जम्हूरियत, कश्मीरियत ,इंसानियत जैसे शब्दों का प्रयोग वामपंथी-प्रगतिशील कतारों में बहुतायत से पाया जाता है। नामवरसिंह जैसे उदभट -प्रख्यात -प्रगतिशील साहित्यकारों के सृजन में तो इन शब्दों ने आतंक मचा रखा है। लेकिन जब इन्ही शब्दों का प्रयोग प्रधानमंत्री मोदी ने चंद्रशेखर आजाद की जन्म स्थली भावरा [मध्यप्रदेश] में ९ अगस्त-२०१६ को किया तो मुझे घोर आश्चर्य हुआ ।आश्चर्य यों हुआ कि 'संघ' शिवरों में ,सरस्वती शिशु मंदिरों में या संघ शाखाओं में इन शब्दों का प्रयोग शायद ही कोई कभी करता हो ! वहाँ तो 'नमस्ते भक्त वत्सले,जय हिन्द , भारत माता की जय ,वंदे मातरम इत्यादि 'देशभक्तिपूर्ण' पवित्र नारों की अनुगूंज ही ध्वनित हुआ करती है !वहाँ 'एकचालुकानुवर्तित्व' का पथ संचलन भी सिखाया जाता है, किन्तु जम्हूरियत याने लोकतंत्र की कभी कोई चर्चा नहीं होती। कश्मीरियत शब्द का तो 'संघ' की डिक्शनरी में नामोनिशान ही नहीं है ,इंसानियत याने मानवता तो वेचारी वहाँ -थर-थर कांपती है। यह सुखद आश्चर्य है कि मोदी जी की जुबाँ पर अब वे शब्द आ गए जो महीने भर पहले या दो साल पहले उनके श्री मुख से उच्चरित होना चाहिए थे। यदि भाजपा अपने घोषणा पत्र में इन तीन शब्दों -जम्हूरियत,इंसानियत और कश्मीरियत को पहले ही शामिल कर लेती और धारा ३७० या एक समान क़ानून की रट नहीं लगाती ,हर कश्मीरीमुसलमान को शक की नजर से नहीं देखती तो आज कश्मीर समस्या इतनी बिकराल नहीं होती।
''केला तबहिं ने चेतिया ,जब ढिग जामी बेर।
अब चेतें क्या होयगा ,काँटन्ह लीनी घेर।।''
''कुछ तो लोग कहेंगे ,लोगों का काम है कहना '' दुनिया का चलन है ,दस्तूर है कि जब कोई बड़ा नेता या पीएम ज्वलन्त समस्याओं या संकटापन्न प्रश्नों पर मौन धारण कर लेता है तो उसका मजाक उड़ाया जाना स्वभाविक है। उसे 'मौनी बाबा' कहा जाने लगता है। और जब कोई नेता या पीएम अपनी जुबान खोलता है तो लोग उस पर भी व्यंगबाण मारने से नहीं चूकते !'अरे ये तो बोलू है, कोरी बातों का ही बयानवीर है' बगैरह -बगैरह। राजनीति को काजल की कोठरी सिर्फ भृष्टाचार के संदर्भ में ही नहीं कहा गया, बल्कि अच्छे-बुरे बोल-बचन के कारण ,नेताओं और मंत्रियों को जिस दुधारी तलवार पर चलना पड़ता है ,वह किसी नेता या आम व्यक्ति को साबुत बचने ही नहीं देता। खास तौर से मौजूदा पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था तो दोजख के दरिया से कहीं कमतर नहीं है।
'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ,असहिष्णुता, जेएनयू छात्र संघर्ष , हैदराबाद दलित छात्र -रोहित वेमुला का आत्मघात , हरियाणा,मध्यप्रदेश और गुजरातके गौबध बनाम दलित पिटाई काण्ड पर सुब्रमण्यम स्वामी ,साक्षी महाराज जी , गिरिराजसिंह ,तमाम दक्षिणपंथी मीडिया ,तमाम सत्ता -पिछलग्गू सोशल मीडिया और तमाम बाबा बांबियाँ अपने श्रीमुखसे कांग्रेस ,अल्पसंख्यक और वामपंथी साहित्यकारों पर इकतरफा विषवमन करते रहते हैं। सम्पूर्ण विपक्ष और सभ्य लोग उम्मीद करते रहते हैं कि पीएम मोदीजी अब मुँह खोलेंगे -अब कुछ बोलेंगे ! गुजरात में मृत पशु उठाने वाले -दलितों पर जुल्मतों की इंतहा हो गयी तब लगा कि शायद अब बोलेंगे। जब मध्यप्रदेश -मंदसौर में दलित महिलाओं को सरे आम पीटा गया ,तब लगा कि अब कुछ बोलेंगे ,धैर्यवान आवाम को उम्मीद रही कि एक दिन जरूर बोलेंगे। और सार्थक सशक्त हस्तक्षेप भी करेंगे। कुछ अमनपसन्द भोले लोग उम्मीद करते रहे कि मोदीजी कुछ ऐंसा बोलेंगे जो न्यायसंगत और देशहितकारी होगा ! लेकिन जब उपरोक्त तमाम समस्याओं और घटनाओं पर मोदीजी चुप रहे तो लोग कहने लगे कि 'ये क्या बोलेंगे ?इन्ही के इशारे पर तो सब हो रहा है !'
