महिला -उत्पीड़न में दुशासन की भूमिका अदा किये जा रहे हैं ! 

श्रीराम तिवारी