अब जबकि मोदी जी ने बड़ी मुश्किल से अपना 'मुँह खोला' है ,अपने ही समर्थकों को 'गौरक्षा गौरखधंधे पर तगड़ी हिदायत दी है, तो उनके 'बोल बचन' पर ही तमाम बातें हो रहीं हैं। 'संघ' वाले आपस में भिड़ रहे हैं। विपक्ष वाले भी कह रहे हैं कि 'अब बोले तो क्या बोले ? इतनी देर बाद बोलने का क्या फायदा ?अब तो बहुत देर हो गयी है !' संसद में या राज्यसभा में क्यों नहीं बोले ? कश्मीर संकट पर जब आग लगनी शुरू हुई थी तब क्यों नहीं बोले ?पक्षवाले हों, विपक्षवाले हों, विद्वान् आलोचक हों ,सबकेसब एक साथ मोदीजी पर पिल पड़े हैं.चारों ओर मोदी जी की असफलताओं को देखकर तमाम पक्ष-विपक्ष के मोदी विरोधी नेता अंदर-अंदर खुश हो रहे हैं।अधिकांस लोग मोदीजी को इस दुखद स्थिति के लिए जिम्मेदार भी मान रहे हैं। क्योंकि अंततोगत्वा लोकतान्त्रिक जबाब देही तो प्रधानमंत्रीकी ही है। किंचित मोदीजीको इस संकटसे उबारनेके लिए ही नामवरसिंहका परकाया प्रवेश हुआ है। नामवरसिंह का सुविधापरस्त संशोधनवादी वामदर्शन शायद मोदी जी को भा गया है। इसीलिये तो मोदी जी और राजनाथसिंह जी ने पहली बार नामवरसिंह का तहेदिल से 'जन्म दिन' मनाया है ।
यह नामवर प्रभाव ही है कि गौरक्षकों के वेशमें निर्दोषों पर अत्याचार करने वाले दवंगों और अपराधी तत्वों का मोदीजी ने संज्ञान लिया है। और जबसे मोदी जी ने अपना मौन भंग किया है, तबसे 'भगवा कुनवे' में मानों आगही लग गयीहै। एक तरफ तो खुद मोदीजी के मार्ग दर्शक 'संघ परिवार'में दो फाड़ मची है। दूसरी तरफ मोदी जी के उनके अपने ही 'भगवा दल' वाले भी चेलेंज करने लगे हैं ,धमकाने लगे हैं।बीएचपी, हिन्दू महा सभा का ऐलान है कि उनके सहयोग के बिना 'आइंदा अगले चुनावमें जीतकर बतायें मोदीजी !'' इसी तरह मोदी विरोधी सम्पूर्ण विपक्ष और मीडिया वाले शिकायत कर रहे हैं कि 'जब साँप निकल जाता है तब मोदीजी लाठी पीटने लगते हैं !' याने मोदीजी बोले तो हैं किन्तु 'का वर्षा जब कृषि सुखाने ?' कुछ स्वनामधन्य बुध्दिजीवी और प्रगतिशील लोग भी 'संघ'और मोदी जी के सनातन विरोध की रौ में आकर सत्ताधारी नेतत्व को और उसकी नीति-नियत को निशाना बना रहे हैं। वे मोदी सरकारकी असफलताओं पर इस तरह गरज रहे हैं,मानों आगामी लोकसभा चुनाव में जनता इन्हें सत्ता में बिठा ही देगी। या कोई सर्वहारा क्रांति अब होने ही वाली है ! जब प्रातःस्मरणीय प्रगतिशील और बुजुर्ग वामपंथी पिता तुल्य महान साहित्यकार नामवरसिंह ने मोदीजी को अभयदान दे रखा है तो अबखग-मृग -वृन्द और चिड़ियों की चूँ -चूँ का कोई मतलब नहीं है !याने एनडीए और मोदी जी के खिलाफ लिखने का अब कोई मतलब नहीं । जब नामवरसिंह मोदीजी के खिलाफ नहीं लिखते तब 'मा -बदौलत' की क्या विसात ?
वेशक मोदी जी और उनकी सरकार सब जगह असफल हो चुकी ही है ,किन्तु मोदीजी की या एनडीए सरकार की असफलता से वामपंथ को कोई फायदा नहीं होने वाला। क्योंकि वामपंथी तो हमेशा से वंचित वर्ग की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं। दलितों,महिलाओं,मजदूरों,अल्पसंख्यकों के लिए कुर्बानी देते आ रह हैं। किन्तु वास्तविकता यह है कि जब भी चुनाव आते हैं तो देशकी हिंदी भाषी जनता ,जातिवादी -माया, मुलायम,लालू- नीतीश जैसे नेताओं की ओर लपकने लग जाती है। और देश की अहिंदी भाषी जनता ममता ,जयललिता नवीन ,बादल महबूबा जैसे क्षेत्रीय नेताओं की गोद में जा बैठती है ! वामपंथी -जनवादी संगठन शिद्दत से छात्रों-किसानों, महिलाओं - दलितों सहित सम्पूर्ण सर्वहारा के लिए संघर्ष करता रहा है ,किन्तु यही वामपंथ जब हिंदी भाषी क्षेत्रों में चुनाव लड़ता है तो खुद ही वोटों का 'सर्वहारा' नजर आता है। यह सर्वविदित है कि हर प्रकार के जन संघर्षों में वामपंथ की भूमिका हमेशा शानदार रही है। लेकिन नामवरसिंह जैसे वामपंथी बुद्धिजीवी जब यह समझ रहे हैं कि वे मोदी जी को समाजवाद का पाठ पढ़ा देंगे तो मेरे जैसे अल्पज्ञ की क्या हैसियत कि चूँ -चा कर सकूँ !
वर्तमान शासकों के प्रति नामवरसिंह का सौम्य व्यवहार दर्शाता है कि वे मोदीजी को पूरा -पूरा समय याने पांच साल तक आलोचना से मुक्त रखना चाहते हैं। वे मोदीजी को नाहक परेशांन करने के पक्षमें नहीं हैं। पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में हिंसक उपद्रव मचाना , भारतीय प्रधानमंत्री और गृहमंत्त्री को अपमानित करना, सलाउद्दीन , हाफिज सईद, जैश ए मुहम्मद और अलकायदा जैसे दुष्ट राक्षसों -द्वारा भारत की धरती पर निरन्तर रक्त बहाना, भारतीय प्रधानमंत्री को धमकाना ,गालियां देना ,राजनाथसिंह को प्रोटोकाल के बहाने अपमानित करना ,क्या यह सब वामपंथी आलोचना से परे है ? क्या यह निंदनीय नहीं है ? यदि हाँ तो एकजुट होकर पाकिस्तान की आतंक-समर्थक नीति-नियत पर एकजुट हल्ला क्यों नहीं बोलते ? क्या तमाम विपक्ष और आलोचक केवल भारत सरकार को ही कसूरबार ठहराते रहेंगे ?
कश्मीर में छिपे पाकिस्तान परस्त - भारत-विरोधी तत्व यदि पुलिस और आर्मी पर पत्थर बरसाते रहेंगे तो इससे भारत का हित कैसे सधेगा ? कश्मीर समस्या -का हल कैसे होगा ? शायद ऐंसे प्रश्न सिर्फ नामवरसिंह के मन में ही नहीं बल्कि अन्य प्रगतिशील विद्वानों के मन में भी उठते होंगे ! पाकिस्तान तथा उसके पालतू आतंकियों को किसी कारण से यदि 'मोदी जी 'का चेहरा पसन्द नहीं है,तो इसमें मोदीजी का क्या कसूर है ? जो बुरहान बानी - आतंकी , पूरे कश्मीरको ,पूरे भारतको ,पूरे दक्षिण एसिया को ही श्मशान बनाने में जुटा हुआ था ,उसे पाकिस्तान में यदि 'नेशनल हीरो ' बनाये जानेका अभियान चल रहा है तो उसका मकसद बहुत साफ़ है। इस सबके वाबजूद यदि मोदीजी जम्हूरियत,कश्मीरियत और इंसानियत की बात कर रहे हैं ,और उधर पाकिस्तानी जनरल -आतंकी भारत पर एटम बम फेंकने को उतावले हो रहे हैं ,तो इकतरफा आलोचना करने वाले तत्व किसी भी सदाशयता के हकदार कैसे हो सकते हैं ? शायद इसीलिये नामवरसिंह जी ने जेएनयू काण्ड ,वेमुला कांड ,गुजरात में दलित हत्याकाण्ड और मंदसौर में दलित स्त्री दमन काण्ड पर अपनी आँखे फेर रखीं होंगी ! तभी तो उन्होंने इन विमर्शों पर एक भी शब्द नहीं लिखा !
दरसल तस्वीर भी कुछ ऐंसी ही है कि भारत-पाक विमर्श मेंअसफलता के लिए केवल मोदीजी, राजनाथसिंह जी या भारत सरकार ही अकेले कसूरबार नहीं है। बल्कि पाकिस्तान की सेना,पाकिस्तान के दहशतगर्द ,कश्मीर की जटिल राजनैतिक स्थिति और वहाँ मौजूद इस्लामिक कट्टरपंथी सबसे अधिक कसूरबार हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अतीत में 'संघ परिवार' ने और खुद मोदीजी ने कश्मीर समस्या पर आसमान से तारे तोड़ लाने के दावे किये हैं । हिंदुत्ववादी लोगों द्वारा बार-बार कहा जाता रहा है कि 'हम जब सत्ता में आएंगे तो कश्मीर समस्या खत्म कर देंगे और यदि पाकिस्तान ने गड़बड़की तो उसे अंदर घुसकर मारेंगे !' लेकिन विगत दो साल में मोदी सरकार ने कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया। केवल घोषणाएं और ,'मन की बातों' हो रहीं हैं। लेकिन चन्द्रशेखर आजाद की जन्म भूमि भावरा [झाबुआ] की आमसभा में मोदी जी ने जम्हूरियत,कश्मीरियत और इंसानियत का उल्लेख कर, गौरक्षा के गोरखधंधे को स्वीकार कर,असमाजिक तत्वों पर मौखिक हमलाकर उन्होंने जो नया स्टेण्ड लिया वह विशुद्ध 'नामवर इफ़ेक्ट ' याने नामवरसिंह का प्रभाव प्रतीत होता है।
हालाँकि कश्मीर के विषय में मोदी जी ने ९ अगस्त को भावरा में जो कुछ भी कहा ,वह ७० सालसे बाकी लोगों याने पहले वाली केंद्र सरकारों ने भी बार-बार कहा है। लेकिन जनता ने मोदी जी और 'संघ' के दावों पर विश्वाश करके उनकी एनडीए सरकार को पाँच साल के लिए चुना है। अब यदि मोदी सरकार किसी भी मोर्चे पर कुछ नहीं कर पा रही है ,कश्मीर में असफल हो रही है ,तो विपक्ष के लिए यह रामबाण ओषधि भी हो सकती है। कि वे सीना तानकर आगामी चुनावों [२०१९] में जनता के बीच जाएँ ,और जनता को बताएं कि उनकी ही नीतियाँ सही थीं और मोदी सरकार की नीतियाँ गलत सावित हुईं हैं । लेकिन क्या विपक्ष में कोई एका है ? यदि आगामी चुनाव में मोदी सरकार सत्ता में नहीं भी आ सके , तो क्या बाकई जनता को कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन फिर से सत्ता में वापिस चाहिए ? यदि नहीं,तो क्या क्षेत्रीय दलों का तीसरा मोर्चा सत्ता सम्भालने लायक है ? यदि नहीं , तो क्या वाम -जनवादी ताकतों को इतना जन समर्थन मिलने वाला है कि वह जनकल्याणकारी- क्रांतिकारी नीतियों को इस देश में लागू कर सकें ? यदि नहीं ! तो जैसे नरसिम्हाराव ,वैसे मनमोहनसिंह ,और वैसे ही नरेन्द्र मोदी ! इन सभी की आर्थिक नीतियों में कुछ खास फर्क नहीं है ? यदि यूपीए - एनडीए की नीतियों में कोई फर्क नहीं है तो फिर जनता के समक्ष विकल्प क्या हैं ? जिन्हें 'आप' के केजरीवाल का निर्जीव अराजक रूप ,ममता बनर्जी का संहारक रूप, लालू-मुलायम- नीतीश और माया का जातीय- वितंड़ाबादी रूप देखकर घिन आती है,वे लोग शायद यही सोचेंगे कि 'तमाम बुरे नेताओं में -कम बुरे मोदी ही ठीक ठाक हैं।'
चाहे कोई अमन पसन्द- ईमानदार और कर्मठ इंसान हो ,चाहे गाय बैल भैंस घोडा और बकरी जैसा कोई पालतू जानवर हो या इनके जैसा कोई अन्य अहिंसक प्राणी हो ,उसके पक्ष में खड़ा होना ही असल इंसानियत है। इन मूक प्राणियों की हिंसा के विरुद्ध खड़े होने का तात्यपर्य है प्रकृति के पक्ष में खड़ा होना, प्रकृति के पक्ष में खड़े होने का मतलब है, मानवता के पक्ष में खड़ा होना। और मानवता के पक्ष में खड़े होने का मतलब है खुद के पक्ष में खड़े होना। भारतीय प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने अभी-अभी बदमास धंधेबाज नकली 'गौरक्षकों'पर जमकर धावा वोला है, और उन्होंने दलितजनों की हत्या पर भी अपना मुँह खोला है इसलिये उम्मीद की जानी चाहिए कि बहरहाल इस मुद्दे पर वे मानवता के पक्ष में खड़े हैं। वेशक इसी सिद्धांत पर चलने में ही मोदी जी का और उनकी सरकार का कल्याण है। काश मोदीजीका यह बयान अखलाख की मौतके तुरन्त बाद आजाता तो सिद्ध हो जाता कि 'बीफकांड' में भी मोदीजी 'मानवहत्या' के विरुद्ध खड़े हैं। खैर देर आयद -दुरुस्त आयद !भूल -चूक सभी से हो जाया करती है। काश नामवरसिंह जी का आशीर्वाद पहले ही मिल जाता !
यह काबिलेगौर है कि पीएम मोदीजी इन दिनों कुछ-कुछ प्रगतिशील,वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष भाषा बोल रहे हैं। जो लोग अपने आंख-कान बंद किये हुए हैं, वे मोदीजी के इस 'कल्याणकारी' और सुखद 'कायाकल्प' को देखने-सुनने में असमर्थ हैं। मोदीजी के इस नव -क्रांतिकारी- बाचाल रूप को देखकर लगता है कि उन्होंने शायद 'संघ' की दक्षिणपंथी और दकियानूसी शिक्षाओं को ठन्डे बस्ते में डाल दिया है !हालाँकि ऐंसा ही कुछ-कुछ हिटलर के साथ भी हुआ था। जर्मनी का चांसलर बनने के दूसरे -तीसरे साल में ही जब जर्मनी में महँगाई-बेकारी बढ़ती चली गयी और जर्मन - जनता का हिटलर से मोह भंग होने लगा, तो हिटलर ने अपनी आम सभाओं की स्पीच्स में 'सोसल डेमोक्रेट्स' - 'समाजवादी' रेडिकल शब्दावली का प्रयोग धड़ल्ले से शुरूं किया था। जर्मन जनाक्रोश को हिटलर ने पहले 'जर्मन राष्ट्रवाद' में और बाद में उसे द्वतीय विश्व युद्ध में बदल डाला था । चूँकि मोदी जी के नेतत्व में वर्तमान एनडीए शासन वाले भारतके हालात भी कुछ-कुछ द्वतीय विश्वयुद्ध वाले जर्मनी से मेल खा रहे हैं ,और इसलिए नियति का ऊंट किस करवट बैठेगा ,अभी कुछ कहा नहीं जा सकता !नामवरसिंह गलत भी सावित हो सकते हैं।
इस साल बड़े आदरभाव से प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री राजनाथसिंह ने विगत २४ जुलाई-२०१६ को प्रख्यात लेखक नामवरसिंह का जन्म दिन मनाया। इन दोनों नेताओं ने नामवरसिंह का जन्म दिन क्या मनाया,इनकी चाल- ढाल और बोल -बचन में भी नामवर नुमा क्रांतिकारिता झलकने लगी। राजनाथ में नामवर वाला वीरोचित उत्साह - आत्मविश्वाश और मोदीजी में 'प्रगतिशीलता' -मानवीयता झलकने लगी । राजनाथसिंहने जिस दर्प व निर्भीकता से पाकिस्तान की कुटिल करतूतों का सामना किया और प्रधान मंत्री जी ने जिस ढंग से स्वय्मभू 'गौरक्षकों' और दलित- हत्याओं पर 'राजकोप' प्रकट किया उससे हिंदुत्ववादी संगठनों के तिजारतदारों में खलबली मच गयी । शायद यह प्रधानमंत्री जी पर 'नामवर का प्रभाव'[Naamvar Effect] है ! और तदनुसार वामपंथी विचारधारा का क्षणिक असर भी है ,शायद यही वजह है कि मोदीजी अपनी 'बंधु-बांधवो' को ललकारने का भी दुस्साहस कर रहे हैं। ''रात में गौरक्षा के नाम पर गलत काम करते हो ,दिन में भगवा कपडे पहिनकर हिन्दुत्वाद का झंडा उठा लेते हो -ये गोरक्षधन्धा नहीं चलेगा '' ! ये शब्द मोदी जी के हैं, या नामवरसिंह के ?मोदी जी ने गौ हत्या के नाम पर हो रही दलित हत्याओं का भी जमकर विरोध किया है। दरसल नामवरसिंह जैसे वामपंथी तो यह सिद्धान्त हमेशा से ही लेकर चले हैं कि निर्धन मेहनतकश जनता ,अल्पसंख्यक,दलित का उत्पीड़न बन्द हो,असंवैधानिक संगठनों द्वारा गौरक्षा के बहाने निर्दोष लोगों को मारना-पीटना बंद हो !वैसे भी इस सन्दर्भ में वामपंथ के संघर्षों का बहुत ही शानदार इतिहास रहा है।ये बात जुदा है कि जब कभी कोई चुनाव होता है तो नामवरसिंह जैसा कोई लेखक -साहित्यकार या बुद्धिजीवी अपनी जमानत भी नहीं बचा पाता। और हिंदी भाषी क्षेत्रों में तो वामपंथ को सम्मान- जनक जन प्रतिनिधित्व भी नहीं मिल पाता । -:श्रीराम तिवारी :-
''केला तबहिं ने चेतिया ,जब ढिग जामी बेर।
अब चेतें क्या होयगा ,काँटन्ह लीनी घेर।।''
''कुछ तो लोग कहेंगे ,लोगों का काम है कहना '' दुनिया का चलन है ,दस्तूर है कि जब कोई बड़ा नेता या पीएम ज्वलन्त समस्याओं या संकटापन्न प्रश्नों पर मौन धारण कर लेता है तो उसका मजाक उड़ाया जाना स्वभाविक है। उसे 'मौनी बाबा' कहा जाने लगता है। और जब कोई नेता या पीएम अपनी जुबान खोलता है तो लोग उस पर भी व्यंगबाण मारने से नहीं चूकते !'अरे ये तो बोलू है, कोरी बातों का ही बयानवीर है' बगैरह -बगैरह। राजनीति को काजल की कोठरी सिर्फ भृष्टाचार के संदर्भ में ही नहीं कहा गया, बल्कि अच्छे-बुरे बोल-बचन के कारण ,नेताओं और मंत्रियों को जिस दुधारी तलवार पर चलना पड़ता है ,वह किसी नेता या आम व्यक्ति को साबुत बचने ही नहीं देता। खास तौर से मौजूदा पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था तो दोजख के दरिया से कहीं कमतर नहीं है।
'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ,असहिष्णुता, जेएनयू छात्र संघर्ष , हैदराबाद दलित छात्र -रोहित वेमुला का आत्मघात , हरियाणा,मध्यप्रदेश और गुजरातके गौबध बनाम दलित पिटाई काण्ड पर सुब्रमण्यम स्वामी ,साक्षी महाराज जी , गिरिराजसिंह ,तमाम दक्षिणपंथी मीडिया ,तमाम सत्ता -पिछलग्गू सोशल मीडिया और तमाम बाबा बांबियाँ अपने श्रीमुखसे कांग्रेस ,अल्पसंख्यक और वामपंथी साहित्यकारों पर इकतरफा विषवमन करते रहते हैं। सम्पूर्ण विपक्ष और सभ्य लोग उम्मीद करते रहते हैं कि पीएम मोदीजी अब मुँह खोलेंगे -अब कुछ बोलेंगे ! गुजरात में मृत पशु उठाने वाले -दलितों पर जुल्मतों की इंतहा हो गयी तब लगा कि शायद अब बोलेंगे। जब मध्यप्रदेश -मंदसौर में दलित महिलाओं को सरे आम पीटा गया ,तब लगा कि अब कुछ बोलेंगे ,धैर्यवान आवाम को उम्मीद रही कि एक दिन जरूर बोलेंगे। और सार्थक सशक्त हस्तक्षेप भी करेंगे। कुछ अमनपसन्द भोले लोग उम्मीद करते रहे कि मोदीजी कुछ ऐंसा बोलेंगे जो न्यायसंगत और देशहितकारी होगा ! लेकिन जब उपरोक्त तमाम समस्याओं और घटनाओं पर मोदीजी चुप रहे तो लोग कहने लगे कि 'ये क्या बोलेंगे ?इन्ही के इशारे पर तो सब हो रहा है !'
अब जबकि मोदी जी ने बड़ी मुश्किल से अपना 'मुँह खोला' है ,अपने ही समर्थकों को 'गौरक्षा गौरखधंधे पर तगड़ी हिदायत दी है, तो उनके 'बोल बचन' पर ही तमाम बातें हो रहीं हैं। 'संघ' वाले आपस में भिड़ रहे हैं। विपक्ष वाले भी कह रहे हैं कि 'अब बोले तो क्या बोले ? इतनी देर बाद बोलने का क्या फायदा ?अब तो बहुत देर हो गयी है !' संसद में या राज्यसभा में क्यों नहीं बोले ? कश्मीर संकट पर जब आग लगनी शुरू हुई थी तब क्यों नहीं बोले ?पक्षवाले हों, विपक्षवाले हों, विद्वान् आलोचक हों ,सबकेसब एक साथ मोदीजी पर पिल पड़े हैं.चारों ओर मोदी जी की असफलताओं को देखकर तमाम पक्ष-विपक्ष के मोदी विरोधी नेता अंदर-अंदर खुश हो रहे हैं।अधिकांस लोग मोदीजी को इस दुखद स्थिति के लिए जिम्मेदार भी मान रहे हैं। क्योंकि अंततोगत्वा लोकतान्त्रिक जबाब देही तो प्रधानमंत्रीकी ही है। किंचित मोदीजीको इस संकटसे उबारनेके लिए ही नामवरसिंहका परकाया प्रवेश हुआ है। नामवरसिंह का सुविधापरस्त संशोधनवादी वामदर्शन शायद मोदी जी को भा गया है। इसीलिये तो मोदी जी और राजनाथसिंह जी ने पहली बार नामवरसिंह का तहेदिल से 'जन्म दिन' मनाया है ।
यह नामवर प्रभाव ही है कि गौरक्षकों के वेशमें निर्दोषों पर अत्याचार करने वाले दवंगों और अपराधी तत्वों का मोदीजी ने संज्ञान लिया है। और जबसे मोदी जी ने अपना मौन भंग किया है, तबसे 'भगवा कुनवे' में मानों आगही लग गयीहै। एक तरफ तो खुद मोदीजी के मार्ग दर्शक 'संघ परिवार'में दो फाड़ मची है। दूसरी तरफ मोदी जी के उनके अपने ही 'भगवा दल' वाले भी चेलेंज करने लगे हैं ,धमकाने लगे हैं।बीएचपी, हिन्दू महा सभा का ऐलान है कि उनके सहयोग के बिना 'आइंदा अगले चुनावमें जीतकर बतायें मोदीजी !'' इसी तरह मोदी विरोधी सम्पूर्ण विपक्ष और मीडिया वाले शिकायत कर रहे हैं कि 'जब साँप निकल जाता है तब मोदीजी लाठी पीटने लगते हैं !' याने मोदीजी बोले तो हैं किन्तु 'का वर्षा जब कृषि सुखाने ?' कुछ स्वनामधन्य बुध्दिजीवी और प्रगतिशील लोग भी 'संघ'और मोदी जी के सनातन विरोध की रौ में आकर सत्ताधारी नेतत्व को और उसकी नीति-नियत को निशाना बना रहे हैं। वे मोदी सरकारकी असफलताओं पर इस तरह गरज रहे हैं,मानों आगामी लोकसभा चुनाव में जनता इन्हें सत्ता में बिठा ही देगी। या कोई सर्वहारा क्रांति अब होने ही वाली है ! जब प्रातःस्मरणीय प्रगतिशील और बुजुर्ग वामपंथी पिता तुल्य महान साहित्यकार नामवरसिंह ने मोदीजी को अभयदान दे रखा है तो अबखग-मृग -वृन्द और चिड़ियों की चूँ -चूँ का कोई मतलब नहीं है !याने एनडीए और मोदी जी के खिलाफ लिखने का अब कोई मतलब नहीं । जब नामवरसिंह मोदीजी के खिलाफ नहीं लिखते तब 'मा -बदौलत' की क्या विसात ?
वेशक मोदी जी और उनकी सरकार सब जगह असफल हो चुकी ही है ,किन्तु मोदीजी की या एनडीए सरकार की असफलता से वामपंथ को कोई फायदा नहीं होने वाला। क्योंकि वामपंथी तो हमेशा से वंचित वर्ग की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं। दलितों,महिलाओं,मजदूरों,अल्पसंख्यकों के लिए कुर्बानी देते आ रह हैं। किन्तु वास्तविकता यह है कि जब भी चुनाव आते हैं तो देशकी हिंदी भाषी जनता ,जातिवादी -माया, मुलायम,लालू- नीतीश जैसे नेताओं की ओर लपकने लग जाती है। और देश की अहिंदी भाषी जनता ममता ,जयललिता नवीन ,बादल महबूबा जैसे क्षेत्रीय नेताओं की गोद में जा बैठती है ! वामपंथी -जनवादी संगठन शिद्दत से छात्रों-किसानों, महिलाओं - दलितों सहित सम्पूर्ण सर्वहारा के लिए संघर्ष करता रहा है ,किन्तु यही वामपंथ जब हिंदी भाषी क्षेत्रों में चुनाव लड़ता है तो खुद ही वोटों का 'सर्वहारा' नजर आता है। यह सर्वविदित है कि हर प्रकार के जन संघर्षों में वामपंथ की भूमिका हमेशा शानदार रही है। लेकिन नामवरसिंह जैसे वामपंथी बुद्धिजीवी जब यह समझ रहे हैं कि वे मोदी जी को समाजवाद का पाठ पढ़ा देंगे तो मेरे जैसे अल्पज्ञ की क्या हैसियत कि चूँ -चा कर सकूँ !
वर्तमान शासकों के प्रति नामवरसिंह का सौम्य व्यवहार दर्शाता है कि वे मोदीजी को पूरा -पूरा समय याने पांच साल तक आलोचना से मुक्त रखना चाहते हैं। वे मोदीजी को नाहक परेशांन करने के पक्षमें नहीं हैं। पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में हिंसक उपद्रव मचाना , भारतीय प्रधानमंत्री और गृहमंत्त्री को अपमानित करना, सलाउद्दीन , हाफिज सईद, जैश ए मुहम्मद और अलकायदा जैसे दुष्ट राक्षसों -द्वारा भारत की धरती पर निरन्तर रक्त बहाना, भारतीय प्रधानमंत्री को धमकाना ,गालियां देना ,राजनाथसिंह को प्रोटोकाल के बहाने अपमानित करना ,क्या यह सब वामपंथी आलोचना से परे है ? क्या यह निंदनीय नहीं है ? यदि हाँ तो एकजुट होकर पाकिस्तान की आतंक-समर्थक नीति-नियत पर एकजुट हल्ला क्यों नहीं बोलते ? क्या तमाम विपक्ष और आलोचक केवल भारत सरकार को ही कसूरबार ठहराते रहेंगे ?
कश्मीर में छिपे पाकिस्तान परस्त - भारत-विरोधी तत्व यदि पुलिस और आर्मी पर पत्थर बरसाते रहेंगे तो इससे भारत का हित कैसे सधेगा ? कश्मीर समस्या -का हल कैसे होगा ? शायद ऐंसे प्रश्न सिर्फ नामवरसिंह के मन में ही नहीं बल्कि अन्य प्रगतिशील विद्वानों के मन में भी उठते होंगे ! पाकिस्तान तथा उसके पालतू आतंकियों को किसी कारण से यदि 'मोदी जी 'का चेहरा पसन्द नहीं है,तो इसमें मोदीजी का क्या कसूर है ? जो बुरहान बानी - आतंकी , पूरे कश्मीरको ,पूरे भारतको ,पूरे दक्षिण एसिया को ही श्मशान बनाने में जुटा हुआ था ,उसे पाकिस्तान में यदि 'नेशनल हीरो ' बनाये जानेका अभियान चल रहा है तो उसका मकसद बहुत साफ़ है। इस सबके वाबजूद यदि मोदीजी जम्हूरियत,कश्मीरियत और इंसानियत की बात कर रहे हैं ,और उधर पाकिस्तानी जनरल -आतंकी भारत पर एटम बम फेंकने को उतावले हो रहे हैं ,तो इकतरफा आलोचना करने वाले तत्व किसी भी सदाशयता के हकदार कैसे हो सकते हैं ? शायद इसीलिये नामवरसिंह जी ने जेएनयू काण्ड ,वेमुला कांड ,गुजरात में दलित हत्याकाण्ड और मंदसौर में दलित स्त्री दमन काण्ड पर अपनी आँखे फेर रखीं होंगी ! तभी तो उन्होंने इन विमर्शों पर एक भी शब्द नहीं लिखा !
दरसल तस्वीर भी कुछ ऐंसी ही है कि भारत-पाक विमर्श मेंअसफलता के लिए केवल मोदीजी, राजनाथसिंह जी या भारत सरकार ही अकेले कसूरबार नहीं है। बल्कि पाकिस्तान की सेना,पाकिस्तान के दहशतगर्द ,कश्मीर की जटिल राजनैतिक स्थिति और वहाँ मौजूद इस्लामिक कट्टरपंथी सबसे अधिक कसूरबार हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अतीत में 'संघ परिवार' ने और खुद मोदीजी ने कश्मीर समस्या पर आसमान से तारे तोड़ लाने के दावे किये हैं । हिंदुत्ववादी लोगों द्वारा बार-बार कहा जाता रहा है कि 'हम जब सत्ता में आएंगे तो कश्मीर समस्या खत्म कर देंगे और यदि पाकिस्तान ने गड़बड़की तो उसे अंदर घुसकर मारेंगे !' लेकिन विगत दो साल में मोदी सरकार ने कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया। केवल घोषणाएं और ,'मन की बातों' हो रहीं हैं। लेकिन चन्द्रशेखर आजाद की जन्म भूमि भावरा [झाबुआ] की आमसभा में मोदी जी ने जम्हूरियत,कश्मीरियत और इंसानियत का उल्लेख कर, गौरक्षा के गोरखधंधे को स्वीकार कर,असमाजिक तत्वों पर मौखिक हमलाकर उन्होंने जो नया स्टेण्ड लिया वह विशुद्ध 'नामवर इफ़ेक्ट ' याने नामवरसिंह का प्रभाव प्रतीत होता है।
हालाँकि कश्मीर के विषय में मोदी जी ने ९ अगस्त को भावरा में जो कुछ भी कहा ,वह ७० सालसे बाकी लोगों याने पहले वाली केंद्र सरकारों ने भी बार-बार कहा है। लेकिन जनता ने मोदी जी और 'संघ' के दावों पर विश्वाश करके उनकी एनडीए सरकार को पाँच साल के लिए चुना है। अब यदि मोदी सरकार किसी भी मोर्चे पर कुछ नहीं कर पा रही है ,कश्मीर में असफल हो रही है ,तो विपक्ष के लिए यह रामबाण ओषधि भी हो सकती है। कि वे सीना तानकर आगामी चुनावों [२०१९] में जनता के बीच जाएँ ,और जनता को बताएं कि उनकी ही नीतियाँ सही थीं और मोदी सरकार की नीतियाँ गलत सावित हुईं हैं । लेकिन क्या विपक्ष में कोई एका है ? यदि आगामी चुनाव में मोदी सरकार सत्ता में नहीं भी आ सके , तो क्या बाकई जनता को कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन फिर से सत्ता में वापिस चाहिए ? यदि नहीं,तो क्या क्षेत्रीय दलों का तीसरा मोर्चा सत्ता सम्भालने लायक है ? यदि नहीं , तो क्या वाम -जनवादी ताकतों को इतना जन समर्थन मिलने वाला है कि वह जनकल्याणकारी- क्रांतिकारी नीतियों को इस देश में लागू कर सकें ? यदि नहीं ! तो जैसे नरसिम्हाराव ,वैसे मनमोहनसिंह ,और वैसे ही नरेन्द्र मोदी ! इन सभी की आर्थिक नीतियों में कुछ खास फर्क नहीं है ? यदि यूपीए - एनडीए की नीतियों में कोई फर्क नहीं है तो फिर जनता के समक्ष विकल्प क्या हैं ? जिन्हें 'आप' के केजरीवाल का निर्जीव अराजक रूप ,ममता बनर्जी का संहारक रूप, लालू-मुलायम- नीतीश और माया का जातीय- वितंड़ाबादी रूप देखकर घिन आती है,वे लोग शायद यही सोचेंगे कि 'तमाम बुरे नेताओं में -कम बुरे मोदी ही ठीक ठाक हैं।'
चाहे कोई अमन पसन्द- ईमानदार और कर्मठ इंसान हो ,चाहे गाय बैल भैंस घोडा और बकरी जैसा कोई पालतू जानवर हो या इनके जैसा कोई अन्य अहिंसक प्राणी हो ,उसके पक्ष में खड़ा होना ही असल इंसानियत है। इन मूक प्राणियों की हिंसा के विरुद्ध खड़े होने का तात्यपर्य है प्रकृति के पक्ष में खड़ा होना, प्रकृति के पक्ष में खड़े होने का मतलब है, मानवता के पक्ष में खड़ा होना। और मानवता के पक्ष में खड़े होने का मतलब है खुद के पक्ष में खड़े होना। भारतीय प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने अभी-अभी बदमास धंधेबाज नकली 'गौरक्षकों'पर जमकर धावा वोला है, और उन्होंने दलितजनों की हत्या पर भी अपना मुँह खोला है इसलिये उम्मीद की जानी चाहिए कि बहरहाल इस मुद्दे पर वे मानवता के पक्ष में खड़े हैं। वेशक इसी सिद्धांत पर चलने में ही मोदी जी का और उनकी सरकार का कल्याण है। काश मोदीजीका यह बयान अखलाख की मौतके तुरन्त बाद आजाता तो सिद्ध हो जाता कि 'बीफकांड' में भी मोदीजी 'मानवहत्या' के विरुद्ध खड़े हैं। खैर देर आयद -दुरुस्त आयद !भूल -चूक सभी से हो जाया करती है। काश नामवरसिंह जी का आशीर्वाद पहले ही मिल जाता !
यह काबिलेगौर है कि पीएम मोदीजी इन दिनों कुछ-कुछ प्रगतिशील,वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष भाषा बोल रहे हैं। जो लोग अपने आंख-कान बंद किये हुए हैं, वे मोदीजी के इस 'कल्याणकारी' और सुखद 'कायाकल्प' को देखने-सुनने में असमर्थ हैं। मोदीजी के इस नव -क्रांतिकारी- बाचाल रूप को देखकर लगता है कि उन्होंने शायद 'संघ' की दक्षिणपंथी और दकियानूसी शिक्षाओं को ठन्डे बस्ते में डाल दिया है !हालाँकि ऐंसा ही कुछ-कुछ हिटलर के साथ भी हुआ था। जर्मनी का चांसलर बनने के दूसरे -तीसरे साल में ही जब जर्मनी में महँगाई-बेकारी बढ़ती चली गयी और जर्मन - जनता का हिटलर से मोह भंग होने लगा, तो हिटलर ने अपनी आम सभाओं की स्पीच्स में 'सोसल डेमोक्रेट्स' - 'समाजवादी' रेडिकल शब्दावली का प्रयोग धड़ल्ले से शुरूं किया था। जर्मन जनाक्रोश को हिटलर ने पहले 'जर्मन राष्ट्रवाद' में और बाद में उसे द्वतीय विश्व युद्ध में बदल डाला था । चूँकि मोदी जी के नेतत्व में वर्तमान एनडीए शासन वाले भारतके हालात भी कुछ-कुछ द्वतीय विश्वयुद्ध वाले जर्मनी से मेल खा रहे हैं ,और इसलिए नियति का ऊंट किस करवट बैठेगा ,अभी कुछ कहा नहीं जा सकता !नामवरसिंह गलत भी सावित हो सकते हैं।
इस साल बड़े आदरभाव से प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री राजनाथसिंह ने विगत २४ जुलाई-२०१६ को प्रख्यात लेखक नामवरसिंह का जन्म दिन मनाया। इन दोनों नेताओं ने नामवरसिंह का जन्म दिन क्या मनाया,इनकी चाल- ढाल और बोल -बचन में भी नामवर नुमा क्रांतिकारिता झलकने लगी। राजनाथ में नामवर वाला वीरोचित उत्साह - आत्मविश्वाश और मोदीजी में 'प्रगतिशीलता' -मानवीयता झलकने लगी । राजनाथसिंहने जिस दर्प व निर्भीकता से पाकिस्तान की कुटिल करतूतों का सामना किया और प्रधान मंत्री जी ने जिस ढंग से स्वय्मभू 'गौरक्षकों' और दलित- हत्याओं पर 'राजकोप' प्रकट किया उससे हिंदुत्ववादी संगठनों के तिजारतदारों में खलबली मच गयी । शायद यह प्रधानमंत्री जी पर 'नामवर का प्रभाव'[Naamvar Effect] है ! और तदनुसार वामपंथी विचारधारा का क्षणिक असर भी है ,शायद यही वजह है कि मोदीजी अपनी 'बंधु-बांधवो' को ललकारने का भी दुस्साहस कर रहे हैं। ''रात में गौरक्षा के नाम पर गलत काम करते हो ,दिन में भगवा कपडे पहिनकर हिन्दुत्वाद का झंडा उठा लेते हो -ये गोरक्षधन्धा नहीं चलेगा '' ! ये शब्द मोदी जी के हैं, या नामवरसिंह के ?मोदी जी ने गौ हत्या के नाम पर हो रही दलित हत्याओं का भी जमकर विरोध किया है। दरसल नामवरसिंह जैसे वामपंथी तो यह सिद्धान्त हमेशा से ही लेकर चले हैं कि निर्धन मेहनतकश जनता ,अल्पसंख्यक,दलित का उत्पीड़न बन्द हो,असंवैधानिक संगठनों द्वारा गौरक्षा के बहाने निर्दोष लोगों को मारना-पीटना बंद हो !वैसे भी इस सन्दर्भ में वामपंथ के संघर्षों का बहुत ही शानदार इतिहास रहा है।ये बात जुदा है कि जब कभी कोई चुनाव होता है तो नामवरसिंह जैसा कोई लेखक -साहित्यकार या बुद्धिजीवी अपनी जमानत भी नहीं बचा पाता। और हिंदी भाषी क्षेत्रों में तो वामपंथ को सम्मान- जनक जन प्रतिनिधित्व भी नहीं मिल पाता । -:श्रीराम तिवारी :-
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